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प्रारंभिक शब्द

गीता के साथ मेरा संबंध प्राय: चालीस साल से है, जब मैं दस-ग्यारह वर्ष का बच्चा था। उपनयन और यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही मेरे दिल में अन्यान्य धार्मिक आचारों के साथ गीता को भी जाने कैसे स्थान मिल गया! आज इस मधुर स्मृति के फलस्वरूप आश्चर्य होता है कि सचमुच यह बात क्यों हो पाई जो आज तक कायम ही नहीं है, किंतु उसने सूद भी काफी कमाया है। इन चालीस से ज्यादा वर्षों ने गीता के साथ मेरी जो तन्मयता और अभिन्नता कायम कर दी है वह मेरे जीवन की एक खास चीज है। धार्मिक और राजनीतिक मामलों में मैं इस दरम्यान कहाँ से कहाँ जा पहुँचा! इनके संबंध में मेरे भीतर ऐसी क्रांति हो गई कि आज अपने को बिलकुल ही निराली दुनिया में पाता हूँ! फिर भी गीता और गीताधर्म अपनी जगह पर ज्यों-के-त्यों हैं - अविचल हैं, अटल हैं। बल्कि वह तो और भी बद्धमूल हो गए हैं!

बेशक, गीता के साथ मेरा पहला संबंध केवल धार्मिक था - धार्मिक उसी मानी में जिसमें इस शब्द का आमतौर से व्यवहार किया जाता है और अब भी तो वह संबंध धार्मिक ही है। फर्क इतना ही है कि पहले का 'केवल' हट गया है। या यों कहिए कि धर्म का रूप बहुत व्यापक बन गया है। इसे व्यापक तो और लोग भी कहते और मानते हैं। मगर मेरे संबंध में इसकी व्यापकता कुछ निराली है और गीता-हृदय की पंक्तियाँ इसे साफ बताती हैं। सारांश यह कि गीता के सार्वभौम धर्म ने मेरे धर्म को भी अपना लिया है और उसे भी सार्वभौम बना डाला है। यही तो मेरे वेदांत का असली अद्वैतवाद है। एक समय था, जब मैं गीता में संकुचित मुक्ति का मार्ग देखता था, निष्क्रिय वेदांतवाद और अध्‍यात्मवाद की झाँकी पाता था। परंतु आज ये सभी चीजें व्यापक और सार्वभौम हो गई हैं, पूर्ण सक्रिय हो गई हैं। एक वक्त था - और वह आज से प्राय: छ: साल पहले तक था - जब मैं मानता था कि मेरे जैसे गीता-प्रेमी के लिए मार्क्‍सवाद में स्थान नहीं है और यह कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ मेल नहीं है - विरोध है! मगर आज? आज तो वह खयाल सपने की चीज हो गई है और मैं न सिर्फ यही मानता हूँ कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ विरोध नहीं है; किंतु मेरे जानते गीताधर्म मार्क्सवाद का पोषक है। मेरे खयाल से गीता के 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' और 'सर्वभूतहितेरता:' सिवाय सच्चे मार्क्सवादियों के और कौन हो सकते हैं? वही तो समस्त मानव समाज का पुनर्निर्माण इस तरह करना चाहते हैं कि एक भी आदमी दु:खी, पराधीन, समुन्नति के सभी साधनों से वंचित न रहने पाए।

निस्संदेह प्रारंभ में गीता का अर्थ मैंने जो समझा था और बहुत दिन बाद तक भी, वह अब ठीक उसी प्रकार बदल गया जैसे उस समय के जीवन संबंधी दूसरे विचार आमूल परिवर्तित हो गए। यह है भी स्वाभाविक। जीवन के चालीस साल गुजरने पर ही विचारों में स्थायित्व और परिपाक होता है। फलत: जब मैं पीछे देखता हूँ तो उस दकियानूस दुनिया को देख के चकित हो जाता हूँ और खुश भी होता हूँ कि उससे पिंड भले छूट गया। इधर गीता की हालत यह रही है कि इसका जितना ही मंथन करता हूँ इससे उतने ही महान अर्थ निकलते हैं। ऐसा मालूम होता है कि अभी-अभी इसे समझ सका हूँ और समझने लायक हो सका हूँ। इसीलिए, आज से पचीस साल पूर्व जो मैंने यही गीता-हृदय लिखने का श्रीगणेश किया था और उसका कुछ अंश लिख के भी मैं उसे पूरा न कर सका था और इसीलिए कभी-कभी अफसोस भी करता था, इन बातों को देखते हुए, आज उलटे खुशी हो रही है। क्योंकि उस समय कुछ लिख के तो आज पछताना ही होता। अब जो कुछ लिखा है और लिख रहा हूँ यही ठीक है और पहले यह हर्गिज लिखा न जाता।

