खंड 3 पृष्ठ 2
एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज उगता है। आशा चली गई लेकिन महेंद्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेंद्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता - लेकिन विनोदिनी उसे पास आने की कोई मौका ही न देती।
महेंद्र को ऐसा उदास देख कर राजलक्ष्मी सोचने लगीं - 'बहू चली गई, इसीलिए महेंद्र को कुछ अच्छा नहीं लगता है।'
अब महेंद्र के सुख-दुख के लिहाज से माँ गैर जैसी हो गई है। हालाँकि इस बात के जहन में आते ही उसे मर्मांतक कष्ट हुआ! फिर भी वह महेंद्र को उदास देख कर चिंतित हो गईं।
उन्होंने विनोदिनी से कहा - 'इस बार इनफ्लुएंजा के बाद मुझे दमा-जैसा कुछ हो गया है। बार-बार सीढ़ियाँ चढ़ कर मुझसे ऊपर जाते नहीं बनता। महेंद्र के खाने-पीने का खयाल तुम्हीं को रखना है, बिटिया! उसकी हमेशा की आदत है, किसी के जतन के बिना महेंद्र रह नहीं सकता। देखो तो, बहू के जाने के बाद उसे पता नहीं क्या हो गया है। और बहू की भी बलिहारी, वह चली गई!'
विनोदिनी बोली - 'जरूरत क्या है, बुआ!'
राजलक्ष्मी बोलीं- 'अच्छा, कोई जरूरत नहीं। मुझसे जो हो सकेगा, वही करूँगी।'
और वह उसी समय महेंद्र के ऊपर वाले कमरे की झाड़-पोंछ करने जाने लगी। विनोदिनी कह उठी - 'तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं, तुम मत जाओ! मैं ही जाती हूँ। मुझे माफ करो बुआ, जैसा तुम कहोगी, करूँगी।'
राजलक्ष्मी लोगों की बातों की कतई परवाह नहीं करती। पति की मृत्यु के बाद से दुनिया और समाज में उन्हें महेंद्र के सिवाय और कुछ नहीं पता। विनोदिनी ने जब समाज की निंदा का इशारा किया, तो वह खीझ उठीं। जन्म से महेंद्र को देखती आई हैं, उसके जैसा भला लड़का मिलता कहाँ है? जब कोई उसकी आलोचना करता तो राजलक्ष्मी से रहा न जाता, उन्हें लगता कि इसी पल उसकी जबान गल क्यों नहीं रही!
महेंद्र कॉलेज से लौटा और आज अपने कमरे को देख कर ताज्जुब में पड़ गया। दरवाजा खोलते ही चंदन और धूप की खुशबू से घर महक उठा। मसहरी में रेशमी झालर बिछौने पर धप-धप धुली चादर और पुराने तकिए के बजाए दूसरा रेशमी फूल कढ़ा चौकोर तकिया - उसकी खूबसूरत कढ़ाई विनोदिनी की काफी दिनों की मेहनत का फल था। आशा उससे पूछा करती थी - 'ये चीजें तू बनाती आखिर किसके लिए है किरकिरी?' विनोदिनी हँस कर कहती - 'अपनी चिता की सेज के लिए। मरण के सिवा अपने सुहाग के लिए है भी कौन?'
