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परिच्छेद 21

विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार अपने सहस्र तरु-जाल से ढका है, उसी प्रकार दुर्ग अपने पत्थरों में जकड़ा है। अरण्य सावधान है, दुर्ग चौकन्ना है। अरण्य व्याघ्र के समान हाथ-पैर सिकोड़े पूँछ समेटे बैठा है, दुर्ग सिंह के समान केशर फुलाए गर्दन टेढ़ी किए खड़ा है। अरण्य जमीन से कान लगाए सुन रहा है, दुर्ग आकाश में सिर उठाए देख रहा है।

रघुपति के जंगल से बाहर आते ही दुर्ग के प्राचीर पर खड़े प्रहरी चौकन्ने हो गए। शंख बज उठे। प्रहरी नाद करते हुए नख-दन्त खोल कर भृकुटी तान कर खड़े हो गए। रघुपति जनेऊ दिखा कर हाथ उठा कर संकेत करने लगा। सैनिक सतर्क खड़े रहे। जब रघुपति दुर्ग की प्राचीर के निकट पहुँचा, तो सैनिकों ने पूछा, "तुम कौन हो?"

रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण, अतिथि।"

दुर्गाधिपति विक्रम सिंह परम धर्मनिष्ठ हैं। देवता, ब्राह्मण और अतिथि की सेवा में लगे रहते हैं। जनेऊ रहने पर दुर्ग में प्रवेश के लिए और कोई पहचानपत्र आवश्यक नहीं था। लेकिन आज युद्ध के दिन क्या करना उचित है, सैनिक नहीं सोच पाए थे।

रघुपति ने कहा, "तुम लोगों के शरण न देने की स्थिति में मुझे मुसलमानों के हाथों मरना पड़ेगा।"

विक्रम सिंह के कानों में जब यह बात पहुँची, तो उन्होंने ब्राह्मण को दुर्ग में शरण देने की अनुमति प्रदान कर दी। प्राचीर के ऊपर से बाँस की एक सीढ़ी उतारी गई, रघुपति दुर्ग में दाखिल हो गया।

दुर्ग में सभी युद्ध की प्रतीक्षा में व्यस्त हैं। वृद्ध चाचा साहब ने ब्राह्मण की आवभगत का भार स्वयं सँभाल लिया। उनका असली नाम खड्ग सिंह है, किन्तु कोई उन्हें पुकारता है, चाचा साहब, कोई पुकारता है, सूबेदार साहब - क्यों पुकारता है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं देता। संसार में उनका कोई भतीजा नहीं है, भाई भी नहीं है, उन्हें चाचा होने का कोई अधिकार अथवा इसकी दूर तक संभावना नहीं है और उनके जितने भतीजे हैं, उनका सूबा उनकी अपेक्षा अधिक नहीं है, किन्तु आज तक किसी ने उनकी उपाधि के सम्बन्ध में किसी प्रकार की आपत्ति अथवा संदेह प्रकट नहीं किया। जो बिना भतीजे के ही चाचा हैं, बिना सूबे के ही सूबेदार हैं, संसार की अनित्यता और लक्ष्मी के चपलता-बंधन द्वारा उनके पद से हट जाने की कोई आशंका नहीं है।

चाचा साहब आकर बोले, "वाह वा, यही तो हुआ ब्राह्मण!" कहते हुए भक्ति में डूब कर प्रणाम किया। रघुपति का गठन एक प्रकार से तेजस्वी दीपशिखा के समान था. जिसे अचानक देख कर पतंग न्योछावर हो जाते थे।

चाचा साहब संसार की आजकल की शोचनीय दशा पर दुखी होकर बोले, "ठाकुर, आजकल वैसे ब्राह्मण कितने मिलते हैं!"

रघुपति ने कहा, "बहुत कम।"

चाचा साहब ने कहा, "पहले ब्राह्मण के मुख में अग्नि थी, अब समस्त अग्नि ने जठर में शरण ले ली है।"

रघुपति ने कहा, "वह भी क्या पहले की तरह है?"

चाचा साहब ने सिर हिला कर कहा, "सही बात है। अगस्त्य मुनि ने जिस परिमाण में पान किया था, यदि उसी परिमाण में भोजन भी करते, तो जरा सोच कर देखिए।"

रघुपति ने कहा, "और भी दृष्टांत हैं।"

चाचा साहब, "हाँ, हैं ही तो! जम्भु मुनि की पिपासा की बात सुनी जाती है, उनकी भूख के बारे में कहीं ही लिखा नहीं है, लेकिन एक अनुमान लगाया जा सकता है। हरीतकी खाने से ही कम खाया जाता है, ऐसी बात नहीं है, वे कितनी हरीतकियाँ प्रति दिन खाते थे, एक हिसाब रहने पर समझ सकता था।"

रघुपति ने ब्राह्मण के महात्म्य का स्मरण करके कहा, "नहीं साहब, आहार की ओर उनका विशेष ध्यान नहीं था।"

चाचा साहब जीभ दाँतों में दबाते हुए बोले, "राम राम, क्या कह रहे हैं ठाकुर? उन लोगों का जठरानल अत्यंत प्रबल था, इसका विशिष्ट प्रमाण है। देखिए ना, कालक्रम में और सारी अग्नियाँ बुझ गईं, होम की अग्नि भी और नहीं जलती, किन्तु..."

