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हिरन-शिशु

खुशवंत सिंह की संपूर्ण कहानियाँ - Khushwant Singh Short Stories 

मैंने घड़ी के डायल पर हथेली से अँधेरा किया। रेडियम का हरा रंग पौने
छह दिखा रहा था।

 'क्या वक्‍त हुआ है ? मेरे साथी ने पूछा।

'छह बजने वाले हैं।'

'सूरज निकल रहा है। मैं चाहता था कि शिकारी जल्दी से वापस आ
जाये। तब तक कॉफ़ी पीते हैं।'

मैंने कार से थर्मस निकाला और प्लास्टिक के गिलासों में कॉफ़ी उँड़ेली ।
हाथ गिलास से लगाकर गरम किये और कॉफ़ी
की खुशबू नाक में ली।

चाँद डूब रहा था। खाली पड़ी धरती के  ।
पर हल्की चाँदनी फैली थी ।

  ज़मीन पर पतली-सी 
मटियाली छाया पसरी थी ।

  पेड़ों की काली रेखा
के उस पार रोशनी चमकने लगी थी। 

 उसके
पीछे गाँव था और उसकी झलक दिखाई दे रही थी।

  ऊँची-नीची मिट्टी की
कोठरियाँ जो ऊँचाई पर बनी थीं । मस्जिद की ऊँची मीनार इनके बीच खड़ी थी ।

कुछ देर तक हम चुप बैठे कॉफ़ी पीते रहे । फिर मेरे साथी ने बात शुरूकी ।

“कितनी शान्ति है! हमारी ज़िन्दगी से एकदम अलग ।

  मैं हफ़्ते के अन्त
की इन छुट्टियों का इन्तज़ार करता हूँ कि रोज़मर्रा की भागदौड़ से आराम मिले ।

 पिछले बीस साल से यहाँ आ रहा हँ जब से अपना मालिक खुद बना! सात
दिन में कम-से-कम एक बार मैं अपनी ज़िन्दगी से छुटकारा पाकर आज़ाद
हो लेता हूँ।

थोड़ी देर बाद उसने इसमें जोड़ा, 'मेरी स्थिति में जो होगा, यही करेगा ।'

 वह चाहता था कि मैं बात को आगे बढ़ाऊँ।

 लेकिन तुम ही क्‍यों ?

'पता नहीं। ज़िन्दगी ने मेरे साथ न्याय नहीं किया है।' वह रुका कि मैं
कुछ और पूछूँ। ज़्यादा उकसाने की ज़रूरत नहीं थी।

 'हरेक की ज़िन्दगी में उतार-चढ़ाव आते हैं,' मैंने टिप्पणी की । 

“हरेक की माँ, जब वह छह साल का होता है, नहीं मर जाती, न उनकी
सौतेली माँएँ होती हैं जो बच्चों पर बच्चे पैदा करती चली जायें। 

 और इतना ही
नहीं । मेरा बाप मर गया और मुझे इनकी परवरिश करने के लिए छोड़ गया। उन्हें
 समुद्र में फेंक देने की जगह-जो मेरा बस चलता तो मैं कर भी देता ,  मुझे इन्हें
प्यार करना पड़ता है और खिलाना-पिलाना पड़ता है। 

 अब देखो न, असली नफ़रत
का भुरता बनाकर बनावटी प्यार का नाटक करना पड़ता है । इसलिए इससे कभी-कभी
निजात पाने के लिए यहाँ चला आता हूँ।'

 उसने सिगरेट जलाई और घास में पैर फैला दिये । अपने सीने का बोझ उतारकर
उसने मेरे बारे में जानना चाहा।

"तुम्हें तो इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती, है न ?'

