दिव्या गान
एक शिकारी था जिसका नाम था धनुजय। वह बड़ा धष्ट-पुष्ट, सुन्दर जवान था डर तो उसे छू तक नहीं गया था। घने जंगलो में, ऊँचे पहाड़ों पर और खतरनाक जगहों में यह अकेला घूमा करता था। एक दिन धनुजय तड़के उठ कर एक नए जंगल की तरफ चला। उस जंगल के बीचों-बीच घुसने पर उसे एक मैदान मिला। वहाँ हरी मुख्यम घास कालीन की तरह बिछी हुई थी। जगह-जगह सुन्दर रंग-बिरंगे फूल सुगन्ध फैला रहे थे। उस मैदान में थोड़ी दूर आगे बढ़ कर वह अचानक रुक गया। उसे संगमर्मर का एक गोल चबूतरा सामने दीख पड़ा। उसके चारों ओर तरह-तरह के फूल खिले हुए थे।
धनुजय अनेकों जगहो की सैर कर चुका था। लेकिन ऐसे फूल उसने कहीं नहीं देखे थे। शायद वे देव-लोक के फूल थे। धनुजयने सोचा कि चलो, उस चबूतरे पर बैठें और थोड़ी देर आराम करें। लेकिन उस पर जाने के लिए उसे कोई राह नहीं मिली। धनुजय खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि, अब क्या किया जाए? इतने में उसे कहीं से एक अलौकिक गान सुनाई देने लगा। वैसा गान उसने कभी नहीं सुना था। वह किसी मनुष्य का कण्ठ नहीं जान पड़ता था।
धनुजय ने जब सिर उठा कर चारों ओर देखा तो उसे आसमान से कोई गोल-गोल चीज़ धीरे-धीरे जमीन की ओर उतरती दी पड़ी। धनुजय समझ गया कि यह गाना उसी से आ रहा है। ज्यों-ज्यों वह चीज़ जमीन के नजदीक आती गई त्यों-त्यों उसका रूप भी स्पष्ट होने लगा। साथ-साथ गाना भी स्पष्ट सुनाई देने लगा। थोड़ी देर में धनुजय ने देखा कि वह एक उड़न खटोला है और उसमें कोई बैठा है। गौर से देखने पर धनुजय को उसमें सात अत्यन्त सुंदर बालाएँ दिखाई पड़ीं। देखने में वे सब एक-सी थीं। यह भी नहीं कहा जा सकता था कि, उनमें कौन बड़ी है और कौन छोटी। सभी मानों एक ही सांचे में ढली हुई थीं। वे सात युवतियाँ घुटनों तक लटकने माले सम्बे, काले केश फहरातीं नीचे उतर आई और एक दूसरे का हाथ पकड़ कर उस चबूतरे पर नाचने लग गईं।
उनके नृत्य से उस चबूतरे के चारों ओर सुनहरी किरणों का एक घेरा-सा बन गया। उनका गाना स्वर्ग की नदी मंदाकिनी के कलर-सा जान पड़ता था। यद्यपि वे सात कुमारियों एक-सी थी, फिर भी ध्यान से देखने पर पता चल जाता था कि, एक उनमें सबसे ज्यादा सुंदर है।
उनकी बातें सुनने से धनुजय को मालूम हो गया कि यह सब बहनों से छोटी है और उसका नाम है तारा। उसको देखते ही धनुजय मुग्ध हो गया। वह थोड़ी देर तक चुपचाप वैसे ही खड़ा रहा। लेकिन आखिर जब उससे नहीं रहा गया तो उसने ज़ोर से उन्हें पुकारा। उसको देखते ही सात कन्याएँ झट उड़न-खटोले में बैठ गई और पलंक मारते आँखों से ओझल हो गई।
धनुजय हाथ मलता हुआ घर लौटा। राह में उसे एक तोता दीख पड़ा। धनुजय ने जब उस पर निशाना लगाया तो उसने कहा
“भाई...! अगर तुम मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हें एक ऐसा मंत्र बताऊँगा जिसके अपने से तुम पशु-पक्षी का रूप भी धारण कर सकते हो।”
धनुजयने धनुष पर से तीर उतार लिया। पेड़ से उतर कर तोता उसके कंधे पर आ बैठा और उसने धीरे से उसके कानों में मंत्र कह दिया। दूसरे दिन धनुजय एक बिलाब का रूप धारण कर उस चबूतरे के पास लेट रहा। जब समय पर वे कुमारियाँ फिर आसमान से उतरी तो वह उठ कर उनकी ओर चला। लेकिन उसकी आहट सुनते ही वे सब उड़न खटोले पर चढ़ गई और पल भर में ग़ायब हो गई। धनुजय फिर निराश होकर लौट आया।
तीसरे दिन धनुजय ने बड़ी देर तक सोच-विचार कर एक सुनहरे चूहे का रूप धारण किया और चबूतरे के नीचे क्यारी में इधर-उधर दौड़ने लगा। समय पर देव कुमारियाँ आसमान से उतरीं और चबूतरे पर रोज़ की तरह नृत्य करने लगीं। थोड़ी देर बाद उनका नृत्य समाप्त हो गया और वे लौट कर जाने की तैयारियाँ करने लगीं। इतने में एक सुनहरा चूहा चबूतरे पर चढ़ आया और इधर-उधर दौड़ने लगा। उस चूहे को देख कर सबसे छोटी लड़की तारा उस पर लट्टू हो गई। वह उसे पकड़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन उसने उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो उस सुनहरे चूहे ने मनुष्य का रूप धारण कर लिया और उसका हाथ पकड़ लिया। यह देख कर अन्य कुमारियाँ भयभीत हो गई और तारा को वहीं छोड़ कर उड़न खटोले पर जा बैठीं। देखते-देखते उड़न खटोला आसमान में छिप गया।
