शराब की दुकान
कॉँग्रेस-कमेटी में यह सवाल पेश था-शराब और ताड़ी की दूकानों पर कौन धरना देने जाय? कमेटी के पच्चीस मेम्बर सिर झुकाए बैठे थे; पर किसी के मुह से बात न निकलती थी। मुआमला बड़ा नाजुक था। पुलिस के हाथों गिरफ्तार हो जाना तो ज्यादा मुश्किल बात न थी। पुलिस के कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं। चूंकि अच्छे और बुरे तो सभी जगह होते हैं, लेकिन पुलिस के अफसर, कुछ लोगों को छोड़ कर, सभ्यता से इतने खाली नहीं होते कि जाति और देश पर जान देनेवालों के साथ दुर्व्यवहार करें; लेकिन नशेबाजों में यह जिम्मेदारी कहॉँ? उनमें तो अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें थुड़की-धमकी के सिवा और किसी शक्ति के सामने झुकने की आदत नहीं। मारपीट से नशा हिरन हो सकता है; पर शांतवादियों के लिए तो वह दरवाजा बंद है; तब कौन इस ओखली मे सिर दे, कौन पियक्कड़ों की गालियॉँ खाय? बहुत सभ्भव है कि वे हाथापाई पर बैठें। उनके हाथों पिटना किसे मंजूर हो सकता था? फिर पुलिस वाले भी बैठे तमाशा न देखेंगे। उन्हें और भी भड़काते रहैगे। पुलिस की शह पर ये नशे के बंदे जो कुछ न करे डालें, वह थोड़ा! ईंट का जवाब पत्थर से दे नहीं सकते और इस समुदाय पर विनती का कोई असार नहीं!
एक मेम्बर ने कहा-मेरे विचार मे तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और भी कोई उपाया नहीं सूझता।
सभापति ने कहा-हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किए लेता हूँ, पर धरना देना जरूरी है।
दूसरे महाशय बोले-उनके घरों पर जाकर समझाया जाए, तो अच्छा असर होगा।
सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा-यह भी अच्छा
उपाय है; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते।
फिर सन्नाटा हो गया।
पिछली कतार में एक देवी भी मौन बैठी हुई थी। जब कोई मेम्बर बोलता वह एक नजर उसकी तरफ डालकर फिर सिर झुका लेतीथीं। यही कॉँग्रेस की लेडी मेम्बर थीं। उनके पति महाशय जी० पी० सकसेना कॉँग्रेस के अच्छे काम करने वालों में थे। उनका देहांत हुए तीन साल हो गए थे। मिसेज सकसेना ने इधर एक साल से कॉँग्रेस के कामों में भाग लेना शुरू कर दिया था और कॉँग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मेम्बर चुन लिया था। वह शरीफ घरानों में जाकर स्वदेशी और खद्दर का प्रचार करती थीं। जब कभी कॉँग्रेस के प्लेटफार्म पर बोलने खड़ी होतीं तो उनका जोश देखकर ऐसा मालूम होता था, आकाश में उड़ जाना चाहती हैं। कुंदन का-सा रंग लाल हो जाता था, बड़ी-बड़ी करूण ऑंखें जिनमें जल भरा हुआ मालूम होता था, चमकने लगती थीं। बड़ी खुश मिजाज और इसके साथ बला की निर्भीक स्त्री थीं। दबी हुई चिनगारी थी, जो हवा पाकर दहक उठती है। उसके मामूली शब्दों में इतना आकर्षण कहॉँ से आ जाता था, कह नहीं सकते। कमेटी के कई जवान मेम्बर, जो पहले कॉँग्रेस में बहुत कम आते थे, अब बिलानागा आने लगे थे। मिसेज सकसेना कोई भी प्रस्ताव करें, उनका अनुमोदन करने वालों की कमी न थी। उनकी सादगी, उनका उत्साह, उनकी विनय, उनकी मृदु-वाणी कांग्रेस पर उनका सिक्का जमाये देती थी। हर आदमी उनकी खातिर सम्मान की सीमा तक करता था; पर उनकी स्वाभाविक नम्रता उन्हें अपने दैवी साधनों से पूरा-पूरा फायदा न उठाने देती थी। जब कमरे में आतीं, लोग खड़े हो जाते थे; पर वह पिछली सफ से आगे न बढ़ती थीं।
मिसेज सक्सेना ने प्रधान से पूछा-शराब की दूकानों पर औरतें धरना दे सकती हैं?
सबकी आंखें उनकी ओर उठ गयीं। इस प्रश्न का आशय सब समझ गये।
प्रधान ने कातर स्वर में कहा-महात्मा जी ने तो यह काम औरतों को ही सुपुर्द करने पर जोर दिया है पर...
मिसेज सकसेना ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। बोलीं-तो फिर मुझे इस काम पर भेज दीजिए।
लोगों ने कुतूहल की ऑंखों से मिसेज सकसेना को देखा। यह सुकुमारी जिसके कोमल अंगों मे शायद हवा भी चुभती हो, गंदी गलियों में ताड़ी और शराब की दुर्गंध-भरी दूकानों के सामने जाने और नशे से पागल आदमियों की कुलषित ऑंखों और बॉँहों का सामना करने को कैसे तैयार हो गयी।
एक महाशय ने अपने समीप के आदमी के कान में कहा-बला की निडर औरत है।
उन महाशय ने जले हुए शब्दों मे उत्तर दिया- हम लोगों को कॉटो में घसीटना चाहती है, और कुछ नहीं। वह बेचारी क्या पिकेटिंग करेंगी। दूकान के सामने खड़ा तक तो हुआ न जाएगा।
प्रधान ने सिर झुकाकर कहा-मै। आपके साहस और उत्सर्ग की प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मेरे विचार में अभी इस शहर की दशा ऐसी नहीं है कि देवियॉँ पिकेटिंग कर सकें। आपको खबर नहीं, नशेबाज कितने मुँहफट होते हैं। विनय तो वह जानते ही नहीं!
मिसेज सकसेना ने व्यंग्य भाव से कहा-तो क्या आपका विचार है कि कोई ऐसा जमाना भी आएग, जब शराबी लोग विनय और शील के पुतले बन जॉँएगे? यह दशा तो हमेशा ही रहैगी। आखिर महात्माजी ने कुछ समझकर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है! मैं नहीं कह सकती कि मुझे कहॉँ तक सफलता होगी; पर इस कर्तव्य को टालने से काम न चलेगा।
प्रधान ने पसोपेश में पकड़कर कहा-मैं तो आपको इस काम के लिए घसीटना उचित नहीं समझता, आगे आपको अख्तियार है।
मिसेज सकसेना ने जैसे विनय का आलिंगन करते हुए कहा-मैं आपके पास फरियाद लेकर न आऊँगी कि मुझे फँला आदमी ने मारा या गाली दी। इतना जानती हूँ कि अगर मैं सफल हो गयी, तो ऐसी स्त्रियों की कमी न रहैगी जो इस काम को सोलहो आने अपने हाथ में न ले लें।
इस पर एक नौजवान मेम्बर ने कहा-मैं सभापति जी से निवेदन करूँगा कि मिसेज सकसेना को यह काम देकर आप हिंसा का सामना कर रहै हैं। इससे यह कहीं अच्छा है कि आप मुझे यह काम सौंपे।
इस नौजवान मेम्बर का नाम या जयराम। एक बार एक कड़ा व्याख्यान देने के लिए जेल हो आये थे, पर उस वक्त उनके सिर गृहस्थी का भार न था। कानून पड़ते थे। अब उनका विवाह हो गया था, दो-तीन बच्चे भी हो गये थे, दशा बदल गयी थी। दिल में वही जोश, वही तड़प, वही दर्द था, पर अपनी हालत से मजबूर थे।
मिसेज सकसेना की ओर नम्र आग्रह से देखकर बोले-आप मेरी खातिर इस गंदे काम में हाथ न डालें। मुझे एक सप्ताह का अवसर दीजिए! अगर इस बीच में कही दंगा हो जाय, तो आपको मुझे निकाल देने का अधिकार होगा।
मिसेज सकसेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है, जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चॉंटा लगाया था और उसकी सजा तीन महीने और बढ़ गयी थी। बोलीं-आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं घंमड नहीं करती पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।
जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा-आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूल जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दंडता घटती जाती है।
प्रधान ने कहा-मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें।
जयराम ने प्रसन्न होकर कहा-मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।
मिसेज़ सकसेना ने निराश होकर कहा-महाशय, जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियॉँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।
२
दूसरे दिन, तीसरे पहर जयराम पॉँच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने की पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने सड़क की पटरी पर, अंदर के ऑंगन में नशेबाजों की टोलियॉँ विष में अमृत का आनंद लूट रहीं थीं। कोई वहॉँ अफलातून से कम न था। कहीं वीरता की डींग घी, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का आलाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है।
एक बूढ़ा शराबी कह रहा था-भैया, जिंदगानी का भरोसा नहीं। हॉँ, कोई भरोसा नहीं। मेरी बात मान लो, जिदंगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जाएगा। धन-दौलत, जगह-जमीन सब धरी रह जाएगी!
दो ताड़ीवालों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी-
‘हम-तुम रिआया है भाई! हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें?’
