शक्ति का सच्चा स्वरूप और उसका विकास
जिस पदार्थ, धर्म, गुण या विशेषता के संबंध से या होने से संसार के कोई भी पदार्थ वांछनीय या माननीय हो अथवा उनके रहने की आवश्यकता मानी जाए - महसूस हो - उसे ही शक्ति कहते हैं। इसी के नाम योग्यता, सामर्थ्य, पॉवर (power), एनर्जी (Energy) आदि भी हो सकते हैं। जो पदार्थ शक्ति या योग्यता से शून्य है, जिसमें कोई विशेषता या चमत्कार नहीं, उसके रहने की जरूरत ही क्या? सृष्टि की रचना करनेवाला, फिर वह चाहे कोई या कुछ भी क्यों न हो, व्यर्थ के पदार्थों की रचना कर नहीं सकता। जरूरत के ही पदार्थों की सृष्टि से जब उसे अवकाश नहीं तो फिर भारभूत बेकार चीजों को क्यों बनाने लगा? इसीलिए तो देखा जाता है कि ज्यों ही कोई वस्तु अशक्त या बेकार हुई कि रहने ही नहीं पाती। संसार में जो जीवन-स्पर्धा या जीवन-होड़ (Struggle for existence) चल रही है उसका भी यही रहस्य है और 'जीवो जीवस्य जीवनम्' ऐसा जो पुराने लोग कह गए हैं, उसका भी यही अभिप्राय है। प्रकृति या सृष्टि-कर्त्ता को यह कभी भी इष्ट नहीं कि दूषित, गलित या अशक्त पदार्थ जमा होकर उसकी कृति को चौपट करे। इसीलिए वह सतत इस प्रयत्न में है कि ऐसा पदार्थ जल्दी-से-जल्दी खत्म हो जाए, उसका रूपांतर-उपयोगी रूप बन जाए। देखते ही हैं कि ज्यों ही कोई मरा कि सड़-गलकर खाद बना, पशु-पक्षियों का खाद्य बनकर उनका जीवनदाता हुआ और इस प्रकार उसकी व्यर्थता गई और वह रूपांतर से उपयोगी हो गया। यही कारण है कि जन्म लेते ही या उत्पन्न होते ही स्वभावत: प्रत्येक पदार्थ बिना किसी के कहे या दबाव दिए ही शक्ति-संपादन में प्रवृत्त हो जाता है। अंकुर निकलने के साथ ही बढ़ने और पत्र, पुष्प, फलादि संपादन की तैयारी में लग जाता है; बच्चा उत्पन्न होते ही हिलने-डोलने और खाने-पीने या रोने की ओर झुक जाता है। बच्चे का रोना यह सिद्ध करता है कि वह अपनी अशक्ति को दूर करना चाहता है। क्योंकि रोना तो अशक्ति का ही चिह्न है। इसीलिए यदि रोने से रोनेवाले की अशक्ति दूर न हो सकी तो वह खत्मत भी हो जाता है और मालूम होता है कि उसमें अब शक्ति-संपादन माद्दा रह ही नहीं गया जिससे संपादन-सामग्री को जुटाने और आकृष्ट करने में वह समर्थ हो जाता। कुम्हार ने ज्यों ही बरतन गढ़कर तैयार किया कि वह सूखने को गोया जोर मारने लगा, जिसका तात्पर्य यही है कि वह कुम्हार को शीघ्रातिशीघ्र उसे पकाने के लिए विवश करने पर कटिबद्ध है जिससे जलादि लाने के काम में आ सके। सारांश, शक्ति-संपादन की प्रक्रिया और प्रवृत्ति ईश्वरदत्त है, प्राकृतिक है, नैसर्गिक है, स्वाभाविक है और अकृत्रिम है जिससे प्रत्येक पदार्थ स्वयमेव उस ओर खिंच जाते हैं। अन्यथा वे रह ही नहीं सकते। यह भी नहीं कि वह शक्ति कहीं बाहर से लाई जाती है। शक्ति तो ऐसी वस्तु नहीं कि बाहर से आवे। वह तो स्वाभाविकी है, ठीक उसी तरह जिस प्रकार उसके संपादन की प्रवृत्ति स्वाभाविकी है। वह तो हर पदार्थ में जन्म से ही अनुद्भूत रूप में रहा करती है जो अगोचर होती है और संपादन-प्रवृत्ति उसे गोचर या उद्भूत कर देती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि शक्ति का माद्दा हर वस्तु में स्वयं सिद्ध है और जिसमें वह माद्दा न रहे वह पदार्थ मृत या विनष्ट होता है। फलत: शक्ति-संपादन और कुछ नहीं है सिवा अंतर्निहित प्रसुप्त शक्ति के उद्बोधन के, जिसे विकास कहते हैं। यही कारण है कि श्वेताश्वतरोपनिषद् के षष्ठाध्याय में उसे स्वाभाविकी कहा है -
