इनाम
किसी गाँव में विश्वासी नामक एक गरीब आदमी रहता था। मुद्दत के बाद जब उसके एक लड़की पैदा हुई तो उसने उसका “मुनीबाई” नाम रखा और बड़े लाड़ प्यार के साथ पालने लगा। उसकी औरत ने ऐंड़ी-चोटी का पसीना एक करके कुछ रुपये कमाए और उनसे एक अशर्फी खरीदी। एक दिन उसने वह अशर्फी अपने पति के हाथ देकर कहा,
“जाइए, किसी सुनार के पास जाकर इस अशर्फी से हमारी मुन्नी के लिए बालियाँ बनवा लइए।" विश्वासी सुनार के घर चला।
उस गाँव के जमीनदार का नाम रामपाल सिंह था। बाबू रामपाल सिंह की स्त्री बड़ी भली औरत थी। वह दीन-दुखियों की बड़ी सहायता करती थी। विश्वासी सुनार के घर जा रहा था। पर बीच में रामपाल सिंहने उसे देख लिया और बुला कर गपशप करने लगे। बैठक-खाने में दरी बिछी हुई थी। उन्होंने विश्वासी को उस पर बैठ जाने को कहा और खुद गद्दे पर बैठ कर गाँव का हाल-चाल पूछने लगे।
इतने में उनकी स्त्री उनकी तीन साल की छोटी लड़की को ले आई और यहाँ बिठा कर चली गई। उस लड़की के हाथ में सोने के कंगन देख कर विश्वासी मन ही मन सोचने लगा,
“अगर हमारी मुन्नी के हाथों में भी ऐसे ही कंगन होते तो कितना अच्छा होता?”
इतने में जमी्दार की स्त्री अंदर से घबराई हुई आयी और चारों ओर ऐसे ढूँढ़ने लगी जैसे कोई चीज़ खो गई हो। जय जमीन्दार साहब ने पूछा कि क्या खोज रही हो, तो उसने बताया
"लड़की रो रही थी, इसलिए उसको मन बहलाने के लिए मैंने उसके हाथ में दो सोने की अशर्फियाँ रख दी थीं। लेकिन अब खोजने पर एक ही दिखाई देती है। दूसरी का पता नहीं चलता।"
इतना सुनते ही जमी्दार साहब ने विश्वासी से पूछा,
"क्यों विश्वासी ! कहीं वह भूल से तुम्हें तो नहीं मिली?"
अब तो विश्वासी पशोपेश में पड़ गया। जमी्दार साहब की एक अशर्फी खो गई है। तिस पर वह ठहरा गरीब आदमी। अशर्फी भी ठीक उसकी मौजूदगी में खो गई है। इसलिए, जमीन्दार साहब को अगर उस पर शक हो भी गया तो उस में अचरज की कोई बात नहीं। इतना ही नहीं, उस की जेब में ठीक एक ही अशर्फी है। अब वह लाख कहे कि,
“उसने अशफ़ी नहीं ली, तो भी कोई उस पर यकीन नहीं करेगा। इसलिए उसने सोचा कि अपनी अशर्फी जमीन्दार साहब को दे दे और कह दे कि आप की अशर्फी मैंने ही ले ली थी। लेकिन तब उसकी लाड़ली मुन्नी के लिए बालियाँ कहाँ से आयेंगी? लौट कर वह अपनी पत्नी को क्या जवाब देगा?”
इस तरह बड़ी देर तक विश्वासी के मन में उथल पुथल मचती रही। आखिर उसने अपनी अशर्फी निकाल कर जमीन्दार साहब के हाथ में रख दी और उदास मन से घर लौट गया। विश्वासी की स्त्री बार बार उससे पुछती,
“कहिए, क्या बालियाँ तैयार हो गई ! अब तक जरूर बन गई होंगी। जाकर सुनार के यहाँ से ले क्यों नहीं आते...??”
विश्वासी कोई न कोई बहाना कर के टाल देता। इस तरह कुछ दिन बीत गए। इतने में एक दिन संयोगवश वह सुनार उसी राह से जा रहा था। उसे विश्वासी की स्त्री ने देख लिया। वह तुरंत उसे बुला कर ढपटने लगी कि,
“बालियाँ बनाने में तुमने इतने दिन क्यों लगा दिये..??”
