ओलेख्या
थर्मोला लकड़हारा होने के अलावा मेरा अनुचर और बावर्ची भी था। हम दोनों साथ मिल कर शिकार खेलने जाया करते थे। एक दिन वह सिर पर लकड़ियों का ढेर लिए मेरे कमरे में पाया और अपना सारा बोझ फर्श पर पटक दिया। फिर अपने बर्फ से ठंडे हाथों को वह फूंक मार कर गरमाने लगा। "बाहर जबरदस्त हवा चल रही है, मालिक," उसने चूल्हे के सामने धरना देते हुए कहा । "जरा आप अपना 'लाइटर' दें, तो चूल्हे की आग और तेज कर दूं !" "ऐसा ही मौसम रहा तो कल खरगोशों का शिकार करने नहीं जा सकेंगे, क्यों यर्मोला ?" " नामुमकिन - बिलकुल नामुमकिन ! आप देख नहीं रहे बाहर कैसी सांय-सांय करती हवा चल रही है ? सारे खरगोश अपने-अपने बिलों में दुबके बैठे होंगे । कल तो शायद उनके पैरों के निशान भी दिखायी न दें। यह उन दिनों की बात है, जब मुझे पेरीबोद में छः महीने गुजारने पड़े थे। पेरीब्रोद पौलेस्ये में वोलहीनिया के सीमावर्ती प्रदेश का एक छोटा सा उजड़ा, परित्यक्त गांव था। शिकार खेलने के अलावा वहां मुझे कोई दूसरा काम नहीं था। सच बात तो यह है कि जब मुझे इस गांव में जाने के लिए कहा गया, तो मैंने कल्पना में भी न सोचा था कि यहां के वातावरण से मैं इतना ज्यादा ऊब जाऊंगा। यहां पाने के विचार से उस समय मैं बहुत खुश था। गाड़ी में बैठा-बैठा मैं सोच रहा था : "पोलेस्ये के एकान्त पहलू में सिमटा हुआ छोटा सा गांव- अनुपम प्राकृतिक छटा-पुराने आदिम लोग और उनका निश्छल, सीधा-सादा प्राचार-व्यवहार --- अजीबोगरीब रीति-रिवाज और विचित्र भाषा-भाषी लोग, जिनके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता--- और इन सब के साथ-साथ काव्यमय लोक-कथाओं, परम्पराओं और गीतों का जखीरा, भला मुझे और क्या चाहिए ?" दरअसल बात यह थी (जब इतना कुछ कह गया, तो सारी बात कहने में क्यों झिझक करू ? ) कि उस समय मेरी एक कहानी-जिसमें मैंने एक आत्महत्या और दो हत्याओं का वर्णन किया था, एक छोटी सी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी और मैं इस बात को, कम-से-कम 'सिद्धान्त-रूप से, अवश्य समझता था कि लोगों के रीति-रिवाजों का अध्ययन करना एक कहानी लेखक के लिए आवश्यक है। किन्तु शीघ्र ही मेरी सब प्राशाओं पर पानी फिर गया । या तो पेरीब्रोद के किसान अजनबियों से ज्यादा मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते थे, या शायद मैं ही उनका विश्वासपात्र वनने में असफल रहा था। किन्तु कारण चाहे कुछ भी हो, हकीकत यह थी कि में उनके अधिक निकट नहीं आ सका । दूर से मुझे देखते ही वे सिरों से टोपियां उतार लेते और अपनी बोली में ईश्वर भला करे" बुड़बुड़ाते हुए, उदासीन-भाव से मेरे सामने से गुजर जाते । जब कभी मैं उनसे बातचीत करने की चेष्टा करता, तो वे विस्मय से आंखें 'फाड़ कर मेरी ओर देखने लग जाते, मानो उन्हें मेरा आसान-से-अासान प्रश्न भी समझ में न आ रहा हो । मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बदले वे बार-बार मेरे हाथों को चूमने की चेष्टा करते । यह एक पुरानी प्रथा थी जो पोलिश दासता के युग से चली आ रही थी। जो थोड़ी-बहुत किताबें अपने साथ लाया था, पढ़ डालीं। मन ऊबने लगा, तो सोचा कि चलो इस गांव के बुद्धिजीवियों से ही गपशप मार कर जी बहलाऊं, हालांकि शुरू-शुरू में यह विचार मुझे अरुचिकर लगा था। मैंने गांव से दस मील की दूरी पर रहनेवाले पोलिश पादरी, गिरजे के बाजा बजाने वाले बार्गेनिस्ट, स्थानीय पुलिस अफसर तथा एक पेंशनयाफ्ता गैर आयुक्त अधिकारी से, जो अब पड़ोस की जागीर में पटवारी का काम करता था, मेलजोल बढ़ाने की कोशिश की, किन्तु उसका कोई विशेष उत्साह-वर्धक परिणाम नहीं निकला। आखिर सब अोर से निराश होकर समय काटने के लिए मैं पेरीब्रोद के निवासियों का डॉक्टर बन बैठा। मैंने अपने पास अरण्डी का तेल, कार्बोलिक एसिड, बोरिक एसिड और आयोडीन आदि रासायनिक पदार्थ जमा कर लिए। किन्तु चिकित्सा-शास्त्र के सम्बंध में मेरा ज्ञान नीम-हकीम का सा ही था। इसके अलावा गांव वालों की बीमारी का पता चलाने में भी कम परेशानी नहीं होती थी। ऐसा जान पड़ता था कि मेरे सब मरीजों को एक ही रोग लग गया है । जब कभी मैं उनकी बीमारी के सम्बंध में प्रश्न पूछता, तो वे सब केवल एक ही उत्तर देते : “ भीतर कहीं दर्द हो रहा है" अथवा "मुझसे कुछ खाया-पिया नहीं जाता।" ऐसा अक्सर होता कि कोई बूढ़ी स्त्री पाकर मेरे सामने खड़ी हो जाती। अपनी झेप को मिटाने के लिए वह दाहिने हाथ की तर्जनी से नाक को कुरेद कर साफ करती, फिर अपनी चोली के अन्दर हाथ डालकर दो अंडे निकालती और उन्हें मेज पर रख देती। मुझे उसकी भूरी त्वचा की एक झलक मिल जाती । वह मेरे हाथों को चूमने के लिए अपना सिर नीचे झुका देती । मैं अपने हाथों को पीछे खींचकर उसे झिड़क देता : " दादी अम्मा, यह क्या करती हो ? मैं कोई पादरी थोड़े ही हूं | क्या तकलीफ है तुम्हें ?" "क्या बताऊं, मालिक, अन्दर-ही-अन्दर दिन-रात दर्द होता रहता है । खाना-पीना सब छूट गया है।" 'कब से तुम्हें यह दर्द हो रहा है ?" " मैं क्या जानू ?" वह मानो मुझसे ही प्रश्न पूछ रही हो । " सारे शरीर में जलन सो होती रहती है । खाना-पीना सब छूट गया है । और मैं चाहे कितना ही सिर क्यों न खपाऊं, बुढ़िया के मुंह से अपनी बीमारी के बारे में और कोई बात नहीं निकलती । आप कोई चिन्ता न करें, ये लोग कुत्तों की तरह खुद-ब-खुद ठीक हो जाते हैं ।" एक दिन पेंशनयाफ्ता सरकारी अफसर ने मुझे परेशान देखकर कहा में तो सिर्फ एक दवाई - सल-अमोनियाक का प्रयोग करता हूं। जब कभी कोई किसान मेरे पास आता है तो मैं उससे पूछता हूं : 'क्यों, क्या 'तबियत ठीक नहीं है, मालिक,' यह सुनते ही मैं झट अमोनिया की बोतल उसकी नाक से लगा देता हूं। 'इसे सूंघ लो !' वह बोतल सूंघने लगता है । 'खूब अच्छी तरह से सूंघो !' वह दुबारा सूंघता है । 'कुछ पाराम मालूम हुआ ?' मैं पूछता हूं। जी हां, कुछ थोड़ा-बहुत तो...' वह कहता है। 'अच्छा ठीक है अब खुदा का शुक्र करो और चलते बनो' मैं कहता हूं। इतना ही नहीं। हाथ चूमने की प्रथा से तो मुझे सख्त नफरत थी। कुछ मरीज तो ऐसे थे जो मेरे जूतों को चाटने के लिए पैरों पर गिर पड़ते थे। यह बात नहीं थी कि मेरे प्रति कृतज्ञता के भाव से प्रेरित होकर ही वे ऐसा करते थे । शताब्दियों से दासता और शोषण की व्यवस्था में रहने के कारण उनमें बात है ? "
एक प्रकार की हीन-भावना उत्पन्न हो गयी थी। पेंशनयाफ्ता गैर-आयुक्त अधिकारी और गांव के पुलिस अफसर को देखकर तो मुझे दांतों तले अंगुली दबा लेनी पड़ती। वे निश्चिन्त, गम्भीर भाव से अपने बड़े-बड़े लाल पंजे गांव वालों के होठों के आगे बढ़ा देते । आखिर शिकार खेलने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा चारा न रहा । किन्तु जनवरी के अन्तिम दिनों में मौसम इतना खराब होने लगा कि शिकार के लिए घर से बाहर निकलना असंभव हो गया। दिन भर तेज, तूफानी हवा चलती रहती और रात को बर्फ की ऊपरी परत इतनी सख्त हो जाती कि भागते हुए खरगोशों के पद-चिन्ह उस पर न बन पाते। दिन-रात कमरे में बैठा-बैठा मैं तूफान का हाहाकार सुनता रहता । ऊबाहट से तंग आकर आखिर एक दिन मैंने यर्मोला को पढ़ाने-लिखाने का निश्चय कर लिया । ऐसा अनोखा विचार अचानक मेरे मस्तिष्क में कैसे आया, यह भी अपने में एक दिलचस्प घटना है। एक दिन मैं खत लिख रहा था कि मुझे जान पड़ा मानो कोई चुपचाप मेरे पीछे आकर खड़ा हो गया है । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो यर्मोला को खड़ा पाया । वह हमेशा की तरह अपने मुलायम जूतों से बिना कोई आवाज पैदा किये चुपचाप मेरी कुर्सी के पीछे आकर खड़ा हो गया था । "क्या बात है, यर्मोला ?" मैंने पूछा । "कुछ नहीं, मैं सिर्फ यह सोच रहा था कि कितना अच्छा हो अगर में भी आप जैसा लिख सकूँ !" किन्तु जब उसने मुझे मुस्कराते हुए देखा, तो लज्जित होकर एकदम अपनी गलती सुधारता हुआ बोला, "नहीं, नहीं, आप जैसा नहीं - मेरा मतलब है कि अगर मैं अपना नाम लिखना सीख लूं तो मुझे बेहद खुशी होगी।" 'क्यों, किसलिए?" मैंने आश्चर्य से पूछा। यहां यह बता देना असंगत न होगा कि यर्मोला सारे पेरीब्रोद में सबसे अधिक आलसी और गरीब किसान समझा जाता था । लकड़ियां और फसल बेचकर उसकी जो आमदनी होती थी, वह सब शराब पर स्वाह कर देता था। पास-पड़ोस के गांवों में उसके बैल सबसे ज्यादा निकम्मे और खराब माने जाते थे। मैंने कभी स्वप्न में भी न सोचा था कि उसे भी पढ़ने-लिखने की आवश्यकता महसूस हो सकती है। मैंने संदिग्घ स्वर में उससे पुनः पूछा, अपना नाम लिखना सीखकर तुम क्या करोगे ?" 'मालिक, दर असल बात यह है," उसने विनीत भाव से उत्तर दिया, "कि इस गांव में पढ़ने-लिखने के मामले में सब कोरे है। जब किसी कागज पर दस्तखत करने होते है, या कभी-कभार जिले के सरकारी काम के सिलसिले में लिखत-पढ़त की जरूरत सा पड़ती है, तो यहां सब लोगों के हाथ-पांव फूल जाते हैं। गांव के चौधरी को सरकारी दस्तावेजों पर मुहर लगानी पड़ती है, लेकिन वह यह भी नहीं जानता कि उन दस्तावेजों में लिखा क्या है। इसलिए अगर हम में से किसी को अपना नाम लिखना आ जाए, तो सबका भला हो जाएगा।" आस-पास के इलाकों में यर्मोला अपनी करतूतों के कारण बदनाम हो चुका था । दूसरों के शिकार पर हाथ साफ करने में उसे कभी झिझक न होती। मस्त-मौला बनकर दिनभर आवारागर्दी करता रहता। गांव वालों की नजरों में उसकी राय दो कौड़ी का मोल भी न रखती होगी, ऐसा मेरा पक्का विश्वास था। किन्तु इसके बावजूद, उनकी सुख-सुविधा के लिए उसकी चिन्ता को देख कर मेरा दिल भर आया। उस दिन से मैंने उसे पढ़ाने-लिखाने का बीड़ा उठा लिया । किन्तु उसे पढ़ा-लिखाकर शिक्षित बना देना कोई बच्चों का खेल न था। वह जंगल की प्रत्येक पगडंडी से परिचित था, यहां तक कि उसके एक-एक वृक्ष को भी वह पहचानता था। उसे कहीं भी जाने के लिये कह दो-दिन हो या रात- -वह चुटकी बजाते ही अपना रास्ता खोज निकालता था । श्रास- पड़ोस के इलाके के तमाम भेड़ियों, खरगोशों और लोमड़ियों के पदचिन्हों को देखते ही झट उन्हें पहचान लेता था। किन्तु इस तमाम जानकारी के बावजूद उसके भेजे में यह छोटी सी बात कभी नहीं पैठ पाती थी कि 'म' और 'पा' को मिलाने पर 'मा' क्योंकर बन जाता है । वह दस बीस मिनट तक गम्भीर मुद्रा बनाकर गुमसुम सा बैठा इसी तरह की पेचीदा समस्याओं में उलझा रहता। उसकी काली, धंसी हुई आंखों और काली खुरदरी दाढ़ी तथा लम्बी मूछों से ढके हुए दुबले-पतले सांवले चेहरे पर परेशानी के चिन्ह देखकर फौरन पता चल जाता कि वह बेचारा भाषा की पेचीदगियों को समझने के लिए कितनी मगज- पच्ची कर रहा है। 'इसमें परेशान होने की कौन सी बात है, यर्मोला ? बोलो' । हां, सिर्फ 'मा' कहने में क्या मुश्किल है ?" मैं उसे प्रोत्साहित करता । पर अपनी अांखें क्यों गड़ा रखी है, मेरी तरफ देखो। हां, ठीक है। अब कहो 'मां' |" योला ठंडी सांस खींचकर फुटरूल मेज पर रख देता और खिन्न मन से निर्णयात्मक स्वर में कहता, "नहीं, मुझ से नहीं कहा जायगा।" " लेकिन यर्मोला, इसमें मुश्किल क्या है ? देखो, जैसे मैं 'मा' कहता हूं, वैसे ही तुम भी कह दो।" 'नहीं मालिक । मैं नहीं कह पाऊंगा। मैं बहुत जल्द भूल जाता हूं।" मैंने हर मुमकिन कोशिश की, पढ़ाने के जितने तरीके और प्रयोग होते हैं, उन सबको अजमाकर देख लिया, किन्तु उसकी मोटी बुद्धि के आगे मेरी मा "कागज . (1
" एक न चली। यर्मोला फिर भी हतोत्साहित नहीं हुआ। अपना मानसिक-विकास करने की जो अभिलापा उसके मन में जगी थी, वह दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही गयी। "बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मालिक," वह कहता । “ अपना नाम लिख सकूँ, मेरे लिए तो यही बहुत है। मालिक, क्या मैं अपना नाम: -योला पौपरजुक --~-कभी नहीं लिख सकूँगा ? अन्त में मैने उसे पढ़ाने-लिखाने का विचार छोड़ दिया और उसकी इच्छानुसार अब यह कोशिश करने लगा कि वह बिना जाने-बूझे यंत्रवत् अपना नाम लिख सके । मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पढ़ाई का यह नया तरीका उसे बहुत आसान और सुगम जान पड़ा। दूसरे महीने के अन्त तक वह अपना वंग-नाम लिखने की कठिनाई पार कर चुका था। जहां तक उसके प्रथम नाम का प्रश्न था, उसे तो हमने उसके बोझ को हल्का करने के लिए छोड़ ही दिया था। शाम के समय चूल्हों में आग जलाने के बाद वह मेरी आवाज की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा करता रहता । चलो यर्मोला, पढ़ाई शुरू करें।" मैं उसे बुलाता। वह उलटे-सीधे कदम रखता हुआ मेरी मेज के पास आकर दोनों कुहनिया उस पर टिका देता, फिर अपनी काली, सख्त और खुरदरी अंगुलियों में कलम पकड़कर, भौहे ऊपर उठाता हुअा मुझ से पूछता, “शुरू करू ?" " हां !" " वह बड़े विश्वास के साथ 'P'-- जिगे हम सोटी और फंदा कहते थे- लिखता, उसके बाद प्रश्न-युक्त दृष्टि से मुझे देने लगता। रुक क्यों गये ? आगे का अक्षर भूल गये क्या ?" 'हां। वह खीजकर अपना सर हिला देता। 'तुम भी बड़े अजीब श्रादमी हो भाई ! अच्छा, अब पहिया-'0'- बनायो। 'अरे हां, मैं तो भूल ही गया था !" उसका चेहरा, चमक उठता और वह बड़ी सावधानी से एक ऐसा आकार बना देता जो कंसपियन सागर की रूप रेखा सी दिखायी देती। फिर वह मिचमिचाती आंखों से, कभी अपने सिर को दायीं ओर तो कभी बायीं ओर झुकाकर, सुपचाप अपनी ‘कला-कृति' को प्रशंसायुक्त दृष्टि से देखता रहता। क्या देख रहे हो ? आगे क्यों नहीं लिखते ?" "जरा ठहरिये मालिक । बस जरा एक मिनट ।" वह दो मिनट तक कुछ सोचता रहता, फिर झिझकते हुए पूछता, " वही पहले वाला निशान बनाऊं न ?"
"हां, ठीक है। इस तरह हम धीरे-धीरे उसके नाम के अन्तिम अक्षर 'k' तक आ पहुंचते, जिसे हम पूंछ लगी गुलैल कहते थे । कभी-कभी वह अपने हाथ से लिखे हुए अपने नाम के अक्षरों को बड़े गर्व और प्यार से देखता हुआ मुझसे कहता, "मालिक, अगर मैं पांच-छः महीनों तक इसी तरह अभ्यास करता रहूं, तो एक दिन जरूर अच्छा लिख सकूँगा। क्यों, क्या आप ऐसा नहीं सोचते ?" दो उस दिन यमोला चूल्हे के पास बैठा हुआ कोयलों की राख झाड़ रहा था। मैं कमरे में चहल-कदमी कर रहा था। जमीदार की बारह कमरों वाली विशाल हवेली का एक ही कमरा मेरे पास था । किसी जमाने में यह कमरा इस हवेली की "बैठक" रहा होगा। बाकी सब कमरों में बेल-बूटेदार कीमती कपड़ों से ढंकी मेज-कुर्सियां, कांस के विलक्षण बर्तन और अठारहवीं शताब्दी के चित्र रखे हुए थे। इन कमरों के ताले हमेशा बन्द रहा करते । कमरों में रखी हुई प्राचीन वस्तुओं पर धूल मिट्टी की परतें चढ़ रही थीं। हवेली के बाहर, हवा एक बूढ़े राक्षस की तरह थर-थर कांपती हुई हाहाकार कर रही थी। उसकी हृदय-भेदी चीख-पुकार और उन्मत्त हंसी के ठहाकों को सुनकर दिल दहल जाता था। रात होते ही बर्फ के तूफान का प्रकोप और भी अधिक भयंकर हो गया। ऐसा जान पड़ता था मानो कोई बाहर से सूखी महीन बर्फ को मुट्ठियों में भर-भर कर खिड़कियों के शीशों पर फेंक रहा हो । पास के जंगल की अविराम सरसराहट को सुन कर एक अदृश्य अनिष्ट की आशंका उत्पन्न होने लगती थी। हवा खाली कमरों में घुस आती और चिमनियां खड़खड़ाने लगतीं । आंधी के जबरदस्त झोकों-झटकों से जीर्ण-जर्जरित हवेली की पुरानी दीवारें कांपने लगतीं और वातावरण विचित्र ध्वनियों से गूंज उठता। सुनकर मेरा रोम-रोम कांप उठता । ऐसा जान पड़ता कि उस हवेली के बड़े सफेद हॉल में कोई व्यक्ति एक उदास, टूटा सा, मर्मभेदी उच्छवास ले रहा है । अचानक फर्श के सूखे, घुन खाये तख्ते चरमरा उठते और लगता कि कोई तेज, भारी कदमों से उस पर दौड़ता चला जा रहा है। कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता कि मेरे कमरे से सटे वरामदे में कोई बड़ी सतर्कता से बरावर सांकल खटखटाये जा रहा है और फिर अचानक क्रोध में दरवाजों और खिडकियों को हिलाता हुआ सारे मकान का चक्कर काटने लगता है, या फिर चिमनी में रेंगता हुआ घुस जाता है और वहाँ क ७
बैठ कर बड़ी देर तक धीमे स्वर में सुबकता रहता है, फिर अचानक सुबकना वन्द कर बड़े दयनीय स्वर में चीख उठता है, किन्तु कुछ ही क्षणों में उसकी चीखें किसी जानवर की धीमी गुर्राहट में परिणत हो जाती है। कभी-कभी भयानक आगन्तुक न जाने कहां से मेरे कमरे में झपाटे से घुस पाता, मेरी रीढ़ की हड्डी पर ठंडी सी फूंक मारता हुआ सरकने लगता और फिर झुलसे हुए हरे कागज के लैंप-शेड के नीचे टिमटिमाती लौ को झकझोर कर निकल जाता। मेरे मन में एक विचित्र, अस्पष्ट सा भय उमड़ने लगा। "जाड़े की इस अंधेरी तूफानी रात में बर्फ और जंगलों से घिरा हुआ मैं इस टूटी-फूटी हवेली में बैठा हूं," मैंने T, "शहरी जीवन, भद्र समाज, स्त्रियों की मधुर खिलखिलाहट और मानवोचित वार्तालाप-सभी चीजों से सैकड़ों मील दूर !" मुझे उस समय लग रहा था कि यह रात वर्षों, दशकों तक, मेरे जीवन के अन्तिम दिन तक, इसी तरह कायम रहेगी, घर के बाहर तूफान इसी तरह तड़पता गरजता रहेगा, हरे, मटमैले शेड तले लैम्प की लौ हमेशा इसी तरह टिमटिमाती रहेगी, मैं बेचैन होकर इसी तरह कमरे के चक्कर काटता रहूंगा और यर्मोला चुपचाप, गुमसुम- सा चूल्हे के पास इसी अवसन्न-मुद्रा में बैठा रहेगा । रात की उस घड़ी में यर्मोला मुझे निपट अजनबी सा जान पड़ा । मानो वह एक विचित्र प्राणी है, जो अपने भूखे परिवार, कड़कड़ाती हवा और मेरे अस्पष्ट, घने अवसाद की चिन्ता किये बिना, दुनिया की सब चीजों के प्रति उदासीन, कमरे के इस कोने में चुप- चाप बैठा है और न जाने कब तक बैठा रहेगा। कमरे के बोझिल सन्नाटे को मानवीय स्वर से भंग करने के लिए मेरा दिल कराह उठा, और मैंने पूछा, “यर्मोला, हवा के इतने खौफनाक झोंके कहां से आते होंगे ? क्या तुम्हें कुछ मालूम है ?" "हवा ?" यर्मोला ने अलसाए भाव से मेरी ओर प्रा उठाकर पूछा। 'क्या आप नहीं जानते मालिक ?" 'बिलकुल नहीं ! भला ऐसी चीज मुझे कैसे मालूम हो सकती है ?" "सच, क्या आप नहीं जानते ?" यर्मोला की सारी सुस्ती हवा हो गयी। "मैं आपको बताऊंगा," उसने रहस्य भरे स्वर में कहा। "किसी चुडैल ने जन्म लिया है, या कोई जादूगर आनन्द मना रहा है । यर्मोला के इस उत्तर ने मेरे मन में गहरा कौतूहल जगा दिया । " क्या मालूम," मैंने सोचा, "शायद यर्मोला मुझे जादू, छिपे हुए खजानों या भेड़ियों का रूप धारण करने वाले आदमियों के बारे में कोई दिलचस्प कहानी सुना दे। "तुम्हारे यहां पोलेस्ये में चुडैलों का वास है ?" मैंने पूछा। " पता नहीं । शायद होगा ।" उसने पहले की तरह विरक्त-भाव से उत्तर दिया और चूल्हे के मुंह के पास झुक कर बैठ गया । “बड़े-बूढ़े लोग कहा करते है कि किसी जमाने में चुडैले यहां रहा करती थीं, किन्तु यह बात शायद सच नहीं है।" यर्मोला ने मेरी आशाओं पर पानी फेर दिया। वह अधिकतर चुप रहना पसन्द करता था । मुझे मालूम था कि इस दिलचस्प विषय पर अगर उसने चुप रहने की ठान ली तो उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलेगा। किन्तु मेरा भय निर्मूल साबित हुआ । उसकी वाणी अचानक फूट निकली। लापरवाही भरे स्वर में वह धीरे-धीरे बोलने लगा, मानो वह मुझ से न बोलकर गरजते चूल्हे से बात कर रहा हो। " पांच साल पहले इस इलाके में एक डायन रहा करती थी। लेकिन लड़कों ने उसे यहां से भगा दिया।" 