दूसरा अध्याय / बयान 7
अब सबेरा हुआ ही चाहता है। महल में लौंडियों की आंखें खुलीं तो महारानी को न देखकर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल गई, सबों को फिक्र पैदा हुई। महाराज शिवदत्तसिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनार पहुंचे, किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गईं। सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धड़धड़ाते हुए महल में चले आये, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रहीहै।
इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भागकर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनार चले आये थे, यहां यह कैफियत देखी। आखिर उदास होकर महारानी के बिस्तरे के पास आये और बैठकर रोने लगे। तकिये के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है। यह कागज वही था जिसे तेजसिंह ने लिखकर रख दिया था। अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे। एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं। फिर किसने लिखकर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाय? कोई ऐयार भी नहीं जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाय। अगर किसी दूसरे को वहां भेजूं जहां चंद्रकान्ता कैद है तो बिल्कुल भण्डा फूट जाय।
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे। आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफे जरूर उस जगह जाकर देखना चाहिए जहां चंद्रकान्ता कैद है। कोई हर्ज नहीं अगर हम अकेले जाकर देखें, मगर दिन में नहीं, शाम हो जाय तो चलें। यह सोचकर बाहर आये और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे, किसी से कुछ न कहा मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे।
शाम होने लगी, महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए। अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चांदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था। तेजसिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिये। तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गये मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है। अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया जो बिल्कुल सूखा पड़ा था। जैसे-जैसे आगे जाते थे नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊंचे होते जाते थे। दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे। खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे करारे ऊंचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे।
इसी तरह से लगभग एक कोस चले गये। अब नाले में चंद्रमा की चांदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गये थे। अब वह नाला नहीं मालूम होता बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है। महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अंधेरा होने के सबब धीर - धीर जाने लगा, तेजसिंह बढ़कर महाराज के और पास हो गये। यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी जिससे तेजसिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला। जब रोशनी के पास पहुंचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं जो बीस के लगभग होंगे। भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाये बैठी हैं। तेजसिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकान्ता और चपला हैं मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी।
महाराज को देखकर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े। सिपाहियों ने दो मशाल जलाये जिनकी रोशनी में तेजसिंह को अब साफ चंद्रकान्ता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी। चंद्रकान्ता का मुंह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था। मिट्टी में सनी हुई बदहवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठंगी हुई चंद्रकान्ता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी। सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं। इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी जिसे देखते ही तेजसिंह की आंखों से आंसू निकल पड़े।
महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा। जहां चंद्रकान्ता बैठी थी वहां भी चारों तरफ देखा, मगर कुछ मतलब न निकला क्योंकि वह तो रानी को खोजने आये थे, उस पुर्जे पर जो रानी के बिस्तर पर पाया था महाराज को बड़ी उम्मीद थी मगर कुछ न हुआ, किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकान्ता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौटकर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे। सिपाहियों को महाराज के इस तरह आकर फिर जाने से ताज्जुब हुआ मगर पूछता कौन?मजाल किसकी थी? तेजसिंह ने जब महाराज को फिरते देखा तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें, मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी, लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा। तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गये और एक किनारे छिप रहे। महाराज वहां से निकल शहर की तरफ रवाना हुए।