बेचारा सुनार भौंचक रह गया। यह क्या जाने? उसने साफ-साफ कह दिया,
“कैसी बालियाँ? मुझे तो किसी ने रत्ती भर भी सोना नहीं दिया है।”
विश्वासी जब वहाँ आया तो उसने देखा कि भंड़ा फूट गया। अब बहाने बनाने से काम नहीं चलने का। तब उसने उस दिन जमीन्दार के घर जो घटना घटी थी, उसका पूरा किस्सा सुना दिया। सुनते ही उसकी स्त्री पछाड़ खाने लग गई ।
एक दिन जमीन्दार साहब की स्त्री को आँगन बुहारते वक्त एक कोने में रखे धान के बोरों के नीचे एक अशर्फी मिली। उसे बड़ा भारी अचरज हुआ। उस ने जल्दी से जाकर अपनी संदूक खोली और अपनी अशर्फियों गिनीं । उसने सोचा
“मेरी अशफियाँ कुल चौदह थीं। संदूक में अब भी कही चौदह हैं। उस रोज विश्वासी ने एक अशर्फी ले ली थी। लेकिन उसने फिर तुरंत लौटा दी थी। फिर बोरों के नीचे यह अशर्फी कहाँ से आ गई ?"
तब उसने अपने पति के पास जाकर यह बात कह सुनाई। उसने भी सभी अशर्फियों हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखीं। तेरह अशर्फियाँ १८३० की थीं। लेकिन चौदहवीं अशर्फी १८४० की थी। तब जमीन्दार साहब ने कहा,
“हमने चौदहों अशर्फियों एक ही बार खरीदी थीं और सब एक ही साल की थी। ये तेरहों अशर्फियों हमारी हैं; लेकिन यह चौदहवीं किसी और की है।”
तब उसकी स्त्री के मन में यह ख्याल हुआ कि हो न हो, यह विश्वासी की अशफी है। उसी ने तो उस दिन अपनी जेब से एक अशर्फी निकाल कर दी थी। बस, उसने तुरंत बिश्वासी को बुलावा भेजा। बेचारा रोनी सूरत लिए वहाँ आया तो जमीन्दार की स्त्री ने उससे पूछा,
“सच बताओ, उस दिन तुम ने जो अशर्फी अपनी जेब से निकाल कर दी थी, वह किसकी थी?"
सुनते ही बेचारा सहम गया कि न जाने, अब कौन सी बला सिर पड़ने वाली है। तब जमींदार की स्त्री ने उसे धीरज बँधा कर कहा,
“सच बोलो, डरने की कोई बात नहीं।"
तब बेचारे ने रोते-रोते सारा किस्सा कह सुनाया। सुन कर जनींदार की स्त्री बहुत पछताने लगी,
“अरे ! हमने अकारण ही एक सच्चे आदमी पर शक किया और उसके मन को इतना कष्ट पहुँचाया। बेचारा मन ही मन कितना कल्पा होगा?"
उसने यह अशर्फी विश्वासी को लौटा दी। अशर्फी लेकर वह खुशी-खुशी घर चला गया। एक हफ्ता बीत गया। अचानक एक दिन विश्वासी को जमींदार साहब के घर से खबर आई कि स्त्री और बच्ची को साथ लेकर तुरन्त आओ। अब विश्वासी उनके घर जाने से डरता था। न जाने कौन सी आफत सिर पर आ जाय? लेकिन करता क्या जमींदार का हुक्म टाला भी तो नहीं जा सकता था?
आखिर वह डरते डरते अपनी स्त्री और बच्ची को साथ ले जमींदार के घर गया। जाकर उसने देखा कि वहाँ जमींदार और उनकी स्त्री के अलावा सुनार भी बैठा हुआ है। सुनार ने एक छोटी सी पोटली जमींदार की स्त्री के हाथ में दे दी। जमींदार की स्त्री ने विश्वासी की स्त्री के हाथ से मुन्नीबाई को ले लिया और अपने पास बिठा लिया।
फिर उसने यह पोटली खोल कर तरह-तरह के जेवर निकाले और अपने हाथों से मुन्नी को पहना दिए। मुन्नी के पैरों में कड़े, हाथों गले में हार, कानों में बालियाँ और उँगलियों में अंगूठियाँ चमक रही थीं। जेवर पहन कर जब मुन्नी उछलने-कूदने लगी, तब सब का हृदय आनन्द से भर गया। विश्वासी ने सोचा,
"भगवान जब दुख देते हैं, तब उसके साथ मुख भी लगा देते हैं !”