‘अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियॉँ दे लो: लेकिन मैदान में आना कठिन है।’
‘कहॉँ की बात भैया, सरकार तो बड़ी चीज है, लाल पगड़ी देखकर आना कठिन है।’
‘छोटा आदमी भर-पेट खाके बैठता, है तो समझता है, अब बादशाह हमीं है। लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।’
‘बहुन पक्की बातें कहते हो खॉँ साहब! अपनी असलियत पर डटे रहो। जो राजा है, वह राजा है! जो परजा है, वह परजा है। भला परजा कहीं राजा हो सकता है?’
इतने में जयराम ने आकर कहा-राम-राम भाइयों राम-राम!
पॉँच-छह खद्दरधारी मनुष्यों को देखकर सभी लोग उनकी ओर शंका और कुतूहल से ताकने लगे। दूकानदार ने चुपके से अपने एक नौकर के कान में कुछ कहा और नौकर दूकान से उतरकर चला गया।
जयराम ने झंडे को जमीन पर खड़ा करके कहा-भाइयों, महात्मा गॉँधी का हुक्म है कि आप लोग ताड़ी-शराब न पियें। जो रुपये आप यहॉँ उड़ा देते हैं, वह अगर अपने बाल-बच्चों को खिलाने में खर्च करें, तो कितनी अच्छी बात हो। जरा देर के नशे के लिए आप अपने बाल-बच्चों को भूखों मारते हैं, गंदे घरों में रहते हैं, महाजन की गालियॉँ खाते हैं। सोचिए, इस रुपये से आप अपने प्यारे बच्चों को कितने आराम से रख सकते हैं!
एक बूढ़े शराबी ने अपने साथी से कहा-भैया, है तो बुरी चीज, घर तबाह करके छोड़ देती है। मुदा इतनी उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़ें? उसके साथी ने समर्थन किया-पक्की बात कहते हो चौधरी! जब इतीन उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़े?
जयराम ने कहा-वाह चौधरी यही तो उमिर है छोड़ने की। जवानी दो दीवानी होती है, उस वक्त सब कुछ मुआफ है।
चौधरी ने तो कोई जवाब न दिया! लेकिन उसके साथी ने, जो काला,
मोटा, बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला आदमी था, सरल आपत्ति के भाव से कहा-अगर पीना बुरा है, तो अँगरेज क्यों पीते हैं?
जयराम वकील था, उससे बहस करना भिड़ के छत्ते को छेड़ना था। बोला-यह तुमने बहुत अच्छा सवाल पूछा भाई। अँगरेजों के बाप-दादा अभी डेढ़-दो सौ साल पहले लुटेरे थे। हमारे-तुम्हारे बाप-दादा ऋषि-मुनि थे। लुटेरों की संतान पिये, तो पीने दो। उनके पास न कोई धर्म है, न नीति! लेकिन ऋषियों की संतान उनकी नकल क्यों करे? हम और तुम उन महात्माओं की संतान है, जिन्होंने दुनिया को सिखाया, जिन्होंने दुनिया को आदमी बनाया। हम अपना धर्म छोड़ बैठे, उसी का फल है कि आज हम गुलाम हैं। लेकिन अब हमने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का फैसला कर लिया है और...
एकाएक थानेदार और चार-पॉँच कॉँस्टेबल आ खड़े हुए।
थानेदार ने चौधरी से पूछा-यह लोग तुमको धमका रहै हैं?
चौधरी ने खड़े होकर कहा-नहीं हुजूर, यह तो हमें समझा रहै हैं। कैसे प्रेम से समझा रहै हैं कि वाह!
थानेदार ने जयराम से कहा-अगर यहॉँ फिसाद हो जाए, तो आप जिम्मेदार होंगे?
जयराम-मैं उस वक्त तक जिम्मेदार हूँ, जब तक आप न रहै।
‘आपका मतलब है कि मैं फिसाद कराने आया हूँ?’
‘मैं यह नहीं कहता; लेकिन आप आये हैं, तो अँगरेजी साम्राज्य की अतुल शक्ति का परिचय जरूर ही दीजिएगा। जनता मे उत्तेजना फैलेगी। तब आप पिल पड़ेंगे और दस-बीस आदमियों को मार गिरायेंगे। वही सब जगह होता है और यहॉँ भी होगा।’
सब इन्सपेक्टर ने ओठ चबाकर कहा-मैं आपसे कहता हूँ, यहॉँ से चले जाइए, वरना मुझे जाब्ते की कार्रवाई करनी पड़ेगी।
जयराम ने अविचल भाव से कहा-और मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे अपना काम करने दीजिए। मेरे बहुत-से भाई यहॉँ जमा हैं और मुझे उनसे बातचीत करने का उतना ही हक है जितना आपको।
इस वक्त तक सैकड़ों दर्शक जमा हो गये थे। दारोगा ने अफसरों से पूछे बगैर और कोई कार्रवाई करना उचित न समझा। अकड़ते हुए दूकान पर गये और कुरसी पर पावँ रखकर बोले-ये लोग तो मानने वाले नहीं हैं।
दूकानदार ने गिड़गिड़ाकर कहा-हुजूर, मेरी तो बघिया बैठ जाएगी।
दारोगा-दो-चार गुण्डे बुलाकर भगा क्यों नहीं देते? मैं कुछ न बोलूँगा। हॉँ, जरा एक बोतल अच्छी-सी भेज देना। कल न जाने क्या भेज दिया, कुछ मजा ही नहीं आया।
थानेदार चला गया, तो चौधरी ने अपने साथी से कहा-देखा कल्लू, थानेदार कितना बिगड़ रहा था? सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पीयें और कोई हमें समझाने न पाये। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है?
कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा-हर एक बहाने से पैसा खींचते हैं सब।
चौधरी-तो फिर क्या सलाह है? है तो बुरी चीज?
कल्लू-बहुत बुरी चीज है भैया, महात्मा जी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।
चौधरी-अच्छा तो यह लो, आज से अगर पिये तो दोगला।
यह कहते हुए चौधरी ने बोतल जमीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब जमीन पर बह कर सूख गयी।
जयराम को शायद जिंदगी में कभी इतनी खुशी न हुई थी। जोर-जोर से तालियॉँ बजा कर उछल पड़े।
उसी वक्त दोनों ताड़ी पीनेवालों मे भी ‘महात्मा जी की जय’ पुकारी और अपनी हॉँड़ी जमीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपक कर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।
३
सड़क की पटरी पर कई नशेबाज बैठे इन चारों आदमियों की तरफ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहै थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहॉँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अंगरेजों की मांस-मदिरा या ताड़ी को जिंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बगैर जिंदगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुर्बलेन्द्रिय होने के कारण नित्य आ कर पी जाते थे। चौधरी जैसे घाघ पियक्कड़ को बोतल पटकते देख कर उनकी ऑंखें खुल गयीं
एक मरियल दाढ़ीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी। चौधरी ने उसे पीछे ढकेल कर कहा-पीठ क्या ठोंकते हो जी, जा कर अपनी बोतल पटक दो।
दाढ़ीवाले ने कहा-आज और पी लेने दो चौधरी! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा।
चौधर-जितनी बची हो, उसके पैसे हमसे ले लो। घर जाकर बच्चों को मिठाई खिला देना।
दाढ़ीवाले ने जा कर बोतल पटक दी और बोला-लो, तुम भी क्या कहोगे? अब तो हुए खुश!
चौधरी-अब तो न पीयोगे कभी?
दाढ़ीवाले ने कहा-अगर तुम न पीयोगे, तो मैं भी न पीऊँगा। जिस दिन तुमने पी, उसी दिन फिर शुरू कर दी।
चौधरी की तत्परता से दुराग्रह की जड़ें हिला दीं। बाहर अभी पॉँच-छह आदमी और थे। वे सचेत निर्लज्जता से बैठे हुए अभी तक पीते जाते थे। जयराम ने उनके सामने जा कर कहा-भाइयों, आपके पॉँच भाइयों ने अभी आपके सामने अपनी-अपनी बोतल पटक दी। क्या आप उन लोगों को बाजी जीत ले जाने देंगे?
एक ठिगने, काले आदमी ने जो किसी अँगरेज का खाननामा मालूम होता था, लाल-लाल ऑंखें निकाल कर कहा-हम पीते हैं, तुमसे मतलब? तुमसे भीख मॉँगने तो नहीं जाते?
जयराम ने समझ लिया, अब बाजी मार ली। गुमराह आदमी जब विवाद करने पर उतर आये, तो समझ लो, वह रास्ते पर आ जायेगा। चुप्पा ऐब वह चिकना घड़ा है, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता।
जयराम ने कहा-अगर मै अपने घर में आग लगाऊँ, तो उसे देखकर क्या आप मेरा हाथ न पकड़ लेंगे,? मुझे तो इसमें रत्ती भर संदेह नहीं है कि आप मेरा हाथ ही न पकड़ लेंगे, बल्कि मुझे वहॉँ से जबरदस्ती खींच ले जायेंगे।
चौधरी ने खानसामा की तरफ मुग्ध ऑंखों से देखा, मानों कह रहा है-इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है? और बोला-जमादार, अब इसी बात पर बोतल पटक दो।
खानसामा ने जैसे काट खाने के लिए दॉँत तेज कर लिए और बोला-बोतल क्यों पटक दूँ, पैसे नहीं दिये है?