'कहां भगा दिया ?" "जंगल में और कहाँ ? उसके घर की चिप्पी-चिप्पी उखाड़कर फैक दी गयी । लोग उसे चेरी के बाग के परे घसीटते हुए ले गये और लात मारकर बाहर निकाल दिया। " लेकिन उसके संग इस तरह का दुर्व्यवहार क्यों किया गया ?". 'कुछ न पूछिये मालिक, वह सबका अनिष्ट चाहती थी। सबसे लड़ती- झगड़ती रहती, मकानों पर जादू-टोना कर देती और कटी फसल की गठरियों को उलझा जाती । एक बार उसने किसी जवान बहू से पन्द्रह कोपेक मांगे। 'चल दफा हो यहां से ! मेरे पास तुझे देने के लिए कुछ नहीं है।' उस स्त्री ने उसे दुतकार दिया । ‘अच्छी बात है,' डायन ने कहा, 'एक-न-एक दिन तू अपने कर्मों को रोएगी, देख लेना।' जानते हो मालिक फिर क्या हुआ? उस स्त्री का बच्चा बीमार पड़ गया । वह बीमारी उससे ऐसी चिपकी कि छूटने का नाम नहीं लिया । अन्त में उसके प्राण लेकर ही विदा हुई। बस फिर तो गांव के नौजवानों के क्रोध का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने उस डायन को गांव से बाहर निकालकर ही दम लिया । सत्यानाश हो उसका !" 'आजकल' वह डायन कहां रहती है ?" मैंने पूछा "डायन ?" अपनी पुरानी आदत के अनुसार उसने मेरे प्रश्न को ही दुहरा दिया । " मैं क्या जानूं ?' "क्या वह यहां अपना कोई रिश्तेदार नहीं छोड़ गयी ?" 'नहीं, वह तो एक बनजारा औरत थी। या शायद कतसप रही होगी। गांव में एक अजनबी की तरह रहा करती थी। जब वह पहले-पहल गांव में । * युक्रेन के लोग रूसियों को इस नाम से पुकारते थे । आयी थी, तो उसके संग एक छोटी सी लड़की थी, जो उसकी बेटी या पोती रही होगी। गांव के नौजवानों ने उन दोनों को बाहर खदेड़ दिया।" क्या अब कोई भी उसके पास अपनी किस्मत का पता चलाने अथवा जड़ी-बूटी लेने नहीं जाता ?" " औरतें जाती हैं।" उसके स्वर में घृणा का पुट था । "अच्छा, फिर तो वे जानती होंगी कि वह डायन कहां रहती है ?" पता नहीं । लोगों को कहते सुना है कि वह कहीं पिशाच खोह के पास रहती है। आपने इरीनोवो सड़क के परे वाली दलदली जमीन तो देखी होगी? वह बदजात बूढ़ी वहीं रहती है । पोलेस्ये में हाड़-मांस की जीती-जागती डायन -जो गांव से सिर्फ कुछ मीलों के फासले पर रहती है ! यर्मोला के मुंह से यह समाचार सुनकर मेरे हृदय में रोमांच और उत्तेजना की लहर सी दौड़ गयी। 'योला, उस डायन से कैसे मुलाकात हो सकती है ?" मैंने पूछा । 'छिः ! कैसी बात कहते हैं, मालिक ?" यर्मोला ने नाराज होकर थूक दिया। "उससे मिलकर आप क्या करेंगे ?" "कुछ करू या न करू- लेकिन एक दिन उससे जरूर मिलकर रहूंगा। जरा सर्दी कम हो जाए तो किसी दिन उसके घर जाऊंगा। तुम मुझे उसके घर का रास्ता बतला देना । इतना तो कर दोगे, क्यों ?' मेरे अन्तिम वाक्य का यर्मोला पर ऐसा असर पड़ा कि वह एकदम उछल' कर खड़ा हो गया। " मैं, और आपको उसके घर ले जाऊं ? तोवा, तौबा ! आप मुझे दुनिया की तमाम दौलत दे दें, तो भी मैं ऐसा काम न करू!" वह गुस्से में चिल्लाया। "कैसी पागलों की सी बातें कर रहे हो ! तुम्हें मेरे संग चलना ही पड़ेगा।" "नहीं मालिक, मैं हरगिज नहीं जा सकूँगा। मैं वहां जाऊं? यह कैसे हो सकता है, मालिक ?" वह फिर गुस्से से भर गया । " ईश्वर मुझे उस डायन के घोंसले से जितना दूर रखे, उतना ही अच्छा ! मालिक, मैं आपको भी यही सलाह दूंगा कि कभी भूलकर भी उस तरफ पैर मत बढ़ा दीजियेगा।" " जैसी तुम्हारी इच्छा। किन्तु मैं तो जब तक उसे देख न लूंगा मेरा कौतूहल शांत न होगा। मैं समझ नहीं पाया कि उसमें कौन सी ऐसी चीज है, जिसे देखने के लिए आप इतने व्याकुल हैं ?" यर्मोला ने बुड़बुड़ाते हुए कहा और चूल्हे का दरवाजा खटाक से बन्द कर दिया। एक घंटे बाद जब यर्मोला अंधेरे बरामदे में बैठ कर चाय पीने के बाद घर जाने लगा तो मैंने उसे बीच में ही रोककर उस डायन का नाम पूछ लिया । &C १००
11 'मान्यूलिखा," बड़ी रुखाई से उत्तर देकर यर्मोला चल दिया । मुझे से यह छिपा न था कि मेरे प्रति यर्मोला का लगाव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा था, हालांकि उसने अपनी इस भावना को बाह्य-रूप से कभी प्रकट नहीं होने दिया। हम दोनों के बीच जो घनिष्ट मित्रता स्थापित हो गयी थी, उसके कई कारण थे। हम दोनों ही शिकार खेलने के बेहद शौकीन थे। उसके प्रति मेरा बर्ताव सरल था और अक्सर मैं उसके दीन-दरिद्र परिवार की थोड़ी-बहुत सहायता कर दिया करता था। किन्तु शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि उसके पिय- ककड़पन पर मैंने कभी उसे डांटा-फटकारा नहीं। इस मामले में किसी भी प्रकार के दखल को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था और अकेला मैं ही ऐसा व्यक्ति था जिसने उसकी इस आदत की भर्त्सना नहीं की थी। वह मुझे बहुत चाहने लगा था । शायद यही कारण था कि डायन से मिलने के मेरे दृढ़ निश्चय को देखकर वह गुस्से में झुंझला उठा था । जब वह क्रोध में भुनभुनाता हुआ मेरे कमरे से बाहर निकलकर आंगन में आया, तो उसने अपने कुत्ते रियाबचिक की पसलियों पर एक लात जमा दी। बेचारा रियाबचिक हृदय-विदारक चीखें मारता हुआ दूसरी तरफ भागा, किन्तु दूसरे ही क्षण चीं-चीं करता हुआ यर्मोला के पीछे-पीछे चलने लगा। तोन लगभग तीन दिन बाद सर्दी का प्रकोप कुछ कम हुआ । एक दिन यर्मोला तड़के ही मेरे कमरे में आ धमका। "मैं बन्दूकें साफ करने आया हूं मालिक," उसने लापरवाही से कहा । " क्यों, आज क्या बात है ?" कम्बलों के भीतर से ही अंगड़ाई लेते हुए मैंने पूछा। "जान पड़ता है, कल रात खरगोश अपने बिलों से बाहर निकले है हर जगह उनके पैरों के निशान दिखायी दे रहे हैं। यही वक्त है उनके शिकार का, मालिक !" यर्मोला ऊपर से लापरवाही जतलाते हुए बोल रहा था, किन्तु भीतर-ही- भीतर उसका हृदय जंगल' में शिकार खेलने के लिए मचल रहा था। उसकी छोटी सी बन्दूक बड़े कमरे के कोने में रखी हुई थी। अब तक एक भी चाहा- पक्षी पर इस बन्दूक की गोली खाली नहीं गयी थी। बन्दूक की घोड़ी के आस- पास के लोहे पर बारूद की गैस और जंग से जगह-जगह पर सूराख हो गये थे, जिन्हें टीन के टुकड़ों से ढंक दिया गया था ।
अभी हम जंगल में घुसे ही थे कि एक खरगोश के पैरों के निशान दिखायी दिये। अगले पैरों के निशान' साथ-साथ, उनके जरा पीछे पिछले दोनों पैरों के निशान । ये निशान कुछ दूर तक चले गये थे। खरगोश सड़क पर तीन चार सौ गज भागा होगा, और फिर किनारे पर लगे चीड़ के वृक्षों के झुरमुट में छलांग मार कर विलीन हो गया होगा। " अब हम इस खरगोश को चारों ओर से घेर लेंगे," यर्मोला ने कहा 'वह यहीं कहीं छिपा बैठा होगा । मालिक, आप उस तरफ हो लीजिए।" वह उन चिन्हों द्वारा, जिन्हें केवल वही अकेला समझ सकता था, यह निर्णय करने के लिए ठहर गया कि मुझे किस दिशा में भेजा जाय । “ देखिए मालिक, आप उस पुराने शराबखाने की तरफ चल दें। मैं जामलिन की ओर से यहां पाऊंगा। ज्यों ही कुत्ता भौंकना शुरू करेगा, मैं आपको आवाज देकर बुला लूंगा।" यह कह कर वह तुरन्त धनी झाड़ियों में विलीन हो गया। मैं कान लगा कर सुनता रहा, किन्तु शिकार चुराने में वह इतना दक्ष था कि बिना कोई आवाज किये चुपचाप झाड़ियों को चीरता हुआ भीतर घुसता चला गया। उसके पैरों के नीचे से एक भी टहनी के एंटने की आवाज न सुनायी दी। मैं धीरे-धीरे शराबखाने के जीर्ण-जर्जरित और वीरान ढाबे की ओर बढ़ने लगा। कुछ देर चलने के बाद में जंगल के छोर पर एक सीधे, नंगे तने वाले लम्बे पेड़ की छाया में खड़ा हो गया । सर्दी का दिन, निस्पन्द हवा, जंगल की - मैं खड़ा-खड़ा यह सब कुछ देखता रहा । धवल चांदी सी हिम राशियों से ढंकी पेड़ों की शाखाएं बहुत सुन्दर और सुरम्य दीख पड़ती थीं । जब कभी किसी पेड़ के शिखर से कोई टहनी टूट जाती तो अन्य शाखाओं से उसके टकराने की हल्की सी खड़खड़ाहट सुनायी दे जाती । धूप में बर्फ का रंग गुलाबी और छाया में नीला सा दिखलायी देता था। जंगल की गम्भीर और शीतल शांति के नीरव, रहस्यमय जादू ने मुझे अभिभूत कर लिया, और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो समय निःशब्द गति से मेरे निकट से सरकता चला जा रहा हो। अचानक मुझे दूर झाड़ियों से रियाबचिक के भौंकने की आवाज सुनायी दी-ऊंची, उत्तेजित, रिरियाती सी आवाज, जो कुत्तों के कंठ से उसी समय निकलती है जब वे अपने शिकार का पीछा कर रहे हों। उसके तुरन्त बाद मुझे यर्मोला का कर्कश स्वर सुनायी दिया । वह "आss-वीss ! आss-बीss !" हांक लगाता हुआ अपने कुत्ते को पुकार रहा था। काफी अर्से बाद मुझे पता चला कि पौलेस्ये के शिकारियों यह हांक “ऊबी वात ( 'मारना' ) शब्द से बनी है। कुत्ते के भौंकने की आवाज जिस दिशा से आ रही थी, उसके आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि वह मेरी बायीं ओर खरगोश का पीछा कर रहा होगा, अथाह शान्ति इसलिए उसे बीच में ही रोकने के लिए मैं जंगल से घिरे मैदान को पार करने लगा। किन्तु मैं अभी मुश्किल से बीस गज ही दौड़ा हूंगा, कि भूरे रंग का एक बड़ा खरगोश पेड़ के ठूठ के पीछे से बाहर निकल आया। उसे देख कर जान पड़ता था मानो उसे भागने की कोई खास जल्दी नहीं है। उसके लम्बे कान उसके सिर के साथ सटे हुए थे। चार-पांच लम्बी कुलाचे मारता हुआ वह सड़क पार कर पेड़ों के नीचे उगी हुई झाड़ियों में घुस गया। खरगोश के जरा पीछे रियाबचिक भी गोली की तरह लपका चला आया। मुझे देखते ही वह ठिठक कर दुम हिलाने लगा, और फिर दो चार बार बर्फ पर मुंह मारने के बाद खरगोश के पीछे हो लिया । अचानक याला दबे पांवों झाड़ियों के बाहर प्रकट हुमा । "आपने उसे रोका क्यों नहीं, मालिक ?", वह चिल्लाया, और फिर शिकायत की मुद्रा में 'शी, शी,' करने लगा। 'भई में क्या करता भला ? वह तो मुझ से सौ फीट या शायद उससे भी ज्यादा दूरी पर था।" मेरे चेहरे पर गहरे अफसोस के चिन्ह देख कर वह कुछ ढीला पड़ा। " कोई बात नहीं । बच्चू भाग कर जायगा कहाँ ? अब आप झटपट इरीनोवो मार्ग पर चले जाएं । कुछ ही देर में वह उस तरफ दिखलायी देगा।" मैं ईरीनोवो मार्ग की तरफ चल पड़ा। दो मिनट बाद ही मुझे खरगोश का पीछा करते हुए कुत्ते की आवाज सुनायी दी। शिकार की उत्तेजना में भर कर मैं अपनी बन्दूक सम्भालता हुआ झाड़-झकाड़ के बीच गिरता-पड़ता भागने लगा। पेड़ों की नुकीली टहनियां मेरी देह को क्षत-विक्षत कर रही थीं, किन्तु उसकी चिन्ता किये बिना मैं आगे बढ़ता चला गया। कुछ दूर तक मैं इसी तरह भागता रहा। कुत्ते ने जब भौंकना बन्द किया, तो मैंने अपनी चाल धीमी कर दी। मेरा दम फूलने लगा था और मैं बुरी तरह हांप रहा था। मैंने सोचा कि यदि मैं सीधा चलता गया तो ईरीनोवो मार्ग पहुंचते-पहुंचते रास्ते में यर्मोला से निश्चय ही भेंट हो जाएगी। किन्तु कुछ ही दूर चलने के बाद मैं अपनी गलती पहचान गया। झाड़ियों और पेड़ों के ढूंठों के बीच भागते हुए मुझे दिशा का ज्ञान नहीं रहा था और मैं भटक गया था। मैंने आवाजें लगायीं, किन्तु यर्मोला का कहीं पता न था। मैं यंत्रवत आगे बढ़ता गया। धीरे-धीरे जंगल छितरने लगा और दलदली जमीन आ गयी। बर्फ पर मेरे पैरों के निशान उभर आते थे और उनमें गंदला पानी भर जाता था। कई बार तो मेरे पैर दलदल में घुटनों तक धंस गये। मैं एक दूह से दूसरे ढूह पर छलांगें मारता आगे बढ़ता जा रहा था। भूरे रंग की काई में पैर ऐमे धंसते थे मानो मुलायम कालीन हो।
कुछ ही देर में जंगल की घनी झाड़ियां पीछे छूट गयीं। मैं एक वर्फ से ढके गोल दलदली मैदान में चला आया, जिसके बीच कहीं-कहीं घास-फूस के टीले सर उठाए खड़े थे । मैदान के दूसरी ओर पेड़ों से घिरी, सफेद दीवारों वाली एक झोपड़ी खड़ी थी। "यह इरीनोवो के लकड़हारे का घर होगा। चलो, उसके पास जाकर रास्ता ही पूछ लिया जाये ।" मैंने सोचा । किन्तु झोपड़ी तक पहुंचना आसान नहीं था। मेरे पांव बार-बार कीचड़ में धस जाते थे। मेरे लम्बे जूते पानी से भर गये थे और हर कदम पर छपाछप करने लगते थे। उन्हें साथ घसीटना मेरे लिए दुश्वार हो गया । आखिर बड़ी मुश्किल से उस दलदली मैदान को पार करके मैं एक छोटे से टीले पर चढ़ गया, जहां से झोपड़ी साफ दिखायी देती थी। परियों की कहानियों में डायनों की झोपड़ी का जो चित्र उभर कर आता है, यह झोपड़ी हूबहू वैसी ही थी । वसन्त ऋतु में इरीनोवो के जंगल हमेशा बाढ़ के पानी में डूबे रहते थे। इसीलिए शायद उस झोपड़ी को एक ऊंचे टीले के ऊपर बनाया गया था । झोपड़ी की दीवारें पुरानी और जर्जर थीं और वह बहुत दीन और उदास दिखायी देती थीं, कुछ खिड़कियों के शीशे नदारद थे; उनकी जगह फटे- पुराने चीथड़े लगा दिये गये थे, जो हवा में बाहर की ओर झूल रहे थे। मैंने दरवाजे पर थाप दी तो वह खुद-ब-खुद खुल गया। भीतर घुप्प अंधेरा था । बर्फ को बहुत देर तक देखते रहने के कारण मेरी आंखों के सामने बैगनी रंग के सितारे से नाच रहे थे। कुछ देर तक तो मैं यह भी न जान सका कि झोपड़ी खाली है अथवा उसके भीतर कोई बैठा है। "कोई भला आदमी अन्दर है ?" मैंने ऊंची आवाज में पूछा चूल्हे के पास कोई चीज हिली । मैं झोपड़ी के भीतर चला आया। एक बुढ़िया फर्श पर बैठी थी। उसके सामने मुर्गी के चूजों के टूटे हुए पंखों का ढेर पड़ा था। वह पंखों को वीन-बीन कर उनके कांटों को साफ कर रही थी और टोकरी में रखती जा रही थी। कांटों और डंडियों को वह फर्श पर फेंकती जाती। "अरे यह बुढ़िया तो इरीनोवो की डायन मान्यूलिखा सी दिखायी देती यकायक यह विचार बिजली सा मेरे मस्तिष्क में कौंध गया। लोक कथाओं में डायनों का जो विवरण मिलता है, उस बुढ़िया का चेहरा-मुहरा, हाव- भाव बिलकुल वैसा ही था-पतली-दुबली देह, पिचके हुए गाल, लम्बी नुकीली ठुड्ढी, जो उसकी लम्बी चोंच सी नाक को छूती सी जान पड़ती थी। उसका पोपला मुंह--जिसमें एक भी दांत न था-बराबर चल रहा था, मानो वह किसी चीज को चवा रही हो। उसकी फटी सी अांखें -जो किसी जमाने में नीली रही होंगी, अब फीकी और कठोर बन गयी थीं और उनकी छोटी-छोटी सुर्ख पलकों को देख कर बरबस किसी मनहूस पक्षी की आंखों की याद आ जाती थी।
"दादी मां, प्रणाम !" मैंने अपने स्वर को यथासंभव मीठा बनाते हुए कहा । "क्या आप मान्यूलिखा तो नहीं है ?" बुढ़िया की छाती से अचानक 'घर-घर' का स्वर उठने लगा। उसके पोपले मुंह से विचित्र सी आवाजें आने लगीं, मानो कोई बूढ़ा कौवा तीखे कर्कश स्वर में चीख रहा हो। "मुमकिन है कभी नेक आदमी मुझे मान्यूलिखा कह कर पुकारते रहे हों। किन्तु अब मेरा नाम और यश, दोनों ही मिट गये हैं । खैर ! तुम यहां किस लिए आये हो ?" उसने रूखी आवाज में कहा । अपना नीरस काम वह वराबर करती जा रही थी। "मैं रास्ता भूल गया हूं, दादी मां! क्या मुझे थोड़ा सा दूध मिल सकेगा ?" " यहां दूध-वूध कुछ नहीं," उसने टका सा जवाब दिया । बहुतेरे लोग यहां से गुजरते हैं । मैंने सबका पेट भरने का ठेका थोड़े ही लिया U1 'तुम जैसे " कर लो- " अतिथियों का सत्कार क्या इस तरह किया जाता है, दादी मां ? "आप जो जी में आये, समझे, जनाब ! लेकिन खाना-वाना यहां किसी को नहीं दिया जाता। अगर थक गये हो तो कुछ देर यहां बैठ कर कमर सीधी - मुझे कोई एतराज न होगा। आपको यह कहावत याद है ना : 'प्रायो, हमारे घर के पास बैठ कर गिरजे की घंटियां सुन लो। लेकिन जहां तक भोजन का सवाल' है, उसके लिए हम तुम्हारे घर आना ही पसन्द करेंगे।' सोई बात है भाई !" उस बुढ़िया की मुहावरेदार भाषा को सुन कर मैं समझ गया कि वह उस इलाके की रहने वाली नहीं है, जहां के लोग तेज तर्रार, चटपटी भाषा को पसन्द नहीं करते । उत्तरी प्रदेश के वाक-पटु लोग ही ऐसी भाषा का मजा लेना जानते हैं। इस दौरान में बुढ़िया अपना काम करती और होठों-ही-होठों में कुछ बुड़बुड़ाती जा रही थी। उसकी आवाज इतनी धीमी थी कि कभी-कभार कुछ असम्बद्ध से वाक्यं ही मैं समझ पाता था : “यह रही तुम्हारी मान्यूलिखा दादी- -न जाने कौन है यह आदमी अब मैं बूढ़ी हो चली हूं-दिन-रात नीलकन्ठ की तरह झींकती, चीखती, बुडबुड़ाती रहती हूं मैं कुछ देर तक उसकी बुड़बुड़ाहट को सुनता रहा, और सहसा मेरे मस्तिष्क में यह विचार आया कि में एक पागल बुढ़िया के सम्मुख बैठा हूं। इस विचार से मैं कुछ भयभीत हुआ, कुछ विरक्त भी। फिर भी मैं झोपड़ी का निरीक्षण करने का लोभ संवरण न कर सका। कमरे के एक बड़े भाग को टूटे-
"चले फूटे चूल्हे ने घेर रखा था। सामने ताक में देवी-देवता की कोई मूर्ति नहीं रखी थी और वह खाली पड़ा था। दीवारों पर हरी मूछों वाले शिकारियों, बैगनी रंग के कुत्तों और गुमनाम सेनापतियों के चित्रों के बजाय सूखी मुरझायी हुई जड़ी बूटियां और वर्तन-भाड़े लटक रहे थे। मुझे कमरे में कहीं भी उल्लू या काली बिल्ली नहीं दिखायी दिये । चूल्हे के ऊपर दो चितकबरी मैनाएं गम्भीर मुद्रा में बैठी थीं और मुझे आश्चर्य और सन्देह से देख रही थीं। "दादी मां, क्या मुझे थोड़ा सा पानी भी नहीं मिल सकता ?" मैंने तनिक ऊंचे स्वर में पूछा । "पानी उस तरफ बाल्टी में रखा है ।" उसने कहा । पानी से कीचड़ का स्वाद आ रहा था। मैंने बुढ़िया को धन्यवाद दिया, किन्तु उसने मेरी ओर कोई ध्यान न दिया । फिर मैंने उससे रास्ता पूछा। उसने अपना सर ऊपर उठाया और परिन्दे की सी उसकी कठोर अांखें देर तक मेरे चेहरे पर जमी रहीं। फिर वह तेज स्वर में चीख उठी, जाओ ! यहां से फौरन दफा हो जाओ ! 'मान न मान मैं तेरा मेहमान !' यह भी कोई बात हुई भला !" अब मेरे पास वहां से चले जाने के अलावा कोई दूसरा चारा न था । किन्तु जाने से पहले उस बुढ़िया के कठोर दिल को पिघलाने की मैंने आखिरी कोशिश की । मैंने अपनी जेब से चांदी का बिलकुल नया चमचमाता सिक्का निकालकर उसके आगे रख दिया । मेरा अनुमान सही निकला । देखते ही उसकी प्रांखें फैल गयीं, और सिक्के को उठाने के लिए उसने अपनी कांपती टेढ़ी-मेढ़ी अंगुलियां आगे बढ़ा दीं। 'नहीं, दादी मान्यूलिखा, मुफ्त में नहीं मिलने का," मैंने उसे चिढ़ाने के लिए सिक्का छिपा लिया। "पहले मुझे मेरी किस्मत के बारे में कुछ बतलाना पड़ेगा। डायन ने झंझला कर झुरियों से भरा अपना चेहरा गुस्से में सिकोड़ लिया। वह दुविधा भरी दृष्टि से मेरी मुट्ठी को देख रही थी। आखिर वह अपनी लालच को न दबा सकी। अच्छा बेटा, जैसे तेरी मर्जी। वह बुड़बुड़ायी, और हांफती हुई फर्श से उठ कर खड़ी हो गयी । " बहुत दिनों से मैंने किस्मत देखने का काम छोड़ दिया है बेटा, बूढ़ो जो हो गयी हूं। अांखों से भी तो कुछ नहीं सूझता । अब तो मैं सबकुछ भूल गयी हूं, लेकिन तुमने कहा है, तो तुम्हारा दिल रखने के लिए दो चार बातें कह दूंगी। दीवार का सहारा लेकर, थर-थर कापती अपनी झुकी हुई काया को वह मेज तक घसीट कर ले गयी । मेज के ऊपर से उसने भूरे रंग के ताश उठाये, जो " १०६
