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गिजरू का अमराक

बच्चो! तुम तो जानते ही होगे कि अरब घोड़ों के लिए बहुत मशहूर है। किसी समय अरब के एक गाँव में 'गिजरू' नामक एक आदमी रहता था। वह अपने कबीले का सरदार भी था। गिजरु  बड़ा इन्साफ पसंद आदमी था। किसी के साथ रू रियायत करना नहीं जानता था। लेकिन दिल उसका बड़ा नरम था।

 

गिजरू बड़ा दानी भी था। उसके दान धर्म की शोहरत हर तरफ़ फैली हुई थी। दान करने में बह कमी आगा पीछा नहीं करता था। उसके मुँह से कभी 'नहीं' शब्द न निकलता था। उसके पास अपना कुछ नहीं था। जो कुछ था खुदा का था और वह उसे खैरात कर देता था। उससे खैरात पाने की आशा में दूर दूर के लोग उसके पास आया करते थे।

 

गिजरू के घर जब कोई मेहमान आते तो वह खुद उनकी अगवानी करता और आदर के साथ अंदर ले जाता। बड़े प्रेम से उनको नहलाता धुलाता और तरह तरह के पकवान बनवा कर उन्हें खिलाता पिलाता। वह उन्हें अपने पलङ्ग पर सुलाता और उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं होने देता। लोग उसकी खातिरदारी से इतने खुश हो जाते कि लौटने पर हर जगह उसी की बड़ाई करते। उससे जलने वाले और लालची लोग भी उसके घर आकर इतने खुश हो जाते कि उनका दिल बदल जाता और वे उसके गहरे दोस्त बन कर वहाँ से जाते।

 

गिजरू को दुनिया में अगर जान से भी प्यारी कोई चीज़ थी तो यह उसका एक घोड़ा था। उस घोड़े का नाम था 'अमराक वह उस पर सो जान से न्योछावर था। उस समय अरब देश का सुलतान था इब्रहीम। इब्रहीम बड़ा नेक आदमी था। उसे भी घोड़ों का बहुत शौक था। इसलिए वह दूर दूर से सुन्दर घोड़े मैंगवाता और अपने अस्तबल की रौनक बढ़ाता।

 

एक दिन उस सुलतान के कान में किसी ने फूंक दिया

 

"हुजूर ! आपके सभी घोड़ों से गिजरु का घोड़ा 'अमराक' ज्यादा खूबसुरत है।" यह सुन कर सुलतान ने अपने आदमियों को बुलाया और कहा

 

"जाओ, ऊँटों पर अशर्फियाँ लाद ले जाओ और गिजरू को मुंह माँगा दाम दे कर 'अमराक' को खरीद लो।"

 

सुलतान के आदमियों ने जाकर गिजरू से यह बात कही। लेकिन वह राजी न हुआ। तब उन्होंने दाम बढ़ा दिया। फिर मी गिजरू राजी न हुआ। सुलतान के आदमियों ने सात गुना दाम बढ़ा दिया। लेकिन गिजरू हर बार इनकार करता गया।

 

उसने बड़े विनय के साथ कहा

 

"अमराक के सिवा आप और कोई भी चीज़ माँगिए, मैं देने को तैयार हूँ।

 

आखिर सुलतान के आदमी हताश होकर लौट आए और सुस्तान से सब बातें कह सुनाई। तब सुलतान ने मन में सोचा-

 

"न जाने, दद्द घोड़ा कितना खूबसूरत है कि गिजरू किसी भी दाम पर देने को तैयार नहीं होता। जरा मैं खुद जाकर देख आऊँ।"

 

वह भेस बदल कर गिजरु के घर पहुंचा। वहाँ जाकर अमराक को देखा तो उसका दिल काबू से बाहर हो गया। लेकिन वह करता क्या? जब उस गिजरू ने जिसके मुँह से 'नहीं' न निकलता था, इनकार कर दिया तो वह कैसे अमराक को पा सकता था! वह उदास हो अपने महल को लौट आया और इसी फिक्र में बीमार पड़ गया।

 

धीरे धीरे सुलतान की बीमारी बढ़ती गई। आखिर सुलतान के लड़के ने वजीर को बुला कर कहा

 

"वजीर साहब! किसी तरह अमराक को लाना ही चाहिए। नहीं तो अब्बाजान की जान न बचेगी। बोलिए, आप की क्या राय है?"