चौधरी परास्त हो गया। जयराम ने बोला- इन्हें छोड़िए बाबू जी, यह लोग इस तरह मानने वाले असामी नहीं है। आप इनके सामने जान भी दे दें तो भी शराब न छोड़ेंगे। हॉँ, पुलिस की एक घुड़की पा जायँ तो फिर कभी इधर भूल कर भी न आयें।
खानसामा ने चौधरी की ओर तिरस्कार के भाव रो देखा, जैसे कह रहा हो-क्या तुम समझते हो कि मैं मनुष्य हूँ, यह सब पशु है? फिर बोला- तुमसे क्या मतलब है जी, क्यों बीच में कूद पड़ते हो? मैं तो बाबू जी से बात कर रहा हूँ। तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले? मै तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि बोतल पटक कर वाह-वाह कराऊँ। कल फिर मुँह में कालिख लगाऊँ, घर पर मँगवा कर पीऊँ? जब यहॉँ छोड़ेंगे, तो सच्चे दिल से छोड़ेंगे। फिर कोई लाख रुपये भी दे तो ऑंख उठा कर न देखें।
जयराम-मुझे आप लोगों से ऐसी ही आशा है।
चौधरी ने खानसामा की ओर कटाक्ष करके कहा-क्या समझते हो, मैं कल फिर पीने आऊँगा?
खानसामा ने उद्दडंता से कहा-हॉँ-हॉँ; कहता हूँ, तुम आओगे और बद कर आओगे। कहो, पक्के कागज पर लिख दूँ!
चौधरी-अच्छा भाई, तुम बड़े धरमात्मा हो, मैं पापी सही। तुम छोड़ोगे तो जिंदगी-भर के लिए छोड़ोगे, मैं आज छोड़ कर कल फिर पीने लगूंगा, यही सही। मेरी एक बात गॉँठ बॉँध लो। तुम उस बखत छोड़ोगे, जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते। जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते।
खासनामा-तुम मेरे दिल का हाल क्या जानते हो?
चौधरी-जानता हूँ, तुम्हारे जैसे सैकड़ों आदमी को भुगत चुका हूँ।
खासनामा-तो तुमने ऐसे-वैसे बेशर्मों को देखा होगा। हयादार आदमियों को न देखा होगा।
यह कहते हुए उसने जा कर बोतल पटक दी और बोला-अब अगर तुम इस दूकान पर देखना, तो मुहॅं में कालिख लगा देना।
चारों तरफ तालियॉँ बजने लगीं। मर्द ऐसे होते हैं!
ठीकेदार ने दूकान के नीचे उतर कर कहा-तुम लोग अपनी-अपनी दूकान पर क्यों नहीं जाते जी? मैं तो किसी की दूकान पर नहीं जाता?
एक दर्शक ने कहा-खड़े हैं, तो तुमसे मतलब? सड़क तुम्हारी नहीं हैं? तुम गरीबों को लूट जाओ। किसी के बाल-बच्चे भूखों मरें तुम्हारा क्या बिगड़ता है। (दूसरे शराबियों सें) क्या यारो, अब भी पीते जाओगे! जानते हो, यह किसका हुक्म है? अरे कुछ भी तो शर्म हो?
जयराम ने दर्शकों से कहा-आप लोग यहॉँ भीड़ न लगायें और न किसी को भला-बुरा कहै।
मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चार-पॉँच आदमी बे-गम बैठे हुए कुल्हड़ चढ़ा रहै थे। एक मनचले आदमी ने जा कर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बीच मे रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उसके स्वयं सेवक तुरंत वहॉँ पहुँच गये और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़ कर जयराम की तरफ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्ला कर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, घूँसे और डंडे चलाने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाये। दोनों हाथ फैलाये उन चारों के वारों से बच रहा था; वह चारों भी आपे से बाहर होकर दर्शकों पर डंडे चला रहै थे। जयराम दोनों तरफ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उस पर पड़ते थे, तमाशाईयों के वार भी उसी पर पड़ते थे; पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक्त अपनी जान बचा कर हट जाता, तो शराबियों की खैरियत न थी। इसका दोष कॉँग्रेस पर पड़ता। वह कॉँग्रेस का इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज सकसेना का अपने ऊपर हँसने का मौका वह न देना चाहता था।
आखिर उसके सिर पर डंडा इस जोर से पड़ा कि वह सिर पकड़ कर बैठ गया। आँखों के के सामने तितलियॉँ उड़ने लगी। फिर उसे होश न रहा।
४
जयराम सारी रात बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन सुबह को जब उसे होश आया, तो सारी देह में पीड़ा हो रही थी और कमजोरी इतनी थी कि रह-रह कर जी डूबता जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ ऑंख उठ गयी, तो मिसेज सकसेना बैठी नजर आयीं। उन्हें देखते ही स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठ बैठा। दर्द और कमजोरी दोनो जैसे गायब हो गयी। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गयी।
मिसेज सकसेना ने उसके सिर पर हाथ रख कर कहा-आपको बड़ी चोट आयी। इसका सारा दोष मुझ पर है।
जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देख कर कहा-चोट तो ऐसी ज्यादा न था, इन लोगों ने बरबस पट्टी-सट्टी बॉँध कर जख्मी बना दिया।
मिसेज सकसेना ने ग्लानित हो कर कहा-मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।
जयराम-आपका वहॉँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही
अनुरोध करूँगा कि उस तरफ न जाइएगा।
मिसेज सकसेना ने जैसे उन बाधाओं पर हॅंस कर कहा-वाह! मुझे आज से वहॉँ पिकेट करने की आज्ञा मिल गयी है।
‘आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज कसना बिलकुल मामूली बात है।’
‘मैं आवाजों की परवाह नहीं करती!’
‘तों फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा’
‘आप इस हालत में?’-मिसेज सकसेना ने आश्चर्य से कहा।
‘मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच!
‘यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहॉँ जाने के योग्य हैं, आपको न जाने दूँगी। किसी तरह नहीं।’
‘तो मैं भी आपको न जाने दूँगी।’
मिसेज सकसेना ने मृद़ु-व्यंग के साथ कहा-आप भी अन्य परुषों ही की भाँति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौका नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं।
जयराम ने व्यथित कंठ से कहा-जैसी आपकी इच्छा!
५
तीसरे पहर मिसेज सकसेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम ऑंखें बंद किए चारपाई पर पड़ा था। शोर सुन कर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा-यह कैसा शोर है?
स्त्री ने खिड़की से झॉँक कर देखा और बोली-वह औरत, जो कल आयी थी झंडा लिए कई आदमियों के साथ जा रही है। इसमें शर्म भी नहीं आती।
जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला-मैं भी वहीं जाता हूँ।
स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-अभी कल मार खा कर आये हो, आज फिर जाने की सूझी!
जयराम ने हाथ छुड़ा कर कहा-तुम उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।
स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया-कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ, क्यों मेरी जान के ग्राहक हुए हो? उसकी देह में हीरे
नहीं जड़े हैं, जो वहॉँ कोई नोच लेगा!
जयराम ने मिन्नत करके कहा-मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू! अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जाएगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि देवी उन शोहदों के बीच में पिकेटिंग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहॉँ रहना जरूरी है! अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।
चम्मू ने जल कर कहा-यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज खींचे लिये जाती है!
जयराम ने मुस्करा कर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो-यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतरा कर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला-शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी है, कमेटी में तीस मेम्बर हैं; मगर सब के सब जी चुरा रहै हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराबखानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है? इसीलिए कि मरदों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहॉँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहॉँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियॉँ क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फिकरे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बनें? कम से कम मैं यह नहीं देख सकता।
वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा। चम्मू ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक तॉँगे पर बैठ कर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने तॉँगें को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेज कर खुद उसी दूकान में जा बैठा।
दूकानदार ने लेमनेड का एक गिलास उसे देते हुए कहा-बाबू जी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।
जयराम ने गिलास लेकर कहा-तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।
दूकानदार ने प्रतिवाद किया-नहीं बाबू जी, वह सब छँटे हुए गुंडे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारों तीन-तीन साल काट आये हैं।
अभी बीस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया। जयराम ने संचित हो कर पूछा-कहो, वहॉँ क्या हो रहा है?
स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहॉँ की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोल-कुछ नहीं, देवी जी आदमियों को समझा रही हैं।
जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानों कह रहै हों-बस इतना ही! इतना तो मैं जानता ही था।
स्वयंसेवक ने एक क्षण बाद फिर कहा-देवियों का ऐसे शोहादों के सामने जाना अच्छा नहीं।
जयराम ने अधीर होकर पूछा- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है।
स्वयंसेवक डरते-डरते बोला-सब के सब उनसे दिल्लगी कर रहै हैं। देवियों का यहॉँ आना अच्छा नहीं।
जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल ऑंखें निकाले बिजली की तरह कौधं कर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज सकसेना का हाथ पकड़ कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला-अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ जरा भी गुस्ताखी की, तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचायी थी आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़ कर रख दूँगा।
उसके बदले हुए तेवर को देख कर सब के सब नशेबाज घबड़ा गये। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज सकसेना ने गभ्भीर भाव से पूछा-आप यहॉँ क्यों आये! मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न मॉँगी थी?