16 इतने पुराने हो गये थे कि हाथ लगाते ही फटने का डर था। फिर वह उन्हें धीरे-धीरे फेंटने लगी। "तुम्हारे दिल के नजदीक कौन सा हाथ पड़ता है ? बायां हाथ ! अच्छा तो बायें हाथ से इन्हें काट दो।" उसने ताश की गड्डी मेरे आगे बढ़ा दी। उसने अपनी अंगुलियों को यूक से गीला किया और पत्त विछाने लगी। प्रत्येक पत्ता मेज पर गिरते ही धप्प से आवाज करता था, मानो वह आटे का बना हो। मेज पर ताश के पत्तों का एक अष्टभुज सितारा बन गया। जब आखिरी पत्ता बादशाह पर गिरा, तो मान्यूलिखा ने झट अपनी हथेली पामे बढ़ा दी। 'इस पर चांदी का सिक्का फेर दीजिए, जनाब । बहुत सा धन मिलेगा, हमेशा सुखी रहोगे।" वह एक भीख मांगनेवाली बनजारिन के खुशामदी स्वर में गिड़गिड़ाने लगी। मैंने उसकी हथेली पर चांदी का सिक्का सरका दिया। सिक्का हाथ में आते ही उसने लंगूर की सी चपलता के साथ उसे अपने गाल के पीछे छिपा लिया। 'पाप एक लम्बी यात्रा करेंगे, जिससे आपको बहुत बड़ा लाभ होगा। उसने तोते की तरह रटे-रटाये वाक्यों को कहना शुरू किया। इंट की बेगम से आपकी मुठभेड़ होगी, जिसका मतलब है कि एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के घर में आपका किसी के साथ बहुत आनन्ददायक वार्तालाप होने वाला है। निकट भविष्य में आपको चिड़ी के बादशाह से एक अनोखा समाचार मिलेगा, शुरू में थोड़ी सी परेशानी होगी, फिर कुछ रुपया मिलेगा। एक दिन प्राप बहुत से लोगों के साथ होंगे और शराब पीकर मदमस्त हो जायेंगे। इसका मतलब यह नहीं कि आप नशे में सुध-बुध खो बैठेंगे, लेकिन यह बात पक्की है कि एक-न- एक दिन दोस्तों की मंडली में बैठकर आप खूब छक कर शराब पियेंगे । आपकी आयु बहुत लम्बी है । अगर सड़सठ वर्ष की उम्र में आपकी मृत्यु न हो तो..." किन्तु उसने अपना वाक्य बीच में ही अधूरा छोड़ दिया। मुझे लगा कि वह सिर उठाकर कुछ सुन रही है। मेरे कान भी खड़े हो गये। एक स्त्री अपने निर्मल, निर्भीक, गूंजते स्वर में गाना गाती हुई झोपड़ी की पोर पा रही थी। यूक्रेन के उस सुमधुर गीत की लय और धुन में एकदम पहचान गया : भार सहन कर नहीं सकी क्या डाली लाल गुलाब का ? मस्तक मेरा बोझ न सह पाता अलसाये ख्वाब का ? १०७
CZ "अब तुम यहां से चले जाओ बेटा," मान्यूलिखा ने घबराकर मुझे मेज से परे धकेल दिया। "हम जैसे अजनबी लोगों के घर में तुम्हारा उठना-बैठना ठीक नहीं लगता। मेहरबानी करके अब अपना रास्ता पकड़ो।' वह इतनी ज्यादा घबरा उठी थी कि मेरी आस्तीन पकड़कर मुझे दरवाजे की ओर धकेलने लगी । उसका चेहरा भय से पीला पड़ गया था। झोपड़ी के पास पाकर गीत का स्वर अचानक टूट गया। लोहे की कुंडी बज उठी और फटाक से दरवाजा खुल गया । मैंने देखा कि झोपड़ी की देहरी पर एक लम्बे कद की लड़की खड़ी हंस रही है। उसने बड़ी सावधानी से अपने दोनों हाथों में एक धारीदार रुमाल पकड़ रखा था, जिसके भीतर से तीन छोटे-छोटे पक्षियों की लाल गर्दनें और काले मोतियों सी आंखें बाहर झांक रही थीं। 'दादी मां, जरा इन नन्हे-मुन्ने परिन्दों को तो देखो, मुझसे कैसे चिपट गये हैं।" उसने खिलखिला कर हंसते हुए कहा । " समझ में नहीं आता कि क्या करूं ? भूख के मारे अधमरे से हो रहे है बेचारे । मेरे पास रोटी भी नहीं थी जो एक-दो टुकड़े इन्हें खिला देती।" अचानक उसकी आंखें मेरी ओर मुड़ गयीं । मुझे देखते ही उसका चेहरा लज्जा से लाल हो उठा । उसने अपनी काली भौंहें सिकोड़ लीं, मानो उसे मेरी उपस्थिति अत्यंत अरुचिकर लगी हो। वह प्रश्नसूचक दृष्टि से मान्यूलिखा को देखने लगी। “यह महाशय रास्ता पूछने के लिए यहां आये थे।" बुढ़िया ने उस लड़की को मेरी उपस्थिति का कारण समझाते हुए कहा । फिर वह मेरी ओर मुड़कर हढ़ स्वर में बोली, “ हजूर, आप यहां वेकार अपना समय नष्ट कर रहे हैं । आप ने अपनी प्यास बुझा ली, जो बातें पूछनी थीं, सो पूछ लीं, अब आप यहां बैठकर क्या करेंगे? हमारा और आपका क्या संग?" "ऐ सुन्दरी, क्या तुम मेरी मदद नहीं करोगी?" मैंने उस लड़की की ओर उन्मुख होकर कहा । " मैं रास्ता भूल गया हूं। मुझे इरीनोवो रोड जाना है, किन्तु मुझे भय है कि मैं अकेला इस दलदल को पार करके वहां नहीं पहुंच सकूँगा। क्या तुम मेरे संग चल सकोगी ?" मुझे लगा कि मेरे कोमल, अभ्यर्थना-भरे स्वर को सुनकर वह बहुत अधिक प्रभावित हो गयी है। वह जिन परिन्दों को अपने संग लायी थी, उन्हें उसने बहुत सावधानी से मैनाओं के पास रख दिया, फिर कोट उतार कर बेंच पर फेंक दिया और चुपचाप झोपड़ी के बाहर चली आयी। मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगा। 'क्या ये परिन्दे पालतू हैं ?" मैं आगे बढ़कर उसके संग चलने लगा। " १०८
"हो," बिना मेरी पोर आंखें उठाये वह रुखाई से बोली। कुछ दूर चलकर पेड़ की टहनियों से बनी मेड़ के सामने वह खड़ी हो गयी। "वह पगडंडी देखते हो-वही, जो चीड़ के पेड़ों के बीच से गुजरती है ? "हां !" 11 11 बस उस पगडंडी पर सीधे चले जायो । बीच में जहां बलूत का लट्ठा पड़ा मिले, वहां से बायीं ओर मुड़ जाना । फिर जगल के बीचोंबीच सीधे चलते जाना। आगे तुम्हें इरीनोवो रोड मिल जाएगी। जब वह दायां हाथ उठाकर मुझे रास्ता दिखलाने लगी, तो मैं मंत्रमुग्ध सा होकर उसके अपूर्व, विलक्षण सौन्दर्य को निहारता रह गया। वह गांव की अन्य बालाओं से सर्वथा भिन्न थी। वे ऊपर से अपना माथा और नीचे से छुड्डी और मुंह को रुमाल से ढके रहती थीं, जो देखने में बहुत ही भोंडा और भद्दा जान पड़ता था। उनके चेहरों का भाव हमेशा एक जैसा होता, और अांखें मानो भय से फैली रहतीं। किन्तु यह भूरे बालों वाली लड़की, जो मेरे पास खड़ी थी, सहज सौन्दर्य की साक्षात प्रतिमा सी दिखलायी देती थी। उसका कद लम्बा था, आयु बीस और पच्चीस वर्ष के बीच रही होगी। उसके उदीय. मान यौवन का प्रतीक उसका सुडौल मांसल वक्षस्थल, सफेद, 'चौड़े ब्लाऊज के नीचे ढंका था। उसके चेहरे के असाधारण सौन्दर्य को एक बार देखकर भूल जाना असंभव था । वह एक ऐसा अनिर्वचनीय सौन्दर्य था, जिसे बार-बार देखने के बाद भी शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं होता। तनिक मुड़े हुए उसके हठीले होंठ, चेहरे का गेहुअां रंग, जिस पर दो गुलाबी धब्बे छिटक आये थे, पतली बीच में कटी हुई भौहें जो उसकी बड़ी-बड़ी चमकती हुई श्यामल आँखों में चातुर्य, ढिठाई और भोलेपन का रहस्यमय भाव भर देती थीं- उसके अंग-प्रत्यग से एक विचित्र आकर्षण छलकता था । 'इस उजड़े वीरान जंगल में अकेले रहते तुम्हें कभी डर नहीं लगता ?" मेड़ के पास ठिठक कर मैंने उससे पूछा । उसने उदासीन भाव से कंधे हिला दिये। "डर क्यों लगेगा ? भेड़िये इस तरफ कभी नहीं पाते।" 'मेरा मतलब सिर्फ भेड़ियों से नहीं था। बर्फ का तूफान आ सकता है, आग लग सकती है, यहा सब कुछ हो सकता है । इस निर्जन स्थान में तुम अकेली रहती हो, मुसीबत पड़ने पर कोई भी तुम्हारी ायता करने नहीं 16 श्रा सकता। 'हमारे लिए यही अच्छा है । काश, वे लोग मुझे और दादी मां को अकेला छोड़ सकते ! किन्तु... 'किन्तु क्या ?" 'बहुत अक्ल बढ़ाने की कोशिश न कीजिए, वरना टांट गंजी हो जायेगी, जनाब !" उसने तुनुक कर कहा । " क्या मैं जान सकती हूं कि आप कौन हैं ?" उसका स्वर परेशान हो उठा। मुझे कुछ ऐसा लगा कि उसे और उसकी दादी मां को हमेशा यह खटका लगा रहता है कि कहीं पुलिस के अधिकारी उन्हें तंग करने न आ पहुंचें। घबड़ाओ नहीं, मैं पुलिस का अफसर नहीं हूं," उसे आश्वासन देते हुए मैंने कहा । “ मैं कोई क्लर्क या चुंगी वसूल करने वाला कर्मचारी भी नहीं। सरकारी अधिकारियों से मेरा दूर का भी सम्बंध नहीं है । "क्या यह बात सच्ची है ?" "मैं तुम्हें अपना वचन देता हूं कि जो कुछ मैं कह रहा हूं, उसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं है । विश्वास करो, यहाँ मैं एक अजनवी की तरह रहता हूं। कुछ महीने यहां ठहकर मैं वापिस चला जाऊंगा। अगर तुम चाहो तो मैं किसी को यह बात नहीं बतलाऊंगा कि मैं यहां आया था और तुम लोगों से मिला या । क्या अब भी तुम मुझ पर विश्वास नहीं करोगी?" उसका चेहरा कुछ खिल गया । अच्छा तो ठीक है। अगर तुम झूठ नहीं बोल रहे, तो जरूर सच बोल रहे होगे। लेकिन यह तो बताओ कि तुमने पहले कभी हमारे बारे में कुछ सुन रखा था या अचानक ही यहां आ पहुंचे ?" " समझ में नहीं पाता, क्या कहूं ! यह बात नहीं है कि मैंने तुम्हारे सम्बंध में कुछ सुना न हो। मैंने मन-ही-मन यह निश्चय भी कर लिया था कि किसी दिन मैं तुम लोगों को देखने वाऊंगा । किन्तु प्राज तो मैं संयोगवश यहां आ पहुंचा । अगर रास्ता न भूलता तो यहां तक कभी न पहुंच पाता। अच्छा, यह तो बताओ कि तुम लोगों से इतना डरती क्यों रहती हो ? वे तुम्हें क्या नुकसान पहुंचाते हैं ?" अविश्वास से भरी उसकी आंखें कुछ देर तक मुझे तोलती-परखती रहीं। मेरे भीतर कोई दुराव-छिपाव नहीं था, इसलिये मैं भी अपलक, एकटक उसे देखता रहा । कुछ देर बाद वह उत्तजित होकर बोली : "लोग हमें चैन से नहीं रहने देते। यह ठीक है कि मामूली लोग हमें ज्यादा परेशान नहीं करते, किन्तु पुलिस के अफसरों की बात मत पूछिये । गांव का पुलिस अफसर, जिले का कमिश्नर और दूसरे अधिकारी हमें तंग करने प्रायः हमारे घर आ धमकते हैं । जब तक हम उपहारों या रुपये से उनकी मुट्ठी गर्म नहीं कर देते, वे हमारे दरवाजे से टलने का नाम नहीं लेते। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। दादी मां को चुडैल, कुलटा, सजायाफ्ता कुतिया और न ।
11 जाने कितनी गन्दी और गलीज गालियां दी जाती हैं। लेकिन छोड़िये, मैं नाहक आपके सामने अपनी तकलीफों का पचड़ा लेकर बैठ गयी !" 'क्या वे लोग कभी तुम से भी छेड़-छाड़ करने की जुर्रत करते हैं ?" मुझे अपना प्रश्न अशिष्ट और अनुचित सा जान पड़ा, किन्तु क्या करता, मुंह से निकली हुई बात को वापिस लौटाना असंभव था । गर्व और आत्मविश्वास से उसने अपना सिर हिला दिया। उसकी अांखें सिकुड़ गयीं और उनमें विजयोल्लास की मुसकान चमक उठी। " नहीं । एक बार जमीन की जांच-पड़ताल करने वाले एक अफसर ने मुझ से छेड़छाड़ करने की हिम्मत की थी। वह मुझ से प्रेम करना चाहता था, समझे आप ? मैंने भी उसे प्रेम का ऐसा सबक सिखाया कि बच्चू आजतक याद करता होगा।" उसके स्वर में व्यंग्य, अभिमान और आत्मनिर्भरता के भाव भरे थे। " यह लड़की पोलेस्ये के जंगलों के स्वतंत्र वातावरण में खेल-कूद कर बड़ी हुई है, इसके संग खिलवाड़ करना खतरे से खाली नहीं है।" मैंने मन-ही-मन सोचा। " 'हम लोग किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते ।" मुझ पर उसका विश्वास धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। "हम किसी से मिलना-जुलना भी पसन्द नहीं करते। साल में केवल एकबार नमक और साबुन खरीदने मुझे शहर जाना पड़ता है। दादी मां को चाय बहुत भाती है, लिये कभी-कभी अपने संग चाय भी ले आती हूं। अगर इन चीजों की जरूरत न पड़े तो शायद किसी से भी मिलना न हो।" "मुझे मालूम है कि तुम और तुम्हारी दादी अतिथियों को ज्यादा मुंह नहीं लगातीं । किन्तु अगर मैं किसी दिन कुछ देर के लिए तुम्हारे घर चला आऊं तो क्या तुम्हें बहुत बुरा लगेगा ?" वह हंस पड़ी। मुझे लगा कि अचानक उसके सुन्दर चेहरे में एक विचित्र परिवर्तन हो गया है। पहले जो कठोरता थी, उसका अब चिन्ह-मात्र भी शेष न रहा था। एक नन्हे से बच्चे की तरह उसका लज्जाशील चेहरा खिल " उठा था। "किन्तु तुम हमारे घर आकर करोगे क्या ? हम बहुत नीरस लोग हैं, कुछ ही देर में तुम्हारा मन ऊब जाएगा। हां, अगर तुम नेक आदमी हो तो हमारे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं। लेकिन अब कभी प्रामो तो अपनी बन्दूक घर छोड़ कर पाना ।" " क्या तुम्हें डर लगता है ?" १११
17 " डरूगी क्यों ? मुझे किसी चीज से डर नहीं लगता।" उसके दृढ़ स्वर से यह स्पष्ट झलक रहा था कि उसे अपनी शक्ति में कितना अटूट विश्वास है । " लेकिन मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लगता। भला परिन्दों और खरगोशों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम बन्दूक लिये उनके पीछे घूमते हो ? हमारी तरह उन्हें क्या जीने का मोह नहीं होता ? न जाने मुझे ये छोटे-छोटे नासमझ जीव-जन्तु क्यों इतने प्यारे लगते हैं। अच्छा, अब मुझे जाना चाहिए, देर होने पर दादी मा खफा होंगी । अच्छा, फिर मुलाकात होगी आपसे, श्रीमान ...अरे, मैं तो आपका नाम भी नहीं जानती।" इतना कह कर वह चल दी। "एक मिनट ठहरों।" मैं जोर से चिल्लाया। “अपना नाम तो बताती जाओ । अभी तो ठीक ढंग से हमारा एक दूसरे से परिचय भी नहीं हुआ । उसने पीछे मुड़कर क्षरण भर के लिए मुझे देखा । " मेरा नाम अल्योना है- किन्तु यहां सब मुझे अोलेस्या कहकर पुकारते हैं।' मैंने बन्दूक कंधे पर रख ली और उसके बताये हुए रास्ते पर पांव बढ़ा दिये । सामने एक छोटी सी पहाड़ी थी, जहां से एक छोटी सी जंगली पगडंडी नीचे की ओर उतर गयी थी। पहाड़ी के शिखर पर पहुंचकर मैंने मुड़कर पीछे देखा । बर्फ की सफेद, चमचमाती पृष्ठभूमि में हवा में फरफराती ओलेस्या की स्कर्ट एक लाल धब्बे की तरह चमक रही थी। मेरे घर आने के एक घंटे बाद यर्मोला वापिस लौटा। बेकार की बातों में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिये उमने इस सम्बंध में मुझ से एक प्रश्न भी नहीं पूछा कि मैं कहां और कैसे रास्ता भूल गया था। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने लापरवाही से कहा : 'वह खरगोश उधर रमोई में पड़ा है। अगर आप उसे किसी और के पास भेजने का इरादा नहीं रखते तो मैं उसे अभी भून डालता हूं।" " यर्मोला, क्या तुम जानते हो आज मैं कहां गया था ? तुम बिलकुल विश्वास नहीं कर पाओगे।" " उन चुडैलों के पास गये होंगे। क्या मैं इतना भी नहीं जानता ?" उसने गुर्राते हुए कहा। तुम्हें कैसे पता चला ?" " इसमें मुश्किल क्या था ? आपने मेरी आवाज का कोई उत्तर नहीं दिया, इसलिये मैं आपके पैरों के निशान देखता हुआ मागे चलता गया । हजूर, वहां जाने से पाप चढ़ता है। आपको उनसे बचकर रहना चाहिये ।" उसने तनिक कुढ़कर खीज भरे स्वर में कहा ।
चार उस वर्ष वसन्त का प्रागमन अपने समय से पहले ही हो गया। किन्तु पोलेस्त्र में यह कोई असाधारण घटना नहीं थीं। उस प्रदेश में हर ऋतु बिना कोई सूचना दिये अचानक आ धमकती थी। मटमैले पानी के तेज तर्रार नाले, रास्ते में पत्थरों से टकराते, अपनी रपेट में लकड़ी के तख्तों और कलहंसों को समेटते हुए गांव की गलियों के बीचों-बीच वहे जा रहे थे । गन्दे पानी के बड़े-बड़े पोखरों से नीले आकाश और उस पर चक्कर लगाते गोल-मटोल सफेद बादलों की छायाएं झांकती रहती थीं। छतों की नालियों से पानी की बूदें टपाटप गिरती रहा करती थीं। सड़क के किनारे पर लगे पेड़ों के झुरमुट से परिन्दों का हर्षोन्मादित कलरव अन्य सब आबाजों को अपने में डुबो देता था। हर जगह एक नयी उल्लासपूर्ण जिन्दगी अंगड़ाई लेती सी जान पड़ती थी। बर्फ पिघलने लगी थी। किन्तु झाड़ियों और वृक्षों के खोखलों में मैले स्पंज से बर्फ के टुकड़े अभी जमे हुए थे। वर्फ पिघलने के कारण सीलन भरी गर्म धरती की निरावृत्त देह में नयी शक्ति हिलोरें मार रही थी। शिशिर ऋतु में उसने भी जी भर कर विश्राम किया था। अब उसमें मातृत्व की अभिलाषा पुनः जागृत हो पायी थी। काले खेतों पर हल्का झीना भाप का परदा लटक आया था। पिघलती बर्फ के नीचे धरती से एक विचित्र सी गन्ध उठ कर हवा में घुल' रही थी वसन्त की स्वप्निल, नशीली, ताजी गन्ध, जिसमे गांव वाले भली भांति परिचित है, किन्तु , जो शहर की हजार मिली-जुली गन्धों में भी आसानी से पहचानी जा सकती है। उस वासन्ती सौरभ के संग न जाने कितनी धुंधली, कोमल, मीठी व उदास आशाएं एवं विचित्र सम्भावनाएं मेरी आत्मा में तिरती चली आतीं। वसन्त के दिन ही कुछ ऐसे होते हैं, जब भावाकुल आंखों को हर स्त्री सुन्दर दिखायी देती है और रह-रह कर पुरानी स्मृतियों का धुंधला सा अवसाद उमड़-उमड़ पाता है । रातें गर्म हो चली थीं। ऐसा जान पड़ता था मानो धनी उमस से भरे अंधियारे में प्रकृति अपने अदृश्य, सृजनात्मक धम में निरन्तर जुटी हुई है। वसन्त के उन दिनों में प्रोलेस्या की छवि मेरे मस्तिष्क में हर घड़ी मंडराती रहती । जब कभी मैं अकेला होता तो लेट कर आंखें बन्द कर लेता, और तब समूचा ध्यान अोलेस्या के चेहरे पर केन्द्रित हो जाता। मुझे उसका कठोर अथवा क्रुद्ध भाव स्मरण हो पाता, किन्तु दूसरे ही क्षण स्नेह भरी कोमला मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर पाती। मेरी आंखों के सामने देवदार के अल्पायु वृक्ष सी उसकी कोमल, भरी-भरी सी देह, जो उस पुराने जंगल के स्वतंत्र वाता- वरण में पल्लवित हुई थी, धूम जाती। मेरे कानों में उसका असाधारण रूप से धीमा, ताजा और कोमल स्वर बार-बार गूंज उठता। मुझे लगता कि उसकी प्रत्येक हरकत में, उसके मुंह से निकले हर शब्द में, एक सात्विक - यदि हम इस साधारण शब्द को उसके श्रेष्ठ अर्थ में ग्रहण करें. जन्मजात, प्रांजल गरिमा निहित है । अोलेस्या के प्रति आकृष्ट होने का एक और भी कारण था। जंगल' की झाड़ियों और दल-दल से घिरा उसका निवास स्थान और उसकी डायन दादी के सम्बंध में लोगों के अंधविश्वास ने उसके इर्द-गिर्द रहस्य का एक रोमांच- कारी प्रभामंडल बुन दिया था। किन्तु जिस बात ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया, वह था प्रोलेस्या का अपनी शक्ति में अदम्य, अटूट विश्वास, जो उस दिन उसकी बातों से मेरे हृदय पर पत्थर की लकीर सा अंकित हो गया था। यही कारण था कि ज्यों ही जंगल की पगडंडियां थोड़ी-बहुत सूखने लगीं, तो मैं उस डायन की झोपड़ी की ओर जाने का लोभ संवरण न कर सका। जरूरत पड़ने पर उस बदमिजाज बुढ़िया को खुश करने के लिए मैं अपने संग आधा पौंड चाय और तीन-चार मुट्ठी चीनी लेता गया । जब मैं वहां पहुंचा, तो दोनों स्त्रियां झोपड़ी में ही बैठी थीं। मान्यूलिखा चूल्हे की आग जलाने में व्यस्त थी और अोलेस्या ऊंची बेंच पर बैठी हुई पटुआ कात रही थी। मेरे कदमों की आहट सुन कर वह पीछे मुड़ी। मुझे देखते ही उसके हाथ का धागा टूट गया और चरखे की तकली लुढ़क कर नीचे आ गिरी । बुढ़िया अपने झुरियों भरे चेहरे को आग की गर्मी से बचाने के लिए हथेलियों का प्रोट करती हुई क्रुद्ध भाव से कुछ देर तक मुझे धूरती रही। "दादी मां, नमस्ते !" मैंने अपना स्वर तनिक ऊंचा करके उल्लसित भाव से कहा ।" " मुझे नहीं पहचाना ? अभी एक महीने पहले की ही तो बात है जब मैं रास्ता पूछने तुम्हारे पास चला आया था। तुमने मेरे भविष्य के बारे में भी कई बातें बतलायी थीं । कुछ याद आया ?" " महाशय, मुझे कुछ याद नहीं आता।" बुढ़िया ने झंझला कर सिर हिला दिया । "आपके यहां पाने का क्या प्रयोजन है, मुझे यह बात भी समझ में नहीं आती। हमसे बातचीत करके भला आप को क्या मिलेगा ? हम सीधे- सादे, नासमझ लोग है । आपका यहां आना कोई माने नहीं रखता । इतना बड़ा जंगल है, आप कहीं और जाकर सैर क्यों नहीं करते ?" उसके इस रूखे व्यवहार को देख कर मैं सन्नाटे में आ गया। किंकर्तव्य- विमूढ़ सा मैं वहां खड़ा रहा । मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसकी इस अशिष्टता को मजाक में टाल दूं, गुस्से में तमक कर उसे झिड़क दूं, या बिना कोई शब्द मुंह से निकाले चुपचाप उलटे पांव लौट जाऊं । आखिर विवश होकर मैंने अोलेस्या की ओर देखा । नटखट भाव से भरी स्तिमित-हास की रेखा उसके ११४
