वीरवर कल्ला राठौड
पत्ता महल के पीछे जयमलजी की हवेली के पास कल्लाजी की कोटड़ी थी। चित्तौड़ की लडाइयों में सर्वाधिक दुश्मनो का खात्मा करने वाले कल्लाजी ने जयमलजी को अपनी पीठ पर बिठाकर युद्ध कराया युद्ध के दौरान अपने बचाव के लिए इन्होंने के दौरान इनके दोनों हाथों में तलवारें रहती।
ये तलवारें सख्या में दो-दो होती जो चारों ओर से वार अग्नी। दायें बाये नीचे ऊपर जिधर भी इन्हे धुमाई जाती ये गाजर मूली की तरह दुश्मनों का सफाया करती। यह युद्ध चक्रवात युद्ध कहलाता जिसे अकेले कल्लाजी भी लड़ भऋते थे। तलवारे बचाव के लिए ढाल का काम भी करती। इन पर गोलिया तक झेली जाती। असाधारण व्यक्तित्व के धनी कल्लाजी जब युद्ध नहीं होता तब अपने लीले धोडे पर सवार हो सेना की देखरेख करते। सैनिकों को प्रशिक्षण देते। आटेश निर्देश देते। चौकिया सभालते। बस्ती में निकल जाते। पहरेदारों की परीक्षा लेते और हर समय चौकसी बनाये रखने।
चिनोड के किले पर कुड में हुए सबसे बडे जौहर के कल्लाजी प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं रहे अपितु उसमें रोनी बिलखती कई नारियों को भी पकड-पकड अग्नि भेंट दी। यह इतना भयंकर जौहर था कि वह विशाल कुंड ही जौहर कुंड के नाम से चर्चित हो गया। के दौरान लाइत लडते जब कल्लाजी अचानक गायब हो गये तो दुश्मन यह नहीं जान पाये कि ये कहां चले गये।
उन्होंने सोचा कि वे अपने निवास में ही जाकर छिप गये हैं फलस्वरूप उनकी कोटड़ी को चारों ओर से घेर कर तोपों द्वारा उसे बुरी तरह क्षत विक्षत कर दी गई। आज तो वहां कोई चिन्ह नहीं रह गया है। जमीन की ऊचाई से जरासी ऊपर उठती मात्र धरी रह गई है। ये ही कल्लाजी आगे जाकर लोकदेवता के रूप में जगह-जगह पृजित हुए जो मुंड चले जाने पर भी अपने रूंड से लड़ते रहे।