दीवार पर महेंद्र की जो तस्वीर थी, उसके फ्रेम के चारों कोनों पर बड़ी कुशलता से रेशमी गाँठें बाँधी गई थीं - नीचे की तिपाई पर फूलदानियों में गुलदस्ते - मानो महेंद्र की प्रतिमूर्ति को किसी अजाने भक्त की पूजा मिली हो। कुल मिला कर घर की शक्ल ही बदल गई थी। खाट पहले जहाँ थी, वहाँ से थोड़ी खिसकी हुई थी। कमरे को दो हिस्सों में बाँट दिया गया था। खाट के पास की दो बड़ी अलमारियों में कपड़े डालने से एक ओट जैसी हो गई थी, जिससे फर्श पर बैठने का बिछौना और रात को सोने की खाट अलग-अलग हो गई थी। काँच की जिस अलमारी में आशा की शौकिया सजावट थी, खिलौने थे, उसमें के काँच पर अंदर से लाल कपड़ा जड़ दिया गया था। अब कुछ न दीखता था। कमरे के पुराने इतिहास की जो भी निशानी थी, नए हाथ की नई सजावट से वह ढँक गई थी।
थका-माँदा महेंद्र फर्श के साफ-सुथरे बिछौने पर लेट गया। तकियों पर माथा रखते ही एक मीठी-सी खूशबू मिली - तकिए की रुई में नागकेसर का पराग और कुछ इत्र डाला गया।
महेंद्र की आँखें झप आईं। लगा, इस तकिए पर जिन हाथों की कला-कुशलता की छाप पड़ी है, मानो उसी की चंपा-कली-सी उँगुलियों की सुगंध आ रही है।
इतने में चाँदी की तश्तरी में फल-फूल और काँच के गिलास में बर्फ डला अनन्नास का शर्बत लिए नौकरानी आई।
महेंद्र ने बड़ी तृप्ति से खाया। बाद में चाँदी के डिब्बे में पान ले कर विनोदिनी आई। बोली - 'इधर कई दिन मैं खाने के समय न आ पाई, माफ करना! और जो चाहे सो करो, मगर मेरे सिर की कसम रही, मेरी आँख की किरकिरी को यह मत लिख भेजना कि तुम्हारी देख-भाल ठीक से नहीं हो रही है। जहाँ तक मुझसे बनता है, करती हूँ।'
विनोदिनी ने पान का डिब्बा महेंद्र की तरफ बढ़ाया। पान में भी आज केवड़े की खुशबू थी।
महेंद्र ने कहा - 'सेवा-जतन के मामले में कभी-कभी ऐसी कमी रहना भी अच्छा है।'
विनोदिनी बोली - 'क्यों भला?'
महेंद्र ने कहा - 'बाद में उलाहना दे कर ब्याज समेत वसूलने की गुंजाइश रहती है।'
'महाजन जी, सूद कितना?'
महेंद्र ने कहा - 'खाने के समय हाजिर न रहीं, तो बाद में हाजिर होने के बाद भी बकाया रह जाएगा।'
विनोदिनी बोली - 'ऐसा कड़ा हिसाब है तुम्हारा कि देखती हूँ, तुम्हारे हाथों पड़ जाने पर छुटकारा नहीं।'
महेंद्र ने कहा - 'हिसाब कड़ा तो उसे कहते हैं जब वसूला जा सके। यदि वसूल ही न पाओ तो हिसाब तो रखना अपने पास?'
विनोदिनी ने कहा - 'वसूल करने योग्य है भी क्या! मगर कैद तो कर ही रखा है।'
और मजाक को एकाएक गंभीर बनाते हुए उसने एक लंबी साँस छोड़ी।
महेंद्र ने भी गंभीर हो कर कहा - 'तो यह कैदखाना है, क्यों?'
ऐसे में रोज की तरह बैरा तिपाई पर बत्ती रख गया।
अचानक आँख पर रोशनी पड़ी, तो हाथ की ओट करके नजर झुकाए विनोदिनी ने कहा - 'क्या पता भई, बातों में तुमसे कौन जीते? मैं चली।'
महेंद्र ने अचानक कस कर उसका हाथ पकड़ लिया। कहा - 'बंधन जब मान ही लिया, तो फिर जाओगी कहाँ?'
विनोदिनी बोली - 'छि: छोड़ो! जिसके भागने का कोई रास्ता नहीं, उसे बाँधने की कोशिश कैसी!'