परास्य शक्तिर्विवि धै व श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च॥ (9/8)
यद्यपि कहा जा सकता है कि उपनिषद् के उक्त वाक्य में केवल परमात्मा की शक्ति स्वाभाविकी कही गई है, तथापि उसका अभिप्राय शक्ति मात्र की स्वाभाविकता के प्रतिपादन में ही है। इसीलिए उसी उपनिषद् के आरंभ में ही -
देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्॥ (1/3)
- देव और आत्मा (ईश्वर और आत्मा) दोनों की ही शक्ति के पता लगने का वर्णन है और आत्मा-शब्द तो 'स्व' को या अपने आपको कहता है। फलत: हर एक पदार्थ को ही 'स्व' शब्द से ले सकते हैं - सभी अपने आप हैं - कौन नहीं है? अतएव शक्ति की स्वाभाविकता में विवाद व्यर्थ है। रह गई उसके वास्तविक स्वरूप और प्रकार की बात। बहुतों की यह धारणा है कि शक्तियाँ अनेक हैं, असंख्य हैं। दृष्टांत के लिए उत्पादनशक्ति और संहार शक्ति को ले सकते हैं। दोनों एक हो नहीं सकतीं। उसी प्रकार पाशविक तथा आध्या्त्मिक आदि शक्तियों की बात है। ये परस्परविरोधिनी होने के कारण अलग-अलग हैं। लेकिन हमारा विचार है कि शक्ति तो केवल एक ही है, जैसा कि उक्त उपनिषद्-वाक्य से स्पष्ट है। हाँ, उत्पादक, संहारक, पाशविक, आध्यादत्मिक आदि उसी के विभिन्न आकार - Different phases of aspects हैं। शक्ति की उत्पादकता या संहारकता हमारी मनोवृत्ति पर ही अवलंबित है। हम चाहें तो उसी से संहार कर दें या किसी को पैदा करें। एक ही विद्युत्शक्ति से पदार्थ बनाए भी जाते हैं और उनका नाश भी किया जाता है। रेल या ट्राम में लगी बिजली से रोशनी होती और गाड़ी दौड़ती है, जिससे लोगों को पढ़ने-देखने और आने-जाने में आराम होता है। लेकिन दुर्घटना होने से उसी के द्वारा गाड़ी दग्ध हो जाती, वायुयान जल जाता और लोग मर जाते हैं। नीतिकारों ने जो यह कहा है कि -
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधोर्विपरीतमेत- ज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
- उससे स्पष्ट ही एक ही विद्यादि वस्तु के दो विपरीत प्रयोजन मनुष्य की मनोवृत्ति के अनुसार बताए गए हैं और विशेष रूप से एक ही शक्ति के तो रक्षण और परपीड़न रूप दो विरोधी काम स्पष्ट ही कहे गए हैं तथा इस बात की विशद व्याख्या कर दी गई है कि साधु एवं असाधु रूप आश्रय के भेद से एक ही शक्ति का कैसा विलक्षण रूप हो जाता है। इसीलिए उक्त श्वेताश्वतर के वचन में शक्ति को 'विविध' कहा है, जिसका अर्थ है 'अनेक प्रकार की' न कि 'अनेक'। क्योंकि प्रकार तो कहते ही हैं एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों को। हमारे धर्मशास्त्रकारों ने जो अर्थशास्त्र या राजनीति को धर्मशास्त्र या धर्मनीति से दुर्बल और धर्मनीति को प्रबल या प्रधान कहा है, जैसा कि याज्ञवल्क्य का -
