पारसमणी
पुराने जमाने में पंढरपुर में एक भक्त ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी कमला भी बड़ी पतिव्रता थी। वे स्त्री-पुरुष दोनों रोज बड़ी भक्ति के साथ देवी रुक्मिणी की पूजा करते थे।
एक दिन देवी उनके सामने प्रत्यक्ष हुई और बोलीं-
‘मैं तुम दोनों से बहुत खुश हूँ। बोलो ! क्या चाहते हो?"
तब उन दोनों ने कहा-
'देवी! दुनियाँ में ऐसी कौन सी बात है जो तुमसे छिपी हो? हमें ऐसी कोई चीज़ दे दो जिस से हमारी जिन्दगी आराम से कट जाय !'
तब देवी ने उनको पारस पत्थर दिया। उस पत्थर का प्रभाव ऐसा था कि जो चीज़ उससे छू जाती तुरन्त सोना बन नाती । अब उस ब्राह्मण को किस चीज की कमी हो सकती थी! उसके दिन आराम गुजरने लगे।
उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से हिदायत कर दी थी कि इस बात की किसी को भनक भी न लग जाय । इसलिए वे देखने में अब भी गरीबों का सा ही व्यवहार करते थे एक दिन नदी के घाट पर प्रसिद्ध भक्त नामदेव की पत्नी से ब्राह्मणी कमला की भेंट हो गई। दोनों में बातचीत होने लगी। बातचीत के सिलसिले में नामदेव की पत्नी ने माथा ठोंक कर कहा-
'बहन! हमारी गिरस्ती की तो बात ही न पूछो। पेट पालना भी मुश्किल हो गया है। मेरे पतिदेव वैरागी होकर भटकते फिरते हैं। पैसा कमाने का नाम नहीं लेते। न जाने, हमारी नैया कैसे पार लगेगी?'
यह सुन कर ब्राह्मणी ने कहा-
'अच्छा, ऐसी बात है बहन! अगर तुम कसम खा लो कि किसी से न कहोगी तो मैं एक उपाय बता दूं।'
यह कह कर उसने कसम खिलाई और फिर कहा-
'बहन ! देवी रुक्मिणी की पूजा करने पर उन्होंने पारस नामक एक अमूल्य पत्थर हमें दिया है। उसका प्रभाव ऐसा है कि उससे छूकर धूल भी सोना बन जाती है ! उसी की कृपा से आजकल हमें किसी चीज़ की कमी नहीं है। मैं वह पारस पत्थर तुम्हें दे दूंगी। तुम उससे जितना सोना चाहो बना लेना और उसे फिर मुझे लौटा देना । लेकिन यह रहस्य किसी से बताना नहीं।'
यह कह कर वह जल्दी-जल्दी घर गई और पारस लाकर नामदेव की पत्नी को दे दिया । नामदेव की पत्नी फूली न समाई। जिस चीज़ पर नजर पड़ जाती सोना बना लेती और उसे बेच कर सब तरह के सामान खरीद लेती। इस तरह वह सुख से रहने लगी। इस धूम-धाम में वह पारस पत्थर ब्राह्मणी को लौटाना भूल गई। आखिर कुछ दिन बाद नामदेव परदेश से घर लौटा। सारे घर में सोना भरा देख कर वह दङ्ग रह गया ।
'यह सारा सोना कहाँ से आया? किसने दिया ?' रसोईघर में जाकर उसने पत्नी से पूछा।
'यह सब पीछे बताऊँगी। आप पहले खा-पी लीजिए !' उसकी पत्नी ने कहा।
नामदेव आग-बबूला हो गया और बोला-
'यहाँ यह दाल नहीं गलेगी! पहले बता दे कि यह सोना कहाँ से आया ?’
आखिर डर के मारे उसकी पत्नी ने पारस का रहस्य उसे बता दिया । तब नामदेव ने कहा-
'पगली कहीं की! तूने यह क्या किया ? तू नहीं जानती कि धन एक रोग के समान है ? क्या तूने 'पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम' वाली लोकोक्ति नहीं सुनी ? ला! वह पारस मुझे दे दे!’
