नहीं इश्क़ में उस का तो रंज
नहीं इश्क़ में उस का तो रंज हमें के क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा.
दिया अपनी ख़ुदी को जो हम ने उठा वो जो पर्दा सा बीच में था न रहा
रहे पर्दे में अब न वो पर्दा-नशीं कोई दूसरा उस के सिवा न रहा.
न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा.
तेरे रुख़ के ख़याल में कौन से दिन उठे मुझ पे न फ़ितना-ए-रोज़-ए-जज़ा
तेरी ज़ुल्फ़ के ध्यान में कौन सी शब मेरे सर पे हुजूम-ए-बला न रहा.
हमें साग़र-ए-बादा के देने में अब करे देर जो साक़ी तो हाए ग़ज़ब
के ये अहद-ए-नशात ये दौर-ए-तरब न रहेगा जहाँ में सदा न रहा.
कई रोज़ में आज वो मेहर-ए-लिक़ा हुआ मेरे जो सामने जलवा-नुमा
मुझे सब्र ओ क़रार ज़रा न रहा उसे पास-ए-हिजाब-ओ-हया न रहा.
तेरे ख़ंजर ओ तेग़ की आब-ए-रवाँ हुई जब के सबील-ए-सितम-ज़दगाँ
गए कितने ही क़ाफ़िले ख़ुश्क-ज़बाँ कोई तिश्ना-ए-आब-ए-बक़ा न रहा.
मुझे साफ़ बताए निगार अगर तो ये पूछूँ मैं रो रो के ख़ून-ए-जिगर
मले पाँव से किस के हैं दीदा-ए-तर कफ़-ए-पा पे जो रंग-ए-हिना न रहा.
उसे चाहा था मैं ने के रोक रखूँ मेरी जान भी जाए तो जाने न दूँ
किए लाख फ़रेब करोड़ फ़ुसूँ न रहा न रहा न रहा न रहा.
लगे यूँ तो हज़ारों ही तीर-ए-सितम के तड़पते रहे पड़े ख़ाक पे हम
वले नाज़ ओ करिश्मा की तेग़-ए-दो-दम लगी ऎसी के तस्मा लगा न रहा.
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा.