Get it on Google Play
Download on the App Store

ग्यारहवीं पुतली - त्रिलोचनी

ग्यारहवीं पुतली - त्रिलोचनी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है-

राजा विक्रमादित्य बहुत बड़े प्रजापालक थे। उन्हें हमेंशा अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि की ही चिन्ता सताती रहती थी। एक बार उन्होंने एक महायज्ञ करने की ठानी। असंख्य राजा-महाराजाओं, पण्डितों और ॠषियों को आमन्त्रित किया। यहाँ तक कि देवताओं को भी उन्होंने नहीं छोड़ा।

पवन देवता को उन्होंने खुद निमन्त्रण देने का मन बनाया तथा समुद्र देवता को आमन्त्रित करने का काम एक योग्य ब्राह्मण को सौंपा। दोनों अपने काम से विदा हुए। जब विक्रम वन में पहुँचे तो उन्होंने तय करना शुरू किया ताकि पवन देव का पता-ठिकाना ज्ञात हो। योग-साधना से पता चला कि पवन देव आजकल सुमेरु पर्वत पर वास करते हैं। उन्होंने सोचा अगर सुमेरु पर्वत पर पवन देवता का आवाहन किया जाए तो उनके दर्शन हो सकते है। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तो वे उपस्थित हो गए। उन्होंने उन्हें अपना उद्देश्य बताया। बेतालों ने उन्हें आनन-फानन में सुमेरु पर्वत की चोटी पर पहुँचा दिया। चोटी पर इतना तेज हवा थी कि पाँव जमाना मुश्किल था।

बड़े-बड़े वृक्ष और चट्टान अपनी जगह से उड़कर दूर चले जा रहे थे। मगर विक्रम तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे योग-साधना में सिद्धहस्त थे, इसलिए एक जगह अचल होकर बैठ गए। बाहरी दुनिया को भूलकर पवन देव की साधना में रत हो गए। न कुछ खाना, न पीना, सोना और आराम करना भूलकर साधना में लीन रहे। आखिरकार पवन देव ने सुधि ली। हवा का बहना बिल्कुल थम गया। मन्द-मन्द बहती हुई वायु शरीर की सारी थकान मिटाने लगी। आकाशवाणी हुई- "हे राजा विक्रमादित्य, तुम्हारी साधना से हम प्रसन्न हुए। अपनी इच्छा बता।"

विक्रम अगले ही क्षण सामान्य अवस्था में आ गए और हाथ जोड़कर बोले कि वे अपने द्वारा किए जा रहे महायज्ञ में पवन देव की उपस्थिति चाहते हैं। पवन देव के पधारने से उनके यज्ञ की शोभा बढ़ेगी। यह बात विक्रम ने इतना भावुक होकर कहा कि पवन देव हँस पड़े। उन्होंने जवाब दिया कि सशरीर यज्ञ में उनकी उपस्थिति असंभव है। वे अगर सशरीर गए, तो विक्रम के राज्य में भयंकर आँधी-तूफान आ जाएगा। सारे लहलहाते खेत, पेड़-पौधे, महल और झोपड़ियाँ- सब की सब उजड़ जाएँगी। रही उनकी उपस्थिति की बात, तो संसार के हर कोने में उनका वास है, इसलिए वे अप्रत्यक्ष रुप से उस महायज्ञ में भी उपस्थित रहेंगे। विक्रम उनका अभिप्राय समझकर चुप हो गए। पवन देव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि उनके राज्य में कभी अनावृष्टि नहीं होगी और कभी दुर्भिक्ष का सामना उनकी प्रजा नहीं करेगी। उसके बाद उन्होंने विक्रम को कामधेनु गाय देते हुए कहा कि इसकी कृपा से कभी भी विक्रम के राज्य में दूध की कमी नहीं होगी। जब पवनदेव लुप्त हो गए, तो विक्रमादित्य ने दोनों बेतालों का स्मरण किया और बेताल उन्हें लेकर उनके राज्य की सीमा तक आए।