जयराम ने लज्जित हो कर कहा-मैं इस नीयत से यहॉँ नहीं आया था। एक जरूरत से इधर आ निकला था। यहॉँ जमाव देख कर आ गया। मेरे ख्याल में आप अब यहॉँ से चलें। मैं आज कॉँग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।
मिसेज सकसेना ने तीखे स्वर में कहा-आपके विचार में दुनिया के सारे काम मरदों के लिए है!
जयराम-मेरा यह मतलब न था।
मिसेज सकसेना-तो आप जा कर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।
जयराम वहीं सिर झुकाये खड़ा रहा।
मिसेज सकसेना ने पूछा-अब आप क्यों खड़े हैं?
जयराम ने विनीत स्वर में कहा-मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूंगा।
मिसेज़ सकसेना ने कठोर स्वर में कहा—जी नहीं, आप जायें।
जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भांति चला और आकर फिर उसी लेमनेड की दूकान पर बैठ गया। उसे जोर की प्यास लगी थी। उसने एक गिलास शर्बत बनवाया और सामने मेज पर रख कर विचार में डूब गया; मगर आंखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।
जब कोई आदमी दूकान पर आता, वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता—वहां कोई नयी बात तो नहीं हो गयी?
कोई आध घंटे बाद वही स्वयंससेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा—वहां क्या हो रहा है जी?
स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रख कर कहा—मैं कुछ नहीं जानता बाबू जी, मुझसे कुछ न पूछिए।
जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा—फिर कोई छेड़छाड़ हुई?
स्वयंसेवक—जी नहीं, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ीं।
जयराम निस्पंद बैठा रहा; पर उसके अंतराल में भूकम्प-सा मचा हुआ था। बोला—उनके साथ के साथ के स्वयंसेवक क्या कर रहै हैं?
‘खड़े हैं, देवी जी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।’
‘तो क्या बड़े जोर से धक्का दिया ?’
‘जी हां, गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गयी। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गयी, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवी जी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धक्का दे दिया। वही जो काला-काला मोटा-सा आदमी है ! कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।’
जयराम उन्माद की दशा में वहां से उठा और दौड़ता हुए शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सकसेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थीं और वह काला मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपक कर उसकी गर्दन पकड़ ली और इतने जोर से दबाई कि उसकी आंखें बाहर निकल आयीं। मालूम होता था, उसके हाथ फौलाद के हो गये हैं।
सहसा मिसेज़ सकसेना ने आकर उसका फौलादी हाथ पकड़ लिया
और भवें सिकोड़ कर बोलीं—छोड़ दो इसकी गर्दन क्या इसकी जान ले लोगे?
जयराम ने और जोर से उसकी गर्दन दबायी और बोला—हां, ले लूंगा? ऐसे दुष्ट की यही सजा है।
मिसेज़ सकसेना ने अधिकार-गर्व से गर्दन उठाकर कहा—आपको यहां आने का कोई अधिकार नहीं है।
एक दर्शक ने कहा—ऐसा दबाओ बाबूजी, कि साला ठंडा हो जाय। इसने देवी जी को ऐसा ढकेला कि बेचारी गिर पड़ीं। हमें तो बोलने का हुक्म नहीं है, नहीं तो हड्डी तोड़ कर रख देते।
जयराम ने शराबी की गर्दन छोड़ दी। वह किसी बाज के चगुंल से छूटी हुई चिड़िया की तरह सहमा हुआ खड़ा हो गया। उसे एक धक्का देते हुए उसने मिसेज़ सकसेना से कहा—आप यहां से चलती क्यों नहीं? आप जायं, मैं बैठता हूं; अगर एक छटांक शराब बिक जाय, तो मेरा कान पकड़ लीजियेगा।
उसका दम फूलने लगा। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। वह खड़ा न रह सका। जमीन पर बैठ कर रुमाल से माथे का पसीना पोंछने लगा।
मिसेज़ सकसेना ने परिहास करके कहा—आप कांग्रेस नहीं हैं कि मैं आपका हुक्म मानूं। अगर आप यहां से न जायंगे, तो मैं सत्याग्रह करुंगी।
फिर एकाएक कठोर होकर बोलीं—जब तक कांग्रेस ने इस काम का भार मुझ पर रखा है, आपको मेरे बीच में बोलने का कोई हक नहीं है। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस-कमेटी के सामने आपको इसका जवाब देना होगा।
जयराम तिमिला उठा। बिना कोई जवाब दिये लौट पड़ा और वेग से घर की तरफ चला; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, उसकी गति मंद होती जाती थी। यहां तक कि बाजार के दूसरे सिरे पर आ कर वह रुक गया। रस्सी यहां खतम हो गयी। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहां तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गयी थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगंध आ रही थी।
उसे फिर चिंता हुई न जाने वहां क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और कोई दुष्टता न की हो, या पुलिस न आ जाय।
वह बाजार की तरफ मुड़ा लेकिन एक कदम ही चल कर फिर रुक
गया। ऐसे पसोपेश में वह कभी न पड़ा था।
सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ता आता दिखाई देता। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी तरफ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गये।
जयराम ने हांफते हुए पूछा—क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो?
स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा—बड़ा गजब हो गया बाबू जी ! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला, तो देवी जी दरवाजे पर बैठ गयीं। वह बार-बार देवी जी को हटाकर निकलना चाहता है; पर वह फिर आ कर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कुछ कपड़े फट गये हैं और कुछ चोट भी...
अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबखाने की तरफ दौड़ा।
६
जयराम शराबखाने के सामने पहुंचा तो देखा, मिसेज़ सकसेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सकसेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम ने डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आंचल पर रक्त की बूंदें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिनगारियां जैसे उसके रोम-रोम में समा गयीं। उसका खून खौलने लगा, मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूर जारे के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद की जगह वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे खबर न थी।
वह पूरे जारे से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सकसेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गयीं उसे कुछ पता न चला। जब वह जमीन पर गिर पड़ीं, तब उसे जैसे होश हआ गया हो। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल, निस्पंद खड़ा हो गया, मानों उसका रक्तप्रवाह रुक गया है।
चारों स्वयंससेवकों ने दौड़ कर मिसेज़ सकसेना को पंखा झलना शुरु किया। दूकानदार ठंडा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा, पर जयराम वहीं बेजान खड़ा था जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक्त कोई उसकी आँखें लाल लोहै से फोड़ देता, तब भी वह चूं न करता।
फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत, पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया।
उसी वक्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल जमीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा।
एक शरीबी ने लैसंसदार से कहा—तुम्हारा रोजगार अन्य लोगों की जान लेकर रहैगा। अब तो अभी दूसरा ही दिन है।
लैसंसदार ने कहा—कल से मेरा इस्तीफा है। अब स्वेदेशी कपड़े का रोजगार करुंगा, जिसमें जस भी है और उपकार भी।
शरीबी ने कहा—घाटा तो बहुत रहेगा।
दूकानदार ने किस्मत ठोंक कर कहा—घाटा-नफा तो जिंदगानी के साथ है।
एक मेम्बर ने कहा-मेरे विचार मे तो इन जातों में पंचायतों को फिर सँभालना चाहिए। इधर लापरवाही से उनकी पंचायतें निर्जीव हो गई हैं। इसके सिवा मुझे तो और भी कोई उपाया नहीं सूझता।
सभापति ने कहा-हाँ, यह एक उपाय है। मैं इसे नोट किए लेता हूँ, पर धरना देना जरूरी है।
दूसरे महाशय बोले-उनके घरों पर जाकर समझाया जाए, तो अच्छा असर होगा।
सभापति ने अपनी चिकनी खोपड़ी सहलाते हुए कहा-यह भी अच्छा
उपाय है; मगर धरने को हम लोग त्याग नहीं सकते।
फिर सन्नाटा हो गया।
पिछली कतार में एक देवी भी मौन बैठी हुई थी। जब कोई मेम्बर बोलता वह एक नजर उसकी तरफ डालकर फिर सिर झुका लेतीथीं। यही कॉँग्रेस की लेडी मेम्बर थीं। उनके पति महाशय जी० पी० सकसेना कॉँग्रेस के अच्छे काम करने वालों में थे। उनका देहांत हुए तीन साल हो गए थे। मिसेज सकसेना ने इधर एक साल से कॉँग्रेस के कामों में भाग लेना शुरू कर दिया था और कॉँग्रेस-कमेटी ने उन्हें अपना मेम्बर चुन लिया था। वह शरीफ घरानों में जाकर स्वदेशी और खद्दर का प्रचार करती थीं। जब कभी कॉँग्रेस के प्लेटफार्म पर बोलने खड़ी होतीं तो उनका जोश देखकर ऐसा मालूम होता था, आकाश में उड़ जाना चाहती हैं। कुंदन का-सा रंग लाल हो जाता था, बड़ी-बड़ी करूण ऑंखें जिनमें जल भरा हुआ मालूम होता था, चमकने लगती थीं। बड़ी खुश मिजाज और इसके साथ बला की निर्भीक स्त्री थीं। दबी हुई चिनगारी थी, जो हवा पाकर दहक उठती है। उसके मामूली शब्दों में इतना आकर्षण कहॉँ से आ जाता था, कह नहीं सकते। कमेटी के कई जवान मेम्बर, जो पहले कॉँग्रेस में बहुत कम आते थे, अब बिलानागा आने लगे थे। मिसेज सकसेना कोई भी प्रस्ताव करें, उनका अनुमोदन करने वालों की कमी न थी। उनकी सादगी, उनका उत्साह, उनकी विनय, उनकी मृदु-वाणी कांग्रेस पर उनका सिक्का जमाये देती थी। हर आदमी उनकी खातिर सम्मान की सीमा तक करता था; पर उनकी स्वाभाविक नम्रता उन्हें अपने दैवी साधनों से पूरा-पूरा फायदा न उठाने देती थी। जब कमरे में आतीं, लोग खड़े हो जाते थे; पर वह पिछली सफ से आगे न बढ़ती थीं।
मिसेज सक्सेना ने प्रधान से पूछा-शराब की दूकानों पर औरतें धरना दे सकती हैं?