 ज़्यादा नहीं। लेकिन मुझे यहाँ की शान्ति पसन्द है। शहर की भाग-दौड़
से भरी और घड़ी से संचालित ज़िन्दगी के बाद उससे कुछ देर के लिए अलग
हो जाना अच्छा लगता है, जहाँ वक्‍त ठहरा नज़र आये । आदमी को घड़ी के अत्याचार
से निकल पाने की ज़रूरत होती है।

 “शायद तुम ठीक कहते हो । 

 हालाँकि मुझे यह परेशानी नहीं होती । 

 यह तो

मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई है।

  मुझे सवेरे उठने के लिए अलार्म की ज़रूरत

नहीं पड़ती, न दफ़्तर जाने के लिए कि वक्‍त हो गया है। जब मैं लंच के लिए उठता
हूँ तब दफ़्तर की घड़ियों में एक बजाया जा सकता है। यह सब दरअसल आदमी की
कल्पना है।

  अगर आप किसी बात के बारे में सोचें ही नहीं, तो उसका पता ही नहीं
चलेगा ।

  घर की सब घड़ियों में ताले डाल दो और हाथ में भी पहनना बन्द कर दो, तो
पता चलेगा कि तब भी सब काम उसी तरह होते रहेंगे और परेशानी भी नहीं होगी ।

 “तब आप खुद घड़ी बन जाते हैं। मुझे उससे कोई परेशानी नहीं होती । बन्दूक
लेकर इधर-उधर घूमने से मुझे राहत मिलती है। कोई शिकार भी न करूँ तो भी
मुझे फ़र्क नहीं पड़ता। दरअसल मुझे शिकार करना गलत भी लगता है ।

 पूरब में पेड़ों की रेखा के पार सवेरा होने लगा था। गाँव में ज़िन्दगी दिखाई
देने लगी।

  मस्जिद से पानी छिड़कने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। कुछ देर बाद
सवेरे की शान्ति को तोड़ती मुल्लाजी की आवाज़ आसमान में गूँजने लगी :
अल्लाह-ओ-अकबर'


 हमारा शिकारी वापस आ गया और उसने बताया कि झील पर पक्षी नहीं हैं।
पिछले दिन वहाँ एक पार्टी आई थी और उसने काफ़ी पक्षी मारे थे । 

 लेकिन उसके
पड़ोस में हिरनों के झुंड बताये जाते हैं। हमने कार से बन्दूकें निकालीं और उनमें
गोलियाँ डालीं ।

  मेरे दोस्त ने एक रेज़र भी निकाला और उसे अपने सोला हैट में दबा
लिया। हम अपने गाइड के साथ गाँव पार करके खुले मैदान में जा पहुँचे ।

 अब तक सूरज की धूप चारों तरफ़ फैल गई थी और गर्मी बढ़ने लगी थी ।
कहीं-कहीं खेती हो रही थी और बीच-बीच में पत्थर और घास के टुकड़े दिखाई
दे रहे थे। लेकिन कहीं भी पेड़ नहीं थे। मेरा दोस्त परेशान हो रहा था।

 “यह शिकार के लायक जगह नहीं है.' वह भुनभुनाया। जानवर मील भर
से देख लेता है।'

 वह सही कह रहा था।

  जब-जब हम ऊँची ज़मीन पर पहुँचते, हिरनों के
झुंड भाग निकलते” मेरे लिए समय जैसे रुक गया था। 

 मैं हिरनों को इधर-उधर
भागते-कूदते देखकर खुशी महसूस कर रहा था। पम्पा घास के रुई जैसे सफ़ेद
बड़े-बड़े फूल हवा में झूम रहे थे। मेरे दोस्त की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उसने
बन्दूक को इधर-उधर झटका।

 सूरज सिर पर आ गया था और हम बढ़ते चले जा रहे थे। दोस्त को गर्मी
लग रही थी और वह बार-बार रूमाल से माथे, सपाट खोपड़ी का पसीना पोंछ रहा
था।

  लगता था कि हम कन्धे पर बन्दूक लटकाये इधर-उधर घूमते ही रहेंगे । दरअसल
मैं तो यही चाहता था और अब मेरा साथी भी खाली थैला लिये वापस लौटने के
लिए तैयार था।