॥ अधरों पर थिरक गयी। चरखे को एक तरफ खिसका कर वह उठी और दादी मां के सामने जाकर खड़ी हो गयी । " दादी मां, यह सज्जन पुरुष है। इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं।" उसने दादी मां को समझाते हुए कहा । " यह हमारा बुरा नहीं चाहते। आप तशरीफ रखिए ।" बुढ़िया बुड्युड़ाती जा रही थी, किन्तु अोलेस्या ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और सामने के कोने में रखी हुई बेंच पर मुझे बैठने का सकेत देकर मुड़ गयी। अोलेस्या के इन शब्दों से प्रोत्साहित होकर मैं येन-केन प्रकारेण बुढ़िया का हृदय-परिवर्तन करने की चेष्टा करने लगा। 'दादी मां, न जाने तुम मुझ से क्यों खार खाए बैठी हो ? किसी भले- मानुष अतिथि ने तुम्हारी ड्योढ़ी पर पैर रखा नहीं, कि तुम लाल-पीली होने लगती हो । जरा देखो तो सही, मैं तुम्हारे लिए उपहार लाया हूं !" मैंने अपने थैले से दो छोटी-छोटी पोटलियां बाहर निकाल ली। मान्यूलिखा ने कनखियों से पोटलियों को देखा और फिर चूल्हे की ओर मुंह मोड़ लिया। "मुझे आपके उपहार नहीं चाहिएं !" वह चिमटे से कोयलों को कुरेदती हुई जोर-जोर से बुड़बुड़ाने लगी । “ मैं आप जैसे लोगों की रग-रग पहचानती हूं । सीधे-सादे आदमियों को फुसलाने के लिए आपको चिकनी-चुपड़ी बातें बनानी खूब आती हैं, और फिर बाद में-उस छोटे से थैले में क्या है ?" उसने मेरी ओर घूम कर अचानक पूछा। मैंने चाय और चीनी की पोटलियां बुढ़िया के हाथों में थमा दीं। मुझे उसका क्रोध तनिक शान्त होता सा जान पड़ा। बुड़बुड़ा वह अब भी रही थी, किन्तु उसका स्वर अब पहले का सा कड़ा न था। अोलेस्या पूर्ववत् चरखा कातने में व्यस्त हो गयी थी। मैं उसके पास एक छोटी टूट-फूटी बेंच पर बैठ गया । वह अपने बायें हाथ से बड़ी तेजी से रेशम से मुलायम सफेद रूई में बल देती जा रही थी और दायें हाथ को हल्के से हवा में घुमाकर चरखे की तकली को नीचे फर्श तक छोड़ देती थी, फिर उसे झटके से पकड़कर अपनी चपल, चुस्त अंगुलियों से पुनः घुमाने लगती थी। ऊपर से उसका यह काम बहुत सहज- साधारण सा जान पड़ता था, किन्तु वास्तव में इस पेचीदा और कठिन काम को स्फूर्ति से करने के लिए जिस दक्षता और सक्षमता की आवश्यकता है, वह लम्बे अभ्यास के बाद ही प्राप्त की जा सकती है । प्रोलेस्या के हाथ सहज, निर्विघ्न गति से चल रहे थे । मेरी अांखें बरबस उन हाथों पर टिक गयीं। घरेलू काम- काज करने के कारण वे काले और खुरदुरे हो गये थे, किन्तु इसके बावजूद वे नन्हे-मुन्ने हाथ इतने सुन्दर और सुडौल थे कि कुलीन घराने की कोई भी भद्र- महिला उन्हें देखकर प्रोलेस्या से ईा किये बिना न रहती। "तुमने पिछली बार मुझे यह क्यों नहीं बताया कि दादी मां ने तुम्हारे भविष्य के बारे में बातें बतलायीं थीं ?" अोलेस्या ने पूछा । मैंने डरते पीछे मुड़कर बुढ़िया को देखा । "डरो नहीं, वह जरा ऊंचा सुनती है, इसलिये तुम्हारी बातें उन्हें सुनायी नहीं देंगी। मेरे मुंह से निकले हुए शब्दों को ही वह समझ पाती है।" प्रोलेस्या ने कहा । मैं कुछ आश्वस्त हुआ। " हां, तुम्हारी दादी मां ने मेरी किस्मत बतायी थी । लेकिन तुम यह प्रश्न क्यों पूछ रही हो?" "यूं ही । क्या तुम इन सब बातों में विश्वास करते हो?" उसने छिप कर कनखियों से मेरी ओर देखा। “किन बातों में ? तुम्हारी दादी मां ने जो बातें मुझे बतलायी है उसमें या सामान्य रूप से ज्योतिप-विद्या में ?" "मेरा मतलब ज्योतिष-विद्या से ही था," प्रोलेस्या ने कहा । "कुछ भी कहना कठिन है । वैसे तो में विश्वास नहीं करता। किन्तु निश्चित रूप से मैं कुछ नहीं कह सकता। अनेक लोगों का विचार है कि ज्योतिष विद्या कभी-कभी बिल्कुल सच निकल आती है। बड़े-बड़े विद्वानों ने इस विषय पर पोधे-पर-पोथे लिख डाले है। किन्तु जो कुछ तुम्हारी दादी मां ने मेरे भविष्य के बारे में कहा है, उस पर मैं कतई विश्वास नहीं करता। गंवई-गांव की कोई भी स्त्री ऐसी घिसी-पिटी बातें कह सकती है। प्रोलेस्या मुस्कराने लगी। "हां, यह सही है कि दादी मा अब इसके योग्य नहीं रहीं। एक तो वह बूढ़ी हो गयी है, दूसरे उन्हें डर भी लगता है । लेकिन ताश के पत्तों से तुम्हें अपने भाग्य और भविष्य के बारे में कुछ-न-कुछ तो पता चला ही होगा ?" "कोई खास दिलचस्प बात नहीं। मुझे तो अब कुछ याद भी नहीं रहा। कोई नयी बात नहीं थी, एक लम्बी यात्रा करूंगा, चिड़ी के पत्तों की सहायता से मुझे लाभ पहुंचेगा, और भी कुछ ऐसी ही बातें कही थीं जो अब दिमाग से सफाचट हो गयी है। "तुम ठीक कहते हो । दादी मां को ज्योतिष- विद्या के सम्बंध में जो कुछ आता था, वह इस उम्र में सब चौपट हो गया है । बुढ़ापे के कारण वह बहुत से शब्द भी भूल गयी है। इसके अलावा उन्हें हर भी लगा रहता है। हां, अगर उन्हें कोई रुपया-पैसा दे तो आज भी वह कभी-कभी अपनी विद्या की करामात दिखलाने से नहीं चूकतीं। किन्तु वह डरती किससे हैं मला ?" सरकारी अफसरों से । और वह भला किसी से क्यों डरेंगी ? जब कभी गांव का पुलिस अफसर यहां आता है, अपनी धमकियों से हमारी नाक में दम कर देता है । कहता है, 'मैं तुम्हें किसी दिन भी जेल वाने भिजवा सकता हूं जानती हो, जादू-टोना करने वाली तुम जैसी डायनों को मखालिन टापू में जीवन भर मशक्यात करने की सजा दी जा सकती है ? ' क्या यह बात सच है ? "हां, थोड़ा-बहुन सत्य तो उसकी बात में जरूर है इस तरह का काम गैर-कानूनी समझा जाता है। लेकिन सजा इतनी कड़ी नहीं होती। अच्छा श्रोलेस्या, क्या तुम लोगों का भविष्य बता सकती हो ?" वह कुछ झिझकी-किन्तु केवल एक क्षण के लिये । 'हो, लेकिन पैसों की खातिर नहीं।" उसने कहा । 'अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम ताश के पत्ते खोलकर मेरे भविष्य के सम्बंध में कुछ बातें बतलाओ, तो क्या तुम्हें कोई आपत्ति होगी ?" 'हां ! जरूर होगी।" उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में कहा । 'भला क्यों ? अगर इस समय तुम्हारा जी नहीं चाह रहा तो किसी और दिन सही । मुझे लगता है कि जो कुछ तुम बतलायोगी, वह जरूर सच (1 होगा।" </ " ॥ " लेकिन मैं कुछ नहीं बतलाऊंगी; चाहे कुछ भी हो जाए।" मेरी प्रार्थना को इस तरह से ठुकरा देना क्या तुम्हें शोभा देता है, अोलेस्या ? मैं अब तुम्हारे लिए कोई अजनबी नहीं रह गया हूं। तुम मुझे अच्छी सरह जानती-पहचानती हो, फिर क्यों मेरी बात को टाल रही हो?" पिछली बार तुम्हारे जाने के बाद मैंने तुम्हारे नाम पर ताश के पत्ते खोले थे। इसीलिए अब में उन्हें दुबारा खोलना पसन्द नहीं करूंगी, समझे ? 'पसन्द नहीं करोगी ? भला क्यों ? मुझे तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आ रही । 'नहीं ! ऐसा करना ठीक नहीं होगा।" उसने दबे होंठों से कहा । किसी अंधविश्वास के अज्ञात भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। "भाग्य को बार-बार अपना रहस्य बतलाने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिये । हमारे यहां इस बात को अशुभ माना जाता है। भाग्य यहीं आस-पास खड़ा होकर चोरी-चुपके से हमारी बात सुन सकता है। उससे यदि बार-बार जवाब-तलब किया जाय तो वह बिगड़ उठता है । यही कारण है कि किस्मत और भविष्य का पता चलानेवाले हम जैसे लोगों को जिन्दगी में कभी सुख प्राप्त नहीं होता। मैं अोलेस्या की बात का उत्तर मजाक में देना चाहता था, किन्तु मुझ से कुछ न बोला गया और मैं चुप बैठा रहा । उसके स्वर और शब्दों में ईमानदारी 5) ११७
और सहज विश्वास का इतना गहरा पुट था कि " भाग्य का उल्लेख करते हुए जब उसने डरकर दरवाजे की ओर देखा, तो मेरी अांखें भी अनायास उस ओर उठ गयीं। 'अच्छा, अगर दुबारा ताश के पत्ते नहीं खोलना चाहो तो न खोलो। किन्तु यह तो बता दो कि पहली बार उन्होंने मेरे भाग्य और भविष्य के सम्बंध में क्या कहा था ?" बेहतर यही होगा कि मैं उसे गुप्त ही रहने दूं," उसने अचानक तकली फेंक दी और अपने हाथ से मेरा हाथ छू लिया। उसकी निरीह भांखों में याचना-भरा भाव छलछला उठा। 'कृपया यह मत पूछो ~~ कहने के लिए मेरे पास कोई अच्छी बात नहीं है, इसलिए जानकर भी क्या करोगे ?" किन्तु में अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसका बार-बार इन्कार करना, भाग्य के सम्बंध में उसके रहस्यमय संकेत- - क्या महज एक किस्मत बताने वाली की पेशावर अदाएं है अथवा उसे सचमुच अपने शब्दों में विश्वास है ? जो भी हो, उसकी बातों ने मेरे हृदय में खलबली सी मचा दी। एक विचित्र सा भय मेरे दिल को कचोटने लगा। 'अच्छा, मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूंगी।" अोलेस्या आखिर मान ही गयी । " किन्तु एक शर्त पर । अगर तुम्हें कुछ बातें अच्छी न लगें तो तुम बुरा न मनाना । ताश के पत्तों ने तुम्हारे चरित्र के बारे में कहा है कि तुम एक सहृदय व्यक्ति हो किन्तु तुम्हारा दिल बहुत कमजोर है । तुम्हारी सुजनता किसी काम की नहीं, क्योंकि वह तुम्हारे दिल से उत्पन्न नहीं होती। तुम जो कहते हो, सो करते नहीं । तुम हर जगह अपना पांव ऊंचा रखना चाहते हो, किन्तु तुम में साहस की कमी है, इसलिए अक्सर तुम अपनी इच्छा के विरुद्ध दूसरे लोगों के रोब में आ जाते हो। तुम्हें शराब और ... क्या करू', कुछ कहते नहीं बनता, लेकिन अब शुरू किया है तो कोई बात छिपाकर नहीं रखूगी। हां, तो मैं कह रही थी कि तुम्हें शराब और औरतें बहुत पसन्द है, जिसके कारण तुम्हें जिन्दगी में अनेक मुसीवतों का सामना करना पड़ेगा। तुम रुपये की जरा भी चिन्ता नहीं करते, और न उसका सदुपयोग ही करना जानते हो । तुम्हारे पास कभी घन जमा नहीं हो सकेगा। बस करू या और सुनोगे ?" " जो कुछ तुम जानती हो, सब कह डालो," मैंने कहा । "तुम अपने जीवन में कभी सुखी नहीं हो सकोगे।" अोलेस्या ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा । " तुम सच्चे हृदय से किसी को भी अपना प्रेम नहीं दे सकोगे ----अपनी निष्क्रियता और निर्ममता के कारण । तुम से प्रेम करनेवाले व्यक्ति के भाग्य में जीवन भर कष्ट भोगना लिखा है । तुम आजीवन अविवाहित ११८
" 11 रहोगे । तुम्हें कभी सुख नसीब नहीं होगा और तुम निरन्तर कठिनाइयो से जूझते रहोगे। एक ऐसी घड़ी भी आएगी जब तुम सचमुच आत्महत्या करने के लिए तत्पर हो जायोगे । बड़ा भारी कष्ट लेकर आएगी यह घड़ी-किन्तु तुम उसे झेल लोगे और आत्महत्या करने का साहस नही करोगे । तुम हमेशा जरूरतमन्द रहोगे, किन्तु जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने किसी प्रिय मित्र की अप्रत्याशित मृत्यु के कारण तुम्हारे भाग्य का पासा पलट जाएगा। किन्तु यह तो बहुत दूर की बात है। इस वर्ष, शायद इसी महीने, एक बहुत महत्वपूर्ण घटना होने वाली है। यह निश्चित-रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह घटना कव घटेगी, किन्तु ताश के पत्तों के अनुसार बहुत शीघ्र ही .. वह बोलते-बोलते हठात बीच में रुक गयी। 'क्या होगा इस वर्ष ?" मैंने पूछा । "सचमुच कुछ कहते नहीं बनता। चिड़ी की बेगम का प्रेम तुम्हें मिलेगा। वह कुंवारी है या विवाहित इस सम्बंध में कोई निश्चित रूप से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। किन्तु इतना जानती हूं कि वह कोई काले बालों वाली लड़की है ... मैंने सरसरी निगाह से उसके बालों की ओर देखा । "तुम इस तरह मुझे क्यों देख रहे हो ?" उसका चेहरा लज्जारक्त हो प्राया । कुछ स्त्रियों की भाति उसमे भी वह अन्तदृष्टि थी जिसके द्वारा वे दूसरों के मनोभावों को झट भांप जाती है । "हां, उसके मेरे जैसे ही बाल होंगे," वह अपने हाथों से बालों को यन्त्रवत सहलाने लगी। उसके चेहरे की ललाई क्षण-प्रति-क्षण गहरी होती जा रही थी। " " “चिड़ी की बेगम का प्रेम ... अच्छा ?" मैंने मजाक करते हुए कहा । 'देखो, मेरा मजाक मत बनाओ। मैं जो कुछ कह रही हूं, वह बिलकुल सच है।" उसने गम्भीर और कड़े स्वर में मुझे झिड़कते हुए कहा । "अच्छा भई, मजाक नहीं करूंगा । अब पूरी बात तो कहो। " यह प्रेम उस बेचारी चिड़ी की नेगम के लिए घातक सिद्ध होगा- मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी ! तुम्हारी खातिर उसे सारी दुनिया में लांछित होना पड़ेगा और वह इस यातना को जीवन भर अपने संग ढोती रहेगी। किन्तु उसके प्रेम से तुम पर कोई प्रांच नहीं आएगी।" "अोलेस्या, क्या तुम्हारे पत्तों ने तुम्हें गुमराह तो नहीं कर दिया?" मैंने छूटते ही कहा । "चिड़ी को बेगम को भला में क्यों मताने लगा, उस बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा है ? मैं सीधा सादा, साधारण आदमी हूं और तुम हो कि न जाने दुनिया भर के कौन-कौन से पाप मेरे मत्थे मड़े 'जा रही हो । ११६
" " मैं क्या जानू ? जो है, सो तो हैई है। हां, एक बात है। चिड़ी की बेगम को तुम खुद दु.ख नहीं दोगे, बल्कि तुम्हारे कारण उसे दुःख झेलना पड़ेगा। मेरे शब्दों की सच्चाई तुम्हें बाद में पता चलेगी। "अोलेस्या, सच बताओ, क्या तुम्हें ये सब बातें महज ताश के पत्तों से पता चली है ? वह कुछ देर तक मेरे प्रश्न को लेकर चुप बैठी रही। हां- -सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ।" उसने अनमने भाव से मेरे प्रश्न को टालते हुए कहा । " किन्तु मैं बहुत सी बातें बिना ताश के पत्तों के भी केवल आदमी के चेहरे को देखकर जान जाती हूं। यदि भयानक परिस्थितियों में शीघ्र ही किसी आदमी की मृत्यु होनेवाली हो, तो उसका चेहरा देखकर मुझे झट पता चल जाता है। उससे बात किये विना केवल उसके चेहरे को देखनं भर से ही मुझे भविष्य में होने वाली दुर्घटना की झलक मिल जाती है । 'क्या देख लेती हो चेहरे पर ?" मैं स्वयं नहीं जानती। मैं उसे देखकर एकदम आतंकित सी रह जाती हूं, मानो उसके स्थान पर उसकी लाश खड़ी हो । दादी मां से पूछ लो, वह मेरी बात की गवाही देंगी। पिछले वर्ष चक्कीवाला प्रोफिम अपने चक्कीघर की शहतीर से गले में फासी का फंदा डालकर झूल गया । उस दुर्घटना के दो दिन पहले ही वह हमारे घर आया था। उसे देखते ही मैंने दादी मां से तुरन्त कह दिया था, ‘दादी मां, मेरी बात को गिरह में बांध लो। कुछ ही दिनों में किन्ही भयानक परिस्थितियों में श्रोफिम की मृत्यु होने वाली है ।' और हुआ भी वही, जो मैंने कहा था। पिछले वर्ष क्रिसमस में याश्का- -जो घोड़ों की चोरी किया करता था - दादी मां के पास अपने भाग्य के सम्बंध में पूछताछ करने पाया था। दादी मां उसके सामने ताश के पत्ते लेकर बैठ गयी। याश्का ने बातों-ही- बातों में मजाक करते हुए दादी मां से पूछा, 'दादी मां, जरा यह तो बतलाओ कि मैं कैसी मौत मरूगा?' वह हंस रहा था, किन्तु उसके चेहरे को देखते ही मेरा खून सूख गया। मुझे लगा मानो उसका चेहरा एकदम हरा हो गया हो और उस पर मौत की छाया मंडरा रही हो। उसकी आंखें मुंदी हुई थीं और होंठ काले पड़ गये थे। एक सप्ताह बाद हमने सुना कि किसानों ने याश्का को घोड़े चुराते हुए पकड़ लिया और उसे रात भर भयंकर यातनाएं देते रहे। इस इलाके के लोग बहुत ही क्रूर और निर्दयी है । हमें पता चला कि उन्होंने याश्का के पैरों में कील जड़ दिये और डंडों की बौछार से उसकी पसलियां चूर-चूर कर दीं । सुबह होते-होते उसकी मौत का परवान आ पहुंचा। "विन्तु जब तुम्हें मालूम था कि उस पर विपत्ति आने वाली है तो तुमने उसे पहले से चेतावनी क्यों नहीं दे दी ?" जो "चेतावनी देने वाली में कौन होती हूं ?" उसने उत्तर दिया । भाग्य में लिखा है, उसे कौन मिटा सकता है ? वह जीवन के अन्तिम दिनों में नाहक परेशान हो जाता । कभी-कभी तो मुझे अपनी यह शक्ति जहर सी मालूम होती है और मैं अपने से धृणा करने लगती हूं। किन्तु इस पर मेरा वश ही क्या है ? अपने भाग्य को कोसने से क्या मिलेगा ? दादी मां जब छोटी थीं, तो वह भी मौत के बारे में सही-सही भविष्यवाणी कर सकती थीं। मेरी मां और दादी मां को यह असाधारण शक्ति अपने पुरखों से विरासत में मिली थी। यह हमारा दोष नहीं है-यह तो हमारे खून में ही मौजूद है ।' उसने चरखा,चलाना बन्द कर दिया था। उसका सिर झुका हुआ था और वह गोद में अपने हाथ समेटकर चुपचाप बैठी थी। उसकी प्रांखों की पुतलियां किसी अज्ञात भय की छाया में फैल गयी थीं। प्रोलेस्या को देखकर लगता था मानो कोई अज्ञात रहस्यमयी शक्ति और एक विचित्र अलौकिक-ज्ञान उसकी आत्मा को ग्रसते जा रहे हैं और वह विवश-भाव से उनके सम्मुख धीरे- धीरे झुकती जा रही है। पांच उसी समय मान्यूलिखा ने एक साफ तौलिया, जिसके किनारों पर कसीदा काढ़ा गया था--- मेज पर बिछा दिया। फिर उसने एक गर्म वर्तन, जिसके भीतर से भाप निकल रही थी, मेज पर रख दिया । 'पोलेस्या, खाना मेज पर रख दिया है," उसने अपनी पोती से कहा । फिर कुछ हिचकिचाती हुई वह मुझ से बोली : "आप भी हमारे संग खाएंगे न ? हम जैसे गरीब लोगों का भोजन शायद आपको पसन्द नहीं आएगा । सादे शोरवे के अलावा और कुछ भी नहीं है।" बुढ़िया ने भोजन के लिए मुझ से अधिक अनुरोध नहीं किया । मैं मना करने ही वाला था कि अोलेस्या ने इतनी आकर्षक सहजता के संग अपने होंठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरते हुए मुझे आमंत्रित किया कि उसकी बात को टालना मेरे लिए असंभव हो गया। उसने स्वयं अपने हाथों से मेरी तश्तरी पर ढेर सा मोथी का शोरबा, सुअर का भुना हुआ मांस, प्याज-पालू और मुर्ग-मुसल्लम परस दिया । भोजन सचमुच ही बहुत पौष्टिक और स्वादिष्ट था। दादी और पोती में से किसी ने भी भोजन करने से पहले सलीब का चिन्ह नहीं बनाया। मैं उन दोनों स्त्रियों को भोजन के समय बड़े गौर से देखता रहा, क्योंकि मेरा यह विश्वास रहा है कि लोगों के खाना खाने के ढंग को देखकर उनके चरित्र के सम्बंध में बहुत सी बातें पता चलायी जा सकती हैं । मान्यूलिखा चबर-चबर १२१
" करके अपने जबड़ों को चलाती, ललचायी मुद्रा में हर चीज तेजी से हड़पती जा रही थी। रोटी के मोटे-मोटे गस्से वह मुंह में डालती जाती थी, जिसके कारण उसके ढीले-ढाले गाल गुब्बारे से फूल जाते थे । दूसरी ओर अोलेस्या को देखकर लगता था मानो अभिजात वर्ग की शालीनता उसमें कूट-कूट कर भरी हो । भोजन करने के एक घंटे बाद मैंने 'डायनों की झोपड़ी में रहने वाले उन दोनों मेजबानों से विदा मांगी। 'कुछ दूर तक मैं तुम्हारे साथ चलूं ?" प्रोलेस्या ने पूछा। 'क्या करेगी उनके संग जाकर ? तुझ से तो एक मिनट भी निचले नहीं बैठा जा सकता," बुढ़िया ने तमक कर कहा । किन्तु श्रोलेस्या ने उसकी ओर कोई ध्यान न देकर कश्मीरी शॉल ओड़ ली। फिर वह भागती हुई अपनी दादी मां के पास गयी और उसके गले में दोनों हाथ डालकर उसे जोर से चूम लिया । "दादी मां, मेरी अपनी दादी मां ! मुझे एक मिनट भी नहीं लगेगा। अभी चुटकी मारते ही वापिस लौट आती हूं। "अच्छा, अच्छा !" बुढ़िया ने हल्का-सा प्रतिवाद किया। "आप इसकी बातों पर ध्यान मत दीजियेगा । यह तो अभी बच्ची है।" उसने मेरी ओर उन्मुख होकर कहा। एक छोटी सी पगडंडी पर चलते हुए हम जंगल की बड़ी सड़क पर पा पहुंचे, जो कीचड़ से बिलकुल काली हो गयी थी। उस पर घोड़ों के खुरों और छकड़ा गाड़ियों के पहियों के निशान अंकित हो रहे थे। पानी के गढ़ों पर सूर्यास्त का रक्तिम आलोक झिलमिला रहा था। हम सड़क के किनारे पर चल रहे थे, जहां पिछले वर्ष के भूरे-पीले पत्ते-- जो बर्फ के नीचे दबे रहने के कारण अब भी गीले थे - चारों ओर बिखरे हुए थे। कहीं कहीं पोलेस्ये में सबसे पहले प्रस्फुटित होने वाले बड़े-बड़े कम्पानुला फूल पीले पत्तों के बीच में से सिर निकाले वाहर झांक रहे थे। 'देखो, ओलेस्या, मैं तुम से एक बात पूछना चाहता हूं, किन्तु मुझे डर है कि कहीं तुम खफा न हो जानो। क्या तुम्हारी दादी मां समझ में नहीं आता कि कैसे कहूं 'डायन है ?" अोलेस्या ने शान्त-भाव से मेरा वाक्य पूरा कर दिया। "नहीं, डायन नहीं," मैं हकलाने सा लगा। 'अच्छा डायन ही कह लो... न जाने लोग उनके सम्बंध में कैसी अनाप-शनाप बातें वकते हैं। यदि तुम्हारी दादी जड़ी-बूटी या झाड़-फूंक की विद्या जानती हैं, तो भला इसमें इतना हो-हल्ला मचाने की क्या जरूरत है ? यदि तुम कुछ न बतलाना चाहो तो मैं तुम पर जोर नहीं डालूंगा।" १२२