अब तेजसिंह सोचने लगे कि यहां से मैं अकेले चंद्रकान्ता को कैसे छुड़ा सकूंगा। लड़ने का मौका नहीं, करूं तो क्या करूं? अगर महाराज की सूरत बन जाऊं और कोई तरकीब करूं तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहां से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूं और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाय,तो यहां से फिर चंद्रकान्ता दूसरी जगह छिपा दी जायगी तब और भी मुश्किल होगी। इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूं और वहां से कुछ आदमियों को लाऊं क्योंकि इस नाले में अकेले जाकर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है।
यही सब-कुछ सोच तेजसिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात भर चले गये, दूसरे दिन दोपहर को वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। कुमार ने तेजसिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा, “क्यों कुछ पता लगा?” जवाब में 'हां' सुनकर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को बिदा किया, केवल कुमार, देवीसिंह,फतहसिंह सेनापति और तेजसिंह रह गये। कुमार ने खुलासा हाल पूछा, तेजसिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले, “अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता तो भाग निकलता, मगर मामला चंद्रकान्ता का है जो बहुत सुकुमार है। न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठड़ी बांधा सकता हूं और न किसी तरह की तकलीफ दिया चाहता हूं। होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाय। मैं सिर्फ देवीसिंह को लेने आया हूं और अभी लौट जाऊंगा, मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फतह पाई है। अभी कोई हर्ज भी देवीसिंह के बिना आपका न होगा।”
कुमार ने कहा, “देवीसिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, क्योंकि यहां तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतहसिंह हैं ही और कोई हर्ज भी नहीं।” तेजसिंह ने कहा, “अच्छी बात है आप भी चलिये।” यह सुनकर कुमार उसी वक्त तैयार हो गये और फतहसिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर शाम होते-होते वहां से रवाना हुए। कुमार घोड़े पर, तेजसिंह और देवीसिंह पैदल कदम बढ़ाते चले। रास्ते में कुमार ने शिवद्त्तसिंह पर फतह पाने का हाल बिल्कुल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा जो मुंह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी। उनका हाल सुनकर तेजसिंह भी हैरान हुए मगर कुछ ख्याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे।
यही सब सोचते जा रहे थे, रात चांदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पं. बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख पास आ सलाम किया। कुमार ने सलाम का जवाब हंसकर दिया। देवीसिंह ने कहा, “अजी बद्रीनाथजी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं! हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफपसंद है।” बद्रीनाथ ने कहा, “तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तै नहीं होता मैं कब आपके साथ हो सकता हूं और अगर हो भी जाऊं तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूं!” इतना कह और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नजर से गायब हो गये। तेजसिंह ने कुमार से कहा, “रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह जरूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहां जाते हैं।” देवीसिंह ने कहा, “हां इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ।” यह सुनकर कुमार का कलेजा धाड़कने लगा। बोले, “फिर अब क्या किया जाय?” तेजसिंह ने कहा, “इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है, हां एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें। ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा।” कुमार ने कहा, “अच्छा तुम आगे चलो।”
अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए। पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा। रात भर बेखटके चलते गए। जब दिन निकला एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ जरूरी कामों से छुट्टी पा स्नान-संध्या किया और फिर रवाना हुए। पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुंचे 1 जहां से वह नाला जिसमें चंद्रकान्ता और चपला थीं, दो कोस बाकी था। तेजसिंह ने कहा, “दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए। शाम हो जाय तो वहां चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा।” यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया। कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल एक पेड़ से बांधा चरने के लिए छोड़ दिया। दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया, सूरज अस्त होने पर ये लोग वहां से रवाना हुए। थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुंचे, पहले दूर ही खड़े होकर चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे।
कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले, “अजब भयानक नाला है!” धीरे- धीरे आगे बढ़े, जब नाले के आखिर में पहुंचे जहां पहले दिन तेजसिंह ने चिराग जलते देखा था तो वहां अंधेरा पाया। तेजसिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है। आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें कुमारी और चपला थीं। देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं। अब तो तेजसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी होकर मरे पड़े हैं। अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं, हां दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था। कुमार से न रहा गया, एकदम 'हाय' करके गिर पड़े और आंसू बहाने लगे। तेजसिंह समझाने लगे कि ”आप इतने बेताब क्यों हो गये। जिस ईश्वर ने यहां तक हमें पहुंचाया वही फिर उस जगह पहुंचायेगा जहां कुमारी है!” कुमार ने कहा, “भाई, अब मैं चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, जरूर वह परलोक को गई।” तेजसिंह ने कहा, “कभी नहीं, अगर ऐसा होता तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती।” देवीसिंह बोले, “कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई!” उन्होंने जवाब दिया, “यह बातभी जी में नहीं बैठती, भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता। खैर कोई हर्ज नहीं, वह भी मालूम हो जायगा, अब यहां से जल्दी चलना चाहिए।”
कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इस वक्त कैसी हालत थी उसका न कहना ही ठीक है। बहुत समझा-बुझाकर वहां से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाये। देवीसिंह ने कहा, “भला वहां तो चलो जहां तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है।” तेजसिंह ने कहा चलो। तीनों वहां गये, देखा कि महारानी कलावती भी वहां नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई।
आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया। यकायक देवीसिह बोले, “गुरुजी, मुझे एक तरकीब सूझी है जिसके करने से यह पता लग जायगा कि क्या मामला है। आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए मैं पता लगाता हूं, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “जाओ तुम ही कोई तारीफ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे।” देवीसिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए। वहां से चुनार करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुंचे। दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है। एक शीशी हाथ में ले उसके पास गये और एक अशर्फी दिखाकर देहाती बोली में बोले, “इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है। हम देहात के रहने वाले हैं, वहां एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखाकर हमसे कहा कि 'अगर इसको पहचान दो तो हम पांच अशर्फी तुमको दें' सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है, इसलिए रातों-रात यहां चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे, बहुत इत्र देखा होगा,इसको पहचान के बता दीजिए तो हम इसी समय लौट के गांव पहुंच जायं, सबेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है।” देवीसिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ आदमी से पाला पड़ा है। मुफ्त की अशर्फी मिलती है ले लो, जो कुछ भी जी में आवे बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आयेगा? यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा, “यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं!” उस शीशी का मुंह खोलकर सूंघा, बस फिर क्या था सूंघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही, बेहोश होने पर देवीसिंह उस सिपाही की गठरी बांधा तेजसिंह के पास ले आये और कहा कि ”यह किले का पहरा देने वाला है, पहले इससे पूछ लेना चाहिए, अगर काम न चलेगा तो फिर दूसरी तरकीब की जायगी।” यह कह उस सिपाही को होश में लाये। वह हैरान हो गया कि यकायक यहां कैसे आ फंसे,देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिये, कुछ कहा ही चाहता था कि देवीसिंह ने पूछा, “यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहां हैं? बताओ जल्दी!” उस सिपाही ने हाथ-पैर बंधे रहने पर भी कहा कि ”तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो, तुम्हें मतलब?” तेजसिंह ने उठकर एक लात मारी और कहा, “बताता है कि मतलब पूछता है।” अब तो उसने बेउज्र कहना शुरू कर दिया कि ”महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादे कुछ नहीं जानते।”
तेजसिंह ने कुमार से कहा, “अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया, आप अपने लश्कर में जाइये, मैं ढूंढने की फिक्र करता हूं।” कुमार ने कहा, “अब मैं लश्कर में न जाऊंगा।” तेजसिंह ने कहा, “अगर आप ऐसा करेंगे तो भारी आफत होगी, शिवदत्त को यह खबर लगी तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा,महाराज जयसिंह यह हाल पाकर और भी घबड़ा जायेंगे, आपके पिता सुनते ही सूख जायेंगे।” कुमार ने कहा, “चाहे जो हो, जब चंद्रकान्ता ही नहीं है तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह!” तेजसिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िये, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जायगा, फिर कुछ न कर सकेंगे। आखिर कुमार ने कहा, “अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो, कल तक अगर पता न लगा तो हम लश्कर में चले जायेंगे और फौज लेकर चुनार पर चढ़ जायेंगे। हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकान्ता की खोज करना।” तेजसिंह ने कहा, “अच्छा यही सही।” ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ जिसको देवीसिंह पकड़ लाये थे।
तेजसिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बांधा दिया और देवीसिंह से कहा, “अब तुम यहां कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूं और जो कुछ हाल है पता लगा लाता हूं।” देवीसिंह ने कहा, “अच्छा जाइये।” तेजसिंह ने देवीसिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना किले की तरफ रवाना हुए।”