यह कह कर उसने पारस हाथ में लिया और नदी के किनारे जाकर गहरे पानी में उसे फेंक दिया। तब हलके मन से घर लौट आया। इधर तो यह हालत थी, उधर वह ब्राह्मण भी बहुत दिन तक परदेश में रह कर घर लौट आया। उसे देखते ही उसकी पत्नी आँसू बहाने लगी। उसने पूछा कि क्यों रोती हो? तब ब्राह्मणी ने लाचार होकर सारी कहानी उससे कह दी।
अब ब्राह्मण ने क्रोध से पागल होकर कहा-
'अरी कलमुँही! इसीलिए कहा जाता है कि स्त्री के पेट में कोई बात नहीं पचती। मैंने तुम से पहले ही कह दिया था कि किसी के कान में इसकी भनक न पड़े। लेकिन तूने भेद ही नहीं खोला, बल्कि वह पत्थर भी खो दिया। अब तुझे क्या दण्ड दिया जाय?'
यह कह कर उसने तुरन्त नामदेव के घर जाकर कहा-
'मेरा प्राण-प्रिय पारस मुझे लौटा दो। उसके बिना मैं जी नहीं सकता। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं बाल-बच्चों सहित तुम्हारे दरवाजे पर धरना दे दूंगा और भूख-प्यास से जान दे दूंगा। तुम्हें ब्रह्म-हत्या का पाप लग जाएगा।'
इतना ही नहीं, वह ब्राह्मण सचमुच नामदेव के यहाँ धरना देकर बैठ गया। तब नामदेव ने कहा-
'हे ब्राह्मणोत्तम ! तुम्हारा पारस तो मैंने नदी में फेंक दिया ! मैंने हम दोनों की भलाई के लिए ही ऐसा किया। धन-वैभव भक्तों को भगवान से दूर करने का साधन है। अज्ञान-वश लोग उसके पीछे दौड़ते हैं। तुम्हारे घर में जो विषवृक्ष बोया गया उसकी कलम हमारे घर में भी लग गई। इसलिए मैंने उसे समूल उखाड़ फेंका।'
यों नामदेव ने उस ब्राह्मण का मन पारस की तरफ से मोड़ना चाहा। लेकिन ब्राह्मण को इन बातों से सन्तोष न हुआ। तब फिर नामदेव ने कहा-
'अच्छा, मेरे साथ नदी किनारे चलो! तुम्हारा पारस खोज ला दूंगा।'
यह कह कर वह उसे साथ लेकर नदी किनारे गया। ब्राह्मण किनारे खड़ा रहा। नामदेव ने नदी में कूद कर डुबकी लगाई और मुट्ठी भर कङ्कड-पत्थर ले आया ।
'हे ब्राह्मण ! मेरी मुट्ठी में जितने पत्थर हैं सब पारस हैं। तुम इनमें से अपना पारस चुन लो। अगर तुमने गलती से कोई दूसरा पारस चुन लिया तो तुम्हारा सिर टूक टूक हो जाएगा।'
किनारे आकर नामदेव ने ब्राह्मण से कहा और अपनी मुट्ठी खोली। उसके हाथ में सभी पारस थे, सभी जगमगा रहे थे, सभी एक समान थे। सभी में ऐसा प्रभाव था कि किसी भी चीज़ को छूकर सोना बना दें। ब्राह्मण ने बहुत दिमाग लड़ाया। लेकिन अपना पारस न पहचान सका। आखिर उसने सभी पत्थर नदी में फेंक दिए। भगवान की कृपा से उसे ज्ञानोदय हुआ। वह अपने अज्ञान से शर्मिन्दा होकर नामदेव के पैरों पर गिर पड़ा और बोला-
'मैं ये मामूली कङ्कड़-पत्थर अब नहीं चाहता । मुझे वह अनमोल रतन दो जिसके प्रकाश से मन का अन्धेरा दूर हो जाता है। तब नामदेव ने उसे प्रेम के साथ उठा कर गले लगा लिया और पञ्चाक्षरी मन्त्र का उपदेश देकर कृतार्थ किया।