1 " नहीं, बताने में मुझे कोई हिचक नहीं है," अोलेस्या ने सहज स्वर में कहा । "हां वह डायन है। किन्तु अब वह बूढ़ी हो गयी हैं । जो कुछ पहले करती थीं, अब नहीं कर सकतीं।" 'पहले वह क्या कर सकती थीं ?" मैंने उत्सुक होकर पूछा। 'बहुत कुछ। बीमार लोगों की बीमारी पल-छिन में छू-मन्तर कर देती थीं, खून का बहना रोक देती थीं, दांत का दर्द ठीक कर देती थीं, सांप या पागल कुत्ते के काटे हुए जख्म का इलाज कर देती थीं, छिपे हुए खजाने ढूंढ़ निकालती थीं। देखा जाय तो ऐसी कोई बात न थी, जो वह न कर सकती हों।" प्रोलेस्या, शायद तुम्हें बुरा लगे, किन्तु मुझे तुम्हारी बातों में विश्वास नहीं होता। तुम मुझे सच बतलाओ, क्या ये सब बातें लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए नहीं हैं ?" प्रोलेस्या ने अपने कधे सिकोड़ लिए। "पाप जो चाहे समझ लें । माना कि किसी देहाती गंवार स्त्री की आंखों में धूल झोंकी जा सकती है, लेकिन आपको धोखा देने की कल्पना तो मैं सपने में भी नहीं कर सकती। " तो तुम सचमुच जादू-टोने में विश्वास करती हो?" "बेशक ... हमारे परिवार के सब लोग यही काम करते आए हैं । मैं खुद बहुत से चमत्कार दिखला सकती हूं।" "अोलेस्या, काश, तुम मेरी उत्सुकता जान पातीं। क्या कोई चमत्कार मेरी प्रांखों के सामने नहीं कर सकती हो ?" "क्यों नहीं," उसने बेझिझक उत्तर दिया । क्या तुम अभी देखना चाहते हो ?" हां, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो अभी सही। "डरोगे तो नहीं ?" "कैसी बात करती हो ? अभी तो रात भी नहीं हुई, डर क्यों लगेगा ?" "अच्छा । मुझे जरा अपना हाथ दो।" मैंने हाथ आगे बढ़ा दिया। उसने तेजी से मेरे प्रोवरकोट की आस्तीन ऊपर चढ़ा दी और कमीज की आस्तीन के बटन खोल दिये। फिर उसने अपनी जेब से पांच इंच लम्बी कटार निकाली और उसे चमड़े की मियान से बाहर खींच लिया। "तुम्हारा इरादा क्या है ?" मेरे मन को एक छिछोरा सा भय छू गया । "जरा सब्र करो। तुमने कहा था कि तुम डरोगे नहीं !" </ 01 १२३
अचानक उसका हाथ तेजी से हवा में धूम गया। बटार की तेज धार मेरी कलाई की नब्ज को छू गयी। घार से खून का फवारा सा बह निकला और कनाई से चू कर बूंदें टपाटप धरती पर गिरने लगीं। बरबस मेरे मुंह से एक. हल्की मी चीख निकल गयी । मेरा चेहरा पीला पड़ गया । 'डरी नहीं, तुम मर नहीं जाओगे ।" अोलेस्या खड़ी-खड़ी हंस रही थी। उसने घाव के ऊपर मेरी बांह को पकड़ लिया और अपना सर नीचे झुका कर तेजी से कुछ फुसफुसाने लगी। उसकी गर्म सांसे मेरी खाल को झुलसा रही थीं। कुछ देर बाद वह सीधी खड़ी हो गयी। उसने मेरी बांह छोड़ दी थी। मैंने देखा कि जहां पहले घाव था, यहां अब केवल लाल हल्की सी बरोच बाकी रह गयी है। " CE क्यों, अब नो विश्वास हो गया ? उसके होठों पर एक भेद भरी मुस्कान खिल उठी। कटार को म्यान में रखते हुए उसने पूछा, "या अभी कुछ और देखना चाहते हो ?" "हां ... '... लेकिन मुझे इतना भयानक सबूत नहीं चाहिए। कोई ऐसा चमत्कार दिखलानो, जिसमें रक्तपात की सम्भावना न हो !" क्या दिखाऊं तुम्हें ?" उसने कुछ सोचते हुए अपने से ही पूछा। 'अच्छा, तुम सड़क पर सीधे जायो । लेकिन पीछे मुड़ कर मत देखना ।" 'देखो प्रोलेस्या, कोई खतरनाक बात न कर बैठना," मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा । किसी अप्रत्याशित आशंका से मैं भयाक्रान्त हो उठा था। चिन्ता मत करो। चलो, आगे बढ़ो।" मैं चलने लगा । उत्सुकता और कौतूहल से मेरा दिल धुक-घुक कर रहा था। हर क्षण मुझे यह महसूस हो रहा था कि प्रोलेस्या की तीक्ष्ण अांखें मेरी पीठ पर चिपकी हुई है । किन्तु वीस कदम चलने के बाद साफ, समतल भूमि पर अचानक मेरे पांव लड़खड़ा गये और मैं मुंह के बल गिर पड़ा। 'चलते जाओ, रुको नहीं।" अोलेस्या पीछे से चिल्ला रही थी। " घबराओ नहीं, तुम्हें चोट नहीं लगेगी। पीछे मुड़कर मत देखना । गिरने पर धरती को मजबूती से पकड़े रहो। मैं उठ खड़ा हुआ और सीधा चलने लगा। दस कदम चलने के बाद में दुबारा वरती पर लोट रहा था। अोलेस्या ताली बजाती हुई हंसी के ठहाके लगा रही थी। " क्यों, अब तो मन भर गया या अभी कुछ और देखने की तमन्ना बची है ?" उसके सफेद दात चमक रहे थे। “अब तो विश्वास हो गया न ? चलो, अच्छा ही हुआ, तुम नीचे ही गिरे, पर नहीं उड़ गये।" ( । । १२४
" 0 'सच बताना यह कैसे हुआ ?" अपने कपड़ों से घास के सूखे जिनके और छोटी-छोटी टहनियां झाड़ते हुए मैंने पाश्चर्य से पूछा । " कोई ऐसा भेद सो नहीं है, जिसे तुम छिपा कर रखना चाहती हो?" " भेद-वेद कुछ नहीं है, मैं तुम्हें सब कुछ बता दूंगी। लेकिन मुझे डर है कि तुम मेरी बातों को समझोगे नहीं । मैं शायद तुम्हें अच्छी तरह से समझा भी नहीं पाऊंगी। उसने ठीक ही कहा था । जो कुछ उसने मुझसे कहा, वह मैं पूरी तरह नहीं समझ पाया । जो कुछ मैं समझ पाया-~मही या गलत--वह केवल इतना था कि वह मेरे कदमों पर कदम रखती हुई धीरे-धीरे मेरे पीछे चलती पायी थी। उसकी प्रांखें बराबर मेरी पीठ पर जमी हुई थी और वह मेरी चाल-ढाल, हाव-भाव, यहां तक कि हर छोटी-से-छोटी हरकत और भाव-भंगिमा की नकल उतारती जा रही थी, ताकि उसके और मेरे बीच कोई भेद-व्यवधान न रह जाय । दूसरे शब्दों में वह अपने व्यक्तित्व को मिटा कर हम दोनों के बीच पूर्ण-रूप से ऐकात्म्य स्थापित करने की चेष्टा कर रही थी। कुछ कदम चलकर उसने कल्पना की कि मुझसे थोड़ी दूर जमीन से दम इंच ऊपर एक रस्सी बंधी है। आगे चल कर जब मेरे पांव उस कल्पित रस्मी से टकराये, तो प्रोलेस्या ने अचानक गिरने का अभिनय किया। कोई व्यक्ति कितना ही ताकतवर क्यों न हो (ोलेस्था ने मुझे बताया ), उस क्षरण वह गिरे बिना नहीं रह सकता । इस घटना के अनेक वर्षों बाद मुझे डा. चारकोट की पुस्तक को पढ़ने का मौका मिला । साल्येत्रियर की वातोन्माद से पीड़ित दो पेशेवर जादूगरनियों का इलाज करते समय डा. चारकोट को जो अनुभव प्राप्त हुए, उस पुस्तक में उनका वृत्तान्त पढ़ते हुए मुझे श्रोलेस्या की उलझी हुई अस्पष्ट बातों का अभिप्राय समझ में आ गया । मुझे यह जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि फ्रेंच जादूगरनियों के करतबों और कारनामों के पीछे वही भेद छिपा था, जिसका उल्लेख पोलेस्पे की सुन्दर जादूगरनी ने मुझसे किया था। 'मैं तुम्हें कुछ और चमत्कार दिखला सकती हूँ।" अोलेस्या ने दावे के साथ कहा । " कहो तो तुम्हें डरा दूं।" "क्या मतलब?" मैं अगर चाहूं तो तुम्हें इतना ज्यादा डरा सकती हूं, कि तुम्हारे होश- हवास गुम हो जाएंगे। किसी दिन शाम के समय जब तुम अपने कमरे में बैठे होगे, अचानक तुम भय से पीले पड़ जानोगे। तुम्हारे पांव जूतों के भीतर ही थर-थर कांपने लगेंगे। तुममें इतना भी साहस न होगा कि पीछे मुड़ कर देख सको । लेकिन ऐसा करने के लिए यह जानना जरूरी है कि तुम कहां रहते हो। एक बार तुम्हारा कमरा भी देखना होगा।" मैं तुम्हारी चाल समझ गया, " मैंने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा । 'तुम किसी दिन बाहर से मेरे कमरे की खिड़की खटखटा दोगी या जोर से चीखने लगोगी। नहीं, नहीं। मैं यहां जंगल में अपनी झोपड़ी से एक कदम भी बाहर नहीं रखूगी। किन्तु यहां बैठे-बैठे सोचती रहूंगो कि सड़क पार करके मैं तुम्हारे घर में घुस गयी हूं, तुम्हारे कमरे का दरवाजा खोल कर धीरे-धीरे दबे पांवों से भीतर चली आयी हूं । तुम शायद अपनी मेज के सामने बैठे होगे । मैं चुपके से तुम्हारे पीछे चली आऊंगी- - तुम्हें मेरी आहट भी नहीं मिलेगी। फिर अपने हाथों से तुम्हारा कंधा दबोचने लगूंगी, जोर से, बहुत जोर से, और में बराबर तुम्हें धूरती रहूंगी। ऐसे, देखो, ऐसे . उसने अचानक अपनी पतली भौंहें सिकोड़ ली और अपनी अांखें मुझ पर गड़ा दीं। उन प्रांखों में एक भयानक, अमोघ सम्मोहन घिर आया था। प्रांखों की पुतलियां फैलकर नीली हो गई थीं। बहुत पहले मास्को के वेत्याकोव कला-भवन में किसी कलाकार का चित्र ‘मेदूसा की छवि ' देखा था । कलाकार का नाम अब याद नहीं रहा, किन्तु उस क्षण अोलेस्या की मुख-मुद्रा देखकर अचानक मेरी आँखों के सामने वह चित्र घूम गया। वह अमानुषिक नेत्रों से मुझे एकटक देख रही थी। मुझे लगा मानो एक रहस्यमयी अलौकिक शक्ति ने अपनी फौलादी अंगुलियों से मुझे जकड़ लिया हो । ओलेस्या, कृपया इस तरह मत देखो," मैंने जबरदस्ती हंसते हुए कहा । " जब तुम मुस्कराती हो, तब तुम्हारा चेहरा बच्चों सा अबोध और आकर्षक हो जाता है । तुम्हारी वही भाव-मुद्रा मुझे अच्छी लगती है। हम चलने लगे। मुझे यह सोचकर बहुत प्राश्चर्य हो रहा था कि अशिक्षित होने के बावजूद अोलेस्या बोलचाल में कितनी सुसंस्कृत और गरिमा- सम्पन्न है । 'ओलेस्या," मैंने कहा, "तुम्हारी एक बात मुझे सदा हैरत में डाल देती है। तुम्हारा लालन-पालन इस सूने, वीरान जंगल में हुआ है, किसी से तुम मिलती-जुलती भी नहीं हो, और जहां तक मैं सोच पाता हूं तुम अधिक पढ़ी-लिखी भी नहीं हो। ' मैं बिलकुल अपढ़ हूं।" अोलेस्या ने कहा । हां, लेकिन बोलचाल में तुम किसी भी भद्र महिला से अंगुल भर भी कम नहीं हो । इसका क्या कारण है ? क्या तुमने मेरे सवाल को समझ लिया ?" 'हां समझती हूं। इसका सारा श्रेय दादी मां को है। उनके चेहरे-मुहरे को देखकर अक्सर लोगों को उनके बारे में गलतफहमी हो जाती है। जब वह तुम्हें जानने पहचानने लगेंगी तो किसी दिन तुमसे जी खोलकर बात करेंगी। उस दिन तुम उनका लोहा मान जाओगे। तुम चाहे जिस विषय पर उनसे 11 11 । १२६
पूछना, वह तुम्हें उसके बारे में सब कुछ बता देंगी। वह सब कुछ जानती हैं ... लेकिन अब वह बहुत बूढ़ी हो गयी हैं। " तब तो उन्हें जीवन का बहुत गहरा अनुभव होगा। वह इस इलाके में कहां से आयी है, पहले कहां रहती थीं ?" प्रोलेस्या ने मेरे प्रश्नों का उत्तर एकदम नहीं दिया। मुझे लगा कि उसको मेरी यह पूछताछ कुछ अरुचिकर सी प्रतीत हुई । " मुझे कुछ पता नहीं," उसने अनमने स्वर में बात टालते हुए कहा । " दादी मां इस विषय में मुझे कभी कुछ नहीं बतलातीं । जब कभी भूली-भटकी दो-चार बातें उनके मुंह से निकल जाती हैं, तो एकदम कड़ी हिदायत दे देती है कि मैं उन्हें भूल जाऊं और कभी किसी पराये व्यक्ति के कानों में उनकी भिनक न पड़ने दूं । अब मुझे वापिस चलना चाहिए वरना दादी मां नाराज होंगी ?" उसने कहा । “अच्छा, नमस्ते । मुझे खेद है कि मैं अब तक तुम्हारा नाम नहीं जानती। मैने अपना नाम बतला दिया। इवान तिमोफेविच ? अच्छा, नमस्ते इवान तिमोफेविच ! हमारे घर को भूल मत जाना, कभी-कभी जरूर दर्शन देते रहना।" मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। उसने बड़ी खुशी से अपने छोटे और मजबूत हाथ से मेरा हाथ पकड़ लिया। " छः उस दिन के बाद मैं अक्सर उस डायन की झोपड़ी में जाने लगा। अोलेस्या पहले की तरह शील और. मर्यादा की मूर्ति बनी कोने में चुपचाप बैठी रहती। किन्तु मुझे देखकर उस पर जो सहज, स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती, उससे मैं समझ जाता कि मेरे आने पर उसे खुशी होती है। मान्यूलिखा को मेरी उपस्थिति अब भी अखरती थी और मुझे देखकर वह दबे होठों से बुड़- बुड़ाने लगती थी, किन्तु अब मेरे प्रति उसका व्यवहार पहले जैसा अशिष्ट और कठोर नहीं था। मुझे लगता था कि मेरी अनुपस्थिति में प्रोलेस्या ने उसके सम्मुख मेरे पक्ष में पैरवी की होगी। इसके अलावा मैं उसके लिए जो उपहार लाता था -गर्म शाल, मुरब्बे का डिब्बा, चेरी की शराब की बोतल, आदि - उन्होंने अवश्य ही उसके दिल को पिघला दिया होगा । जब मैं उनसे विदा लेकर जाने लगता तो प्रोलेस्या -एक मूक समझौते के अनुसार- मुझे इरीनोवो रोड तक छोड़ने चली आती। हर बार वापिस लौटते हुए हम दोनों के बीच कोई रोचक और मजेदार बहस छिड़ जाती, हमारी चाल अनायास धीमी पड़ जानी और हम काफी देर तक जंगल के रास्तों पर एक संग घूमते रहते । इरीनोवो रीड पहुंचने पर मैं पीछे मुड़ कर आवे मील तक उसके संग चलता रहता और एक दूसरे से जुदा होने से पहले हम बहुत देर तक चीड़ की धनी मुवासित छाया तले खड़े होकर बातें करते रहते । क्या केवल ओलेस्या का सौंदर्य मुझे अपनी ओर आकर्षित करता था ? शायद नहीं। उसका चरित्र-बल और विशिष्ट तथा स्वतंत्र व्यक्तित्व, उसका मस्तिष्क, जो सुलझा हुअा होने के बावजूद अपने पुरखों के अडिग अन्धविश्वासों से भरा था, जो बच्चों के मन मा निर्दोष होने पर भी एक नवयौवना सुन्दरी के मादक चुहलपन से अछूता न था --- पोलेल्या के सौंदर्य के अलाला उसके इन सब गुणों ने भी मुझे मंत्रमुग्ध सा कर दिया। उसके आदिम, कल्पनाशील मस्तिष्क में उठने वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था, और मुझे अनेक बार उसके विचित्र प्रश्नों का विस्तारपूर्वक उत्तर देना पड़ता था। दुनिया के विभिन्न देश और उनके निवासी, प्राकृतिक शक्तियां, विश्व प्रौर पृथ्वी की रूप-रचना, विद्वान पुरुप, बड़े शहर हर सम्भव विषय को लेकर वह मुझ पर प्रश्नों की बौछार करती रहती । बहुत सी वस्तुएं तो उसे अत्यधिक प्राश्चर्य- जनक, अद्भुत और असम्भव सी जान पड़ती। जो कुछ वह पूछती, मैं बहुत सीधे-सादे, साफ-सुलझे ढंग से समझा देता । शायद मेरी इस ईमानदारी और निश्छलता ने उसे इतना अधिक प्रभावित कर दिया, कि जो कुछ मेरे मुख से निकल जाता, उसे वह निर्विवाद रूप से ब्रह्म वाक्य समझ कर स्वीकार करती। जब कभी मुझे लगता कि कोई बात इतनी पेचीदा है कि उसके अर्ध-आदिम मस्तिष्क में ठीक से नहीं बैठेगी अथवा जब वह कोई ऐसा प्रश्न पूछ लेती जिसका उत्तर देने में मैं स्वयं अपने को असमर्थ पाता, तो में स्पष्ट रूप से, बिना किसी लाग-लपेट के उससे कह देता, "देखो प्रोलेस्या, मैं तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर ठीक से नहीं दे पाऊंगा । मुझे डर है कि तुम शायद अभी इसे नहीं समझ सकोगी।" मेरी बात सुन कर उसका प्राग्रह बढ़ जाता। " तुम मुझे बतला दो, मैं स्वयं समझ जाऊंगी। नहीं समझूगी तो भी भला बतलाने में क्या हर्ज है !" वह अनुरोध भरे स्वर में कहती । कभी-कभी उसे कोई बात समझाने के लिए मुझे अद्भुत उदाहरणों का सहारा लेना पड़ता था, असाधारण मिसालें देनी पड़ती थीं। बोलने के दौरान में जब कभी में किसी उपयुक्त शब्द को टटोलने की चेष्टा करने लगता, तो वह मुझे प्रोत्साहित करने के लिए अधीर होकर प्रश्नों की बोछार करने लगती । ऐसे क्षणों में मेरी अवस्था उस हकलाने वाले व्यक्ति की तरह हो जाती, जो बेचारा किसी शब्द पर अटक गया हो और दूसरे लोग अपनी सहानुभूति प्रकट करने के लिए उसे प्रोत्साहित कर रहे हो । अन्त में उसकी तीक्ष्ण और सर्वतोमुखी बुद्धि १२८
40 तथा पारदर्शी कल्पना मुझ जैसे नौसिखये शिक्षक पर विजय पा लेती । मुझे यह मानना पड़ा कि जिस वातावरण में प्रोलेस्या का लालन-पालन हुआ था, जहां शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाओं का सर्वथा अभाव था, उसे देखते हुए उसकी बुद्धि और प्रतिभा सचमुच विलक्षण थी। एक बार बातचीत करते हुए मैंने पीटर्सबर्ग का जिक्र छेड़ दिया। छूटते ही उसने मुझ से पूछा, " पीटर्सबर्ग ? क्या वह कोई छोटा सा कस्बा है ?" "नहीं, पीटर्सबर्ग छोटा सा कस्बा नहीं है । वह रूस का सबसे बड़ा शहर है।" मैंने कहा। 'सबसे बड़ा ? तुम्हारा मतलब है कि वह सब शहरों से बड़ा है ? क्या उससे बड़ा कोई और शहर नहीं है ?" उसने अवोध भाव से पूछा । " नहीं, बड़े-बड़े आदमी सब वहीं रहते हैं । वहां लकड़ी का मकान एक भी नहीं है । सब मकान पत्थर के बने हैं । तो शायद वह हमारे स्तेपान से भी बड़ा होगा - क्यों ?" उसने विश्वास के साथ पूछा। हां, उससे जरा ही बड़ा है। -समझ लो कि लगभग पांच सौ गुना बड़ा होगा ! सारे स्तेपान में जितने लोग रहते हैं, उससे दुगने आदमी पीटर्सबर्ग के कुछ मकानों में समा जाते हैं। 'हाय री मां ! कैसे होते होंगे वे मकान ?" उसने आतंकित होकर " (C तब 7 66 पूछा। हमेशा की तरह मुझे फिर तुलना करने की आवश्यकता पड़ी । “अरे उन मकानों की ऊंचाई देख कर तो आंखें खुल जायें ! पांच या छः या कहीं-कहीं सात मंजिलें होती हैं उन मकानों में । तुम उन चीड़ के वृक्षों को देख रही हो न ?" " वे सबसे ऊंचे पेड़ ? हां, देख रही हूं। "वे मकान भी इन पेड़ों जितने ऊंचे है। ऊपर से नीचे तक लोगों से ठसाठस भरे हुए। पिंजरे में बन्द परिन्दों की तरह वे लोग इन मकानों में रहते हैं- एक-एक कमरे में लगभग बारह-बारह प्रादमी - सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है । कुछ लोग धरती के नीचे सर्दी और सीलन में ठिठुर-ठिठुर कर जीवन बिताते हैं। सर्दी हो या गरमी, उन्हें वर्ष भर धूप के दर्शन नहीं होते। कैसा है तुम्हारा यह शहर ! मैं तो उसके लिए किसी मूल्य पर भी अपना जंगल न छोडूं।" अोलेस्था ने सिर हिलाते हुए कहा । “जब कभी मुझे सौदा लेने बाजार जाना पड़ता है, तो मुझे स्तेपान से भी घृणा होने लगती है । चारों ओर भीड़-भक्कड़, शोर-शराबा और धक्कम-धुक्का देख कर मेरा सिर चकराने लगता है । ऐसा जी करता है, कि सब कुछ छोड़ कर वापिस अपने जंगल की ओर भाग जाऊं। मैं एक दिन भी शहर में नहीं रह सकती।" 'किन्तु यदि तुम्हारा पति शहरी आदमी हो, तो तुम क्या करोगी ?" मैंने मुस्कराते हुए पूछा। उसने अपना मुंह सिकोड़ लिया। उसके नथुने फड़कने लगे। छि !" उसने तिरिस्कार-पूर्ण भाव में कहा । " मुझे कोई पति नहीं चाहिए। 'अोलेस्या, विवाह से पहले सब लड़कियां यही कहती हैं, और फिर सबका विवाह हो जाता है। तुम्हारा किसी से प्रेम हुआ नहीं कि तुम -- शहर की बात तो छोड़ो अपने प्रेमी के पीछे दुनिया के दूसरे छोर तक जाने के लिए प्रस्तुत हो जानोगी।" " कृपया इस विषय पर कोई बात न कीजिए," उसने खीज भरे स्वर में अनुरोध किया। " इन बातों में रखा ही क्या है ?" "अोलेस्या, तुम भी अजीब लड़की हो । क्या तुम सचमुच यह सोचती हो कि तुम जीवन में किसी पुरुष से प्रेम नहीं करोगी? तुम जैसी सुन्दर, स्वस्थ व जवान लड़की के मुंह से यह बात कुछ विचित्र सी लगती है। एक बार तुम्हारे खून में उबाल आया नहीं कि तुम्हारी प्रतिज्ञा धरी की धरी रह जायेगी।" अच्छा, प्रेम होगा सो होगा, किसी से पूछ कर तो प्रेम करूंगी नहीं !" उसने तुनक कर कहा । प्रेम करोगी, तो विवाह भी करना पड़ेगा !” मैंने चिढ़ाते हुए कहा । "तुम्हारा अभिप्राय उस विवाह से है, जो गिरजे में किया जाता है ?" "बेशक । बड़े पादरी के संग तुम ‘लैक्टर्न' (गिरजे की बड़ी मेज ) के इर्द-गिर्द चक्कर लगानोगी और छोटा पादरी 'इसायाह, खुशी मनायो' वाला भजन गायेगा। गिरजे में विवाह के शुभ अवसर पर तुम्हारे सिर पर ताज रखा जायेगा।" ओलेस्या ने अपनी पलकें झुका लीं। उसके होठों पर फोकी सी मुस्कराहट सिमट आयी थी और वह अपना सर हिला रही थी। "नहीं मेरे मित्र, यह सब कुछ भी नहीं होगा। तुम्हें शायद यह सुनकर बुरा लगे कि हमारे कुल में किसी का विवाह गिरजे में नहीं होता। मेरी मां और दादी को भी विवाह के लिए गिरजे में नहीं जाना पड़ा । विवाह की बात तो दूर रही, हम गिरजे के भीतर पैर भी नहीं रख सकते । "क्या इसलिए कि तुम लोग जादू-टोना करते हो ?" "हां, तुम्हारा अनुमान ठीक है।" उसने शान्त-भाव से उत्तर दिया। जन्म होते ही मेरी आत्मा शैतान के हाथों में बेची जा चुकी है। क्या इसके बाद भी मैं गिरजे में पांव रखने का दुस्साहस कर सकती हूं ?