रघुपति ने तनिक क्षुब्ध होते हुए कहा, "होम की अग्नि और जलेगी कैसे? देश में घी रह कहाँ गया? नास्तिक सारी गायों को ठिकाने लगा रहे हैं, अब हव्य कहाँ मिलता है? होमाग्नि जले बिना ब्रह्मतेज और कब तक टिक सकता है?"

कहते हुए रघुपति अपनी जला डालने वाली शक्ति को बहुत अधिक अनुभव करने लगा।

चाचा साहब ने कहा, "सही कहा ठाकुर, गायों ने मर कर आजकल मनुष्य लोक में जन्म ग्रहण करना आरम्भ कर दिया है, किन्तु उनसे घी पाने की प्रत्याशा नहीं की जा सकती। दिमाग की पूरी तरह कमी है। ठाकुर का आगमन कहाँ से हो रहा है?"

रघुपति ने कहा, "त्रिपुरा की राजबाड़ी से।"

विजयगढ़ के बाहर स्थित भूगोल अथवा इतिहास के सम्बन्ध में चाचा साहब की साधारण-सी जानकारी थी। भारतवर्ष में विजयगढ़ के अतिरिक्त और कुछ जानने लायक है, उन्हें यह विश्वास भी नहीं है।

पूरी तरह अनुमान के आधार पर बोला, "अच्छा, त्रिपुरा के राजा बहुत बड़े राजा हैं?"

रघुपति ने इसका पूर्ण समर्थन किया।

चाचा साहब - "ठाकुर क्या करते हैं?"

रघुपति - "मैं त्रिपुरा का राजपुरोहित हूँ।"

चाचा साहब आँखें मींच कर सिर हिलाते हुए बोले, "आहा।" रघुपति के प्रति उनकी भक्ति अत्यधिक बढ़ गई।

"किसलिए आना हुआ?"

रघुपति ने कहा, "तीर्थ दर्शन के लिए।"

धूम की आवाज हुई। शत्रु पक्ष ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। चाचा साहब हँस कर आँखें मिचमिचाते हुए बोले, "वह कुछ नहीं, ढेला फेंक रहा है।" विजयगढ़ पर चाचा साहब का विश्वास जितना दृढ़ है, विजयगढ़ के पत्थर उतने मजबूत नहीं हैं। विदेशी पथिक के दुर्ग में प्रवेश करते ही चाचा साहब उस पर पूरा अधिकार करके बैठ जाते हैं और विजयगढ़ के महात्म्य को उसके मन में बद्धमूल कर देते हैं। रघुपति त्रिपुरा की राजबाड़ी से आया है, ऐसा अतिथि हमेशा नहीं आता, चाचा साहब अत्यंत उल्लास में हैं। अतिथि के साथ विजयगढ़ के पुरातत्व के सम्बन्ध में चर्चा करने लगे। बोले, "ब्रह्मा का अण्ड और विजयगढ़ का दुर्ग लगभग एक ही समय उत्पन्न हुए तथा ठीक मनु के बाद से ही विक्रम सिंह के पूर्वज इस दुर्ग पर अधिकार जमाए चले आ रहे हैं, इस विषय में कोई संशय नहीं हो सकता।" इस दुर्ग को शिव का कौन-सा वर प्राप्त है तथा कार्तवीर्यार्जुन इस दुर्ग में किस प्रकार बंदी हुआ था, वह भी रघुपति से छिपा नहीं रहा।

संध्या समय समाचार मिला, शत्रु पक्ष दुर्ग को कोई हानि नहीं पहुँचा पाया है। उन्होंने तोपें लगाई थीं, किन्तु तोपों के गोले दुर्ग तक नहीं पहुँच सके। चाचा साहब ने हँस कर रघुपति की ओर देखा। रहस्य यही कि दुर्ग को शिव का जो अमोघ वर प्राप्त है, उसका इससे प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या हो सकता है। लगता है, स्वयं नंदी तोपों के गोलों को बीच में ही लपक ले गए, उनसे कैलास पर गणपति और कार्तिकेय कंदुक-क्रीड़ा करेंगे।