धनुजय अब बड़े प्रेम से तारा को समझाने-बुझाने लगा, “डरने की कोई बात नहीं मैं तुम्हें कोई कष्ट नहीं दूँगा। मैं तुम्हें हमेशा सिर-आँखों पर रख कर पूजा किया करूँगा।” इसके बाद उसने उसे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाई। अपने शिकार की मनोरंजक घटनाएँ खूब बढ़ा-चढ़ा कर उसके सामने बयान कीं। यहाँ तक कि थोड़ी देर में तारा का सारा डर दूर हो गया।
धनुजय ने उसे अपने घर ले जाकर कर लिया। कुछ दिन बाद तारा सचमुच उस से प्रेम करने लगी। उसे एक सुंदर लड़का भी पैदा हुआ। लेकिन तारा के मन में यह शंका बनी रही कि न जाने, उसके पिता क्या सोचते होंगे...! तारा देवराज की सात कन्याओं में सब से छोटी थी। उसके पिता उसी को सबसे ज्यादा प्यार करते थे। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, उसके मन में पिता को देखने की इच्छा बढ़ती गई।
वह जानती थी कि, बांस की एक बड़ी टोकरी बना कर अपने दिव्य-गान की महिमा से वह उसे उड़न खटोले की तरह आसमान में उड़ा ले जा सकती है। इस तरह पिता को देखने जाना उसके लिए कोई मुश्किल काम न था। लेकिन उससे धनुजय को छोड़ते भी नहीं बनता था। इसी तरह और कुछ दिन चले गए। आखिर जब उससे न रहा गया तो उसने जाने का निश्चय कर लिया।
बाँस की एक बड़ी टोकरी तैयार की एक दिन वह पति की आँख बचा कर टोकरी जंगल में उस चबूतरे के पास ले गई और झट अपने लड़के के साथ टोकरी में बैठे कर गाना शुरू के कर दिया। तुरंत टोकरी जमीन से उठ कर आसमान में उड़ने लगी। धनुजय दूर से यह गाना सुन कर अचरज में पड़ गया।
उसने सोचा, “इतने दिनों बाद आज फिर कहाँ से यह गीत सुनाई दे रहा है?” जब उसने आसमान की ओर नजर फेरी तो उसे उड़ती हुई। टोकरी में लड़के के साथ तारा दीख पड़ी। वह घबरा कर चिल्ला उठा
“तारा...! तारा..! लौट जाओ..! मेरी बात मानो और लौट आओ...! तुम मुझे क्यों छोड़े जा रही हो...! मौने क्या अपराध किया है?”
वह बहुत गिड़-गिड़ाया, पर टोकरी ऊपर उड़ती ही गई। यहाँ तक कि थोड़ी देर में यह आँखों से ओझल हो गई। बेचारे धनुजय की पुकार सूने आसमान में गूँज कर रह गई।
वह बेचारा अपना सब कुछ खोकर पागल बना घर लौटा। सूना घर उसे काट खाने लगा। शोक में डूबा हुआ वह संसार से विरक्त हो गया और ज्यों-त्यों कर पहाड़ से दिन काटने लगा। लेकिन उसके मन के किसी कोने में अब भी आशा की किरण बन रही थी। अपनी प्यारी लड़की तारा को पुत्र सहित आई देख कर उसका पिता बहुत खुश हुआ। तारा पिता के घर में खुशी से रहने लगी। लेकिन उसके मन में धनुजय की चिंता बनी रही।
उसका लड़का भी दिन-दिन पिता की चिंता में घुलने लगा। दिन-दिन उसका मुख पीला पड़ता गया और यह दुबला होने लगा। यह देख कर तारा के पिता ने एक दिन उसे बुला कर कहा, “बेटी..! लड़के को पिता की याद सता रही है। देखती नहीं, यह कितना दुबला हो गया है? तुम पृथ्वी पर जाकर अपने पति को भी यहाँ क्यों नहीं ले आतीं तुम दोनों यहाँ सुख से रह सकते हो।”
तारा तो यह चाहती ही थी। वह तो डर के मारे अब तक पिता से यह बात न कह सकी थी। नहीं तो वह कभी की पति को यहाँ ले आती। आज जब उसके पिता ने खुद उसे इजाज़त दे दी तो उसका सारा संकोच दूर हो गया। वह तुरंत उड़न खटोले पैर बैठ कर धरती पर उतर आई।
धनुजय उस समय उसी चबूतरे के निकट बैठा-बैठा तारा की बाद कर रहा था। इतने में अचानक उसे बही दिव्य-गान सुनाई पढ़ा तो पहले उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। लेकिन जब उसने सिर उठा कर आसमान की तरफ देखा तो उसे बहुत दूर पर एक काला धब्बा-सा दिखाई दिया जो पल-पल बड़ा होता जाता था। बेचारा खुशी के मारे बावला बन गया। थोड़ी ही देर में उसकी प्यारी तारा उसके सामने आ खड़ी हुई। दोनों की आँखों से आँसू बेरोक टोक बह रहे थे।
तारा ने उससे सारा हाल कह सुनाया। वह दो-तीन दिन पृथ्वी पर आनन्द से विहरी। फिर पति को लेकर पिता के घर चली गई। तारा के पिता ने धनुजय की बड़ी आव-भगत की। धनुजय वहाँ बड़े मुख से रहने लगा। आज भी वे दोनों दम्पति चिड़ियों का रूप धारण कर कभी-कभी पृथ्वी पर आ जाते हैं। वे अपनी पुरानी झोंपड़ी के चारों ओर मँडराते हैं और कुछ देर बाद फिर अपने लोक को लौट जाते हैं।