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परिच्छेद 7

जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। जयसिंह के मन में अबाध वेग से ऐसी बातें उठने लगीं, जिन्होंने उसके आशैशव विश्वास के मूल पर निरंतर आघात करना प्रारम्भ कर दिया। जयसिंह पीड़ित और दुखी होने लगा।

किन्तु दु:स्वप्न की भाँति चिन्ता किसी भी तरह शांत नहीं होना चाहती। जयसिंह जिस देवी को इतने दिन तक माँ के रूप में जानता था, आज गुरुदेव ने उसके मातृत्व का हरण क्यों कर लिया, क्यों उसे हृदयहीन शक्ति के रूप में व्याख्यायित कर दिया। शक्ति का संतोष ही क्या और असंतोष ही क्या! शक्ति की आँखें कहाँ हैं अथवा कान ही कहाँ हैं! शक्ति तो महारथ के समान अपने सहस्र चक्रों के तले जगत को जोत कर घर्घर ध्वनि करती चली जा रही है, उसके सहारे कौन चल सका है, उसके नीचे दब कर कौन पिसा है, उसके ऊपर चढ़ कर कौन उत्सव मना रहा है, उसके नीचे आकर कौन आर्तनाद कर रहा है, वह इस विषय में क्या जान पाएगा! क्या उसका कोई सारथी नहीं है? क्या यही मेरा व्रत है कि पृथ्वी के निरीह असहाय भीरु जीवों का रक्त निकाल कर कालरूपिणी निष्ठुर शक्ति की प्यास बुझानी होगी! क्यों? वह तो अपना काम स्वयं ही कर रही है - उसके पास दुर्भिक्ष है, बाढ़ है, भूकंप है, बुढापा, महामारी, अग्निदाह है, निर्दय मानव-हृदय में स्थित हिंसा है - उसे मुझ क्षुद्र की क्या आवश्यकता!

उसके अगले दिन जो प्रभात हुआ, वह अति मनोहर प्रभात था। वर्षा थम गई है। पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। सूर्य-रश्मियाँ मानो वर्षा के जल में धुली हुई और कोमल हैं। वर्षा की बूँदों और सूर्य की किरणों में दशों दिशाएँ झलमल कर रही हैं। शुभ्र आनंद-प्रभा आकाश में, मैदान में, वन में, नदी के प्रवाह में प्रफुल्ल श्वेत शतदल की भाँति प्रस्फुटित हो उठी है। नील गगन में चीलें तैर रही हैं - इन्द्रधनुष के तोरण के नीचे से बगुलों की पंक्ति उड़ी चली जा रही है। पेड़-पेड़ पर गिलहरियाँ एक-दूसरे के पीछे दौड़ रही हैं। एक-दो अति भीरु खरगोश चौंक कर झुरमुट से बाहर निकालने के बाद फिर से आड़ खोज रहे हैं। मेमने अति दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ कर घास चर रहे हैं। गायें आज मन के आनंद में मैदान में भर गई हैं। चरवाहे गा रहे हैं। बगल में कलश थामी माओं का पल्लू पकड़े बालक-बालिकाएँ आज बाहर निकल आए हैं। वृद्ध पूजा के लिए पुष्प चुन रहे हैं। आज नदी में स्नान के लिए अनेक लोग एकत्र हो गए हैं, वे मधुर स्वर में बातें कर रहे हैं - नदी की कलकल ध्वनि भी लगातार हो रही है। आषाढ़ के प्रभात में इस जीवमयी, आनंदमयी धरा की ओर देख कर जयसिंह ने दीर्घ निश्वास छोडते हुए मंदिर में प्रवेश किया।

जयसिंह प्रतिमा की ओर देखते हुए हाथ जोड़ कर बोला, "क्यों माँ, आज ऐसी अप्रसन्न क्यों हो? एक दिन अपने जीवों का रक्त न देख पाने के कारण तुम्हारी भृकुटी??? इतनी चढ़ गई है! हम लोगों के हृदय में झाँक कर देखो, क्या भक्ति का कोई अभाव देख पा रही हो? क्या भक्तों का हृदय पा लेने से तुम्हारी तृप्ति नहीं होती, निरपराधों के शोणित की इच्छा है? अच्छा माँ, सच बताओ, क्या पुण्य-देह गोविन्द माणिक्य को पृथिवी से हटा कर यहाँ दानव-राज्य की स्थापना करना ही तुम्हारा उद्देश्य है? क्या तुम्हें राज-रक्त चाहिए ही? तुम्हारे मुँह से उत्तर सुने बिना मैं कभी भी राज-हत्या नहीं होने दूँगा, मैं बाधा खड़ी करूँगा। बोलो, हाँ या नहीं!"

निर्जन मंदिर में सहसा ध्वनि गूँजी, "हाँ।"

जयसिंह ने चौंकने के बाद ध्यान से देखा, किसी को भी नहीं देख पाया, महसूस हुआ, जैसे छाया के समान कुछ काँप गया। आवाज सुन कर पहले उसे लगा, मानो उसके गुरु का कंठ-स्वर है। बाद में सोचा, संभव है, माँ ने उसके गुरु के कंठ-स्वर में आदेश दिया हो! उसका शरीर रोमांचित हो उठा। वह भूमिष्ठ होकर प्रतिमा को प्रणाम करके शस्त्र लेकर बाहर निकल आया।