सबकी आंखें उनकी ओर उठ गयीं। इस प्रश्न का आशय सब समझ गये।
प्रधान ने कातर स्वर में कहा-महात्मा जी ने तो यह काम औरतों को ही सुपुर्द करने पर जोर दिया है पर...
मिसेज सकसेना ने उन्हें अपना वाक्य पूरा न करने दिया। बोलीं-तो फिर मुझे इस काम पर भेज दीजिए।
लोगों ने कुतूहल की ऑंखों से मिसेज सकसेना को देखा। यह सुकुमारी जिसके कोमल अंगों मे शायद हवा भी चुभती हो, गंदी गलियों में ताड़ी और शराब की दुर्गंध-भरी दूकानों के सामने जाने और नशे से पागल आदमियों की कुलषित ऑंखों और बॉँहों का सामना करने को कैसे तैयार हो गयी।
एक महाशय ने अपने समीप के आदमी के कान में कहा-बला की निडर औरत है।
उन महाशय ने जले हुए शब्दों मे उत्तर दिया- हम लोगों को कॉटो में घसीटना चाहती है, और कुछ नहीं। वह बेचारी क्या पिकेटिंग करेंगी। दूकान के सामने खड़ा तक तो हुआ न जाएगा।
प्रधान ने सिर झुकाकर कहा-मै। आपके साहस और उत्सर्ग की प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मेरे विचार में अभी इस शहर की दशा ऐसी नहीं है कि देवियॉँ पिकेटिंग कर सकें। आपको खबर नहीं, नशेबाज कितने मुँहफट होते हैं। विनय तो वह जानते ही नहीं!
मिसेज सकसेना ने व्यंग्य भाव से कहा-तो क्या आपका विचार है कि कोई ऐसा जमाना भी आएग, जब शराबी लोग विनय और शील के पुतले बन जॉँएगे? यह दशा तो हमेशा ही रहैगी। आखिर महात्माजी ने कुछ समझकर ही तो औरतों को यह काम सौंपा है! मैं नहीं कह सकती कि मुझे कहॉँ तक सफलता होगी; पर इस कर्तव्य को टालने से काम न चलेगा।
प्रधान ने पसोपेश में पकड़कर कहा-मैं तो आपको इस काम के लिए घसीटना उचित नहीं समझता, आगे आपको अख्तियार है।
मिसेज सकसेना ने जैसे विनय का आलिंगन करते हुए कहा-मैं आपके पास फरियाद लेकर न आऊँगी कि मुझे फँला आदमी ने मारा या गाली दी। इतना जानती हूँ कि अगर मैं सफल हो गयी, तो ऐसी स्त्रियों की कमी न रहैगी जो इस काम को सोलहो आने अपने हाथ में न ले लें।
इस पर एक नौजवान मेम्बर ने कहा-मैं सभापति जी से निवेदन करूँगा कि मिसेज सकसेना को यह काम देकर आप हिंसा का सामना कर रहै हैं। इससे यह कहीं अच्छा है कि आप मुझे यह काम सौंपे।
इस नौजवान मेम्बर का नाम या जयराम। एक बार एक कड़ा व्याख्यान देने के लिए जेल हो आये थे, पर उस वक्त उनके सिर गृहस्थी का भार न था। कानून पड़ते थे। अब उनका विवाह हो गया था, दो-तीन बच्चे भी हो गये थे, दशा बदल गयी थी। दिल में वही जोश, वही तड़प, वही दर्द था, पर अपनी हालत से मजबूर थे।
मिसेज सकसेना की ओर नम्र आग्रह से देखकर बोले-आप मेरी खातिर इस गंदे काम में हाथ न डालें। मुझे एक सप्ताह का अवसर दीजिए! अगर इस बीच में कही दंगा हो जाय, तो आपको मुझे निकाल देने का अधिकार होगा।
मिसेज सकसेना जयराम को खूब जानती थीं। उन्हें मालूम था कि यह त्याग और साहस का पुतला है और अब तक परिस्थितियों के कारण पीछे दबका हुआ था। इसके साथ ही वह यह भी जानती थीं कि इसमें वह धैर्य और बर्दाश्त नहीं है, जो पिकेटिंग के लिए लाजमी है। जेल में उसने दारोगा को अपशब्द कहने पर चॉंटा लगाया था और उसकी सजा तीन महीने और बढ़ गयी थी। बोलीं-आपके सिर गृहस्थी का भार है। मैं घंमड नहीं करती पर जितने धैर्य से मैं यह काम कर सकती हूँ, आप नहीं कर सकते।
जयराम ने उसी नम्र आग्रह के साथ कहा-आप मेरे पिछले रेकार्ड पर फैसला कर रही हैं। आप भूल जाती हैं कि आदमी की अवस्था के साथ उसकी उद्दंडता घटती जाती है।
प्रधान ने कहा-मैं चाहता हूँ, महाशय जयराम इस काम को अपने हाथों में लें।
जयराम ने प्रसन्न होकर कहा-मैं सच्चे हृदय से आपको धन्यवाद देता हूँ।
मिसेज़ सकसेना ने निराश होकर कहा-महाशय, जयराम, आपने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है और मैं इसे कभी क्षमा न करूँगी। आप लोगों ने इस बात का आज नया परिचय दे दिया कि पुरुषों के अधीन स्त्रियॉँ अपने देश की सेवा भी नहीं कर सकतीं।
२
दूसरे दिन, तीसरे पहर जयराम पॉँच स्वयंसेवकों को लेकर बेगमगंज के शराबखाने की पिकेटिंग करने जा पहुँचा। ताड़ी और शराब-दोनों की दूकानें मिली हुई थीं। ठीकेदार भी एक ही था। दूकान के सामने सड़क की पटरी पर, अंदर के ऑंगन में नशेबाजों की टोलियॉँ विष में अमृत का आनंद लूट रहीं थीं। कोई वहॉँ अफलातून से कम न था। कहीं वीरता की डींग घी, कहीं अपने दान-दक्षिणा के पचड़े, कहीं अपने बुद्धि-कौशल का आलाप। अहंकार नशे का मुख्य रूप है।
एक बूढ़ा शराबी कह रहा था-भैया, जिंदगानी का भरोसा नहीं। हॉँ, कोई भरोसा नहीं। मेरी बात मान लो, जिदंगानी का कोई भरोसा नहीं। बस यही खाना-खिलाना याद रह जाएगा। धन-दौलत, जगह-जमीन सब धरी रह जाएगी!
दो ताड़ीवालों में एक दूसरी बहस छिड़ी हुई थी-
‘हम-तुम रिआया है भाई! हमारी मजाल है कि सरकार के सामने सिर उठा सकें?’
‘अपने घर में बैठकर बादशाह को गालियॉँ दे लो: लेकिन मैदान में आना कठिन है।’
‘कहॉँ की बात भैया, सरकार तो बड़ी चीज है, लाल पगड़ी देखकर आना कठिन है।’
‘छोटा आदमी भर-पेट खाके बैठता, है तो समझता है, अब बादशाह हमीं है। लेकिन अपनी हैसियत को भूलना न चाहिए।’
‘बहुन पक्की बातें कहते हो खॉँ साहब! अपनी असलियत पर डटे रहो। जो राजा है, वह राजा है! जो परजा है, वह परजा है। भला परजा कहीं राजा हो सकता है?’
इतने में जयराम ने आकर कहा-राम-राम भाइयों राम-राम!
पॉँच-छह खद्दरधारी मनुष्यों को देखकर सभी लोग उनकी ओर शंका और कुतूहल से ताकने लगे। दूकानदार ने चुपके से अपने एक नौकर के कान में कुछ कहा और नौकर दूकान से उतरकर चला गया।
जयराम ने झंडे को जमीन पर खड़ा करके कहा-भाइयों, महात्मा गॉँधी का हुक्म है कि आप लोग ताड़ी-शराब न पियें। जो रुपये आप यहॉँ उड़ा देते हैं, वह अगर अपने बाल-बच्चों को खिलाने में खर्च करें, तो कितनी अच्छी बात हो। जरा देर के नशे के लिए आप अपने बाल-बच्चों को भूखों मारते हैं, गंदे घरों में रहते हैं, महाजन की गालियॉँ खाते हैं। सोचिए, इस रुपये से आप अपने प्यारे बच्चों को कितने आराम से रख सकते हैं!
एक बूढ़े शराबी ने अपने साथी से कहा-भैया, है तो बुरी चीज, घर तबाह करके छोड़ देती है। मुदा इतनी उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़ें? उसके साथी ने समर्थन किया-पक्की बात कहते हो चौधरी! जब इतीन उमर पीते कट गयी, तो अब मरते दम क्या छोड़े?