मुझ जैसी "प्यारी अोलेस्या, तुम अपने आपको धोखा दे रही हो। मेरा विश्वास करो, तुम जो कुछ कह रही हो, वह एक हास्यास्पद बात है। उसमें लेश-मात्र भी सत्य नहीं हो सकता।" एक रहस्यमयी नियति की वेदी पर अपने को अर्पण करने का विचित्र भाव उसके चेहरे पर घिर आया, जो एक बार मैं पहले भी देख चुका था। "नहीं, तुम नहीं समझ सकते। जो मैं यहां महसूस करती हूं," उसने अपना हाथ अपनी छाती से चिपका लिया, "जो मेरा दिल कहता है, वह कभी झूठ नहीं हो सकता। हमारा कुल सदा से अभिशाप-ग्रस्त रहा है। तुम्ही बतलाओ, उसके अलावा हमारी कौन सहायता कर सकता है ? साधारण लड़की के हाथों में चमत्कार करने की शक्ति कहां से आयी ? हम लोग अपनी दैवी शक्ति उसके द्वारा ही तो प्राप्त करते हैं।" जब हम कभी इस असाधारण विषय की चर्चा करते, तो हमेशा हमारी बातचीत इस स्थल पर आकर रुक जाती। उसकी इन भ्रान्तिमूलक धारणाओं की निरर्थकता साबित करने के लिए मैं बहुत हाथ-पैर मारता, सीधे-सादे शब्दों में उसे मोह-निद्रा ('हिप्नोटिज्म' ), स्वप्रेरित-शक्तियों, झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं, और हिन्दुस्तानी फकीरों के सम्बंध में विस्तार-पूर्वक बातें बतलाता, किन्तु उसके अन्ध-विश्वास के आगे मेरे सब तर्क परास्त हो जाते। मैंने उसे बताया कि वह अपने जिन चमत्कारों में देवी-शक्ति का हाथ देखती है, उनका भेद आसानी से शरीर-विज्ञान द्वारा उद्घाटित किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर दक्ष हाथों से नाड़ी दबाने पर रक्तस्राव बन्द किया जा सकता है। किन्तु मेरे इन' तर्कों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह अन्य बातों पर तो मेरा विश्वास अवश्य' करती थी, किन्तु इस विषय पर उसे अपने विश्वास से डिगाना असम्भव था। " 'अच्छा, जहां तक रक्त-स्राव बन्द करने का सवाल है, मैं तुम्हारी बात मान लेती हूं। लेकिन मैं और भी तो बहुत कुछ कर सकती हूं। उसके लिए मेरे पास शक्ति कहां से आती है ?" वह ऊंची आवाज में मुझ से बहस करने लगती। " मैं केवल रक्त-स्राव रोकना ही नहीं जानती। कहो तो एक दिन तुम्हारे घर के कोनों में छिपे सब चूहों और कनखजूरों को बाहर भगा दूं ? अगर तुम चाहो तो मैं किसी मरीज को खराब से खराब बुखार से मुक्ति दिलवा दूं, चाहे सब डॉक्टर उसका इलाज करने में अपनी असमर्थता प्रकट कर चुके हों। अगर मैं चाहूं, तो तुम किसी शब्द को बिलकुल भूल जानोगे । मैं सपनों का अर्थ कैसे जान लेती हूं, यह कैसे पता चला लेती हूं कि भविष्य में क्या होने वाला है ? बताओ, मुझ में यह शक्ति कहां से आती है ?" १३१
. हम दोनों झगड़ा समाप्त करने की खातिर अक्सर विषय बदल देते, किन्तु एक-दूसरे के प्रति हमारा रोप भीतर-ही-भीतर घुमड़ता रहता। उसके काले जादू की अनेक बातें मेरी अल्प-बुद्धि की सीमा से बाहर थीं। निर्विवाद-रूप से यह कहना भी असम्भव था कि जिन चमत्कारों के सम्बंध में वह इतने आत्मविश्वास के संग अपना ज्ञान जतलाती थी, वास्तव में उनमें से आधे चमत्कारों को भी दिखलाने की उसमें सामर्थ्य थी या नहीं। किन्तु उसके सम्पर्क में रह कर मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास हो गया था कि उसके भीतर कहीं प्रात्मानुभूत, धुंधला और विचित्र ज्ञान छिपा है, जो छिटपुट अनुभवों द्वारा धीरे-धीरे पनपता रहा है । अपढ़, अशिक्षित जनता की इस विचित्र ज्ञान-निधि में सत्य के वे तत्व शामिल होते हैं, जिन्हें वैज्ञानिक शताब्दियों बाद ही पकड़ पाते हैं । कभी-कभी तो यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि अनेकानेक हास्यास्पद और अद्भुत अंधविश्वासों में लिपटे हुए ज्ञान के ये तत्व किस प्रकार गुप्त धरोहर के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये हैं। इस विषय पर यद्यपि हम दोनों के बीच तीव्र मतभेद था, फिर भी अोलेस्या ओर पेरा सामीप्य बढ़ता गया। अब तक हमने प्रेम का एक भी शब्द एक दूसरे से नहीं कहा था, किन्तु हमें एक दूसरे का अभाव बेहद अखरता था। जब हम एक दूसरे के संग होते तो कभी-कभी ऐसे मूक क्षण भी आ जाते जब अनायास हमारी आंखें चार हो जातीं। ऐसे क्षणों में अोलेस्या की आंखों पर हल्की नमी सी घिर जाती और उसकी कनपटी की पतली नीली नस तेजी से फड़कने लगती। किन्तु यर्मोला के संग मेरे सम्बंध सदा के लिए बिगड़ गये । डायन की झोपड़ी में मेरा आना-जाना और प्रोलेस्या के संग मेरी शाम की सैर का भेद उससे छिपा न रह सका । यह एक आश्चर्यजनक बात थी कि उसके जंगल में होने वाली प्रत्येक घटना के बारे में वह पूरी खोज-खबर रखता था । वह अब मुझसे कतराने लगा था । जब कभी मैं जंगल का रास्ता पकड़ने के लिए घर से बाहर निकलता, मुझे लगता कि दूर से उसकी अप्रसन्न, शिकायत-भरी दृष्टि मुझ पर जमी है, यद्यपि मेरी उपस्थिति में वह उलाहने का एक भी शब्द मुंह से न निकालता । हंसी-विनोद में मैंने उसे पढ़ाने का जो कार्यक्रम बनाया था, वह अधिक दिनों तक नहीं चल सका । जब कभी किसी शाम को अवकाश के समय मैं उसे पढ़ने-लिखने के लिए बुलाता, तो वह लापरवाही से हाथ हिला कर मेरी बात को टाल देता। "पढ़-लिख कर क्या करना है, हजूर ? महज वक्त बरबाद करने के अलावा और क्या हाथ लगेगा ?" तिरस्कार-पूर्ण भाव से आलस भरे स्वर में वह कहता । १३२
अब हम शिकार खेलने भी नहीं जाते थे । जब कभी मैं यर्मोला से शिकार का जिक्र छेड़ता तो वह कोई-न-कोई बहाना बनाकर बात को टाल देता । कभी कहता कि बन्दूक खराब है, कभी समय का अभाव होता, और कभी अचानक कुत्ता बीमार पड़ जाता। "हजूर, अभी तो सारे खेत जोतने है, शिकार के लिए कहां से वक्त निकालूं ?" यह कह कर बह अवसर मेरे निमंत्रण को अस्वीकार कर देता। मुझे मालूम था कि खेत जोतना तो महज एक बहाना है। वह दिन भर शरावखाने के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहेगा, इस प्राशा में, कि शायद कोई मुफ्त में उसे शराब पिला दे। उसके हृदय में मेरे प्रति जो प्रच्छन्न-रूप से विरोध सुलगता रहता था, उसे आखिर मैं कब तक बरदाश्त कर पाता ? मैं शीघ्र ही किसी ऐसे अवसर की खोज में था, जब उसे जवाब दे सकू। किन्तु उसके भूखे-नंगे परिवार की कल्पना करते ही मेरा इरादा ढीला पड़ जाता । उसके जीवन-निर्वाह का एकमात्र आधार वे चार रूबल थे, जो मैं यर्मोला को वेतन-स्वरूप दिया करता था। सात एक दिन, हमेशा की तरह, सूर्यास्त होने से पूर्व जब मैं डायन की झोपड़ी में पहुंचा तो देखा कि दोनों स्त्रियों के चेहरे मुर्भाये हुए हैं। मान्यूलिखा बिस्तर पर पाव पसारे, पीठ झुकाए इधर-उधर झूमती दबे होठों से कुछ बुड़बुड़ाती जा रही थी। उसने अपना सिर हाथों में थाम रखा था । मेरे अभि- वादन का उसने कोई उत्तर नहीं दिया । अोलेस्या ने अपनी आदत के अनुसार स्तेह-भाव से मेरा स्वागत किया, किन्तु हमारे बीच बातचीत का कोई सिलसिला नहीं बंध सका। उसका मन रह-रह कर भटकने लगता था और वह मेरे प्रश्नों को बिना सुने ही, जो मन में आता, बोल देती थी। किसी अज्ञात चिन्ता की छाया से उसका सुन्दर चेहरा म्लान हो उठा था । "अोलेस्या, मुझे लगता है कि तुम्हें कोई चिन्ता घुन की तरह खाये जा रही है," मैंने बेंच पर पड़े उसके हाथ को धीरे से छुमा । वह चुपचाप सिर मोड़ कर खिड़की के बाहर देखने लगी। वह शान्त रहने का भरसक उपक्रम कर रही थी, किन्तु उसकी सिकुड़ी हुई भौहें कांप उठती थीं, होठ दांतों के नीचे भिचे हुए थे। "कुछ भी बात तो नहीं है," उसने निष्प्राण सी आवाज में कहा । " सब ठीक चल रहा है।" १३३
C! 11 "अोलेस्या, क्या तुम मुझे अपने मन की बात नहीं बतलायोगी ? अपने मित्र से छिपाव-दुराव रखना तुम्हें क्या शोभा देता है ?" सच, कोई ऐसी-वैसी बात नहीं है। फिर तुम से अपनी छोटी-मोटी परेशानियों के बारे में क्या कहूं, वे तो हमारी जिन्दगी के संग लगी रहती हैं। "नहीं अोलेस्या । कोई और बात है। अगर सिर्फ छोटी-मोटी परेशानी होती तो तुम इतनी चिन्तित क्यों नजर आती ?" "यह तुम्हारा भ्रम है। "अोलेस्या, दिल खोल कर मुझ से सारी बात साफ-साफ कह डालो। अगर मैं तुम्हारी कोई सहायता न कर सका तो भी तुम मुझ से सलाह-मशविरा तो कर ही सकती हो, यह न हो, तो अपने दिल का दुख कह डालने से मन तो हल्का हो ही जाता है। 'मैं सच कह रही हूं। तुम्हें बतलाने से कुछ भी लाभ न होगा। तुम किसी तरह भी हमारी सहायता नहीं कर सकते ।' अचानक बुढ़िया उसकी बात काट कर गुस्से में चीख उठी । " बच्चों की सी बातें क्यों करती हो ? यह महानुभाव हमारे फायदे की बात कर रहे हैं और तू है कि घमन्ड के मारे उनकी बात ही नहीं सुनती । अपने जैसा अक्लमन्द तो तू दुनिया में किसी को नहीं समझती। देखिए महाशय, सारी बात यह है, उसने मेरी ओर उन्मुख होकर बोलना शुरू कर दिया । उसकी बातों को सुन कर मुझे परिस्तिथि काफी चिन्ताजनक नजर आयी । अभिमानी अोलेस्या के हाव-भाव और अस्पष्ट संकेतों से उसकी गम्भीरता का सही अनुमान न लग सकता था । गांव का पुलिस-इंसपेक्टर कल रात उनके ( " IF घर आया था। " शुरू में तो वह बहुत अच्छी तरह पेश आया । कुर्सी पर बैठ कर उसने हमसे वोदका पीने की इच्छा प्रकट की।" मान्यूलिखा कह रही थी। कुछ देर बाद उसका असली रूप सामने आया । 'तुम चौबीस घंटों के भीतर अपना बोरिया-बिस्तर उठा कर यहां से चली जाओ,' उसने हमसे कहा । 'अगर मैने तुम्हें दुबारा यहां देखा तो याद रखो, तुम्हें देश निकाले की सजा दिलवा कर ही दम लूंगा। दो सिपाहियों को तुम्हारे संग कर दूंगा, जो तुम्हें जबरदस्ती उस स्थान पर ले जायेंगे, जहां से तुम आयी हो । मेरी बात को गिरह में बांध कर रख लो।' हजूर, अब आप ही बताइये, अमचेक्स का कस्बा, जहां कभी हमारा घर था, यहां से कोसों दूर है। वहां जाकर हम क्या करेंगी ? हमें अब वहां कोई नहीं जानता। इसके अलावा हमारे पासपोर्ट भी बहुत अर्से से पुराने पड़ गये हैं। शुरू में ही वे कौन से ठीक थे ? समझ में नहीं आता, क्या करें, कहां जाएं !" १३४
1 A " 11 11 " लेकिन तुम तो यहां काफी लम्बे अर्से से रहती आयी हो। अगर उसे तुम्हारे यहां रहने पर पहले कोई एतराज नहीं था, तो अब तुम्हें वह क्यों तंग कर रहा है ? " मैंने पूछा 'यही तो हमारी समझ में नहीं आता। उसने इस सिलसिले में कुछ कहा था, लेकिन मैं उसका मतलब नहीं समझ पायी। असल में यह झोपड़ी हमारी नहीं है । हम इसके मालिक को किराया देकर यहां रहते है। पहले हम गांव में रहा करते थे, किन्तु ... 'मैं जानता हूं, दादी मां । गांव के किसान तुमसे नाराज हो गये थे।" " हां भाई, यही बात थी। गांव से निकल कर मैं बूढ़े जमींदार मिस्टर अबरासिमोव के सामने जाकर खूब रोयी-चिल्लायी। आखिर उसने मुझ पर रहम करके यह झोपड़ी दे दी । किन्तु अब मुझे पता चला कि किसी दूसरे जमीदार ने इस जंगल को खरीद लिया है और वह इस दलदल को साफ करवाने की फिक्र में है। लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि वह हमें इस झोपड़ी से क्यों निकलवाना चाहता है। "दादी मां, हो सकता है कि पुलिस-इंसपेक्टर ने तुम्हें डराने के लिए यह मन-चढ़न्त किस्सा छेड दिया हो । मैंने कहा । " वह तुमसे कुछ रुपये ऐंठने की फिराक में होगा।" 'मैंने तो यह भी कर के देख लिया भाई, किन्तु वह तो टस-से-मस नहीं होता । मैंने उसे पचीस रूबल दिये, किन्तु उसने उन्हें लेने से साफ इन्कार कर दिया । वह तो ऐसा लाल-पीला हो रहा था कि मेरे तो डर के मारे होश-हवास ही गुम हो गये। वह तो बस एक ही बात की रट लगाये था : 'तुम यहां से चली जाओ !' हमारा कोई सहारा नहीं। समझ में नहीं आता कि क्या करें, कहां जायें ? हुजूर, अगर आप उस लालची कुत्ते को समझा-बुझा सकें तो हम जीवन भर आपका गुणगान करेंगे ।' "दादी मां !" अोलेस्या के स्वर में उलाहना भरा था। 'दादी मां क्या ? " बुढ़िया का स्वर तीखा हो उठा । " तुझे अपनी दादी मां के संग रहते पाज चौबीस बरस होने को आ गये । इस उम्र में अब हम क्या दर-दर भीख मांगते फिरेंगे ? हजूर इसकी बात पर ध्यान न दें। अगर किसी तरह आप हमें इस संकट से उबार सके तो हम आपके आभारी रहेंगे । मैं ढिलमिल' सा वादा करके चला आया, किन्तु उनके लिए मैं कुछ कर पाऊंगा, इसकी आशा बहुत कम थी। अगर पुलिस इंसपेक्टर ने घूस लेने से इन्कार कर दिया है, तो मामला अवश्य गम्भीर होगा । उस शाम मोलेस्या ने विरक्त-भाव से मुझे घर से ही विदाई दे दी और हमेशा की तरह मेरे संग बाहर नहीं पायी। ।
मुझे लगा कि उसे अपने घरेलू मामले में मेरा हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा। उसकी दादी मां ने जिस प्रकार गिड़गिड़ा कर मुझसे याचना की थी, उससे उसके आत्म-सम्मान को गहरी ठेस लगी थी। आठ " उस दिन सुबह से ही कुछ गर्मी थी। आकाश बादलों से घिरा था । कभी- कमी मोतियों सी बड़ी-बड़ी बूंदें धरती पर बिखेरता हुआ श्यामल अाकाश बरस पड़ता था। वसन्त की इस जीवनदायिनी वर्षा में देखते-ही-देखते घास उगने लगती है, नयी कोपलें फूटने लगती हैं। मेह की हर बौछार के बाद सूरज की उल्लसित किरणें बादलों की अोट से बाहर झांकने लगतीं। मेरे घर के सामने वाटिका में फूल लगे थे। मेह से भीगे उनके कोमल पत्ते क्षण भर के लिए उजली धूप में चमचमा उठते थे। मेरे मकान के पीछे, फूलों की क्यारियों पर पक्षी गर्व से सिर उठाये इधर-उधर उड़ते हुए चहचहा रहे थे । चिनार की भूरी लिसलिसी कलियों की उत्तेजक सुगंध हवा में उड़ रही थी। जब यर्मोला मेरे पास आया, उस समय मैं एक वन-कुटीर का स्केच बना रहा था। पुलिस-इंसपेक्टर आए हैं," उसने मुंह फुला कर कहा । 'मै इस बात को बिलकुल भूल चुका था कि दो दिन पहले मैंने यर्मोला से कहा था कि अगर उसे पुलिस-इंसपेक्टर गांव में कहीं दिखायी दे, तो फौरन मुझे इतला कर दे। इसलिए जब यर्मोला ने मुझे पुलिस-इंसपेक्टर के आगमन की सूचना दी, तो मै आश्चर्य-चकित होकर उसकी ओर देखने लगा। " सरकारी अफसर को भला मुझ से क्या काम हो सकता है ?" मैं सोचने लगा। क्यों, क्या बात है ? " विस्मित होकर मैंने यर्मोला से प्रश्न किया । " मैंने आपसे कहा न कि पुलिस-इंसपेक्टर गांव में पधारे हैं।" यर्मोला ने विद्वेष-भाव से कहा । पिछले कुछ दिनों से वह मुझ से ऐसे तीखे स्वर में ही बात किया करता था। 'मैंने एक मिनट पहले उसे नदी के बांध के पास देखा था । वह इसी रास्ते से होकर आगे जायेगा।" यर्मोला ने कहा। मुझे बाहर पहियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। मैंने भाग कर झटपट कमरे की खिड़की खोल दी। चॉकलेट रंग का एक पतला-दुबला घोड़ा, जिसका सिर झुका हुआ था और जबड़ा लटक रहा था, क्लान्त मुद्रा में एक ऊंची, जीर्ण जर्जरित छकड़ा बग्गी घसीटता हुआ मन्द गति से दौड़ रहा था। बग्गी का एक बम गायब था, उसके स्थान पर एक मोटी सी रस्सी बंधी हुई थी। गांव के बातूनी लोग कहा करते थे कि पुलिस-इंसपेक्टर जान-बूझ कर इस छकड़ा बग्गी का इस्तेमाल करता है ताकि वह उन अफवाहों को झूठ साबित कर सके, जो (2 १३६
11 जतलाते हुए उसकी रिश्वतखोरी के सम्बंध में गांव भर में फैल रही थीं। पुलिस-इंसपेक्टर के भीमकाय शरीर ने बग्गी की दोनों सीटों को घेर रखा था। कीमती खाकी कपड़े का लम्बा कोट पहन कर वह स्वयं बग्गी चला रहा था। नमस्कार, यैव्पसिखी अफ्रिकानोविच !" खिडकी से सिर बाहर निकाल कर मैं चिल्लाया। " नमस्कार, कैसे हालचाल हैं ?" उसने प्रसन्न मुद्रा में भारी, दहाड़ती, बड़प्पन भरी आवाज में उत्तर दिया । उसने घोड़े की लगाम खींच ली और अत्यधिक सौजन्य के संग नीचे झुक कर मुझे प्रणाम किया। " क्या आप एक सैकन्ड के लिए भीतर पधारेंगे ? मुझे आपसे थोड़ा सा काम था।" उसने अपना सिर हिला दिया । 'असम्भव । मैं ड्यूटी पर जा रहा हूं। वोलोशा में एक आदमी डूब कर मर गया है। उसकी लाश का मुआयना करना है।" किन्तु मैं उसकी कमजोरियों से परिचित था। लापरवाही का भाव मैंने कहा, अगर रुक जाते तो अच्छा ही था। अभी-अभी काउन्ट वोर्टजल की जागीर से बढ़िया किस्म की शराब की दो वोतलें आयीं हैं। मैंने सोचा था 'मैं नहीं रुक सकता । तुम जानते हो, ड्यूटी आखिर ड्यूटी ही है । 'वह आदमी मेरा पुराना वाकिफ था, जिससे मैंने यह शराब खरीदी है । उसने इसे अपनी कोठरी में ऐसे छिपा रखा था मानो यह शराब न होकर पुरखों का कोई खजाना हो। मेरी बात मानों तो जरा सी देर के लिए रुक जायो । घोड़े के लिए भी जई का इन्तजाम हो जायगा ।" मैंने उसे फुसलाते हुए कहा । ज्यादा इसरार न करो भाई।" उसने कहा । " मेरे लिए सबसे पहले अपनी ड्यूटी है, बाकी सबकुछ बाद में। यह तो बताओ, उन बोतलों में है क्या ? आलूबुखारों की ब्रांडी ? 'आलूबुखारों की प्रांडी ! कैसी बात करते हैं आप भी ! पुरानी वोदका है जनाब ! ऐसी कि चखते ही सरूर आ जाय !" "आपसे क्या छिपाऊं, मैं तो घर से ही पी कर चला था ।" वह अफसोस जाहिर करते हुए अपने गाल खुजलाने लगा। 'हो सकता है, वह आदमी झूठ बोल रहा हो, किन्तु उसने दावे के संग • कहा था कि यह शराब दो सौ वर्ष पुरानी है। कोन्याक ( एक किस्म की फ्रांसीसी ब्रांडी) की सी सुगन्ध आती है उसमें से, और रंग चीड़ की राल की तरह पीला है।" 31 " " 1 . १३७
॥ 'तुम भी बस कमाल की बातें करते हो ! आखिर मुझे फुसला ही लिया न ?" उसने तनिक उदास होने का अभिनय किया, मानो मेरी बात मानने के अलावा उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं था। अच्छा, मेरे घोड़े को कौन संभालेगा ?" उसने वग्गी से नीचे उतरते हुए कहा। मेरे पास पुरानी वोद्का की कई बोतलें रखी थीं। यह सच है कि वे उतनी पुरानी नहीं थीं, जितनी मैंने उनके सम्बंध में डींग मारी थी, किन्तु यदि थोड़ी सी अतिशयोक्ति के द्वारा दूसरे आदमी को आकर्षित किया जा सके तो इसमें हानि ही क्या है ? यदि मेरे उस पुराने जानकार की सम्पत्ति लुट न गयी होती तो शायद वह यह वोद्का कभी न बेचता। उसे इस पर बहुत गर्व था, . और होता भी क्यों न ? वह पुरानी और असली देशी बोद्का थी, जिसका असर बिजली की तरह होता था। पुलिस-इंसपेक्टर का जन्म एक पादरी के परिवार में हुआ था। कमरे में आते ही उसने वोदका की एक बोतल हथिया ली, और बोला, "सर्दी के बुखार से बचने के लिए मैं इसे दवा की तरह पियूँगा।" वोदका के अलावा ताजी मूलियां और हाल में ही मथा हुआ मक्खन भी मैंने उसके सामने रख दिया। वह चटखारे ले लेकर खाने लगा। 'अच्छा, आपको मुझसे क्या काम था ?" पांचवां गिलास पीकर उसने मुझ से पूछा। वह आराम-कुर्सी के सिरहाने पर सिर टिका कर मजे से बैठ गया । उसकी भारी-भरकम देह के बोझ तले बेचारी कुर्सी कराह उठी। मैंने उसका ध्यान बुढ़िया की विवशता और उसकी दुःखी, दयनीय अवस्था की ओर आकर्षित किया और बात ही बात में इशारे से यह भी कह दिया कि कुछ कानूनों को नजरंदाज भी किया जा सकता है। वह सिर झुकाये मेरी बात सुन रहा था और मूलियों को उनकी जड़ों से अलग करके मस्त होकर चबाता जा रहा था। कभी-कभी वह अपनी भावहीन, धुंधली, नीली और कौड़ियों जैसी छोटी-छोटी आंखें ऊपर उठा कर मेरी ओर देख लेता था, किन्तु उसके लाल चौड़े चेहरे पर मुझे सहानुभूति या विरोध के कोई भी चिन्ह न दिखायी दिये। 'तो फिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?" मेरे चुप होने पर उसने पूछा । 'मैं क्या चाहता हूं ?" मैंने उत्तेजित होकर उत्तर दिया । उन लोगों की मजबूरी देख सकते हैं। दो गरीब असहाय स्त्रियां ..." " जिनमें एक गुलाव की कली सी खूबसूरत है !” उसने व्यंगात्मक स्वर । 17 आप खुद में कहा। "हो सकता है, लेकिन मेरी बात का उससे कोई ताल्लुक नहीं । मैं आपसे सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि क्या आप उन पर थोड़ी सी भी दया नहीं कर १३८
। " सकते ? समझ में नहीं आता कि आप उन्हें झोपड़ी से इतनी जल्दी क्यों निकालना चाहते हैं ? कम-से-कम आपको इतनी मुहलत तो देनी चाहिए कि मैं उनकी ओर से जमीदार के संग कुछ बातचीत कर सकू । अगर आप एक महीना ठहर जायेंगे, तो कौन सा बड़ा खतरा मोल लेगे ?" "कौन सा खतरा ?" वह आरामकुर्सी से उछल पड़ा। आप जानते नहीं, मुझ पर कितनी बड़ी आफत आ सकती है ! हो सकता है कि अपनी नौकरी ही गंवा बैठू । भगवान जाने, यह नये जमीदार श्री इल्याशेविच कैसे हैं ? सम्भव है वह उन आदमियों में से हों जिन्हें दूसरों की चुगली करने में ही आनन्द मिलता है, जो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते । जरा सी कोई बात हुई, और दबादब पीटर्सबर्ग में शिकायतों से भरी चिट्ठियां भेजने लगते हैं। यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है जनाब !" मैं पुलिस-इंसपेक्टर के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा करने लगा। " अरे छोड़ो भी यैव्यसिखी अफ्रिकानोविच । आप तो तिल का ताड़ बना रहे हैं। जरा सा खतरा उठा भी लिया तो क्या हुआ ? जरा सोचो वे लोग आपके कितने कृतज्ञ रहेंगे !" 'खाक कृतज्ञ रहेंगे !" अपनी चौड़ी पतलून की जेबों में हाथ ठूस कर वह जोर से चिल्लाया। 'क्या तुम समझते हो कि उनके पच्चीस रूबलों के पीछे मैं अपनी नौकरी को खतरे में डालूंगा ? नहीं, जनाब ! अगर आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं तो आपको सख्त गलतफहमी है !" "कैसी बात करते हो यैपसिखी अफ्रिकानोविच ! यहां रुपये का सवाल कहां पैदा होता है ! आप तो उनकी मदद करके एक पुन्य काम करेंगे । मानवीय प्रेम भी तो कोई चीज है। "मा-न-धी-य प्रेम ?" उसने खूब चबा-चबा कर प्रत्येक अक्षर का उच्चारण किया। "तुम्हारा मानवीय-प्रेम तो मेरे गले का फंदा बन बैठेगा।' उसने अपनी गर्दन पर हाथ फेरते हुए कहा । "यव्पसिखी अफ्रिकानोविच, मेरे खयाल से तुम सीधी सी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देख रहे हो। बिलकुल नहीं। सुप्रसिद्ध कहानीकार श्री किलोव ने एक स्थान पर 'संघातक रोग" के मुहावरे का इस्तेमाल किया है। ये दोनों स्त्रियां सचमुच संघातक रोग की तरह हैं । क्या आपने हिज हाइनेस प्रिंस उरूसोव की शानदार पुस्तक 'पुलिस-अफसर' पढ़ी है ?" 'नहीं, मैंने नहीं पढ़ी। "वाह जनाब, उसे नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा। वह एक बहुत बढ़िया और ज्ञानवर्धक किताब है । जब आपको कभी समय मिले तो उसे जरूर पढ़िये ।" . । 1)