  हम अपने पैरों की खटपट-पटपट और पक्षियों की आवाज़ें सुनते
आगे बढ़ते रहे।

 दायीं तरफ़ झाड़ियों में गति का आभास हुआ । हम अपनी बन्दूकों को पकड़
पाते, उससे पहले ही एक हिरनी छलाँग मारकर हमारे सामने से निकली।

  फिर

 कई लम्बी छलाँगें लगाकर वह वहाँ से ग़ायब हो गई। 

 कुछ देर बाद एक टीले

पर खड़ी वह दिखाई दी, जो हमें देख रही थी।

  मेरे साथी ने मेरा हाथ दबाया और
हम वहीं घास में दुबक गये।

“ठहरो,' उसने कहा, 'इसका यहाँ कोई बच्चा ज़रूर होगा, नहीं तो वह इस
तरह वापस न आती। हम दोनों को ले लेंगे ।

 वह ठीक कह रहा था । 

 उसका बहुत छोटा बच्चा लुढ़कता-सा सामने से निकला ।
वह हमें नहीं देख रहा था।

  मेरे साथी ने निशाना साधा और गोली दाग़ दी।

  लेकिन
वह शिशु को न लगकर उसी के पास ज़मीन में जा लगी जिससे निकली धूल इधर-उधर

फैल गई ।

  शिशु ने सिर झुकाकर ताज्जुब से उसे देखा । फिर वह तेज़ी से उछला और
वहीं पर आ गिरा । वहीं उसने दो-तीन चक्कर खाये । फिर रुककर सिर उठाया और
अपने छोटे-छोटे नये निकले सींग ऊपर उठाये। माँ ने चेतावनी के स्वर में पीछे से
आवाज़ मारी । 

 शिशु उसकी तरफ़ भागा और फिर हमारी दिशा में लौट आया। कुछ
गज दूर रुककर आसमान में तीन-चार दफ़ा उछला और अपनी छोटी-सी पूँछ हमारे
सामने हिलाई। 

 हिरनी ने फिर चेतावनी की हॉक दी । शिशु घूमा और माँ की तरफ़
देखने लगा। साथी ने दुबारा निशाना साधा और गोली दाग़ दी । गोली उसके पेट में
सीधी चली गई और उसकी आँतें बाहर निकल आईं । वह एक दफ़ा और उछला और
पैर फड़फड़ाता वहीं धूल में गिर पड़ा ।

  साथी ने बन्दूक फेंक दी और शिकार को हथियाने
दौड़ा ।

  शिशु के दो टुकड़े हो गये थे लेकिन वह अभी भी अपना सिर और पैर ज़ोर-ज़ोर
से हिला रहा था। साथी ने अपना भारी जूता उसके बदन पर रख दिया। शिशु ने
सिर उठाकर ऊपर देखा, उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे।

  साथी ने सोला हैट से
रेज़र निकाला और बड़बड़ाते हुए उसकी गर्दन काट दी। भीतर से खून भलभलाकर
निकलना शुरू हो गया । 

 उसका शरीर छटपटाया और शांत हो गया । आँखों के ऊपर
सफ़ेद रंग की परत छा गई।

 मेरे दोस्त ने अपने हाथों पर नज़र डाली जो खून से लथपथ थे। “गंदा काम
है.' वह बोला ।

  “बहुत गंदा ।' कुछ घास उखाड़ी और उन्हें पोंछा । 

 'मैं इस तरह उसका
गला काटना नहीं चाहता था,' वह कहने लगा, “लेकिन तुम जानते ही हो कि मुसलमानों
में उसे हलाल करना ज़रूरी है। इसे कोई तब तक हाथ नहीं लगायेगा जब तक मैं
“बिस्मिल्लाह” कहकर इसकी रूह को स्वर्ग नहीं भेज दूँगा।

 मैंने तो तुम्हें “बिस्मिल्लाह” कहते सुना नहीं,' मैंने धीरे से कहा।

 वह हँसा। 'जब माँ भी हासिल हो जायेगी तब कहँँगा। मैं उसे पाकर रहूँगा।
तुम देखते जाओ ।

