फिल्म समीक्षा -मैदान मूवी
खेल में सांसे और सांसों का खेल । ये दोनों जिंदगी की वो सच्चाईयां हैं, जिनके बगैर हम अपाहिज़ से ही जान पड़ते हैं । अध्यात्म में ये बात बखूबी से समझी और समझायी जाती है कि सबके हिस्से में गिनती की ही सांसे हैं । और जब ये आप बात गहराई से समझ जाते हैं तो कुछ ऐसा चमत्कार हो सकता है जिसके आगे शत्रु तक नतमस्तक हो सकते हैं । सांसों के इस खेल से ही फुटबाल का खेल लय पकड़ता है तो वही भारतीय फुटबॉल की वर्तमान दशा पर एक प्रश्नचिन्ह भी हेकड़ी मार कर बैठा दिखता है । हालिया हिन्दी फिल्म मैदान इसी प्रश्नचिन्ह को विस्मय चिन्ह में परिवर्तित करने की एक सफल कोशिश का नाम है ।.
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1962 में जकार्ता एशियाई गेम्स का सफर काफ़ी कश्मकश से भरा था । भारतीय दल के लिए ये मुश्किलें तब और ज्यादा बढ़ गईं जब एक राजनयिक द्वारा ताईवान और इजरायल को एशियन गेम में शामिल न करने देने का विरोध जता दिया गया । मानो समूचा इंडोनेशिया ही हर भारतीय खेल की जीत के आगे खड़ा मालूम होता था। लेकिन भारतीय फुटबॉल के कुछ करिश्माई खिलाड़ी अपने पैरों के करतब से कुछ नई इबारत लिखने की ठान चुके थे । इस शानदार स्वर्णिम सफर के आस पास की कहानी को जिस तरह से परदे पर उतारा गया है , उसको देखते हुए उन दृश्यों से गुजरते हुए आप कभी आह तो कभी वाह जरूर ही कर उठेंगे।
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जरनैल सिंह, चुन्नी गोस्वामी, पीके बैनर्जी, तुलसीदास बलराम , ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनको आप फिल्म खत्म होते होते इस रूप में पहचान चुके होंगे जिस रूप में उन्हें आज तक पहचाना नहीं गया । जिन्होंने भारतीय फुटबॉल के लिए आज के तकरीबन 60-62 साल पहले ही वो अर्जित करके दिखा दिया जो वर्तमान में एक स्वप्न सरीखा ही है ।
लेकिन इन सबके ऊपर जो एक किरदार आपके अंतर्तम को झकझोर देगा वो है अजय देवगन द्वारा निभाया गया कोच एस ए रहीम का अभिनीत किरदार।
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जिजीविषा, हिम्मत, बेबसी से जूझते जुझारूपन और एक मजबूत जज्बे वाले किरदार को अजय देवगन ने मानो बड़े परदे पर जीवंत कर दिया है । एक काबिल कोच के तेवर से लेकर कैंसर से मरते इंसान के दर्द और बेबसी तक की उनकी भाव भंगिमाएं आप को झकझोर डालती हैं । तो वही मौत से तिल तिल कर मरती इंसानियत से लेकर देश और खेल को लेकर कुछ कर गुजरने के जज्बे को अपने चेहरे और हाव भाव से जिस तरह से परदे पर उकेरा है ,वो देशभावना और कुछ कर गुजरने के भाव से आपको भीतर तक सिंचित कर जायेगा।.
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प्रियामणि के रूप में अजय देवगन की जीवन संगिनी का किरदार असली संगिनी के अर्थ को सही रूप में परिभाषित कर जाती है जब वह मरते हुए रहीम को प्रोत्साहित करके फिर से उसी मैदान में भेज देती है जिसके लिए ही एक खिलाड़ी अपना सारा जीवन न्यौछावर कर देता है । पुत्र के साथ भी कोच रहीम के दृश्य और संवाद संक्षिप्त ही सही लेकिन भावोत्तेजक हैं जिसमें कर्तव्य परायणता ने उत्तुंग को स्पर्श कर लिया है । एक सशक्त फुटबॉल दल बनाने के लिए अपने ही काबिल पुत्र को पिता द्वारा टीम में जगह ना देने का बलिदान और पुत्र का उसको तन्मयता से स्वीकार लेना वाकई विरल और अदभुत दृष्टांत है ।
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गजराज राव ने रॉय चौधरी के उस नकारात्मक किरदार के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्शाई है जिसे आप फिल्म के अंत तक तो नफ़रत भरी नजरो से ही देखेंगे लेकिन फिल्म के अंत में उसके हुए हृदय परिवर्तन से स्वयं के अभ्यांतर को थोड़ा और भीगा होता पाएंगे। एक नायक के लिए इससे बड़ी जीत हो ही नही सकती जब वो बड़ी खामोशी से अपने करिश्में द्वारा सबसे बड़े शत्रु को खुद के लिए सलाम करने को विवश कर दे।
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फिल्म में तकरीबन हर बारीकियों को नजदीकी से देखा और संवारा गया है । 1960 के आस पास के भारत और दुनिया को परदे पर काफी संतोषजनक रूप से दर्शाया गया है । बड़े रेडियो उपकरण का उपयोग और प्रिंट अखबारों की ताकत के उस स्वर्णिम दौर की अनुभूति जहां रोमांचित करती है तो कमेंट्री बॉक्स में कमेंट्री करते अभिलाष थपलियाल ने अपनी संवाद अदायगी से रंग ही जमा दिया है । मैच के दौरान का कैमरा वर्क एक नया और काफी रोमांचक अनुभव है जिसने फिल्म की गति को यथोचित थ्रिल से भर दिया है ।
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फिल्म का क्लाइमैक्स टूर्नामेंट का फाइनल मैच है जो कोरिया के खिलाफ खेला जाता है । और जो इस फिल्म की अर्जित भावनाओं का भी शिखरतम रुप है । इस क्लाइमैक्स में कोरिया से टूर्नामेंट के पहले मैच में मिली करारी हार की टीस से निजात पाने की कसक है तो मैदान के बाहर और भीतर हो रहे इंडोनेशियाई विरोध को शांत कर देने के खामोश जज्बों का शोर भी हुंकार भरता है । अंतिम तीन मिनटों का खेल ए आर रहमान की आवाज़ में अनहद पैदा करता है जिसमें जहां भारतीय खिलाड़ी पसीनों और खून से लथपथ होकर कोरियाई फुटबॉल बांकुरो के समक्ष दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं तो कोच रहीम भी अपनी बची खुची गिनती की सांसों को समेटने की कवायद में खून की उल्टियां कर रहा होता है । विजय के लिए संघर्षरत भारतीय खिलाड़ियों को अपनी थकान और हार से नहीं बल्कि विरोधी टीम की हताशा से ये इल्म होता है कि ये मैदान जीत लिया गया है और बोर्ड पर बड़े अक्षरों में ये उकेरा देखकर उनके साथ साथ सबकी रूहे भीग जाती है कि "भारत 1962 एशियन खेल जीत गया " किसी भी स्पोर्ट फिल्म का इससे बेहतर अंत हो ही नहीं सकता । सांसों के खेल में सांसों को थामकर खेल के मैदान में भावनाओं के समंदर उड़ेल डालने का ही नाम है मैदान ! ~ऋतेश आर्यन