"अच्छी बात है, मैं बहुत खुशी से वह किताव पढूंगा। किन्तु अभी तक मुझे यह समझ में नहीं आया कि उन दो स्त्रियों का इस किताब से क्या सम्बंध है ?" "तुम पूछते हो क्या सम्बंध है ? मैं कहता हूं, बहुत गहरा सम्बंध है । पहली बात ... " उसने अपने बायें हाथ की बालों से भरी मोटी अंगुली को मोड़ते हुए गिनाया, '. 'पुलिस अफसर को बड़ी सतर्कता से यह बात देखनी चाहिए कि सब लोग नियमित रूप से प्रार्थना-गृह में जाते हैं या नहीं। कोई 'ऐसा व्यक्ति तो नहीं है जो इस कर्तव्य का पालन केवल भार-स्वरूप समझकर करता है और ईश्वर में उसकी निष्ठा नहीं है ?' मैं आप से यह जानना चाहता हूं कि वह औरत - मान्यूलिखा ही नाम है न उसका ? -क्या कभी गिरजे में जाती है ?" मैं चुप रहा । मुझे स्वप्न में भी आशंका नहीं थी कि हमारी बातचीत का रुख इस तरह अचानक बदल जायेगा। उसने विजयोल्लास से चमकती आंखों से मुझे देखा और अपनी बिचली अंगुली मोड़कर कहने लगा, " दूसरी बात : 'झूठी भविष्यवाणी करना या झूठे शकुन विचारना निषिद्ध है । ' देखा आपने ? तीसरी बात : 'बाजीगरी, जादूगरी या छल-फरेब से भरे इस तरह के व्यवसाय कानून द्वारा निषिद्ध है।' देख लिया आपने ? अगर किसी दिन अचानक इन लोगों की कलई खुल गई या किसी ऐसी-वैसी बात की भिनक बड़े अफसरों के कानों में पड़ गयी, तो किसके मत्थे दोष मड़ा जायगा ? मेरे । नौकरी से हाथ किसे धोना पड़ेगा ? मुझे । अब आपकी कुछ समझ में आया ?" वह पुनः कुर्सी पर बैठ गया। अपनी अगुलियों से मेज को जोर-जोर से थपथपाता हुआ वह भावशून्य प्रांखों से दीवारों को देखने लगा। 'यैपसिखी अफ्रिकानोविच, मैं जानता हूं कि आप हमेशा कितने जटिल और पेचीदा कामों में उलझे रहते है,” मैंने खुशामदी लहजे में कहना शुरू किया। । 'किन्तु मैं यह भी जानता हूं कि आप जैसे कोमल, दयालु स्वभाव के व्यक्ति विरले ही होते हैं। मैं आपका बहुत अहसानमन्द रहूंगा अगर आप उन स्त्रियों को तंग करना छोड़ दें। आपके लिए यह कोई कठिन काम नहीं है।" पुलिस इंसपेक्टर की अांखें मेरे सिर के ऊपर किसी विशेष स्थान के इर्द- गिर्द चक्कर काट रही थीं। "बड़ी उम्दा बन्दूक रखी है तुमने अपने पास,” उसने मेज पर हाथ थपथपाते हुए लापरवाही भरी मुद्रा में कहा । बहुत ही बढ़िया बन्दूक है। पिछली बार जब मैं आया, तुम घर पर नहीं थे। उस समय भी मैं तुम्हारे कमरे में बैठा-बैठा मन-ही-मन इस बन्दूक की तारीफ करता रहा । एकदम लाजवाब चीज है।" 17 १४०
11 " 91 मैं सिर उठाकर बन्दूक को देखने लगा। 'काफी अच्छी बन्दूक है । मैं भी बन्दूक की प्रशंसा करने लगा। पुरानी चीज है । यूरोप में बनकर तैयार हुई थी। पिछले साल इसकी मरम्मत करवायी थी । जरा इसकी नलियों को देखिये । "नलियां ही तो हैं, जो मुझे सबसे ज्यादा पसन्द आयी है। शानदार चीज है-- मैं तो इसे एक अमूल्य निधि समझता हूं।" हम दोनों की आंखें चार हुई। मैंने देखा उसके होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान खेल रही है । मैं दीवार से बन्दूक उतार कर उसके निकट चला आया। "सर्केशियन लोगों की एक सुन्दर प्रथा है। वे उस वस्तु को उपहार- स्वरूप अपने मेहमान' को भेंट कर देते हैं, जो उसके मन को भा जाती है।" मैंने मीठे स्वर में कहा। 'यैपसिखी अफ्रिकानोविच ! हम में से कोई भी सर्के- शियन नहीं है, किन्तु मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप इस बन्दूक को मेरा. स्मृति-चिन्ह समझ कर अपने पास रख लें।" उसने ऐसा मुंह बनाया मानो गहरे संकोच में पड़ गया हो । " यह ठीक नहीं है। मैं तुमसे इतनी सुन्दर वस्तु नहीं ले सकूँगा । यह प्रथा चाहे कितनी अच्छी हो, किन्तु तुम्हें यह काफी मंहगी साबित होगी !" किन्तु मुझे ज्यादा जोर नहीं डालना पड़ा। उसने मुझसे बन्दूक लेकर उसे अपने घुटनों के बीच खड़ा कर दिया और उसके घोड़े पर जमी हुई धूल को अपने साफ रुमाल से पोंछने लगा। वह बन्दूक चलाने में दक्ष प्रतीत होता था और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि जो कुछ भी हो, मेरी बन्दूक किसी नौसिखिये के हाथों में नहीं गयी । पुलिस इंसपेक्टर बन्दूक स्वीकार करने के बाद तुरन्त उठ खड़ा हुआ। "मैंने यहां गप्पों में इतना वक्त बरबाद कर दिया और जरूरी काम बीच में ही लटका रह गया है ! अब मुझे आज्ञा दो।" उसने फर्श पर पांव थपथपाते हुए लम्बे जूतों को पहन लिया । " जब तुम कभी हमारी तरफ प्राओ, तो मेरे घर आना मत भूलना । 'जनाव, मान्यूलिखा के बारे में फिर क्या तय हुआ है ?" मैंने उसे याद दिलाते हुए कहा । "देखा जायेगा," उसने अनिश्चत भाव से कहा। " हां सुनो, मैं तुम से एक बात बहुत देर से कहना चाह रहा था । तुम्हारी मूलियां बहुत बढ़िया हैं । " मैंने खुद उन्हें उगाया 'बड़ा उम्दा स्वाद है तुम्हारी मूलियों का। मेरी पत्नी को हर किस्म की सब्जियों का शौक है। मैं सोच रहा था ... क्या तुम्हारे लिए यह संभवः होगा कि मूलियों की एक गट्ठी .. मेरा मतलब है सिर्फ एक गट्ठी ... 11 " 11 1 १४१
" "बड़ी खुशी से, यैपसिखी अफ्रिकानोविच ! इसे मैं अपना सौभाग्य समगा। आज ही अपने आदमी के संग, टोकरी में मूलियां भरवाकर आपके पास भिजवा दूंगा। और अगर आपको आपत्ति न हो तो थोड़ा सा मक्खन भी ... मेरे पास बहुत बढ़िया किस्म का मक्खन है। 'अच्छा, थोड़ा मक्खन भी भिजवा देना ।" उसने कुछ इस ढंग से कहा मानो वह मुझ पर कोई अहसान कर रहा हो । " उन औरतों से तुम कह देना कि कुछ अर्से तक में उन्हें परेशान नहीं करूगा। किन्तु उन्हें यह बात साफ- तौर से समझ लेनी चाहिए, कि महज मुझे धन्यवाद देने से ही उन्हें छुटकारा नहीं मिल जायेगा। वह अपनी आवाज ऊंची करके जोर से चिल्लाया । "अच्छा अब मैं चलता हूं। तुमने मेरी जो इतनी आवभगत की, उसके लिए और सुन्दर बहुमूल्य तोहफे के लिए मैं तुम्हें एक बार फिर धन्यवाद देता हूं।" उसने फौजी ढंग से एड़ियां खटखटायीं और एक हृष्ट-पुष्ट, प्रभावशाली व्यक्ति की तरह छाती फुलाता अपनी बग्गी की ओर चल पड़ा, जहां गांव का पुलिसमैन, चौधरी और यर्मोला टोपियां हाथ में लिए उसके सम्मान में खड़े थे । नौ पुलिस इंसपेक्टर ने अपने वचन का पालन किया और कुछ अर्से तक जंगल की झोपड़ी में रहनेवाली स्त्रियों को तंग नहीं किया। किन्तु न जाने क्यों, मेरे और अोलेस्या के बीच एक व्यवधान सा आ खड़ा हुआ, हमारे सम्बंधों में एक ऐसा विचित्र, अप्रत्याशित परिवर्तन हो गया, जो मुझे दिन-प्रतिदिन धुन की तरह खाने लगा। मेरे प्रति उसके व्यवहार में जो अकृत्रिम सौहार्द और सहज विश्वास की स्नेहसिक्त भावना थी, अब उसका अभाव मुझे बुरी तरह खटकने लगा। उसमें एक सुन्दर लड़की का चंचल चुहलपन और एक शैतान लड़के की जिन्दादिली का जो आकर्षक सम्मिश्रण था, उसका अब चिन्ह-मात्र भी शेष न रहा। एक दूसरे से बातचीत करते समय हमारे बीच संकोच की एक अदृश्य दीवार खड़ी हो जाती थी, जिसे हम दोनों में से कोई भी नहीं लांघ पाता था । अोलेस्या अब डरते-डरते उन सब दिलचस्प विषयों को टाल देती थी जो कभी हमारे असीम कौतूहल का केन्द्र रह चुके थे। मेरी उपस्थिति में वह एकाग्र चित्त होकर अपने काम में जुट जाती थी. और अपना सारा ध्यान उस पर इस तरह केन्द्रित कर देती थी मानो उसे दीन- दुनिया की कोई खबर ही नहीं। किन्तु इसके बावजूद ऐसे लमहे भी आते थे जब वह अपने हाथों को गोद में ढीला छोड़कर बराबर फर्श की ओर ताकती रहती थी। यदि ऐसे क्षणों में मैं उसका नाम लेकर उसे बुलाता या जानबूझ- १४२
कर उससे कोई प्रश्न पूछ बैठता, तो वह हड़बड़ाकर चौंक उठती और अपना भयभीत चेहरा उठाकर मेरी ओर इस तरह देखती मानो मेरे शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास कर रही हो। कभी-कभी मुझे लगता कि मुझे देखकर वह झुंझला सी उठती है और अपनी झोपड़ी में मेरी उपस्थिति उसे अखरने सी लगी है। कुछ अर्सा पहले तक मेरे मुंह से निकले प्रत्येक शब्द को वह जिस गहरी रुचि के संग सुनती थी, उसे देखते हुए मुझे उसका रूखा व्यवहार काफी विचित्र सा प्रतीत होता था। मेरा अनुमान था कि पुलिस-इंसपेक्टर से प्रार्थना करके मैंने उन्हें जो सहायता पहुंचायी थी, वह वात दिन-रात उसकी आंखों में रोड़े की तरह खटकती रहती थी। उनका संरक्षक होकर मैंने अनजाने में उसकी स्वातंत्र्य-भावना को ठेस पहुंचा दी थी। किन्तु कभी-कभी मैं अपने अनुमान पर ही शंका करने लगता । एक सीधी-सादी लड़की, जिसका पालन-पोषण सभ्यता से कोसों दूर जंगल में हुआ है, क्या अपने आत्म-सम्मान को इतना अधिक गौरव और महत्व दे सकती है ? इसी उधेड़बुन में फंसा हुना मैं कोई भी निश्चय न कर पाता। में अपनी शंका का समाधान ओलेस्या से करवाना चाहता था, किन्तु वह मौका ही न आने देती थी कि मैं अपने दिल की बात खोलकर उससे कह सकूँ। 'अब हम शाम को सैर करने नहीं जाते थे। हर रोज उनके घर से जाते समय 'जब मैं अभ्यर्थना-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखता तो वह आंखें फेर लेती, मानो कुछ भी न समझती हो। दूसरी ओर झोपड़ी में बुढ़िया की उपस्थिति अब मुझे बेहद अखरने लगी थी, हालांकि वह बहरी थी। बिला नागा हर रोज अोलेस्या के घर जाने की मेरी जो आदत सी बन गयी थी, उस पर भी कभी-कभी में झुंझला उठता था। मुझे उस समय उन अदृश्य डोरों का कोई प्राभास नहीं मिला था, जिन्होंने मेरे हृदय को उस आकर्षक, अद्भुत लड़की के मोह-जाल में उलझा दिया था। उसके प्रति प्रेम का विचार अभी मेरे मन में नहीं उठा था, किन्तु वह एक ऐसा दौर था, जो प्रेम उदित होने से पूर्व हर व्यक्ति के जीवन में प्राता है। एक अजीब सी आकुलता और कसमसाहट से भरा दिल हर दम छटपटाता रहता । अस्पष्ट और उदास अनुभूतियां दिन-रात हृदय को मथती रहतीं। कुछ भी करू', कहीं भी जाऊं, मन सदा भटकता रहता। हर दम भोलेस्या का चेहरा मेरी आंखों के आगे नाचता रहता। मुझे अपना समूचा व्यक्तित्व अोलेस्या के बिना अधूरा सा लगता । उसके शब्द---- -चाहे वे कितने निरर्थक और महत्वहीन क्यों न हो- उसकी प्रत्येक हरकत, उसकी मुस्कराहट का स्मरण होते ही मन में एक कोमल, मीठा सा दर्द उमड़ने लगता । शाम घिर आती और मेरे पांव खुद-ब-खुद उसकी झोपड़ी की ओर बढ़ जाते । मैं उसके पास उस छोटी-सी टूटी-फूटी बेंच पर बैठा १४३
रहता । मुझे अपने ऊपर खीज आती -भय और संकोच से आक्रान्त मैं उसके सम्मुख सिटपिटाया सा क्यों बैठा रहता हूं ? एक बार मैं अोलेस्या के पास दिन भर इसी तरह चुपचाप बैठा रहा । सुबह से ही मेरी तबीयत कुछ खराब थी, किन्तु मुझे उसका कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। शाम होते होते मेरी अवस्था और भी ज्यादा बिगड़ गयी। मेरा सिर भारी हो रहा था, कानों में सीटियां बज रही थीं और सिर के पीछे निरन्तर धीमा-धीमा सा दर्द हो रहा था, मानो कोई अपने कोमल और मजबूत हाथों से उसे जोर-जोर से दबा रहा हो । मेरा मुंह बार-बार सूख जाता था, अंग-प्रत्यंग में आलस और थकान का उनींदा सा भाव सिमटता आ रहा था और मैं बार-बार उबासियां और अंगड़ाइयां ले रहा था। मेरी अांखें पीड़ा से जल' रही थीं, मानो किसी चमचमाती चीज को देखकर वे चौंधिया गयी हों। उस रात जब मैं वापिस घर लौट रहा था, तो बीच रास्ते में अचानक मेरे शरीर में कंपकंपी सी दौड़ने लगी। मेरे दांत जोर-जोर से बजने लगे । मुझे रास्ते का कोई ज्ञान न रहा और एक शराबी की तरह लड़खड़ाता हुआ मैं न जाने कब तक जंगल में भटकता रहा । मैं आज तक नहीं जानता कि उस रात में अपने घर कैसे पहुंच पाया । पोलेस्ये के भयानक बुखार में मैं पूरे छः दिनों तक बराबर तड़पता रहा। दिन के समय बुखार कुछ कम हो जाता था और मैं होश में आ जाता था। उस बीमारी ने मुझे अपाहिज बना दिया। चल-फिर न सकने के कारण मुझे अपने दुखते, कमजोर घुटनों के बल रेंगना पड़ता था। मैं इतना दुर्बल हो गया था कि शरीर पर जरा सा जोर पड़ते ही मेरे सिर की रक्त-नाड़ियां फूल कर गर्म हो उठती थीं और मेरी आंखों तले अंधेरा छा जाता था। किन्तु शाम होते ही- सात बजे के करीब -बुखार एक डरावने शत्रु की तरह मुझे आ दबोचता। रात के समय पीड़ा असह्य हो जाती, बेचैन होकर मैं करवटें बदलता रहता । मुझे लगता मानो पूरी रात एक लम्बी शताब्दी है, जो कभी समाप्त न होगी। कभी में कम्बलों के नीचे सर्दी से कांपता और कभी बुखार की गर्मी मेरे शरीर को भूनने लगती । जब कभी कुछ देर के लिए आंख लग जाती तो अनेक भयावह और विचित्र दुःस्वप्न मेरे उत्तप्त मस्तिष्क को झिझोड़ने लगते। छोटी-छोटी वातों का तांता सा लग जाता और फिर एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते वे एक विशाल देर में परिणत हो जाते । लगता कि मेरे सामने रंग-बिरंगे, बेडौल बक्सों का ढेर पड़ा है। में बड़े बक्सों के भीतर से छोटे बक्सों को निकाल रहा हूं और उनके भीतर से उनसे भी छोटे बक्सों को निकाल रहा हूं। मैं इस काम से बेहद परेशान हो गया हूं, फिर भी बराबर बक्सों को छांटता जाता हूं। उसके बाद लम्बे रंगीन वाल-पेपर फड़फड़ाते हुए मेरी आंखों के सामने से १४४
गुजरने लगते । मुझे लगता कि उन रंगीन कागजों पर बेल-बूटों के स्थान पर विचित्र किस्म की मालाएं लटक रही है, जिनमें फूलों के बजाय इन्सानी चेहरों को एक-दूसरे के संग जोड़ दिया गया है। उनमें से कुछ चेहरे सुन्दर, आकर्षक, दयावान और मुस्कराते हुए होते। किन्तु कुछ चेहरों की वीभत्स मुद्राओं को देखकर कलेजा मुंह को पाने लगता -बड़े-बड़े भयानक दांत, बाहर निकली हुई लपलपाती जिह्वाएं, मोटी-मोटी धूमती हुई आंखों की पुतलियां ! कभी लगता कि मैं यर्मोला के संग किसी बहुत ही पेचीदा और उलझे हुए विषय पर सैद्धान्तिक बहस कर रहा हूं। हम दोनों अपने-अपने पक्ष में बड़े बारीक और गम्भीर तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ शब्द और अक्षर अद्भुत और ज्ञानातीत अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। मुझे लगता कि एक अज्ञात, दैवी शक्ति मुझे क्षण- प्रतिक्षण आतंकित करती जा रही थी और उसके निर्देशन पर मेरे उद्भ्रान्त मस्तिष्क से अनेक ऊल-जलूल मिथ्यावादी बातें बाहर निकल रही है । मुझे इस तर्क-जाल से घृणा होने लगी थी, किन्तु कोई रहस्यमयी शक्ति थी, जो मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध उसमें और भी ज्यादा उलझाती जा रही थी। मुझे लगता मानो मैं एक भंवर में फंस गया हूं-- मेरे चारों ओर मान- वीय और पाशविक चेहरे, विलक्षण और अद्भुत रंगों और प्राकृतियों के प्राकृतिक-दृश्य और विभिन्न किस्मों के भौतिक पदार्थ एक लम्बे जलूस की शक्ल में तेजी से घूम रहे हैं। मेरे सम्मुख हवा में कुछ ऐसे शब्द और मुहावरे तिरते जा रहे हैं जिनके अर्थ को मैं अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से अनुभव कर सकता हूं। आश्चर्य की बात थी कि उस समय इन सब वस्तुओं के संग में प्रकाश का एक गोला भी देख रहा था- - वह मेरे नीले, झुलसे हुए शेड से ढके लैंप से उठकर छत पर दिमक आया था। मुझे उस शान्त गोले की धुंधली आलोक- रेखा को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसके बीच मेरे दुःस्वप्नों से कहीं अधिक भयावह और रौद्र रूप लिए एक वीभत्स और डरावना जीव भटक रहा है। तब मैं जाग जाता अथवा अपने-यापको जागृतावस्था में पाता । मेरी चेतना वापिस लौट पाती। धीरे-धीरे मुझे अपनी स्थिति का ज्ञान होता। मुझे पता चल जाता कि मैं बिस्तर पर बीमार पड़ा हूं और कुछ देर पहले मुझ पर सन्निपात का आक्रमण हुआ था। किन्तु चेतनावस्था में आने के बावजूद मुझे काफी देर तक काली दीवार पर टिमकते हुए प्रकाश के उस गोले से डर लगता रहता। कांपते दुर्बल हाथों से घड़ी उठाकर समय देखता और यह जानकर विक्षुब्ध और विस्मित हो जाता कि मेरे भयावह दुःस्वप्नों का अन्तहीन सिलसिला दो-तीन मिनटों से अधिक नहीं चला है। "भगवान, सुबह कब होगी !" गर्म तकियों पर अपना सर पटकते हुए मैं सोचता । अपने ही गर्म सांसों के स्पर्श को क १० १४५
मैं अपने उत्तप्त होठों पर महसूस करता । हल्की भीनी सी नींद मेरे मस्तिष्क को दुबारा अपने में प्रोड़ लेती, एक बार फिर अनर्गल दुःस्वप्न मेरी सांसों से खेलने लगते और दो मिनट बाद फिर मैं असह्य पीड़ा से कराहता हुआ जाग जाता। मेरे बलिष्ठ शरीर ने कुनीन और केले के सत की सहायता से छः दिनों में ही बुखार को काबू में कर लिया। जब रोग से छुटकारा पाकर में विस्तरे से उठा तो कमजोरी के कारण मेरे हाथ-पांव लड़खड़ा रहे थे। उस कम्बख्त बुखार ने मेरी देह का सारा खून चूस लिया था। किन्तु स्वस्थ होने में मुझे देर नहीं लगी। मेरा सिर हल्का हो गया था, मानो छः दिनों के भीषण ज्वर और मानसिक सन्निपात ने मेरे मस्तिष्क को विचारों से मुक्त कर दिया हो। मेरी भूख पहले से दुगुनी हो गयी। मेरी देह का अणु-अणु हर घड़ी स्वास्थ्य और जीवन के प्रानन्द को अपने में अनुस्यूत करता जा रहा था । जंगल की उस एकाकी और टूटी-फूटी झोपड़ी में जाने के लिए मेरा मन विकल हो उठा। बीमारी के कारण मैं अभी तक अपनी पुरानी शक्ति नहीं बटोर पाया था। ओलेस्या का चेहरा और स्वर याद आते ही मेरा मन उद्वेलित सा हो उठता कहीं भीतर प्रासुओं की बाढ़ उमड़ने लगती । दस पांच दिन बाद जब में डायन की झोपड़ी में गया तो मुझे जरा भी थकान महसूस नहीं हुई। दहलीज पर पांव रखते ही मेरा हृदय भय से कांपने लगा। अोलेस्या को देखे एक पखवाड़ा बीत चुका था। अोलेस्या मुझे कितनी प्रिय थी, इस सत्य का प्राभास मुझे बीमारी के दौरान में असंदिग्ध रूप से हो चुका था। दरवाजे की कुंडी पर हाथ रखे, मैं कुछ क्षणों तक असमंजस में खड़ा रहा। दरवाजे को धक्का देने से पूर्व मैंने सांस रोक कर आंखें मूंद लीं। मेरे कोठरी में प्रवेश करते ही दोनों स्त्रियों पर क्या प्रतिक्रिया हुई, इसको बयान करना काफी कठिन है। लम्बे अर्से बाद जब मां और पुत्र, पति-पत्नी अथवा दो प्रेमियों की मुलाकात होती है, तब शुरू में उनके बीच जो छिटपुट शब्द कहे जाते हैं, क्या उन्हें स्मरण रखना सम्भव है ? वे अपने में इतने साधारण होते हैं कि यदि बाद में उन्हें याद किया जाये तो सचमुच अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होंगे। किन्तु अपने प्रियजनों के मुख से कहे गये वे शब्द साधारण होने के बावजूद कितने उपयुक्त और बहुमूल्य होते हैं, इस तथ्य को भला कौन नहीं स्वीकारेगा ? मुझे याद है, अच्छी तरह से याद है, कि मेरी आहट पाते ही अोलेस्या का पीला चेहरा अचानक मेरी ओर मुड़ा था - क्षण भर में ही उसके मोहक
" चेहरे पर विस्मय, भय और स्निग्ध कोमलता से भरे भाव एक साथ खेल गये थे । बुढ़िया ने बुदबुदाते हुए शायद मेरा अभिवादन किया था, जिसे मैं सुन नहीं सका। अोलेस्या को सुरीली आवाज मधुर-संगीत सी मेरे कानों में गूंज गयी। 'क्या हो गया था तुम्हें ? क्या तुम बीमार थे ? इतने कमजोर हो गये हो कि चेहरा पहचाना नहीं जाता।" काफी देर तक मैं उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर उल्लसित मुद्रा में एक दूसरे की आंखों में आंखें डाले निश्चल खड़े रहे। वे मौन क्षण कदाचित् मेरे जीवन के सबसे मधुर क्षण थे; उतना विराट, पवित्र और अनिर्वचनीय आनन्द मैंने उससे पहले अथवा उसके बाद आज तक महसूम नहीं किया। प्रोलेस्या की बड़ी-बड़ी काली आंखों में मैंने अनेक बदलते हुए भाव पढ़ डाले । मुझ से मिलने पर भावनाओं की उथल-पुथल, लम्बे अर्से को अनुपस्थिति के लिए उलहना, प्रेम की भावोन्मादित अभिव्यक्ति ! निस्संकोच रूप से -~-बिना किसी शर्त के- उसने अांखों ही आंखों में अपना सब कुछ मुझ पर सहर्ष समर्पित कर दिया था। भोलेस्या ने अपनी पलकों को धीमे से हिला कर मान्यूलिखा की ओर संकेत किया। हम दोनों ने एक दूसरे के हाथ छोड़ दिये और उस क्षण का जादुई-सम्मोहन टूट गया। हम एक दूसरे के निकट बैठ गये । उसकी ओर से प्रश्नों की बौछार गुरू हो गयी -बुखार कैसे चढ़ा, कौन सी दवाइयां लीं, डॉक्टर से दो बार मुझे देखने आया था -ने बुखार के सम्बंध में मुझे क्या बतलाया ? इत्यादि । डॉक्टर के सम्बंध में उसने मुझ से कई प्रश्न पूछे । मुझे लगा कि जब मैं डॉक्टर का उल्लेख करता था, तो उसके होठों पर एक व्यंगात्मक मुस्कान सिमट आती है । 'तुमने अपनी बीमारी की खबर मुझे क्यों नहीं दी ?" उसने खीज भरे स्वर में कहा । " मै एक दिन में ही तुम्हें बिस्तर से उठा देती । तुम उन लोगों पर कैसे विश्वास कर लेते हो, जिन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं - रत्ती भर ज्ञान नहीं है ? तुमने मुझे क्यों नहीं बुला भेजा ?" मैं गहरे असमंजस में पड़ गया । 'बुखार अचानक आ गया भोलेस्या, तुम्हें बुलाने का समय ही कहां मिला? नाहक तुम्हें परेशान करने को भी मन नहीं हुआ। पिछले कुछ दिनों से तुम्हारे व्यवहार में अजीव परिवर्तन आ गया था, लगता था मानो तुम मुझसे किसी बात पर नाराज हो या बिलकुल ऊब गयी हो मुझ से। अोलेस्या, सुनो," मैंने अपना स्वर धीमा करते हुए कहा । " मुझे तुमसे बहुत सी बातें करनी है, लेकिन किसी ऐसे स्थान पर, जहां हम दोनों के अलावा और कोई न हो । तुम मेरा मतलब समझ गयी होगी .. जो शहर (1 " ... १४७
11 " उसने सहमति में प्रांखें नीचे झुका लीं। फिर डरते-डरते दादी को देखते हुए दबे होठों से कहा, "मैं भी यही चाहती थी, किन्तु अभी नहीं-बाद में, किसी और समय ।" मूर्यास्त होते ही उसने मुझे घर वापिस लौट जाने के लिए कहा। "जल्दी करो, वरना सरदी खाकर दुबारा बीमार पड़ जानोगे।" उसने मेरा हाथ खींचते हुए कहा । "प्रोलेस्या, तुम कहां जा रही हो?" मान्यूलिखा ने जब अपनी पोती को भूरे रंग की ऊनी शाल कंधों पर डालते देखा, तो चिल्ला उठी। " कुछ दूर तक इनके संग जाऊंगी ।" प्रोलेस्या ने खिड़की से बाहर देखते हुए लापरवाही भरे स्वर में कहा। वह जानबूझ कर मान्यूलिखा से आंखें चुरा रही थी। मुझे उसके स्वर में हल्की सी खीज का आभास मिला । 'आखिर तुम जा रही हो ?” बुढ़िया ने ऊंचे स्वर में कहा । अोलेस्या ने प्रज्ज्वलित नेत्रों से मान्यूलिखा की ओर देखा। "हां, मैं जा रही हूं !" उसने उद्यत होकर कहा । "हमने इस विषय पर काफी बातचीत कर ली है। अब फिर बखेड़ा खड़ा करने से क्या फायदा ? यह मेरी अपनी बात है और इसका नतीजा भी मैं खुद भुगत लूंगी। "अच्छा, सो यह बात है !" मान्यूलिखा ने खीज और शिकायत भरे स्वर में कहा। वह कुछ और कहने जा रही थी, किन्तु न जाने क्या सोच कर चुप रह गयी। उसने निराशा भरे भाव से अपना हाथ हवा में हिला दिया और लह- खड़ाती हुई कमरे के कोने में जाकर टोकरी बनाने में व्यस्त हो गयी। मैं जान गया कि मान्यूलिखा और अोलेस्या के बीच यह विद्वेषपूर्ण वार्तालाप आपसी झगड़ों की एक लम्बी श्रृंखला की कड़ी है। 'तुम्हारी दादी को शायद मेरे संग तुम्हारा बाहर पाना बुरा लगता है ?" जंगल की ओर उतरते हुए मैंने ओलेस्या से पूछा । उसने झंझलाहट में कंधे बिचका दिये । "हां, लेकिन तुम इसकी कोई चिन्ता न करो। मैं उनकी इच्छा की गुजाम नहीं हूं । जो मेरे मन में आएगा, वही करूगी । पिछले दिनों में उसका मेरे प्रति जो रूखा व्यवहार रहा था, उसकी आलोचना किये बिना मैं नहीं रह सका। "अच्छा, तो मेरी बीमारी से पहले तुमने अपनी इच्छा से ही मेरा साथ छोड़ दिया था ! उन दिनों मेरा हृदय जिस बुरी तरह व्याकुल रहता था, उसे तुम शायद कभी नहीं जान पामोगी। हर शाम में इस बात की आस लगाये रहता कि तुम मेरे संग बाहर आरोगी, किन्तु तुम गुमसुम सी मुंह फुलाए बैठी १४८