 “अब पहले लंच कर लें, मैंने घड़ी की तरफ़ देखते हुए कहा । 'दो बज रहे हैं ।

वह हँसा। 'घड़ी कह रही है कि दो बज गये, इसलिए भूख का वक्त है।
मैं सोचता था कि तुम इससे छूट गये होगे। ठीक है, लंच करते हैं। लेकिन माँ
पर नज़र बनाये रखनी है।'

हम एक पेड़ के नीचे बैठकर बियर के साथ सैंडविच खाने लगे। साथी ने
सिगार निकाला और आराम करने का नाटक किया | लेकिन उसकी आँखें क्षितिज
पर लगी रहीं  हिरनी वहीं थी, कभी हमारी दायीं तरफ़ और कभी बायीं। लेकिन
इतनी पास नहीं आई कि मारी जा सके। मेरी नज़र अपने आप घड़ी की तरफ़

गयी और मैंने हाथ नीचे कर लिया। साथी देख रहा था।

'घड़ी कह रही है कि घर लौटने का वक्त हो गया है! यह कहकर वह
हँसा ।

 'डिनर के वक्‍त तक पहुँचना हो तो चलना चाहिये,” मैंने कहा।

 'तुम बदलोगे नहीं, उसने उठते हुए कहा। “तुम घड़ी से अलग नहीं हो
सकते। जब निकलते हो इसे वहीं क्‍यों नहीं छोड़ आते ? मेरी तरफ़ देखो ।' यह
कहकर उसने हाथ उठाये जिन पर खून के दाग़ लगे थे।

हम गाँव की तरफ़ चले, शिकारी के कन्धे पर शिशु लटक रहा था। जब
भी कहीं आराम करने रुकते तो माँ दिखाई दे जाती। सूरज डूबते वक्‍त हम गाँव
के पास खड़ी गाड़ी तक पहुँच गये। साथी ने शिकारी से कहा कि बच्चे को पीछे
की डिग्गी में रख दे और दरवाज़ा खुला छोड़ दे । इसके बाद कुछ दूर बैठकर स्कॉच
पीने लगे।

सूरज डूब गया और अँधेरा उतरने लगा। गाँव से उठ रहा शोर भी शान्त
हो गया। साथी खुश नज़र आ रहा था।

“इस तरह शाम हो तो मुझे खुशी होती है,' वह बोला। “कसरत भी हो जाती
है, खेल हो जाता है, न कोई लड़ाई-झगड़ा, न दूसरे की चुगली, न किसी से नफ़रत ।
साफ़-सुथरी ज़िन्दगी । इसके बाद दुनिया को ज़्यादा गहराई से समझते और जीते
हुए लौटते हैं ।

मैं पीठ के बल लेटा आसमान ताक रहा था। तारे निकलने लगे थे। मेरे
दिमाग में से उसके गर्दन काटते समय की तस्वीर निकल नहीं रही थी।

  मैं सुन
भी नहीं रहा था और जब उसने बोलना बन्द किया, उठकर बैठ गया। झुटपुटे में
मुझे दूर खड़ी कार की शक्ल दिखाई दी। उसका बंक किसी राक्षस के जबड़े की
तरह खुला हुआ था।

  पीछे की सलाख पर उसका सिर लटक रहा था। कार के
पीछे शिशु की माँ उसे सूँघ रही थी। तभी बन्दूक की गोली चली। माँ का शरीर
नीचे गिर पड़ा ।

  साथी ने ख़ुशी की चीख मारी और रेज़र हाथ में लेकर उसकी तरफ़
दौड़ पड़ा। ख़ुदा के नाम पर बिस्मिल्लाह!” वह ज़ोर से बोला और रेज़र से यह
भयंकर काम करने लगा।


 चारों तरफ़ शान्ति छा गई। थोड़ी देर बाद मुल्ला की अज़ान गूँज उठी,
“अल्लाह-ओ-अकबर ।


 मैंने घड़ी पर फिर नज़र डाली। घर जाने का समय हो गया था।