 

वजीर ने कहा

 

"शाहजादे साहब! आप घबराइए नहीं। आप तो जानते ही हैं कि गिजरू कैसा दानी आदमी है। उसके मुंह से 'नहीं' कभी नहीं निकलता। फिर उससे यह घोड़ा माँग लेना कौन सी बड़ी बात है! इस बार आप खुद गिजरू के यहाँ जाइए। उसे सुलतान साहब की बीमारी की बात सुना कर साल भर के लिए घोड़ा माँग लीजिए। कहिए कि एक साल बाद जरूर लौटा दूंगा। आप जाइए; इस बार घोड़ा आपको जरबर मिलेगा।"

 

शाहजादा कुछ सवार साथ लेकर तुरन्त वहाँ से चला और गिजरू के गाँव जाकर देखा तो मालूम हुआ कि सारा गाव् सूना पड़ा है। वह सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाए। इतने में उसे एक गड़रिया दिखाई दिया। उससे पूछने पर उसने  बताया कि सूखा पड़ जाने के कारण गाँव वाले यहाँ से कई कोस की दूरी पर एक झरने के पास जाकर रहने लगे हैं।

 

शाहजादा फिर वहाँ से चल कर थोड़ी देर बाद गिजरू के पड़ाव पर जा पहुँचा। गिजरु ने उसे देख कर बड़ी आव भगत की। थोड़ी देर में सब लोग खाने बैठे। शाहजादे ने ऐसा खाना कभी नहीं खाया था।

 

खाने पीने के बाद गिजरु ने शाहजादे से पूछा- "बताइए! आप यहाँ क्यों तशरीफ़ लाए हैं। मैं आपकी क्या खिदमत करूँ"

 

तब शाहजादे ने शरमाते हुए कहा-- 'मैं आपसे 'अमराक' को माँगने आया हूँ।'

 

‘क्या! अमराक को?' गिजरू चकित हो गया। उसके मुँह से और कोई बात न निकली।

 

'हाँ, अमराक ही को"

 

यह कह कर शाहजादे ने सारा किस्सा कह सुनाया और अन्त में यह भी कह दिया कि अमराक के बिना सुलतान की जान न बचेगी। यह सुनते ही गिजरू चुपचाप आँसू यहाने लगा। तब शाहजादे ने पूछा-

 

"क्यों गिजरू ! । तुम आँसू क्यों बहा रहे हो?"

 

गिजरू ने आँसू पोंछते हुए जवाब दिया

 

‘इसलिए कि अब आपको देने के लिए अमराक नहीं रहा। आपके आने पर मैं बड़ी फ्रिक में पड़ गया। क्योंकि आपको खिलाने के लिए घर में गोश्त नहीं था। तब मैंने अपने प्यारे अमराक को मार डाला। आपने जो गोश्त खाया है, वह उसी अमराक का था।

 

तब शाहजादे ने गिजरू को दिलासा देते हुए कहा

 

'गिजरू! आज तुम्हारा नाम अमर हो गया। तुमने संसार को दिखा दिया कि मेहमान की खातिरदारी कैसे की जाती है। अमराक तो अब नहीं रहा। लेकिन जब तक दुनियाँ रहेगी तब तक तुम्हारा और अमराक का नाम लोगों की जबान पर होगा।"

 

शाहजादे ने लौट कर सुलतान से सब कुछ कह सुनाया। कुछ दिन बाद जब सुल्तान ठीक हो गया तो उसने जिस जगह शाहजादे की दावत की गई थी उस जगह अमराक की याद में एक बड़ा भारी पत्थर का घोड़ा बनवा दिया। आज भी घोड़े की उस मूर्ति को देखते ही लोगों को गिजरू का किस्सा याद आ जाता है।

गिजरू का अमराक

बनारसी बाबु
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गिजरू का अमराक