जयराम ने कहा-वाह चौधरी यही तो उमिर है छोड़ने की। जवानी दो दीवानी होती है, उस वक्त सब कुछ मुआफ है।
चौधरी ने तो कोई जवाब न दिया! लेकिन उसके साथी ने, जो काला,
मोटा, बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला आदमी था, सरल आपत्ति के भाव से कहा-अगर पीना बुरा है, तो अँगरेज क्यों पीते हैं?
जयराम वकील था, उससे बहस करना भिड़ के छत्ते को छेड़ना था। बोला-यह तुमने बहुत अच्छा सवाल पूछा भाई। अँगरेजों के बाप-दादा अभी डेढ़-दो सौ साल पहले लुटेरे थे। हमारे-तुम्हारे बाप-दादा ऋषि-मुनि थे। लुटेरों की संतान पिये, तो पीने दो। उनके पास न कोई धर्म है, न नीति! लेकिन ऋषियों की संतान उनकी नकल क्यों करे? हम और तुम उन महात्माओं की संतान है, जिन्होंने दुनिया को सिखाया, जिन्होंने दुनिया को आदमी बनाया। हम अपना धर्म छोड़ बैठे, उसी का फल है कि आज हम गुलाम हैं। लेकिन अब हमने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का फैसला कर लिया है और...
एकाएक थानेदार और चार-पॉँच कॉँस्टेबल आ खड़े हुए।
थानेदार ने चौधरी से पूछा-यह लोग तुमको धमका रहै हैं?
चौधरी ने खड़े होकर कहा-नहीं हुजूर, यह तो हमें समझा रहै हैं। कैसे प्रेम से समझा रहै हैं कि वाह!
थानेदार ने जयराम से कहा-अगर यहॉँ फिसाद हो जाए, तो आप जिम्मेदार होंगे?
जयराम-मैं उस वक्त तक जिम्मेदार हूँ, जब तक आप न रहै।
‘आपका मतलब है कि मैं फिसाद कराने आया हूँ?’
‘मैं यह नहीं कहता; लेकिन आप आये हैं, तो अँगरेजी साम्राज्य की अतुल शक्ति का परिचय जरूर ही दीजिएगा। जनता मे उत्तेजना फैलेगी। तब आप पिल पड़ेंगे और दस-बीस आदमियों को मार गिरायेंगे। वही सब जगह होता है और यहॉँ भी होगा।’
सब इन्सपेक्टर ने ओठ चबाकर कहा-मैं आपसे कहता हूँ, यहॉँ से चले जाइए, वरना मुझे जाब्ते की कार्रवाई करनी पड़ेगी।
जयराम ने अविचल भाव से कहा-और मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे अपना काम करने दीजिए। मेरे बहुत-से भाई यहॉँ जमा हैं और मुझे उनसे बातचीत करने का उतना ही हक है जितना आपको।
इस वक्त तक सैकड़ों दर्शक जमा हो गये थे। दारोगा ने अफसरों से पूछे बगैर और कोई कार्रवाई करना उचित न समझा। अकड़ते हुए दूकान पर गये और कुरसी पर पावँ रखकर बोले-ये लोग तो मानने वाले नहीं हैं।
दूकानदार ने गिड़गिड़ाकर कहा-हुजूर, मेरी तो बघिया बैठ जाएगी।
दारोगा-दो-चार गुण्डे बुलाकर भगा क्यों नहीं देते? मैं कुछ न बोलूँगा। हॉँ, जरा एक बोतल अच्छी-सी भेज देना। कल न जाने क्या भेज दिया, कुछ मजा ही नहीं आया।
थानेदार चला गया, तो चौधरी ने अपने साथी से कहा-देखा कल्लू, थानेदार कितना बिगड़ रहा था? सरकार चाहती है कि हम लोग खूब शराब पीयें और कोई हमें समझाने न पाये। शराब का पैसा भी तो सरकार ही में जाता है?
कल्लू ने दार्शनिक भाव से कहा-हर एक बहाने से पैसा खींचते हैं सब।
चौधरी-तो फिर क्या सलाह है? है तो बुरी चीज?
कल्लू-बहुत बुरी चीज है भैया, महात्मा जी का हुक्म है, तो छोड़ ही देना चाहिए।
चौधरी-अच्छा तो यह लो, आज से अगर पिये तो दोगला।
यह कहते हुए चौधरी ने बोतल जमीन पर पटक दी। आधी बोतल शराब जमीन पर बह कर सूख गयी।
जयराम को शायद जिंदगी में कभी इतनी खुशी न हुई थी। जोर-जोर से तालियॉँ बजा कर उछल पड़े।
उसी वक्त दोनों ताड़ी पीनेवालों मे भी ‘महात्मा जी की जय’ पुकारी और अपनी हॉँड़ी जमीन पर पटक दी। एक स्वयंसेवक ने लपक कर फूलों की माला ली और चारों आदमियों के गले में डाल दी।
३
सड़क की पटरी पर कई नशेबाज बैठे इन चारों आदमियों की तरफ उस दुर्बल भक्ति से ताक रहै थे, जो पुरुषार्थहीन मनुष्यों का लक्षण है। वहॉँ एक भी ऐसा व्यक्ति न था, जो अंगरेजों की मांस-मदिरा या ताड़ी को जिंदगी के लिए अनिवार्य समझता हो और उसके बगैर जिंदगी की कल्पना भी न कर सके। सभी लोग नशे को दूषित समझते थे, केवल दुर्बलेन्द्रिय होने के कारण नित्य आ कर पी जाते थे। चौधरी जैसे घाघ पियक्कड़ को बोतल पटकते देख कर उनकी ऑंखें खुल गयीं
एक मरियल दाढ़ीवाले आदमी ने आकर चौधरी की पीठ ठोंकी। चौधरी ने उसे पीछे ढकेल कर कहा-पीठ क्या ठोंकते हो जी, जा कर अपनी बोतल पटक दो।
दाढ़ीवाले ने कहा-आज और पी लेने दो चौधरी! अल्लाह जानता है, कल से इधर भूलकर भी न आऊँगा।
चौधर-जितनी बची हो, उसके पैसे हमसे ले लो। घर जाकर बच्चों को मिठाई खिला देना।
दाढ़ीवाले ने जा कर बोतल पटक दी और बोला-लो, तुम भी क्या कहोगे? अब तो हुए खुश!
चौधरी-अब तो न पीयोगे कभी?
दाढ़ीवाले ने कहा-अगर तुम न पीयोगे, तो मैं भी न पीऊँगा। जिस दिन तुमने पी, उसी दिन फिर शुरू कर दी।
चौधरी की तत्परता से दुराग्रह की जड़ें हिला दीं। बाहर अभी पॉँच-छह आदमी और थे। वे सचेत निर्लज्जता से बैठे हुए अभी तक पीते जाते थे। जयराम ने उनके सामने जा कर कहा-भाइयों, आपके पॉँच भाइयों ने अभी आपके सामने अपनी-अपनी बोतल पटक दी। क्या आप उन लोगों को बाजी जीत ले जाने देंगे?
एक ठिगने, काले आदमी ने जो किसी अँगरेज का खाननामा मालूम होता था, लाल-लाल ऑंखें निकाल कर कहा-हम पीते हैं, तुमसे मतलब? तुमसे भीख मॉँगने तो नहीं जाते?
जयराम ने समझ लिया, अब बाजी मार ली। गुमराह आदमी जब विवाद करने पर उतर आये, तो समझ लो, वह रास्ते पर आ जायेगा। चुप्पा ऐब वह चिकना घड़ा है, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता।
जयराम ने कहा-अगर मै अपने घर में आग लगाऊँ, तो उसे देखकर क्या आप मेरा हाथ न पकड़ लेंगे,? मुझे तो इसमें रत्ती भर संदेह नहीं है कि आप मेरा हाथ ही न पकड़ लेंगे, बल्कि मुझे वहॉँ से जबरदस्ती खींच ले जायेंगे।
चौधरी ने खानसामा की तरफ मुग्ध ऑंखों से देखा, मानों कह रहा है-इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है? और बोला-जमादार, अब इसी बात पर बोतल पटक दो।
खानसामा ने जैसे काट खाने के लिए दॉँत तेज कर लिए और बोला-बोतल क्यों पटक दूँ, पैसे नहीं दिये है?
चौधरी परास्त हो गया। जयराम ने बोला- इन्हें छोड़िए बाबू जी, यह लोग इस तरह मानने वाले असामी नहीं है। आप इनके सामने जान भी दे दें तो भी शराब न छोड़ेंगे। हॉँ, पुलिस की एक घुड़की पा जायँ तो फिर कभी इधर भूल कर भी न आयें।
खानसामा ने चौधरी की ओर तिरस्कार के भाव रो देखा, जैसे कह रहा हो-क्या तुम समझते हो कि मैं मनुष्य हूँ, यह सब पशु है? फिर बोला- तुमसे क्या मतलब है जी, क्यों बीच में कूद पड़ते हो? मैं तो बाबू जी से बात कर रहा हूँ। तुम कौन होते हो बीच में बोलने वाले? मै तुम्हारी तरह नहीं हूँ कि बोतल पटक कर वाह-वाह कराऊँ। कल फिर मुँह में कालिख लगाऊँ, घर पर मँगवा कर पीऊँ? जब यहॉँ छोड़ेंगे, तो सच्चे दिल से छोड़ेंगे। फिर कोई लाख रुपये भी दे तो ऑंख उठा कर न देखें।
जयराम-मुझे आप लोगों से ऐसी ही आशा है।
चौधरी ने खानसामा की ओर कटाक्ष करके कहा-क्या समझते हो, मैं कल फिर पीने आऊँगा?