- उसका भी यही अभिप्राय है कि बलवान और शक्तिशाली होने पर लोग अंधे होकर शक्ति का दुरुपयोग कर सकते हैं, जिससे उत्पीड़न बढ़ जाएगा। इसीलिए राजकीय या पाशविक शक्ति और भौतिक बल के संपादन के समय उसमें आध्या त्मिकता का (dose) देना उन्होंने आवश्यक बताया है, जिससे आजकल के पाश्चात्य या पौर्वत्य देशों की शक्ति-सचंय की अंध प्रतिस्पर्धा में अखिल संसार संहार के मार्ग की ओर जिस प्रकार अग्रसर हो रहा है, सो भी द्रुतगति से, ऐसा होने न पावे। उन्होंने अपने अनुभव और दूरदर्शिता से ऐसे अनर्थ की संभावना की कल्पना पहले ही कर ली थी। क्योंकि आध्याअत्मिकता (Spiritualism) की लगाम के बिना निरंकुश भौतिकता (Materialism) अंधी होती है और उसका चरम परिणाम संहार के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता।
अब प्रश्न हो सकता है कि यदि वांछनीयता या माननीयता ही शक्ति की परिभाषा हो, जिससे किसी पदार्थ की सत्ता की आवश्यकता ही उनकी शक्ति का परिचायक हो तो आसुरी शक्ति वाले पदार्थों की या लोगों की आवश्यकता कभी भी न होने से उन्हें एक क्षण के लिए भी यहाँ रहना न चाहिए। लेकिन हुआ है ठीक इसके विपरीत। आसुरी साम्राज्य तो सदा ही रहता है - पहले भी था, आज भी है। यह मानकर भी कि आसुरी शक्ति का काम केवल संहार करना ही है, लोग उसी ओर बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। संसार में बिरले ही माई के लाल अध्यारत्मोवाद या धर्म की पिपासावाले मिलते हैं। यदि प्रकृति या सृष्टिकर्त्ता को ऐसा पसंद नहीं है कि अनावश्यक प्रत्युत अनर्थकारी पदार्थों की सत्ता रहे तो फिर आसुरी शक्ति का संहार क्यों नहीं स्वयमेव हो जाता? निस्संदेह यह शंका होती है और होनी ही चाहिए। लेकिन जरा गंभीरतापूर्वक विचार करने से इसका रहस्य विदित हो जाएगा। आखिर जो यह कहा और देखा जाता है कि अधिक शक्तिशाली के सामने न्यून शक्तिवाले असमर्थ, अशक्त हैं उसका क्या अर्थ है? क्या न्यून शक्तिवाले शक्ति शून्य हो जाते हैं? उनमें शक्ति तो रहती ही है। हाँ, उसकी मात्रा कम भले ही हो। एक बात और। गुण-दोष और भले-बुरे का लक्षण क्या है? यही न कि मात्रा का आधिक्य? यदि 'अतिरूपेण वै सीता, अतिदानाद्वलिर्बद्ध:, अति सर्वत्र वर्जयेत्' का कुछ भी अर्थ है तो यही कि कोई चीज कितनी ही सुंदर या भली क्यों न हो, ज्यों ही मात्रा से ज्यादा हुई कि बुरी हुई। नमक या मीठा किसी चीज का स्वाद बनाने के लिए दिया जाता है, खटाई और मिर्च का प्रयोग भी इसीलिए करते हैं। परंतु जब इन चीजों की मात्रा ज्यादा हो जाती है तो उसी पदार्थ को स्वाद या अमृत कहने की जगह 'जहर हो गया', 'खराब हो गया', 'मुँह में न पड़ा', ऐसा कहने लगते हैं। भोजन जीवन-शक्ति का दाता और पोषक माना जाता है। लेकिन जब वही मात्रा में अधिक हो जाता है तो बीमारियों का कारण और नाशक हो जाता है। आभूषण शोभावर्धक माना जाता है। लेकिन जब बेहिसाब लाद दिया गया तो वही पदार्थ बुरा या भद्दा कहा जाता है। रोशनी देखने-पढ़ने के लिए उपकारी पदार्थ है लेकिन जब बहुत ज्यादा हो जाती है तो चकाचौंध पैदा करके उन्हीं कामों में बाधक और कभी-कभी दृष्टि-विनाशक सिद्ध होती है, हालाँकि वह दृष्टि की उपकारिका मानी जाती है। अतएव यह मानना ही पड़ेगा कि मात्रा या परिमाण में आधिक्य, या यों कहिए कि किसी वस्तु की नियमित मर्यादा का भंग ही, उसे सद्गुण की जगह दुर्गुण या भलाई की जगह बुराई में बदल देता है। इस प्रकार जब एक नियमित मर्यादा का उल्लंघन कर गई तो वह शक्ति शक्ति रह ही नहीं गई - उसे शक्ति कहना अनुचित होगा, संसार के नियम और व्यवहार का अपलाप होगा। यह भी तो देखा जाता है कि कोई काम बुरा या भला इसीलिए नहीं होता कि उसका स्वरूप ही ऐसा होता है। संसार में ऐसी बात या ऐसा काम कोई नहीं जिसके साथ बुराई-भलाई दोनों का ही साक्षात संबंध न हो। अवतार, पैगंबर, औलिया, नेता या सुधारक का जीना निहायत जरूरी है। तभी वह कोई अच्छा काम कर सकता है। लेकिन जीवन के लिए साँस लेने से लेकर भोजनादि जितनी क्रियाएँ हैं उनमें क्या अनंत सूक्ष्म जीवों का जो वायु, जल आदि में व्याप्त हैं, संहार नहीं हो जाता? पलक मारते ही करोड़ों ऐसे जीव या कीटाणु मर जाते हैं -
पक्ष्मणोऽपि विपातेन येषां स्यात्पर्वसंक्षय:।
- ऐसा प्राचीनों ने कहा है। तो क्या इतने से ही सभी का जीवन बुरा ही माना जाए? क्या अवतारों और पैगंबरों का होना बड़े-से-बड़े अहिंसावादियों का जन्म-बुरा समझा जाए? इसी प्रकार चोरी बुरा कर्म है। लेकिन चोरों और लुटेरों का होना क्या लोगों को सावधनी और सतर्कता की शिक्षा नहीं देता? तात्पर्य यह कि संसार के सभी पदार्थ गुणदोषमय हैं -
जड़ चेतन गुन-दोषमय , बिस्व कीन्ह करतार।
फिर भी जिसके द्वारा लाभ या भलाई की अपेक्षा बुराई और हानि ज्यादा है वह बुरा है और जिससे लाभ या भलाई अधिक है वह अच्छा है। सोलहों आना अच्छा या बुरा तो कोई भी नहीं है। इस तरह देखने से आसुरी शक्ति को शक्ति की कोटि में ला नहीं सकते। क्योंकि वह तो संहारकारक है और यह संहार सृष्टि के नियमों के विपरीत है। यों तो सृष्टि के साथ भी नाश होता ही है, फिर भी सामूहिक या व्यापक संहार प्रलय के नियमांतर्गत है न कि सृष्टि के, और आसुरी शक्ति यही करती है। फलत: सृष्टि-नियम के विपरीत होने से आसुरी शक्ति को शक्ति कहना नितांत अनुचित है। इसीलिए वैसी शक्तिवालों का संहार परस्पर संघर्ष या दैवी शक्ति से हो जाया करता है और यही अवतारों का रहस्य है।
इतने विवेचन से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक तो यह कि जिस चीज के रहने से तत्संबंधी पदार्थों की वांछनीयता हो और मर्यादा का उल्लंघन न करके जो चीज या धर्म सृष्टि के नियमों के अनुकूल हो वही शक्ति है - वास्तविक और सच्ची शक्ति है। दूसरे यह कि वह शक्ति एक ही है यद्यपि उसके प्रकार या आकार (Aspects) अनेक हैं। पानी एक ही होता है, लेकिन नीम, आम, ऊख, मिर्च, इमली या नीबू की जड़ में देने से कड़वे, मीठे, तीते, खट्टे आदि उसके कई आकार-प्रकार हो जाते हैं, मूलत: उसमें भेद नहीं होता। ठीक उसी प्रकार शक्ति भी आश्रय या आधार के प्रभाव से ही, अथवा जिस भावना एवं मनोवृत्ति से यह संपादन की जाती है उसी के करते अनेक प्रकार की हो जाया करती है, न कि मूलत: वह कई प्रकार की होती है। यदि इन बातों पर दृष्टि रख के हम आगे बढ़ते हैं तो इससे हमारे सारे संकट एवं समस्त बुराइयाँ ही दूर हो जाती हैं। क्योंकि किसी प्रकार की शक्ति के संपादन या शक्ति-विकास से पूर्व हमें देखना होगा कि जब वह एक ही है और उसकी मर्यादा का उल्लंघन न होना चाहिए तो फिर उसकी मर्यादा ठीक रहे और उसके संपादन की मनोवृत्ति या भावना भी शुद्ध और पवित्र रहे। इसी जगह धर्म या आध्याठत्मिकता की प्रधानता को जड़वाद या भौतिकता के ऊपर रखने की आवश्यकता प्रतीत होगी और इसी से शक्ति की मर्यादा बँध जाएगी और भावना भी पवित्र हो जाएगी। क्योंकि धर्म या आध्याकत्मिकता की छाप लग जाने का अर्थ ही होगा कि अपने ही समान औरों के भी सुख-दु:खों को अनुक्षण अनुभव करना, महसूस करना, फील (Feel) करना, जैसा कि गीता ने कहा है कि -
