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जौ की खेती

एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। यह बडी मुश्किल से अपने दिन काट रहा था। उसे साग और सतू के सिवा कभी और कुछ खाने को नसीब न होता था। एक दिन उस ब्राह्मण और उस की स्त्री के मन में जो की रोटी खाने की इच्छा हुई। लेकिन उन्हें अपनी इच्छा पूरी करने की कोई सूरत न दीखती थी। तब ब्राह्मण ने नजदीक के एक बन में जाकर कुछ दिन तक घोर तप किया। आखिर भगवान का मन पिघला और उन्होंने ब्राह्मण को दर्शन दिया..|

भगवान ने पूछा, “बोलो, तुम क्या चाहते हो...???”

“भगवन..! बहुत दिनों से मेरा मन जौ की रोटियाँ खाने का हो रहा है। आप ऐसा कोई वर दीजिए जिस से मुझे खूप जौ की रोटियों खाने को मिलें....!” ब्राह्मण ने कहा।

"अच्छा, तुम जाओ, किसी से जौ का एक दाना माँग लेना। फिर तुम्हें जितनी रोटियाँ चाहें मिल जाएँगी ।" भगवान यह वर देकर अंतर्भान हो गए ।

ब्राह्मण खुशी खुशी अपने गाँव पहुँचा । पहले उस ने एक बनिए की दूकान पर जो का एक दाना माँग लिया और फिर घर का रास्ता लिया। चलते चलते ब्राह्मण के हाथ का दाना एक से दो बन गया, फिर तीन और चार यहाँ तक कि घर पहुँचते-पहुँचते उसके कंधे पर जौ का एक बोरा रखा था। घर जाकर ब्राह्मण ने अपने कंधे पर का बोरा उतार कर नीचे डाला भी न था कि न जाने कहीं से और एक बोरा उस के कंधे पर आ गया। यह भी उतार कर नीचे रखा तो कंधे पर एक और था। उसके बाद तीसरा, चौथा, फिर पाँचवाँ.....!!!

ब्राह्मण बोरे उतारते गया। लेकिन उस के कंधे पर का बोरा ज्यों-का-स्यों बना रहा। यहाँ तक कि बोरे उतार कर रखते-रखते बह थक गया और हॉफने लगा। आखिर एक दीवार से टिक कर खड़ा हो गया । इतने में ब्राह्मणी वहाँ आई और बोरे देख कर फूली न समाई। उस ने जल्दी से एक बोरा खोल कर थोडा सा जो निकाल | लिया और उन्हें चक्की में डाल कर पीसने लगी। पीसने के बाद जब उस ने आटा निकाल लिया तो देखा कि चक्की में आटा और जौ ज्यों-का-त्यों है।

उसने फिर पीसा और आटा निकाल लिया। लेकिन नकी ज्यों-की-त्यों भरी रही। आखिर जब वह पीसते-पीसते थक गई और अब न पीस सकी तो चफी वहीं छोड कर, थोडा सा आटा लेकर गूँथने लगी। लेकिन यहाँ भी वही हाल हुआ। वह गूंधती-गूंधती थक गई, लेकिन आटा ज्यों-का-त्यों मौजूद था। आखिर वह थोडा सा गूँथा हुआ आटा लेकर बेलने लगी। लेकिन फिर वही हाल हुआ। बेलते-बेलते वह थक गई, पर आटा वैसा ही बना रहा। आखिर वह तवे पर एक रोटी सेंकने लगी।

जब रोटी अच्छी तरह फूल गई तो उसने तवे से निकाल ली। लेकिन देखा कि और एक रोटी तवे पर है। यह रोटी निकालते निकालते थक गई| लेकिन तवे पर की रोटी वैसी ही बनी रही। गूंधा हुआ आटा वैसा ही पडा हुआ था। चक्की में के जौ वैसे ही पढे थे। ब्राह्मण के कंधे पर बोर। वैसा ही मौजूद था।

इतने में एक पडोसिन बुढिया आग माँगने आई। उसे उस घर का हाल देख कर बडा अचरज हुआ। इतने में उसे रोटियों की ढेरी दिखाई दी। देखते ही वह ललचा गई। उसने एक रोटी हाथ में लेकर एक टुकड़ा तोडा और मुँह में डाल लिया। बस, अब क्या था? बुढिया चबा-चबा कर निगलती गई, पर मुँह में का टुकडा ज्यों-का-त्यों बना रहा। चबाते चबाते उसका मुँह दुखने लगा। खाते-खाते उसका पेट फूलने लगा। पर मुँह में का टुकडा वैसा ही बना रहा। आखिर बुढिया बेदम होकर दीवार से टिक कर बैठ गई और ब्राह्मण को कोसने लगी,

“मै नहीं जानती थी कि, यह ऐसा भुतिया घर है। मैं तो आग माँगने आई थी। न जाने, यह कौन-सी बला मेरे सिर पड गई। अभागा कहीं का..! भाड़ में जाय तेरी रोटी !!" बुढिया ने कहा।

"खूब बोली बुढ़िया...! पर मैं किस को कोसूँ...! में किसके आगे अपना दुखडा रोऊँ..! में यह बोरा उठाए उठाए मरा जा रहा हूँ। लेकिन उतार नहीं सकता। हे भगवान ! अब मेरा रोटियों का शौक पूरा हो गया। अब कभी ऐसा वर न माँगूगा।" यह कहते-कहते ब्राह्मण की आँखों में आँसू आ गए।

ब्राह्मण का यह कहना था कि सभी कुछ जहाँ का तहाँ गायब हो गया। उसके कंधे पर का बोरा ग़ायब चक्की में जौ नदारद। गूँथा हुआ आटा छू-मन्तर तवे पर की रोटी न जाने कहाँ उड गई। बुढिया के मुँह में से रोटी का टुकडा कपूर हो गया। बस, ब्राह्मण के पास जो जौ का दाना माँग लाया था वही बचा रहा। उसने भगवान का नाम लिया और सुख की साँस ली। बुढिया कुछ बड़बड़ाती हुई अपने घर चली गई|

जौ की खेती

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