जबरदस्ती हाथ छुड़ा कर विनोदिनी चली गई। महेंद्र सुगंधित तकिए पर सिर रखे बिछावन पर पड़ा रहा। उसके कलेजे में खलबली मच गई। सूनी साँझ, सूना कमरा, नव वसंत की बयार - विनोदिनी का मन मानो पकड़ में आया-आया; लगा महेंद्र अब अपने को संयमित नहीं कर पाएगा। जल्दी से उसने बत्ती बुझा दी, दरवाजा बंद कर लिया और समय से पहले ही बिस्तर पर सो गया।
बिछावन भी तो यह पिछले वाला नहीं। चार-पाँच गद्दे पड़े थे। काफी नर्म। एक खुशबू यहाँ भी। अगरु की, खस की या काहे की थी, ठीक-ठीक समझ में नहीं आया। महेंद्र बार-बार इस-उस करवट लेटने लगा - मानो कोई भी पुरानी एक निशानी मिले कि उसे जकड़ ले। मगर कुछ भी हाथ न आया।
रात के नौ बजे दरवाजे पर दस्तक पड़ी। बाहर से विनोदिनी ने कहा - 'भाई साहब, आपका भोजन! दरवाजा खोलिए!'
महेंद्र जल्दी से उठा और दरवाजा खोलने के लिए कुंडी पर हाथ लगाया। लेकिन दरवाजे को खोला नहीं, फर्श पर पट पड़ गया। बोला - 'नहीं, मुझे भूख नहीं है।'
बाहर से घबराहट-भरी आवाज - 'तबीयत तो खराब नहीं है? पानी ला दूँ? और कुछ चाहिए?'
महेंद्र ने कहा - 'नहीं, मुझे नहीं चाहिए।'
विनोदिनी बोली - 'आपको हमारी कसम। क्या हुआ बताओ! अच्छा चलो तबीयत खराब है तो कुंडी तो खोलो।'
महेंद्र ने जोर से कहा - 'उँहूँ! नहीं खोलूँगा। तुम जाओ।'
महेंद्र फिर जा कर अपने बिस्तर पर लेट गया और आशा की स्मृति को सूनी सेज पर टटोलने लगा।
लाख कोशिश करने पर भी जब नींद न आई, तो दवात-कलम ले कर आशा को खत लिखने बैठा। लिखा, 'आशा, अब और ज्यादा दिन मुझे अकेला मत छोड़ो - तुम्हारे न रहने से ही मेरी सारी प्रवृत्तियाँ जंजीर तोड़ कर मुझे न जाने कहाँ खींच ले जाना चाहती हैं। जिससे राह देख-देख कर चलूँ वह रोशनी कहाँ? वह रोशनी तो तुम्हारी विश्वास-भरी आँखों की प्रेमपूर्ण दृष्टि है। मेरी मंगल, ध्रुव, तुम जल्दी चली आओ! मुझे अविचल बनाओ, मुझे बचाओ, मेरे हृदय को भर दो।'
महेंद्र न जाने कब तक लिखता रहा। दूर, और दूर के कई गिरजों की घड़ियों में तीन बजे। कलकत्ता की सड़कों पर गाड़ियों की घड़-घड़ाहट थम चुकी थी, मुहल्ले के उस छोर पर किसी नटी के कंठ से विहाग की जो तान उठ रही थी, वह भी सारी दुनिया पर फैली हुई शांति और नींद में बिलकुल डूब गई। आशा को हृदय से याद करके और मन के आवेग को लंबे पत्र में जाहिर करके महेंद्र को काफी राहत मिली और लेटते ही उसे नींद आने में देर न लगी।
सुबह उसकी नींद खुली तो बेला हो आई थी। कमरे में धूप आ रही थी।
महेंद्र जल्दी से उठ बैठा, रात की बातें मन में हल्की हो गई थीं। देखा, रात की लिखी चिट्ठी दावात से दबी तिपाई पर पड़ी है। उसे फिर से पढ़ गया। उसे लगा - 'अरे, यह किया क्या मैंने! यह तो मानो उपन्यास का वृत्तांत हो गया। गनीमत कहो कि भेजी नहीं। क्या सोचती आशा मन में! आधी तो वह समझती ही नहीं।'
रात को जो आवेग बेहिसाब बढ़ गया था, उसकी याद आते ही महेंद्र शर्मसार हो गया। चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिए। सरल भाषा में आशा को एक छोटा-सा पत्र लिखा -
'और कितनी देर करोगी तुम? तुम्हारे बड़े चाचा के आने में अगर विलंब हो, तो मुझे वैसा लिखो। मैं खुद आ कर तुम्हें ले जाऊँगा। अकेले मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।'