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परसो मत:॥(6/32)
कारण, धर्म का पर्यवसान इसी विचार में होता है, न कि किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता (Dogmatism) में। इसीलिए महाभारत के शांति पर्व में तुलाधर ने जाजलि से धर्मज्ञान की कसौटी और उसका निचोड़ बताते हुए कहा है कि मनसा, वाचा, कर्मणा जो प्राणी सबका सुहृद और सबकी भलाई में तत्पर हो वही धर्म के रहस्य को जानता है -
सर्वेषां च सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले॥ (261/9)
यही कारण है कि हमारे धर्माचार्यों ने 'सर्वेऽपि सुखिन: संतु सर्वे संतु निरामया:' का डिंडिभनाद किया है। यदि पूर्वकाल की आसुरी शक्ति के विस्तार का पर्यवेक्षण किया जाए तो उससे भी यही सिद्ध होता है कि उसके संपादकों के साथ धर्म का संबंध छत्तीपस का-सा ही था, उन्होंने धर्म को पाँव-तले रौंदकर धता बताया था। वर्तमान समय के महासमरों और उसकी तैयारियों की ओर यदि दृष्टि की जाए तो यह स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि आध्यांत्मिकता और धर्म से विहीन वर्तमान सभ्यता ही इसका कारण है और जब तक इसका अंत होकर सभी देशों, राष्ट्रों और उनके संचालकों के दृष्टिकोण में धर्ममूलक परिवर्तन नहीं होता तबतक बाहरी बातों और निरस्त्री करण के घपलों से इस संहारक मनोवृत्ति का अंत न होगा और शक्ति के नाम पर यह वास्तविक अशक्ति अपना बलिदान लेकर ही रहेगी। कारण, इस आसुरी या पाशविक शक्ति का, जिसे शक्ति कहना 'शक्ति' शब्द का परिहास करना है और जिसे प्रवृत्ति भले ही कह सकते हैं नियंत्रण हो ही नहीं सकता।
इस शक्ति को 'ज्ञानवलक्रिया च' कहा है, जिसका अभिप्राय है कि इसके ज्ञान, बल और क्रियात्मक तीन आकार हैं। ईश्वरकृष्ण के 'सत्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रज:। गुरु वरणकमेव तम:...' (सां. का. 13) तथा गीता के 'सत्त्वं सुखे संजयति रज: कर्मणि', 'सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते' (14/9/11) के अनुसार ज्ञान, बल और क्रिया का अभिप्राय है सत्त्व, तम और रज - इन तीन गुणों से। क्योंकि सत्त्व का स्वरूप और काम ही है ज्ञान, तथा रज का स्वरूप है क्रिया या हलचल। तम भारी माना जाता है जिससे वह दबाता है। अतएव बल का अभिप्राय तम से ही है। क्योंकि बल के ही प्रभाव से कोई वस्तु दबती है। इस प्रकार शक्ति त्रिगुणात्मिका सिद्ध होती है जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिस शक्ति में ज्ञान क्रिया और बल। इन तीनों को या तीनों में किसी एक को भी स्थान नहीं है वह शक्ति कही जा सकती ही नहीं। इसलिए मनु ने कहा है कि 'विद्वत्सु कृतबुद्धय:। कृतबुद्धिषु कर्त्तार: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥' (1/97)। इसका तात्पर्य यह है कि कोरा ज्ञान, कोरी क्रिया या कोरा बल वांछनीय नहीं है, मनुष्य-जीवन का चरम ध्येिय नहीं है, किंतु तीनों का उचित सम्मिश्रण चाहिए। कर्त्तव्याकर्तव्य का निश्चय, उसके अनुसार कार्य करने का बल और साहस तथा निश्चयानुसारिणी क्रिया के साथ ब्रह्मज्ञान का होना जरूरी है। यह ब्रह्मज्ञान वही है जिसे 'आत्मौपम्येन सर्वत्र' इत्यादि वचनों के द्वारा धर्म का पर्यवसान कहा है, अध्यानत्मेवाद का अंतिम स्वरूप बताया है। अतएव इस संसार का वास्तविक कल्याण - सच्चा श्रेय इसी बात में है कि शक्ति तथा अशक्ति का पूर्ण विवेचन करके उसके ज्ञान, क्रिया और बलात्मक तीनों रूपों का संपादन-विकास किया जाए और इस प्रकार उसमें धर्म का पुट देकर उसे मर्यादित किया जाए जिसमें विश्व का कल्याण हो। कोरा ज्ञान, कोरी क्रिया या कोरा बल एकाकी और विनाशकारी है। पूर्वाचार्यों ने जो हर बात के संपादन के समय अधिकारी की परख लगाई है और कहा है कि अनधिकारी को कोई बात बताई न जाए और न वह ऐसा साहस ही करे कि कुछ सीखे-जाने, उसका भी यही रहस्य है। क्योंकि मनोवृत्ति और भावना पर नियंत्रण हुए बिना ऐसे पुरुष को जो सामर्थ्य, योग्यता या शक्ति प्राप्त होगी उसका दुरुपयोग हो सकता है, वह विनाशकारिणी हो सकती है। उपनिषदों में ब्रह्मा के द्वारा बलि के ठुकराए जाने और उपदेश न देने का भी यही अभिप्राय है। इसीलिए निरुक्तकार ने 'असूयकायानृजवेऽयताय मा मा ब्रूया:' कहा है और मनु ने भी इसी का अभिप्राय 'विद्या ब्राह्मणमेत्याह' इत्यादि के द्वारा व्यक्त किया है। यदि ऐसा न हो तो अपात्र या अनधिकारी के पास जाकर समस्त ज्ञान शैतान के हाथ में मसाल का काम करने लगे। इसका सबसे उत्तम दृष्टांत मनुस्मृति के 8वें अध्यााय का 168वाँ श्लोक है जिसे नैषध के पढ़ने वाले जानते हैं। वह 'बलाद्दत्तं बलाद्भुक्तम्' इत्यादि है, जिसका सरल अर्थ यही है कि जो काम अनिच्छापूर्वक जबरदस्ती कराया जाता है उसकी जवाबदेही करने वाले पर नहीं रहती। लेकिन उस श्लोक के पद ऐसे हैं जिससे यह अर्थ भी किया जा सकता है कि जबरदस्ती किए-कराए कामों की कोई गिनती नहीं होती, वे नहीं ही समझे जाते हैं। इसलिए चार्वाक ने उस वचन का यह अर्थ लगा लिया कि जबरदस्ती चोरी, सीना-जोरी, डकैती या दुराचार-व्यभिचार करने में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि ऐसी आज्ञा मनु ने दी है।
फलत: अधिकारी का विचार करने से वास्तविक मर्यादा का न तो उल्लंघन ही होगा और न दूषित मनोवृत्ति का प्रसार ही होगा। फिर तो तांडव नृत्य का अवसर आएगा ही नहीं और समस्त शक्ति का विकास उचित रूप और मात्रा में होकर वह ज्ञान, क्रिया और साहस रूप अपने उक्त तीनों आकारों से संपन्न होगी और इस प्रकार उसके ऊपर अथ से इति तक धर्म का - वास्तविक और सच्चे धर्म का पुट होने से वह निसर्गत: कल्याणकारिणी ही होगी और इस प्रकार गीता के 'रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत' (14/10) के अनुसार विपरीतगामी और विरोधी भी रज एवं तम सत्त्व के अनुगुण और सहकारी बनकर क्रिया और साहस के द्वारा उसके पोषक होंगे और समय-समय पर उसे विश्राम देकर सदैव अक्षीणशक्ति बनाए रखेंगे। इस प्रकार सोने में सुगंध की तरह परस्पर विरोधी भी ये गुण विश्व को कल्याण की ओर अग्रसर करेंगे; क्योंकि अकेला ज्ञान, अकेली क्रिया या अकेला साहस बेकार होता है, जिससे परस्पर सहकारिता अपेक्षित है और यही सृष्टि का नियम है।
[ई. 1934 भाद्रपद - कल्याण (शक्ति अंक)]