हमारी हालत यह है कि हम गीता की टीकाओं और उसके भाष्यों के बीच में बैठ के ही गीता का अर्थ समझना चाहते हैं। यही कारण है कि उसे ठीक समझ पाते नहीं। बच्चे को बराबर सवारी पर ही चलाइए तो वह खामख्वाह पंगु होगा। उसके पाँवों में शक्ति न आ पाएगी। यही हालत टीका के सहारे ग्रंथों के पढ़ने वालों की हो जाती है। उनकी बुद्धि में शक्ति और स्वावलंबन नहीं आने पाता और वह पंगु हो जाती है। मेरी भी पहले यही हालत थी। मगर 1922 में फैजाबाद जेल में पहले-पहल केवल एक नन्ही-सी गीता की गुटका मिली। विवश हो के उसका स्वतंत्र विचार करने पर मुझे जो मजा मिला और जो नया अर्थ सूझा उसे कह नहीं सकता। खूबी तो यह है कि अधिकांश वही अर्थ मूलत: आज कायम भी है। इसीलिए उस गुटका से मुझे खास मुहब्बत हो गई है। उसे बराबर साथ ही रखता हूँ। उसने भी मेरे साथ बार-बार जेलयात्रा की है। उसी से मैंने जो कुछ गीतार्थ सीखा है वही लिपिबद्ध कर रहा हूँ।

गीता मुझसे अभिन्न हो गई है और मैं उससे अभिन्न बन गया हूँ। अन्य विचारों तथा ग्रंथों की जुदाई बरदाश्त कर सकता हूँ मगर उसकी नहीं। आत्मा की जुदाई भला बरदाश्त हो? उसके संबंध के विचार बीसियों साल से हृदय में पले हैं। ये सचमुच ही हृदय के खून से सींचे गए हैं। लेकिन फिर भी इन्हें जुदा करने में जानें क्यों अपार खुशी हो रही है। शायद इसीलिए कि जुदा होने पर ये और भी स्थाई हो रहे हैं। शायद यही करने से इन्हें पुष्पित, फलित होने का मौका मिलेगा।

गीता-हृदय के तीन भाग करने का विचार है - पूर्व, मध्‍य और उत्तर। इन्हीं का नाम मैंने क्रमश: अंतरंग, गीता और बहिरंग भाग भी रखा है। पूर्व या अंतरंग भाग में सिर्फ उन्हीं विचारों का संकलन है जिनसे गीताधर्म और गीतार्थ समझने में पूरी मदद मिलेगी। ये उसके लिए रास्ता साफ करते हैं। इसीलिए इन्हें अंतरंग कहा है। मध्‍य या गीता-भाग में गीता के श्लोकों के सीधे अर्थ लिखे गए हैं - वही अर्थ जो शब्दों से सीधे निकलते हैं। मगर आवश्यकतानुसार छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। इनके पढ़ने से ही पता चलेगा कि ये कितनी जरूरी हैं उस अर्थज्ञान के लिए। उत्तर भाग या बहिरंग भाग में शास्‍त्रीय विचार के आधार पर गीतार्थ का अन्य दार्शनिक विचारों और खयालों के साथ तुलनात्मक विवेचन होगा।

जिस परिस्थिति में यहाँ पहले दो भाग लिखे जा रहे हैं उसमें तृतीय भाग के लिए पूरी सामग्री न होने के कारण ही वह लिखा न जा सका है। देखें कब पूरा होता है। संभव है, न भी हो, कौन कहे?

स्वामी सहजानंद सरस्वती

(राजबंदी)

सेण्ट्रलजेल, हजारीबाग

गुरुवार (1-1-42)