Get it on Google Play
Download on the App Store

आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की बहस !

आयुर्वेद बनाम एलोपेथी एक अतार्किक बहस है । किसी एक विधा को स्थापित कर दूसरे को सिरे से खारिज कर देना आपको संकीर्णता और पूर्वाग्रह से ग्रस्त ही बताएगा ।

यह द्वंद्व बहुत मायनो में  हिंदी या अंग्रेजी जैसा द्वंद्व है ,यह द्वंद्व धोती कुर्ता या जीन्स टीशर्ट का है , दरअसल यह द्वंद्व नया है ही नही बल्कि ये सदियों से चली आ रही उस कसमकस की बानगी है कि  पूरब सही है या पश्चिम !

जहां जिस क्षेत्र में जितने संसाधनों का निवेश है वहां उतना अनुसंधान है और उतनी ही प्रगति भी । जाहिर है इन मायनों में अमेरिका ,यूरोप ने शुरू से ही बेहतर काम किया है । अपनी चीजो और पद्धतियों को बेचने का उनका कौशल कोई नया नही बल्कि औपनिवेशिक काल से ही चलता आ रहा है ।

दूसरी तरफ आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धति अति प्राचीन है । जहां उन्हें आर्थिक पोषण और प्रश्रय मिला तो चरक , सुश्रुत और कश्यप जैसे आचार्य मिले । शल्य तंत्र(सर्जिकल टेक्निक) , कायचिकित्सा (जनरल मेडिसिन) कुमारभृत्य(पीडियाट्रिक्स) जैसी गूढ़ पद्धतियां हासिल हुई । लेकिन जहां इन चिकित्सा पद्धतियों की उपेक्षा विभिन्न कारणों से हुई , इनमें शिथिलता आयी और ये चिकित्सा पद्धति भी धीरे धीरे हाशिये पर चली गयी ।

 भारतीयता की खोज और इसको पुनर्जीवित करने के संदर्भ में वर्तमान में इस पर क्रांतिकारी कार्य आरंभ हुआ है । लेकिन किसी भी विधा और खासकर चिकित्सा पद्धति को स्वयं को अपडेट कर स्थापित करने में रिसर्च और इनोवेशन के एक दीर्घकालीन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है , यह तब और जरूरी हो जाता है जब कि एक लंबे समय काल तक उस चिकित्सा पद्धति के टेस्टबुक्स पर धूल जमी हो , उसके अध्येताओं और उसपर विश्वास करने वाले लोग सुषुप्त और निष्क्रिय हो या फिर विवशता में किसी और विकल्प की ओर उन्मुख होते रहे हो ।

...... विज्ञान बनाम  अनुभूति या फिर अध्यात्म की बहस एक सनातन बहस है । विज्ञान में हम सदैव फिसड्डी रहे हैं , ऐसा नही रहा है , बावजूद इसके विज्ञान की गुत्थियों को सुलझाकर और इसके सीमित और जटिल स्वरूप से  परिचित होकर और फिर तर्क और ज्ञान की सीमाओं को जानकर ,समझकर अध्यात्म और अनुभूति हमारी भारतीय शैली के रूप में शनैः शनैः स्थापित हुई ।

 हाथों की सभी अंगुलियों की बनावट और बुनावट के अनुसार उनकी प्रकृति और उपयोगिता अलग अलग है इसीलिए उनके प्रति किये जाने वाले व्यवहार भी। शायद यही कारण है मनोदशा के अनुसार किसी को एलोपैथी जंचती है तो किसी को होमियोपैथी वगैरा वगैरा ।

वर्तमान कोरोना जैसी विभीषिका से लड़ने में सभी के अपने अपने दावे हैं । लेकिन पिछले डेढ़ सालों में सभी ने देखा है कि संसार की सर्वाधिक धनाढ्य और सक्रिय मानी जाने वाली चिकित्सा पद्धति ने भी इसके आगे घुटने टेके हैं ।

इम्तिहान कोई भी हो , समय सीमित मिलता है और अगर आप इसे पूरा नहीं कर पाते हैं तो नुकसान कर बैठते हैं । प्रश्नपत्र कितना भी कठिन हो समय बीतने पर उसके जवाब मायने नही रखते । कोरोना ने हर व्यवस्था हर पद्धति का कड़ा इम्तिहान लिया है । शायद कुछ इम्तिहान अभी भी शेष हो ।

इस सबके बाद ये स्पष्ट है कि सभी को एक ही प्रकार की आर्थिक क्षमताओं , ज्ञान ,तर्क के साँचे में उतारने की कोशिश श्रेयस्कर नही है । ...

संस्कृत में मंत्रोच्चार,  हिंदी में दैनिक  वार्तालाप और अंग्रेजी में पाश्चात्य विधा और ज्ञान का अर्जन  करने में ही समझदारी है ।  जीन्स और टीशर्ट के साथ कुर्ता और पाजामा का आवश्यकतानुसार उपयोग में आखिर गुरेज़ क्यों । घर की नियमित चावल दाल रोटी सब्जी या इडली सांभर वाली खाने की थाली से मन भर जाए तो इटालियन पाशता के स्वाद से ऐतराज़ क्यों । आपदकाल में एलोपेथी से जीवनरक्षा और नियमित जीवन मे आयुर्वेद के इस्तेमाल से जीवन आयुष्मान करे तो आखिर समस्या क्यों और कहाँ !-- -

Writer- Ritesh Ojha
Place- Delhi , India
Email Id-  aryanojha10@gmail.com

मेरे लेख

रितेश ओझा
Chapters
आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की बहस ! खामोशी अथ सोशल डिस्टेनसिंग महात्म्य वापसी