खानसामा ने उद्दडंता से कहा-हॉँ-हॉँ; कहता हूँ, तुम आओगे और बद कर आओगे। कहो, पक्के कागज पर लिख दूँ!
चौधरी-अच्छा भाई, तुम बड़े धरमात्मा हो, मैं पापी सही। तुम छोड़ोगे तो जिंदगी-भर के लिए छोड़ोगे, मैं आज छोड़ कर कल फिर पीने लगूंगा, यही सही। मेरी एक बात गॉँठ बॉँध लो। तुम उस बखत छोड़ोगे, जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते। जब जिंदगी तुम्हारा साथ छोड़ देगी। इसके पहले तुम नहीं छोड़ सकते।
खासनामा-तुम मेरे दिल का हाल क्या जानते हो?
चौधरी-जानता हूँ, तुम्हारे जैसे सैकड़ों आदमी को भुगत चुका हूँ।
खासनामा-तो तुमने ऐसे-वैसे बेशर्मों को देखा होगा। हयादार आदमियों को न देखा होगा।
यह कहते हुए उसने जा कर बोतल पटक दी और बोला-अब अगर तुम इस दूकान पर देखना, तो मुहॅं में कालिख लगा देना।
चारों तरफ तालियॉँ बजने लगीं। मर्द ऐसे होते हैं!
ठीकेदार ने दूकान के नीचे उतर कर कहा-तुम लोग अपनी-अपनी दूकान पर क्यों नहीं जाते जी? मैं तो किसी की दूकान पर नहीं जाता?
एक दर्शक ने कहा-खड़े हैं, तो तुमसे मतलब? सड़क तुम्हारी नहीं हैं? तुम गरीबों को लूट जाओ। किसी के बाल-बच्चे भूखों मरें तुम्हारा क्या बिगड़ता है। (दूसरे शराबियों सें) क्या यारो, अब भी पीते जाओगे! जानते हो, यह किसका हुक्म है? अरे कुछ भी तो शर्म हो?
जयराम ने दर्शकों से कहा-आप लोग यहॉँ भीड़ न लगायें और न किसी को भला-बुरा कहै।
मगर दर्शकों का समूह बढ़ता जाता था। अभी तक चार-पॉँच आदमी बे-गम बैठे हुए कुल्हड़ चढ़ा रहै थे। एक मनचले आदमी ने जा कर उस बोतल को उठा लिया, जो उनके बीच मे रखी हुई थी और उसे पटकना चाहता था कि चारों शराबी उठ खड़े हुए और उसे पीटने लगे। जयराम और उसके स्वयं सेवक तुरंत वहॉँ पहुँच गये और उसे बचाने की चेष्टा करने लगे कि चारों उसे छोड़ कर जयराम की तरफ लपके। दर्शकों ने देखा कि जयराम पर मार पड़ा चाहती है, तो कई आदमी झल्ला कर उन चारों शराबियों पर टूट पड़े। लातें, घूँसे और डंडे चलाने लगे। जयराम को इसका कुछ अवसर न मिलता था कि किसी को समझाये। दोनों हाथ फैलाये उन चारों के वारों से बच रहा था; वह चारों भी आपे से बाहर होकर दर्शकों पर डंडे चला रहै थे। जयराम दोनों तरफ से मार खाता था। शराबियों के वार भी उस पर पड़ते थे, तमाशाईयों के वार भी उसी पर पड़ते थे; पर वह उनके बीच से हटता न था। अगर वह इस वक्त अपनी जान बचा कर हट जाता, तो शराबियों की खैरियत न थी। इसका दोष कॉँग्रेस पर पड़ता। वह कॉँग्रेस का इस आक्षेप से बचाने के लिए अपने प्राण देने पर तैयार था। मिसेज सकसेना का अपने ऊपर हँसने का मौका वह न देना चाहता था।
आखिर उसके सिर पर डंडा इस जोर से पड़ा कि वह सिर पकड़ कर बैठ गया। आँखों के के सामने तितलियॉँ उड़ने लगी। फिर उसे होश न रहा।
४
जयराम सारी रात बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन सुबह को जब उसे होश आया, तो सारी देह में पीड़ा हो रही थी और कमजोरी इतनी थी कि रह-रह कर जी डूबता जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ ऑंख उठ गयी, तो मिसेज सकसेना बैठी नजर आयीं। उन्हें देखते ही स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठ बैठा। दर्द और कमजोरी दोनो जैसे गायब हो गयी। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गयी।
मिसेज सकसेना ने उसके सिर पर हाथ रख कर कहा-आपको बड़ी चोट आयी। इसका सारा दोष मुझ पर है।
जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देख कर कहा-चोट तो ऐसी ज्यादा न था, इन लोगों ने बरबस पट्टी-सट्टी बॉँध कर जख्मी बना दिया।
मिसेज सकसेना ने ग्लानित हो कर कहा-मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।
जयराम-आपका वहॉँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही
अनुरोध करूँगा कि उस तरफ न जाइएगा।
मिसेज सकसेना ने जैसे उन बाधाओं पर हॅंस कर कहा-वाह! मुझे आज से वहॉँ पिकेट करने की आज्ञा मिल गयी है।
‘आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज कसना बिलकुल मामूली बात है।’
‘मैं आवाजों की परवाह नहीं करती!’
‘तों फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा’
‘आप इस हालत में?’-मिसेज सकसेना ने आश्चर्य से कहा।
‘मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच!
‘यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहॉँ जाने के योग्य हैं, आपको न जाने दूँगी। किसी तरह नहीं।’
‘तो मैं भी आपको न जाने दूँगी।’
मिसेज सकसेना ने मृद़ु-व्यंग के साथ कहा-आप भी अन्य परुषों ही की भाँति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौका नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं।
जयराम ने व्यथित कंठ से कहा-जैसी आपकी इच्छा!
५
तीसरे पहर मिसेज सकसेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम ऑंखें बंद किए चारपाई पर पड़ा था। शोर सुन कर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा-यह कैसा शोर है?
स्त्री ने खिड़की से झॉँक कर देखा और बोली-वह औरत, जो कल आयी थी झंडा लिए कई आदमियों के साथ जा रही है। इसमें शर्म भी नहीं आती।
जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला-मैं भी वहीं जाता हूँ।
स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा-अभी कल मार खा कर आये हो, आज फिर जाने की सूझी!
जयराम ने हाथ छुड़ा कर कहा-तुम उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।
स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया-कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ, क्यों मेरी जान के ग्राहक हुए हो? उसकी देह में हीरे
नहीं जड़े हैं, जो वहॉँ कोई नोच लेगा!
जयराम ने मिन्नत करके कहा-मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू! अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जाएगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि देवी उन शोहदों के बीच में पिकेटिंग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहॉँ रहना जरूरी है! अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।
चम्मू ने जल कर कहा-यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज खींचे लिये जाती है!
जयराम ने मुस्करा कर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो-यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतरा कर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला-शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी है, कमेटी में तीस मेम्बर हैं; मगर सब के सब जी चुरा रहै हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराबखानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है? इसीलिए कि मरदों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहॉँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहॉँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियॉँ क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फिकरे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बनें? कम से कम मैं यह नहीं देख सकता।
वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा। चम्मू ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक तॉँगे पर बैठ कर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने तॉँगें को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेज कर खुद उसी दूकान में जा बैठा।
दूकानदार ने लेमनेड का एक गिलास उसे देते हुए कहा-बाबू जी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।
जयराम ने गिलास लेकर कहा-तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।
दूकानदार ने प्रतिवाद किया-नहीं बाबू जी, वह सब छँटे हुए गुंडे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारों तीन-तीन साल काट आये हैं।
अभी बीस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया। जयराम ने संचित हो कर पूछा-कहो, वहॉँ क्या हो रहा है?
स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहॉँ की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोल-कुछ नहीं, देवी जी आदमियों को समझा रही हैं।
जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानों कह रहै हों-बस इतना ही! इतना तो मैं जानता ही था।
स्वयंसेवक ने एक क्षण बाद फिर कहा-देवियों का ऐसे शोहादों के सामने जाना अच्छा नहीं।
जयराम ने अधीर होकर पूछा- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, क्या बात है।
स्वयंसेवक डरते-डरते बोला-सब के सब उनसे दिल्लगी कर रहै हैं। देवियों का यहॉँ आना अच्छा नहीं।
जयराम ने और कुछ न पूछा। डंडा उठाया और लाल-लाल ऑंखें निकाले बिजली की तरह कौधं कर शराबखाने के सामने जा पहुँचा और मिसेज सकसेना का हाथ पकड़ कर पीछे हटाता हुआ शराबियों से बोला-अगर तुम लोगों ने देवियों के साथ जरा भी गुस्ताखी की, तो तुम्हारे हक़ में अच्छा न होगा। कल मैंने तुम लोगों की जान बचायी थी आज इसी डंडे से तुम्हारी खोपड़ी तोड़ कर रख दूँगा।
उसके बदले हुए तेवर को देख कर सब के सब नशेबाज घबड़ा गये। वे कुछ कहना चाहते थे कि मिसेज सकसेना ने गभ्भीर भाव से पूछा-आप यहॉँ क्यों आये! मैंने तो आपसे कहा था, अपनी जगह से न हिलिएगा। मैंने तो आपसे मदद न मॉँगी थी?
