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मानव सेवा ही असली वेदांत

लोगों का खयाल है कि 'हम क्या हैं, संसार क्या है और हमारा इस संसार के साथ संबंध क्या है', इन्हीं तीन जिज्ञासाओं या प्रश्नों ने मूल दर्शनों (Philosophies) को जन्म दिया है और धर्म, मजहब या रिलिजन (Religion) विभिन्न दर्शनों के बाहरी या व्यावहारिक रूप हैं। आचार (आचरण, कर्म, क्रिया, अमल, प्रैक्टिस) विभाग को धर्म और विचार (सोचना, थिंकिंग) विभाग को अब दर्शन कहते हैं, हालाँकि आचार और विचार दोनों ही दर्शन के ही दो विभाग या अंग हैं। असल में जनसाधारण सोचने, विचारने, मेडिटेशन (Meditation) आदि से स्वभावत: दूर रहते हैं; कारण, उन्हें दैनिक जीवन के कामों और विचारों से अवकाश ही नहीं रहता कि लोक, परलोक और अध्याोत्मह के गहरे पानी में उतरें। फलत: दर्शन उनके लिए एक निराली और अपरिचित-सी चीज हो गई है। वह उसे समझ नहीं सकते। अतएव धर्म के रूप में उन्हें जो ठोस और व्यावहारिक चीज दी जाती है उस पर थोड़ा या अधिक अमल करके संतोष कर लेते हैं। क्योंकि धर्म आत्मा की भूख की खुराक है और बिना खुराक के काम चलता नहीं। यही कारण है कि किसी-न-किसी धर्म की ओर सदा से जनता की प्रवृत्ति होती चली आई है और धर्म के न मानने वालों को लोगों ने कभी भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा है। असल में तो आत्मा की बुभुक्षा की शांति दार्शनिक विचारों से ही होती है और यही ठीक भी है; फलत: दर्शन ही उस खुराक के देने वाले हैं। लेकिन आम लोगों के लिए वे दुर्गम हैं। इसलिए दर्शनों के बाहरी रूप में प्रचलित धर्मों से ही काम चलाया जाता है। यही कारण है कि धर्मों की प्रवृत्ति का स्रोत मूल में चाहे दर्शन भले ही रहे हों, आगे चलकर वे विकृत, दिखावट और प्रवंचनामात्र रह जाते हैं। क्योंकि जनता उनके दार्शनिक आधारों से अनभिज्ञ होने के कारण धर्म-प्रचारक पुरोहितों, गुरुओं और साधु-फकीरों से न तो प्रश्नोत्तर ही कर सकती है और न उनका निरादर करने की ही हिम्मत रखती है। विभिन्न धर्मसंप्रदायों का पारस्परिक कलह भी इसी से उत्पन्न होता है और असली बातों को छोड़ रूढ़ियों की उपासना भी इसीलिए चल पड़ती है, जो सभी अनर्थों की जननी है। विपरीत इसके यदि हम दार्शनिक विचारों को ही धर्मों के मूलाधार मान लें तो यह बला यों ही खत्म हो जाए। क्योंकि तब तो धर्म के बारे में हम यही देखेंगे कि वह पूर्वोक्त तीन जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए सामग्री या मार्ग प्रभूत करता है या नहीं और ऐसा जो न होगा उसे स्वयं त्याग देंगे। यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो पता चलेगा कि सभी धर्म सत्य, दया, मैत्री, अव्यभिचार, अस्तेय आदि दैवी संपत्तियों पर पूरा जोर देते हैं, जिससे पता चलता है कि वे किसी एक ही ध्येवय की खोज में एक ही मार्ग से आ रहे हैं और सत्य, दया आदि उनका वह निर्विवाद मार्ग है। फिर धार्मिक झगड़ों के लिए स्थान है ही कहाँ? सत्य, दया आदि ऐसी चीज भी नहीं कि आत्मा-परमात्मा की तरह अदृश्य होने के कारण विवादास्पद हों। वह तो सर्व-जनानुभूत पदार्थ हैं। इसीलिए उनकी प्राप्ति में जो सहायक न हो वह आसानी से हेय हो सकता है। इसमें अधिक खोद-विनोद की गुंजाइश नहीं। यही वेदांत है, सब ज्ञानों का अंत या पर्यवसान है, निष्ठा है। वेद नाम है ज्ञान का। 'विद ज्ञाने' धातु से यह शब्द बना है। आज जो वेद के नाम से ऋक्, साम आदि प्रसिद्ध हैं वे भी इसीलिए कि उनमें ऋषियों (Thinkers) का ज्ञान भरा है, जिसे वे जनसाधारण तक पहुँचाते हैं। ये वेद दर्शन के स्थूल रूप - ककहरा - कर्मकांड से शुरू करके अध्या त्मप विचार में समाप्त होते हैं और जहाँ यह अध्यासत्म् विचार मिलता है उसे उपनिषद् कहते हैं। अच्छा, तो अब देखना है कि वेदांत के अंत शब्द से क्या अर्थ निकलता है। अंत नाम है समाप्ति, पर्यवसान, निष्ठा या निष्कर्ष (Result) का। इस प्रकार वेद (ज्ञान, विवेक, विचार) का जो पर्यवसान या निष्कर्ष हो, या विचार और विवेक के बाद जिस परिणाम पर पहुँचते हैं उसे ही वेदांत कहना ठीक है। सारांश, वेदांत अक्ल और बुद्धि की बात को ही कहना उचित है। जो बात ऐसी हो उसमें कलह के लिए जगह भी नहीं है। वेदांत की सब दर्शनों से ज्यादा प्रतिष्ठा का कारण भी यही है।