जिस ब्राह्मण को विक्रम ने समुद्र देवता को आमन्त्रित करने का भार सौंपा था, वह काफी कठिनाइयों को झेलता हुआ सागर तट पर पहुँचा। उसने कमर तक सागर में घुसकर समुद्र देवता का आवाहन किया। उसने बार-बार दोहराया कि महाराजा विक्रमादित्य महायज्ञ कर रहे हैं और वह उनका दूत बनकर उन्हें आमंत्रित करने आया है। अंत में समुद्र देवता असीम गहराई से निकलकर उसके सामने प्रकट हुए। उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि उन्हें उस महायज्ञ के बारे में पवन देवता ने सब कुछ बता दिया है। वे पवन देव की तरह ही विक्रमादित्य के आमन्त्रण का स्वागत तो करते हैं, लेकिन सशरीर वहाँ सम्मिलित नहीं हो सकते हैं। ब्राह्मण ने समुद्र देवता से अपना आशय स्पष्ट करने का सादर निवेदन किया, तो वे बोले कि अगर वे यज्ञ में सम्मिलित होने गए तो उनके साथ अथाह जल भी जाएगा और उसके रास्तें में पड़नेवाली हर चीज़ डूब जाएगी। चारों ओर प्रलय-सी स्थिति पैदा हो जाएगी। सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

जब ब्राह्मण ने जानना चाहा कि उसके लिए उनका क्या आदेश हैं, तो समुद्र देवता बोले कि वे विक्रम को सकुशल महायज्ञ सम्पन्न कराने के लिए शुभकामनाएँ देते हैं। अप्रत्यक्ष रुप में यज्ञ में आद्योपति विक्रम उन्हें महसूस करेंगे, क्योंकि जल की एक-एक बून्द में उनका वास है। यज्ञ में जो जल प्रयुक्त होगा उसमें भी वे उपस्थित रहेंगे। उसके बाद उन्होंने ब्राह्मण को पाँच रत्न और एक घोड़ा देते हुए कहा- "मेरी ओर से राजा विक्रमादित्य को ये उपहार दे देना।" ब्राह्मण घोड़ा और रत्न लेकर वापस चल पड़ा। उसको पैदल चलता देख वह घोड़ा मनुष्य की बोली में उससे बोला कि इस लंबे सफ़र के लिए वह उसकी पीठ पर सवार क्यों नहीं हो जाता।

उसके ना-नुकुर करने पर घोड़े ने उसे समझाया कि वह राजा का दूत है, इसलिए उसके उपहार का उपयोग वह कर सकता है। ब्राह्मण जब राज़ी होकर बैठ गया तो वह घोड़ा पवन वेग से उसे विक्रम के दरबार ले आया। घोड़े की सवारी के दौरान उसके मन में इच्छा जगी- "काश! यह घोड़ा मेरा होता!" जब विक्रम को उसने समुद्र देवता से अपनी बातचीत सविस्तार बताई और उन्हें उनके दिए हुए फुहार दिए, तो उन्होंने उसे पाँचों रत्न तथा घोड़ा उसे ही प्राप्त होने चाहिए, चूँकि रास्ते में आनेवाली सारी कठिनाइयाँ उसने राजा की खातिर हँसकर झेलीं। उनकी बात समुद्र देवता तक पहुँचाने के लिए उसने कठिन साधना की। ब्राह्मण रत्न और घोड़ा पाकर फूला नहीं समाया।

सिंहासन बत्तिसी

संकलित
Chapters
राजा भोज पहली पुतली - रत्नमंजरी दूसरी पुतली - चित्रलेखा तीसरी पुतली - चन्द्रकला चौथी पुतली - कामकंदला पाँचवीं पुतली - लीलावती छठी पुतली - रविभामा सातवीं पुतली - कौमुदी आठवीं पुतली - पुष्पवती नवीं पुतली - मधुमालती दसवीं पुतली - प्रभावती ग्यारहवीं पुतली - त्रिलोचनी बारहवी पुतली - पद्मावती तेरहवीं पुतली - कीर्तिमती चौदहवीं पुतली - सुनयना पन्द्रहवीं पुतली - सुंदरवती सोलहवीं पुतली - सत्यवती सत्रहवीं पुतली - विद्यावती अठारहवीं पुतली - तारामती उन्नीसवी पुतली - रूपरेखा बीसवीं पुतली - ज्ञानवती इक्कीसवीं पुतली - चन्द्रज्योति बाइसवीं पुतली - अनुरोधवती तेइसवीं पुतली - धर्मवती चौबीसवीं पुतली - करुणावती पच्चीसवीं पुतली - त्रिनेत्री छब्बीसवीं पुतली - मृगनयनी सताइसवीं पुतली - मलयवती अट्ठाइसवीं पुतली - वैदेही उन्तीसवीं पुतली - मानवती तीसवीं पुतली - जयलक्ष्मी इकत्तीसवीं पुतली - कौशल्या बत्तीसवीं पुतली - रानी रूपवती