जयराम ने लज्जित हो कर कहा-मैं इस नीयत से यहॉँ नहीं आया था। एक जरूरत से इधर आ निकला था। यहॉँ जमाव देख कर आ गया। मेरे ख्याल में आप अब यहॉँ से चलें। मैं आज कॉँग्रेस कमेटी में यह सवाल पेश करूँगा कि इस काम के लिए पुरुषों को भेजें।
मिसेज सकसेना ने तीखे स्वर में कहा-आपके विचार में दुनिया के सारे काम मरदों के लिए है!
जयराम-मेरा यह मतलब न था।
मिसेज सकसेना-तो आप जा कर आराम से लेटें और मुझे अपना काम करने दें।
जयराम वहीं सिर झुकाये खड़ा रहा।
मिसेज सकसेना ने पूछा-अब आप क्यों खड़े हैं?
जयराम ने विनीत स्वर में कहा-मैं भी यहीं एक किनारे खड़ा रहूंगा।
मिसेज़ सकसेना ने कठोर स्वर में कहा—जी नहीं, आप जायें।
जयराम धीरे-धीरे लदी हुई गाड़ी की भांति चला और आकर फिर उसी लेमनेड की दूकान पर बैठ गया। उसे जोर की प्यास लगी थी। उसने एक गिलास शर्बत बनवाया और सामने मेज पर रख कर विचार में डूब गया; मगर आंखें और कान उसी तरफ़ लगे हुए थे।
जब कोई आदमी दूकान पर आता, वह चौंककर उसकी तरफ़ ताकने लगता—वहां कोई नयी बात तो नहीं हो गयी?
कोई आध घंटे बाद वही स्वयंससेवक फिर डरा हुआ-सा आकर खड़ा हो गया। जयराम ने उदासीन बनने की चेष्टा करके पूछा—वहां क्या हो रहा है जी?
स्वयंसेवक ने कानों पर हाथ रख कर कहा—मैं कुछ नहीं जानता बाबू जी, मुझसे कुछ न पूछिए।
जयराम ने एक साथ ही नम्र और कठोर होकर पूछा—फिर कोई छेड़छाड़ हुई?
स्वयंसेवक—जी नहीं, कोई छेड़छाड़ नहीं हुई। एक आदमी ने देवी जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़ीं।
जयराम निस्पंद बैठा रहा; पर उसके अंतराल में भूकम्प-सा मचा हुआ था। बोला—उनके साथ के साथ के स्वयंसेवक क्या कर रहै हैं?
‘खड़े हैं, देवी जी उन्हें बोलने ही नहीं देतीं।’
‘तो क्या बड़े जोर से धक्का दिया ?’
‘जी हां, गिर पड़ीं। घुटनों में चोट आ गयी। वे आदमी साथ पी रहे थे। जब एक बोतल उड़ गयी, तो उनमें से एक आदमी दूसरी बोतल लेने चला। देवी जी ने रास्ता रोक लिया। बस, उसने धक्का दे दिया। वही जो काला-काला मोटा-सा आदमी है ! कलवाले चारों आदमियों की शरारत है।’
जयराम उन्माद की दशा में वहां से उठा और दौड़ता हुए शराबखाने के सामने आया। मिसेज़ सकसेना सिर पकड़े जमीन पर बैठी हुई थीं और वह काला मोटा आदमी दूकान के कठघरे के सामने खड़ा था। पचासों आदमी जमा थे। जयराम ने उसे देखते ही लपक कर उसकी गर्दन पकड़ ली और इतने जोर से दबाई कि उसकी आंखें बाहर निकल आयीं। मालूम होता था, उसके हाथ फौलाद के हो गये हैं।
सहसा मिसेज़ सकसेना ने आकर उसका फौलादी हाथ पकड़ लिया
और भवें सिकोड़ कर बोलीं—छोड़ दो इसकी गर्दन क्या इसकी जान ले लोगे?
जयराम ने और जोर से उसकी गर्दन दबायी और बोला—हां, ले लूंगा? ऐसे दुष्ट की यही सजा है।
मिसेज़ सकसेना ने अधिकार-गर्व से गर्दन उठाकर कहा—आपको यहां आने का कोई अधिकार नहीं है।
एक दर्शक ने कहा—ऐसा दबाओ बाबूजी, कि साला ठंडा हो जाय। इसने देवी जी को ऐसा ढकेला कि बेचारी गिर पड़ीं। हमें तो बोलने का हुक्म नहीं है, नहीं तो हड्डी तोड़ कर रख देते।
जयराम ने शराबी की गर्दन छोड़ दी। वह किसी बाज के चगुंल से छूटी हुई चिड़िया की तरह सहमा हुआ खड़ा हो गया। उसे एक धक्का देते हुए उसने मिसेज़ सकसेना से कहा—आप यहां से चलती क्यों नहीं? आप जायं, मैं बैठता हूं; अगर एक छटांक शराब बिक जाय, तो मेरा कान पकड़ लीजियेगा।
उसका दम फूलने लगा। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। वह खड़ा न रह सका। जमीन पर बैठ कर रुमाल से माथे का पसीना पोंछने लगा।
मिसेज़ सकसेना ने परिहास करके कहा—आप कांग्रेस नहीं हैं कि मैं आपका हुक्म मानूं। अगर आप यहां से न जायंगे, तो मैं सत्याग्रह करुंगी।
फिर एकाएक कठोर होकर बोलीं—जब तक कांग्रेस ने इस काम का भार मुझ पर रखा है, आपको मेरे बीच में बोलने का कोई हक नहीं है। आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस-कमेटी के सामने आपको इसका जवाब देना होगा।
जयराम तिमिला उठा। बिना कोई जवाब दिये लौट पड़ा और वेग से घर की तरफ चला; पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, उसकी गति मंद होती जाती थी। यहां तक कि बाजार के दूसरे सिरे पर आ कर वह रुक गया। रस्सी यहां खतम हो गयी। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहां तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गयी थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगंध आ रही थी।
उसे फिर चिंता हुई न जाने वहां क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और कोई दुष्टता न की हो, या पुलिस न आ जाय।
वह बाजार की तरफ मुड़ा लेकिन एक कदम ही चल कर फिर रुक
गया। ऐसे पसोपेश में वह कभी न पड़ा था।
सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ता आता दिखाई देता। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी तरफ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गये।
जयराम ने हांफते हुए पूछा—क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो?
स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा—बड़ा गजब हो गया बाबू जी ! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला, तो देवी जी दरवाजे पर बैठ गयीं। वह बार-बार देवी जी को हटाकर निकलना चाहता है; पर वह फिर आ कर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कुछ कपड़े फट गये हैं और कुछ चोट भी...
अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबखाने की तरफ दौड़ा।
६
जयराम शराबखाने के सामने पहुंचा तो देखा, मिसेज़ सकसेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सकसेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम ने डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आंचल पर रक्त की बूंदें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिनगारियां जैसे उसके रोम-रोम में समा गयीं। उसका खून खौलने लगा, मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूर जारे के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद की जगह वह एक-एक घड़ा खून बहा देना चाहता था। खून उसे कभी इतना प्यारा न था। खून में इतनी उत्तेजना है, इसकी उसे खबर न थी।
वह पूरे जारे से लकड़ी चला रहा था। मिसेज़ सकसेना कब आकर उसके सामने खड़ी हो गयीं उसे कुछ पता न चला। जब वह जमीन पर गिर पड़ीं, तब उसे जैसे होश हआ गया हो। उसने लकड़ी फेंक दी और वहीं निश्चल, निस्पंद खड़ा हो गया, मानों उसका रक्तप्रवाह रुक गया है।
चारों स्वयंससेवकों ने दौड़ कर मिसेज़ सकसेना को पंखा झलना शुरु किया। दूकानदार ठंडा पानी लेकर दौड़ा। एक दर्शक डाक्टर को बुलाने भागा, पर जयराम वहीं बेजान खड़ा था जैसे स्वयं अपने तिरस्कार-भाव का पुतला बन गया हो। अगर इस वक्त कोई उसकी आँखें लाल लोहै से फोड़ देता, तब भी वह चूं न करता।
फिर वहीं सड़क पर बैठकर उसने अपने लज्जित, तिरस्कृत, पराजित मस्तक को भूमि पर पटक दिया और बेहोश हो गया।
उसी वक्त उस काले मोटे शराबी ने बोतल जमीन पर पटक दी और उसके सिर पर ठंडा पानी डालने लगा।
एक शरीबी ने लैसंसदार से कहा—तुम्हारा रोजगार अन्य लोगों की जान लेकर रहैगा। अब तो अभी दूसरा ही दिन है।
लैसंसदार ने कहा—कल से मेरा इस्तीफा है। अब स्वेदेशी कपड़े का रोजगार करुंगा, जिसमें जस भी है और उपकार भी।
शरीबी ने कहा—घाटा तो बहुत रहेगा।
दूकानदार ने किस्मत ठोंक कर कहा—घाटा-नफा तो जिंदगानी के साथ है।