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जब के पहलू में हमारे

जब के पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो
गिर्ये से शाम ओ सहर क्यूँ के हमें काम न हो.

ले गया दिल का जो आराम हमारे या रब
उस दिल-आराम को मुतलक़ कभी आराम न हो.

जिस को समझे लब-ए-पाँ-ख़ुर्दा वो मालिदा-मिसी
मर्दुमाँ देखियो फूली वो कहीं शाम न हो.

आज तशरीफ़ गुलिस्ताँ में वो मै-कश लाया
कफ़-ए-नर्गिस पे धरा क्यूँके भला जाम न हो.

कर मुझे क़त्ल वहाँ अब के न हो कोई जहाँ
ता मेरी जाँ तू कहीं ख़ल्क़ में बद-नाम न हो.

देख कर खोलियो तू काकुल-ए-पेचाँ की गिरह
के मेरा ताइर-ए-दिल उस के तह-ए-दाम न हो.

बिन तेरे ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम ये दिल को है ख़तर
तेरे आशिक़ का तमाम आह कहीं काम न हो.

आज हर एक जो यारो नज़र आता है निढाल
अपनी अबरू की वो खींचे हुए समसाम न हो.

है मेरे शोख़ की बालीदा वो काफ़िर आँखें
जिस के हम चश्म ज़रा नर्गिस-ए-बादाम न हो.

सुब्ह होती ही नहीं और नहीं कटती रात
रुख़ पे खोले वो कहीं जुल्फ-ए-सियह-फ़ाम न हो.

ऐ ‘ज़फ़र’ चर्ख़ पे ख़ुर्शीद जो यूँ काँपे है
जलवा-गर आज कहीं यार लब-ए-बाम न हो.

बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी

बहादुर शाह ज़फ़र
Chapters
पसे-मर्ग मेरे मजार पर हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़ कीजे न दस में बैठ कर लगता नहीं है जी मेरा सुबह रो रो के शाम होती है थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता जा कहियो उन से नसीम-ए-सहर शमशीर बरहना माँग ग़ज़ब बालों खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बग़ैर हमने दुनिया में आके क्या देखा यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी दिल की मेरी बेक़रारी तुम न आये एक दिन बात करनी मुझे मुश्किल कभी बीच में पर्दा दुई का था जो भरी है दिल में जो हसरत देख दिल को मेरे ओ काफ़िर देखो इन्साँ ख़ाक का पुतला गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है है दिल को जो याद आई हम ने तेरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार हम ये तो नहीं कहते के हवा में फिरते हो क्या हिज्र के हाथ से अब इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल इतना न अपने जामे से जब कभी दरया में होते जब के पहलू में हमारे जिगर के टुकड़े हुए जल के काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत करेंगे क़स्द हम जिस दम ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्या कुछ न किया और हैं क्या क्यूँकर न ख़ाक-सार रहें क्यूँके हम दुनिया में आए मैं हूँ आसी के पुर-ख़ता कुछ हूँ मर गए ऐ वाह उन की मोहब्बत चाहिए बाहम हमें न दाइम ग़म है नै इशरत न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न दो दुश्नाम हम को न उस का भेद यारी से नहीं इश्क़ में उस का तो रंज निबाह बात का उस हीला-गर पान खा कर सुरमा की तहरीर क़ारूँ उठा के सर पे सुना रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब सब रंग में उस गुल की शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई तफ़्ता-जानों का इलाज ऐ टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के वाँ इरादा आज उस क़ातिल के वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है वाक़िफ़ हैं हम के हज़रत-ए-ग़म ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तेरे ऐ