असल में एकता और मेल के बिना संसार का काम चल नहीं सकता। हम पद-पद पर इस ऐक्य की तलाश में है और इसके बिना अनेक कष्टों का अनुभव करते हैं, फिर वह संसार चाहे राजनीति का हो या धर्मनीति, समाजनीति, अर्थनीति का। यदि ऐक्य का लोप हो जाए तो प्रलय हो जाए। संसार के बनाने वाले परमाणुओं, गुणों, तत्वों (Atoms and elements) का एक दूसरे से अलग हो जाना ही तो प्रलय कहा जाता है; कारण, उस दशा में कोई चीज ठहर सकती ही नहीं। यही कारण है कि विवेकी लोग शुरू से ही ऐक्य की तलाश में पड़े हैं और वह अंवेषण बराबर जारी है। अनेक ने स्थूल, पृथ्वी आदि को परमाणुओं से या तो किसी ने समस्त स्थूल जगत को सत्त्व, रजस, तमस इन तीन गुणों से जोड़ दिया और कह दिया कि इनसे सम्यक कोई चीज नहीं। सूक्ष्म जगत में मन, बुद्धि को इन्हीं तीन गुणों में मिला दिया। ईश्वर और जीव के बारे में किसी ने सामीप्य और सान्निध्यक का भाव कायम किया तो किसी ने ईश्वर को जीव में ही मिला दिया और उसकी सत्ता ही मिटा डाली। इस प्रकार परमाणुओं से आरंभ कर प्रकृति (त्रिगुण) और पुरुष (जीव) इन दो को ही माना और शेष संसार का पर्यवसान इन्हीं में कर दिया। अंत में अद्वैतवाद का दर्शन आया जिसे वेदांत दर्शन भी कहते हैं। उसने प्रकृति और जीव का भी भेद मिटा दिया और दोनों को ही एक करके ब्रह्म के साथ मिलाया। जब एकता का सूत्रपात हुआ तो उसका चरम पर्यवसान भी होना ही चाहिए। जब तक दो पदार्थ रह जाएँगे, दिक्कत बनी ही रहेगी। उपनिषदों ने जो कहा है कि - 'द्वितीया द्वै भयं भवति' दो के रहने से ही सारी खुराफात होती है, या -

' यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:।

तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥ '

जब सभी एक हो गए तो डर किसका? उसका मतलब यही है। प्रतिद्वंद्वी को कायम करके चैन? यदि आप संसार में प्रेम का पूरा प्रसार अबाध रूप से चाहते हैं तो मिलना ही होगा। क्योंकि अपने-आपसे जितना ही अंतर किसी वस्तु का होगा प्रेम में उतनी ही कमी होगी। परमात्मा में यदि परमप्रेमरूपा भक्ति चाहते हैं तो उसे भी अपने से अभिन्न करना ही होगा। नहीं तो स्वभावत: जितना प्रेम अपने-आप (आत्मा) में है उतना उसमें कदापि न होगा। इसीलिए तो कहा है -

आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।

यदि निकट जाना है तो दूरी कम करो और वास्तविक सान्निध्यप तभी होगा जब दूरी विलुप्त हो जाए। यही अद्वैतवाद का रहस्य है और यही वेदांत है। आप 'वसुधैव कुटुंबकम्' चाहते हैं और चाहते हैं मानवमात्र का कल्याण, जो वास्तविक अंतर्राष्ट्रीयता है। इसके लिए आवश्यक है कि -

' आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित: '

- को चरितार्थ करें। जब तक गैरों के सुख-दु:ख को आप स्वयं अनुभव नहीं करेंगे, उनके लिए मर मिटने को तैयार कैसे होंगे? लेकिन जब तक वे आप से भिन्न हैं तब तक हजार कोशिश करने पर भी उनकी व्यथा का अनुभव आप नहीं कर सकते, उसे जान लें भले ही। जानना और अनुभव (एहसास, Feeling) में अंतर है और अनुभव के लिए उसके साथ - अन्य के साथ - आपको अपने तादात्म्य का ज्वलंत और जीवंत ज्ञान होना चाहिए। बिना इसके काम चल नहीं सकता। अंतर्राष्ट्रीयता और मानव समाज के प्रति, नहीं-नहीं, समस्त संसार (Universe) के प्रति भ्रातृभाव और सद्भाव लाने का वास्तविक उपाय यही वेदांतदर्शन है, वेदांत है। वेदांती को जीवन्मुक्त कहने का यही अभिप्राय है। उसका तो आपा रह ही नहीं जाता। उसने तो अपने को समष्टि में विलीन कर दिया। अब समष्टि और व्यष्टि का भेद रह ही नहीं गया।

ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, छूत-अछूत, हिंदू-मुस्लिम का भेद तब तक मिट नहीं सकता, जब तक इस अद्वैतवाद का, सच्चे वेदांत का रहस्य प्रतीत न हो जाए। खूबी तो यह है कि यह वेदांत बाहरी विभिन्नता और पार्थक्य (Diversity) को मिटाने की राय नहीं देता। प्रत्युत उससे तो इसे विभिन्नता (Diversity) में ही ऐक्य (Unity) देखने में मजा आता है। आखिर छाया का आनंद तो धूप के रहने से ही होता है अतएव वेदांती तो अपने विचारों की कीमिया या पारस के बल से विभिन्नता रूप लोहे को सोना बनाता है। उसकी दृष्टि में बाहरी भेद विलीन हो जाते हैं। कितना सुंदर हो यदि यह वेदांत आज प्रचलित हो जाए। हमारा देश ही नहीं, मानव समाज पारस्परिक कलहों से जर्जर हो रहा है और हम अहंमन्यता के मारे किसी को नीच, किसी को दलित, किसी को पतित बनाकर अपना नाश स्वयं कर रहे हैं, द्रुत गति से उस नाश की ओर जा रहे हैं, हालाँकि हमें अपने वेदांतदर्शन का अभिमान है। कितनी मूर्खता और कैसा प्रचंड अज्ञान है! तत्त्व से हम कितनी दूर जा पड़े हैं। हमें कौन बतावे? कौन सिखावे? एक समय था जब हमने गिरिशिखरों से वेदांत की पुकार मचाई थी।

'पंडिता: समदर्शिन:'। 'निर्दोषं हि समं गता'

आत्मौपम्स्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन॥

- इत्यादि। आज फिर उसी वेदांत की आवश्यकता है। उसे कौन लावेगा? हमारा कृष्ण कौन होगा? नकली वेदांत कौन हटावेगा, जिसे जानकर भी हम नामर्द बने पड़े हैं करोड़ों की संख्या में?

(कल्याण, वेदांतांक, अगस्त 1936 से उद्धृत। संपादक - कुछ अंक में शीर्ष 'असली वेदांत और नकली वेदांत' है।)