. रहतीं। काश तुम समझ पातीं कि तुमने अनजाने में मुझे कितना कष्ट पहुंचाया है अोलेस्या !" "कृपया उन बातों को भूल जाओ ! उनका जिक मत करो !" उसने अनुरोध किया। उसके स्वर में क्षमा-याचना का विनीत भाव भरा था । मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा हूं। यूं ही मेरे मुंह से यह वात निकल गयी । खैर, अब मैं कारण जान गया हूं, किन्तु उन दिनों मैंने जो अनुमान लगाया था, अब उसे सोच कर हंसी आती है । मुझे लगा था कि पुलिस-इंसपेक्टर की बात को लेकर तुम मुझसे रूठ गयी हो । मैंने सोचा कि तुम मुझे पराया समझती हो, जिसकी सहायता और सहानुभू तुम्हें स्वीकार नहीं ! इससे मुझे कितना गहरा मानसिक क्लेश पहुंचा, इसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं। तब मुझे क्या मालूम था कि तुम दादी मां के कारण ही मुझ से दूर-दूर रहती हो । अचानक प्रोलेस्या का चेहरा लाल हो उठा। "नहीं, दादी मां ने मुझे नहीं रोका था। मैं स्वयं तुम से दूर रहना चाहती थी।" उसका स्वर सहसा कठोर हो उठा। मैं अोलेस्या की बगल में खड़ा था और मुझे उसके तनिक झुके हुए चेहरे की कोमल, कांतिमान रूप-रेखा दिखायी दे रही थी। मुझे लगा कि पिछले दिनों उसकी देह भी काफी दुबली हो गयी है और उसकी आंखों के नीचे नीली छायाएं उभर आयी हैं। उसे पता चल गया कि मैं उसके चेहरे को एकाग्र चित्त होकर निहार रहा हूं। उसने अपना चेहरा उठाया, मेरी ओर देखा, और फिर शरमा कर मुस्कराते हुए अपनी आंखें दूसरी ओर फेर लीं। "अोलेस्या, तुम मुझ से दूर रहना चाहती थीं ? भला क्यों ?" मैंने भरोये स्वर में पूछा और उसका हाथ पकड़ कर उसे वहीं रोक लिया । हम एक लम्बी, संकरी, तीर की तरह सीधी पगडंडी के बीचों-बीच खड़े थे। पगडंडी के दोनों ओर पतले, लम्बे चीड़ के वृक्ष दूर तक चले गये थे। उनकी लम्बी, सुगन्धित और एक दूसरे से उलझी शाखों ने पगडंडी के ऊपर शामियाना-सा तान दिया था । सूर्यास्त की महीन, रक्तिम किरनें चीड़ के नंगे तनों पर झिलमिला रही थीं। "क्यों, प्रोलेस्या, क्यों ?" दबे स्वर में मैं बार-बार उससे पूछ रहा था । उसके हाथ पर मेरी गिरफ्त मजबूत होती जा रही थी। "मैं डरती थी अपने भाग्य से !" उसके होंठ फड़फड़ाए। “सोचती थी, तुमसे दूर रह कर मैं अपनी नियति से छुटकारा पा लूंगी । किन्तु अव ... सहसा उसकी सांस तेज हो गयी। अचानक उसने अपनी बाहें मेरे गले में डाल दी और मुझे अपने बाहु-पाश में जकड़ लिया। मुझे लगा मेरे होठों पर उसके कांपते शब्दों की गर्म मिठास धुल रही है । १४६
'अब मुझे कोई चिन्ता नहीं है क्योंकि ... क्योंकि मैं तुमसे प्यार करती हूं ! मेरे सर्वस्व ... मेरे प्राण ... मेरी खुशी !" वह मुझ से लिपटती जा रही थी। उसकी स्वस्थ गर्म देह मेरी बाहों में पत्ते के समान कांप रही थी। उसका दिल धौंकनी की तरह मेरी छाती पर धड़क रहा था। उसके प्रेमोन्मादित चुम्बन तेज शराब की तरह मुझे उन्मत्त बना रहे थे । एक तो बुखार की कमजोरी पूरी तरह मिटी नहीं थी, ऊपर से भोलेस्या का यह प्रेमोन्मादपूर्ण व्यवहार ! मैं विचलित हो उठा। मेरा सिर चकराने लगा, आत्म-संयम की डोर हाथों से छूटने लगी। 'क्या कर रही हो अोलेस्या ? ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो ! जाने दो मुझे !" उसकी बाहों को छुड़ाने की चेष्टा करता हुआ मैं बोला । " अब मुझे भी डर लग रहा है- -खुद अपने से ! मुझे जाने दो, मोलेस्या !" उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया- - एक अलस मुस्कान उस पर खेल रही थी। " डरो नहीं, मेरे प्यारे ।" उसकी मूक आंखों से अद्भुत साहस और असीम स्नेह छलक रहा था । “ मैं तुमसे कभी कुटूंगी नहीं, न कभी किसी बात पर तुम्हें उलहना दूंगी। मैं तो बस इतना जानना चाहती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो या नहीं। " हां अोलेस्या, एक लम्बे अर्से से तुम्हारे प्यार ने मुझे पागल' सा बना दिया है, किन्तु ~ देखो, मुझे और मत चूमो । मैं अभी बहुत कमजोर हूं और मेरा सिर चकरा रहा है । मुझे अपने पर विश्वास नहीं है ... एक बार फिर उसके होठों ने मेरे होठों को एक लम्बे मधुर चुम्बन में प्रोड़ लिया। मैंने सुना नहीं, किन्तु उस क्षण मुझे लगा मानो वह होठों ही होठों में कह रही है, "तो फिर डरो नहीं। सब चिन्ताएं त्याग दो। यह दिन हमारा है, इसे कोई हमसे नहीं छीन सकता।" वह रात परियों की कहानी सी सुन्दर और मोहक थी। चांदनी के विचित्र पोर रहस्यमय रंगों में सारा जंगल नहा रहा था। पीले और नीले आलोक के घब्बे कटे-फटे ठूठों, टेढ़ी-मेढ़ी शाखाओं और काई के कोमल, नर्म कालीन पर झिलमिला रहे थे। भोजपत्र के वृक्षों के पतले, सफेद तनों की रूपरेखा अंधकार और चांदनी के बीच स्पष्ट रूप से दिखायी दे रही थीं। उनके पत्तों को देखकर लगता था मानो किसी ने धवल चांदी की जाली में उन्हें लपेट दिया हो। जहां कहीं चांदनी चीड़ की घनी शाखाओं को भेदने में असमर्थ थी, वहां निबिड़, निर्भेद्य अंधकार का साम्राज्य फैला था। किन्तु कुछ ऐसे तिमिरान्छादित स्थल १५०
11 मी थे, जहां कोई भूली-भटकी आलोक-रेखा वृक्षों के झुरमुटों को काटती हुई किसी छोटी सी पगडंडी को प्रकाशमान कर देती थी। चांदनी से आलोकित वह सुन्दर पगडंडी छायादार वृक्षों से घिरी एक सड़क सी जान पड़ती थी, जिस पर मानो 'प्रोबरोव और तितानिया' का आगमन होने वाला हो और जिसे यक्षों ने झाड़-बुहार कर साफ कर दिया हो । हम दोनों हाथ में हाथ डाले चुपचाप, उस स्वप्न-लोक के जीवन्त और उल्लास-पूर्ण वातावरण में चले जा रहे थे । 'जंगल की मायावी निस्तब्धता तथा एक अद्वितीय, अलौकिक प्रानन्द ने हम दोनों को अपने में समेट लिया था। " अरे, मैं तो भूल ही गयी कि तुम्हें जल्दी घर लौटना है !" अोलेस्या को अचानक याद आया । “कितनी स्वार्थी हूं मैं भी। तुम अभी बुखार से उठे हो और मैं हूं कि इतनी देर तक तुम्हें जंगल में रोक रखा है । मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया और उसके घने, काले बालों से शॉल को हटा दिया। "अोलेस्या, तुम्हें दुःख तो नहीं है ?'' मैंने धीरे से उसके कान में कहा । "तुम अब पछता तो नहीं रहीं ?" उसने धीरे से अपना सिर हिला दिया। " नहीं । मुझे कोई दुःख नहीं है, भविष्य में चाहे जो कुछ भी हो । कितनी सुखी हूं मैं !" 'क्या होगा भविष्य में ?" उसकी आंखों में एक रहस्यपूर्ण भय घिर आया, जिसे मैं एकबार पहले भी देख चुका था। "कुछ अवश्य होगा। याद है वह बात, जो मैंने चिड़ी की बेगम के सम्बंध में तुम्हें बतायी थी ? मैं ही वह बेगम हूं । ताश के पत्तों ने जिस विपत्ति के सम्बंध में भविष्यवाणी की थी, वह मेरे भाग्य में ही लिखी है। जानते हो, मैंने यह निश्चय कर लिया था कि मैं तुम्हें अपने घर आने से बिलकुल मना कर दूंगी। किन्तु उसी समय तुम बीमार पड़ गये और मैं पन्द्रह दिनों तक तुम से न मिल पायी। उन दिनों तुम्हारी अनुपस्थिति में मैंने अपने को इतना अकेला और उदास पाया कि कुछ कहते नहीं बनता। मैंने सोचा था कि यदि केवल एक क्षण तुम्हें देख पाऊं तो उसके एवज में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में भी मैं नहीं हिचकूगी । इस विचार ने ही मेरे निश्चय को दृढ़ कर दिया । 'चाहे जो विपत्ति आए,' मैंने मन में सोचा, 'अपनी आत्मा के सुख को मैं किसी हालत में नहीं छोड़ सकूँगी।' 'अोलेस्या, तुम ठीक कहती हो। मैंने भी यहीं सोचा था।" उसकी कनपटियों को अपने होठों से छूते हुए मैंने कहा । " तुमसे अलग होकर ही मैं १५१
तुम्हारे प्रति अपने प्रेम के सत्य को पहचान पाया। किसी ने सच कहा है कि प्रेम के लिए जुदाई उसी तरह है जिस तरह आग के लिए हवा । क्षुद्र प्रेम को वह बुझा देती है और सच्चे प्रेम को और भी अधिक भड़का देती है । " क्या कहा तुमने ? एक बार और कहो,” अोलेस्या ने उत्सुकता भरे स्वर में कहा । मैंने वह कहावत दुहरा दी। ध्यानमग्ना सी ग्रोलेस्या चुप हो गयी। उसके हिलते हुए होठों को देखकर मैं समझ गया कि वह मन-ही-मन उन शब्दों को दुहरा रही है। मैं उसके उठे हुए पीले चेहरे को ध्यान से देखता रहा । उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखों में चांदनी का उज्ज्वल आलोक झिलमिला रहा था। उसी क्षण भावी अनिष्ट की अस्पष्ट पाशंका ने सहसा मेरे हृदय को कचोट दिया । ग्यारह कैसे सरस दिन थे वे ! परीदेश की कल्पना सा, मादक-सम्मोहन से भरा मारा अबोध, निश्छल प्रेम एक महीने तक चलता रहा था। आज जब कभी अोलेस्या की छवि मैं याद करता हूं तो उससे सम्बद्ध अनेक सुन्दर स्मृतियां सूर्यास्त का अरुण रश्मि-जाल, घाटी के मधु और फूलों की सुगन्ध से महकती, शबनम में भीगी ऊपाएं, मदमस्त ताजगी लिए, पक्षियों के कलरव से गूंजता वातावरण, जून की गर्म, उनींदी, अलसायी सी दुपहरें-बरबस मेरे मस्तिष्क में उमड़ पाती हैं। एक अजीब सा नशा था, जिसमें मैं ऊब, थकान, घुमक्कड़ी का शौक - सब कुछ भूल गया। किसी आदि-देवता या स्वस्थ और जवान जन्तु की भांति में प्रकाश और गरमाई, जीवन की सरसता और शान्त, स्वस्थ प्रेम के इन्द्रिय-सुख का रस भोग रहा था । मेरी बीमारी के बाद मान्यूलिखा मुझ से जली-भुनी रहने लगी। मेरे प्रति उसकी घृणा ने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि अब वह उसे दबाने- छिपाने का उपक्रम भी नहीं करती थी। जब मैं झोपड़ी में होता, वह मेरे प्रति अपना रोष प्रकट करने के लिए चूल्हे में बर्तनों को इतनी जोर से खड़खड़ाती कि आखिर उससे तंग आकर में और अोलेस्या एक दूसरे से जंगल में ही मिलने लगे। हरे पत्तों से लदे चीड़ के भव्य वृक्षों की पृष्ठभूमि में हमारा प्रगाढ़ प्रेम और भी अधिक खिल उठा । हर रोज मैं विस्मय और कौतूहल से अोलेस्या के नये गुणों को देखता रह जाता। अनेक कामों में उसकी विलक्षण सूझबूझ और मृदुल' शालीनता को देख कर विश्वास नहीं होता था कि वह विलकुल अशिक्षित है और उसका पालन-पोषण जंगल में हुआ है । प्रेम के कुछ ऐसे बाध्य और विकृत लक्षण होते १५२
है, जो कोमल, भावुक व्यक्तियों को हमेशा लज्जित और पीड़ित कर देते हैं । किन्तु अोलेस्या के स्वच्छ आचरण और सद्व्यवहार ने हमारे प्रेम की पवित्रता को कलुषित होने से हमेशा बचाए रखा। उस पर उसने एक क्षण के लिए भी सस्ती और सतही भावनाओं की छाया न पड़ने दी। और धीरे-धीरे वह दिन पास आने लगा जब मुझे गांव छोड़ कर चले जाना था। वास्तव में पेरीबोद में मेरा काम समाप्त हो चुका था, किन्तु में जानबूझ कर अपने प्रस्थान की तिथि आगे ठेलता जा रहा था। अभी तक इस सम्बंध में मैंने अोलेस्या से एक शब्द भी नहीं कहा था। मेरी बिदाई का समा- चार सुन कर उस पर कैसी प्रतिक्रिया होगी. इसकी कल्पना करते ही मेरा दिल कांप उठता था। मैं एक अजीब दुविधा में फंस गया। अपनी दिनचर्या का मैं इतना अभ्यस्त हो गया था कि उसे अचानक छोड़ कर चल देना मुझे असंभव सा प्रतीत होता था। प्रतिदिन अोलेस्या से मिलना, उसकी खिलखिलाती हंसी और सुरीली आवाज को सुनना, उसके हाथों के कोमल, सुखद स्पर्ष को महसूस करना मेरे लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य बन गया था। बारिश के कारण जब कभी मैं उससे मिलने नहीं जाता था, उस समय मैं अपने को इतना असहाय और एकाकी पाता, मानों किसी ने मेरी कोई अमूल्य निधि छीन ली हो । मुझे अपना काम नीरस और निरर्थक सा प्रतीत होता, किसी कार्य में मन नहीं लगता और मेरी आत्मा जंगल के वातावरण, उसकी गरमायी और आलोक के लिए और प्रोलेस्या के मधुर परिचित चेहरे को देखने के लिए तड़पने लगती । मेरे मन में अनेक बार अोलेस्या से विवाह करने का विचार उठा था । पहले-पहल' यह विचार मेरे मस्तिष्क में कभी-कभार आता था और मैं सोचता था कि ईमान का सौदा यही है कि हमारे सम्बंध की अन्तिम परिणति विवाह में हो । केवल एक बात मेरे रास्ते पर बाधा बन कर खड़ी थी। मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि विवाह के बाद अोलेस्या भड़कीली पोशाक पहने हुए ड्राइंग-रूम में बैठ कर मेरे मित्रों की पत्नियों के संग बातचीत करेगी। प्रोलेस्या के संग उस पुराने जंगल का मोहक वातावरण, उसकी प्रचलित किंवदन्तियां और रहस्यपूर्ण भेद इतने अविच्छिन्न-रूप से जुड़े हुए थे कि उसे उनसे अलग करके देखना मुझे असंभव सा प्रतीत होता था । किन्तु ज्यों-ज्यों मेरे प्रस्थान का दिन निकट आने लगा, मेरा हृदय एक मर्मान्तक व्यथा और निपट एकाकीपन के भय से आक्रान्त हो उठा । यही कारण था कि ओलेस्या से विवाह करने का मेरा निश्चय हढ़तर होता गया। पहले मैं डरता था कि अोलेस्या से विवाह करना समाज को एक दम्भपूर्ण चुनौती देना होगा। किन्तु अब मेरे मन में यह डर मिटने लगा था। " हमारे समाज में ऐसे अनेक सदाचारी और विद्वान पुरुष विद्यमान है जिन्होंने अपनी जिनों और १५३
नौकरानियों से विवाह किया है ।" मैं यह सोचकर अपने दिल को आश्वासन देता। “ऐसे दम्पतियों का वैवाहिक-जीवन इतने अानन्द से गुजरता है कि वे अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक अपनी नियति की सराहना करते हैं, जिसने उन्हें ऐसा निर्णय करने के लिए उत्प्रेरित किया। मुझे आशा करनी चाहिए कि मेरा भाग्य भी उन लोगों के सौभाग्य से भिन्न नहीं होगा।" जून का आधा महीना बीत चुका था। एक दिन रोज की तरह में जंगल की उस पगडंडी के मोड़ पर खड़ा हुआ अोलेस्या की प्रतीक्षा कर रहा था, जो नागफनी की खिलती हुई झाड़ियों के बीच टेढ़ा-मेड़ा रास्ता बनाती हुई जाती थी। दूर से ही मैंने उसकी हल्की, तेजी से निकट आती हुई पदचाप को पहचान लिया। . " "मेरे प्रियतम," अोलेस्या ने हांफते हुए कहा और अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं । "क्या तुम्हें बहुत देर तक मेरी प्रतीक्षा करनी पड़ी ? में आज बड़ी मुश्किल से आ सकी हूं, दादी मां से झगड़ा हो गया था । " क्या वह अब भी तुमसे नाराज है ?" क्यों नहीं। 'उसके कारण तू बर्बाद हो जायगी।' वह अक्सर मुझसे कहती हैं। 'तेरे संग खेल-खिलवाड़ करने और तेरा जी भर कर रस लूटने के बाद वह तुझे गुठली की तरह फेंक कर खुद नौ दो ग्यारह हो जायगा। वह तुझ से रत्ती भर भी प्रेम नहीं करता।' झगड़े में वह अक्सर मुझ से ऐसी बातें करती हैं।" क्या उनका संकेत मेरी ओर हैं ?" "हां, लेकिन मैं उनकी एक बात का भी विश्वास नहीं करती।" क्या वह सब कुछ जानती हैं ? "निश्चित रूप से मैं कुछ नहीं कह सकती। मेरे विचार में वह सब कुछ जानती हैं। मैं उनसे इस सम्बंध में कभी कोई चर्चा नहीं उठाती, वह स्वयं अपना अनुमान लगाती हैं। लेकिन चिन्ता करने की कोई बात नहीं - प्रायो चलें !" उसने नागफनी के वृक्ष से एक छोटी सी टहनी, जिस पर सफेद कलियों का एक गुच्छा लटक रहा था, तोड़ कर अपने बालों में खोंस ली। हम उस -जहां दुपहर की हल्की गुलाबी धूप छिटक रही थी-धीरे-धीरे चलने लगे। पिछली रात मैंने दिल पक्का करके यह निश्चय कर लिया था कि जो भी हो, आज शाम मैं उसे सबकुछ बतला दूंगा। किन्तु उस क्षण उसके सम्मुख घबराहट के कारण मेरी जुबान तालू से चिपक गयी और अनिश्चय और भस- मंजस में उलझा हुआ मैं चुपचाप खड़ा रहा । जब मैं उसे अपने प्रस्थान और पगडंडी पर १५४
उसके साथ विवाह करने के अपने निश्चय के बारे में बताऊंगा, तो क्या वह मेरा विश्वास करेगी ? कहीं वह यह तो न समझेगी कि प्रस्थान के समाचार से उसके हृदय पर जो गहरा आघात पहुंचेगा, उसकी पीड़ा को कम करने के लिए ही मैं विवाह का प्रस्ताव रख रहा हूं ? कुछ फासले पर एक वल्कल-मंडित छतनार वृक्ष खड़ा था। मैंने निश्चय कर लिया कि उस वृक्ष के पास पहुंचकर मैं अोलेस्या से अपने दिल की बात कह दूंगा। वृक्ष के पास पहुंचते ही मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा, घबड़ाहट के कारण चेहरा पीला पड़ गया और मुंह सूख गया। मैंने बोलने के लिए अपनी सांस ऊपर खींच ली किन्तु मुंह से एक शब्द भी बाहर न निकला । ऐन मौके पर मेरा साहस टूट गया । “सत्ताईस मेरा भाग्य-अंक है," कुछ मिनटों बाद मैंने सोचा। मैं सत्ताईस तक गिनूंगा और फिर —" मैं मन-ही-मन गिनता रहा, किन्तु जब सत्ताईस पर आया तो पता चला कि मेरा मन पहले की तरह अनिश्चय में टंगा है। "मैं साठ तक गिनूंगा - पूरा एक मिनट - और उसके बाद मैं अवश्य ही अोलेस्या से अपने दिल की बात कह दूंगा। क्या बात है, आज तुम इतने उद्विग्न क्यों दिखायी दे रहे हो ?" प्रोलेस्या ने अचानक मुझ से पूछा । " लगता है, कोई चीज तुम्हें कोंच रही है । मुझे नहीं बतलायोगे ?" हां, तब मैं बोला था -एक कृत्रिम, अस्वभाविक, लापरवाही भरे स्वर में, मानो मैं किसी बहुत ही क्षुद्र और महत्वहीन विषय का उल्लेख कर रहा हूं। उस क्षण मुझे अपने स्वर से, अपने शब्दों से घृणा हो रही थी। "अोलेस्या, तुम्हारा अनुमान ठीक है । मैं सचमुच परेशान हूं। बात यह है कि इस गांव में मेरा काम समाप्त हो गया है। मेरे अफसर अब मुझे वापिस अपने शहर भेज रहे है। मैंने कनखियों से प्रोलेस्या को देखा। उसके चेहरे का रंग उड़ गया था और होंठ कांपने लगे थे। किन्तु उत्तर में उसने एक शब्द भी न कहा। कुछ मिनटों तक मैं उसके साथ चलता रहा। झींगुर जोर-जोर से टर्रा रहे थे । कभी कभी दूर से किसी पक्षी के चहचहाने का अलसाया-सा स्वर सुनायी दे जाता था। 'अोलेस्या, तुम जानती हो कि हमेशा के लिए यहां रहना सम्भव नहीं । स्थायी रूप से यहां ठहरने के लिए कोई व्यवस्था भी नहीं हो सकती। इसके अलावा मेरे ऊपर काम की जिम्मेदारी है, जिसकी उपेक्षा करना उचित नहीं।" "तुम ठीक कहते हो । मैं भी यही सोचती हूं। " ग्रोलेस्या ने कहा । " सबसे पहले अपना कर्त्तव्य है ---- पीछे कुछ और । तुम्हें अवश्य जाना चाहिये।" उसके भावहीन स्वर में कुछ ऐसी शून्यता भरी थी कि मैं भयभीत सा हो गया । १५५
' वह एक पेड़ का सहारा लेकर खड़ी हो गयी। उसका चेहरा हल्दी सा पीला हो गया था, निर्जीव, निष्पारण सी बाहें नीचे लटक आयी थीं और उसके होठों पर अवसाद और व्यया से भरी फीकी सी मुस्कराहट सिमट पायी थी। उसके चेहरे के पीलेपन को देखकर मैं भयाकुल हो उठा। तेजी से लपककर मैंने उसके हाथ पकड़ लिये। 'प्यारी अोलेस्या, तुम्हें क्या हो गया है ?" 'कुछ नहीं ... मैं ठीक हूं घबराओ नहीं ... जरा सिर में चक्कर आ गया था।" वह पांव बढ़ा कर आगे चलने को उद्यत हुई। अपना हाथ उसने मेरे हाथ में पड़ा रहने दिया । न जाने अभी तुम्हारे मन में मेरे प्रति कितने बुरे विचार पाए होंगे," मैंने उलहना भरे स्वर में कहा । “छिः प्रोलेस्या, क्या तुम भी यह सोचती हो कि मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊंगा ? क्या यह कभी संभव है, प्यारी लोलेस्या ? अाज रात को ही मैं तुम्हारी दादी मां से कहने वाला हूं कि तुम मेरी पत्नी बनने जा रही हो।" मुझे यह देखकर गहरा आश्चर्य हुआ कि वह मेरी बात को सुनकर तनिक भी विस्मित न हुई। 'तुम्हारी पत्नी ?" उदास होकर धीरे से उसने अपना सर हिला दिया । 'नहीं, प्यारे वान्या, यह असंभव है। 'किन्तु क्यों, अलोस्या, क्यों ?" 'नहीं. कभी नहीं । इसकी कल्पना करना भी मूर्खता है, यह बात तुम भी दिल में महसूस करते हो। क्या मैं तुम्हारी पत्नी होने योग्य हूं ? तुम एक भद्र पुरुप हो- शिक्षित और बुद्धिमान, और मैं ? एक अपढ़ गंवार औरत, जिसे लोगों के संग उठने-बैठने का भी शऊर नहीं। मुझे अपनी पत्नी बनाकर शर्म से तुम अपना सिर भी नहीं उठा सकोगे।" "कैसी बेकार की बातें करती हो तुम भी, अोलेस्या !" मैंने उत्तेजित होकर उसका प्रतिवाद किया। " छः महीने के भीतर तुम इतनी बदल जाओगी कि स्वयं तुम्हें अपने को पहचानना मुश्किल हो जाएगा । तुम नहीं जानती कि तुम कितनी चतुर और प्रवीण हो । हम दोनों मिलकर बहुत सी सुन्दर पुस्तकें पढ़ेंगे, सहृदय और बुद्धिमान लोगों से मिलेंगे, सारी दुनिया की सैर करेगे। अोलेस्या, जैसे हम आज है, वैसे ही जिन्दगी भर एक दूसरे के संग रहेंगे। तुम पर मुझे शर्म पाएगी? छिः अोलेस्या, कैसी बात करती हो। तुम से बढ़कर मुझे और किस पर गर्व होगा ? मैं जीवन भर तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा, अोलेस्या !" 10 ॥ १५६
मेरे मर्मस्पर्षी भाषण के उत्तर में अोलेस्या ने भावाकुल होकर मेरा हाथ दबा दिया, किन्तु अपने निश्चय पर वह अडिग रही । "कुछ और भी बातें हैं, जिन्हें तुम नहीं जानते। मैंने आज तक तुम्हें नहीं बताया कि मेरे पिता नहीं हैं । मै जारज सन्तान हूं।" 'प्रोलेस्या, मुझ से ये सब बातें मत कहो । मुझे इनमें कोई दिलचस्पी नहीं है । मेरे लिए सबसे बड़ी बात है-तुम्हारा प्रेम । तुम्हारे मां-बाप चाहे नो भी हों, मुझे उनसे कोई मतलब नहीं। मुझे अन्य बातों की कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि तुम मुझे मेरे माता-पिता और सारी दुनिया से भी कहीं अधिक प्रिय हो । इस तरह के बहाने बनाकर मुझे मत टालो ! उसने कोमल-विनीत भाव से अपने कंधे मेरे कंघों से सटा लिए। अच्छा होता कि तुम इस चर्चा को न छेड़ते। तुम अभी जवान हो, स्वतंत्र हो, तुम्हारे हाथ-पांव बांधकर तुम्हें अपने पास रखे रहना क्या उचित और सम्भव होगा ? हो सकता है कि तुम किसी दूसरी स्त्री से प्रेम करने लगो। उस समय मैं तुम्हें मार्ग का रोड़ा जान पड़ेगी। तुम मुझ से घृणा करने लगोगे और उस घड़ी को कोसोगे जब मैं तुमसे विवाह करने पर रजामन्द हो गयी थी। क्या तुम नाराज हो गये ?” मेरे चेहरे पर व्यथा का भाव देखकर उसने अभ्यर्थना भरे स्वर में कहा । “ मैं तो केवल तुम्हारे सुख की बात सोच रही हूं। तुम्हें अपनी बातों से पीड़ित करना मेरा मकसद नहीं है। फिर इसके अलावा दादी मां का क्या होगा ? तुम ही सोचो, क्या यह उचित होगा कि मैं उन्हें अकेली, निराश्रित-अवस्था में छोड़ कर चली जाऊं?" " उनके रहने का भी कहीं इंतजाम हो जाएगा," मैंने कहा। अोलेस्या की दादी का विचार सचमुच अभी तक मेरे मस्तिष्क में नहीं आया था । " यदि बह हमारे संग न रहना चाहें तो किसी भी शहर के 'भिक्षा-गृह' में रह सकती है, जिसमें उन जैसी बूढ़ी स्त्रियों की सुख-सुविधा के लिए पूरी व्यवस्था की जाती है। "नहीं, ऐसा कभी संभव न होगा। वह जंगल से कहीं बाहर जाना पसन्द न करेंगी। पराये आदमियों से उन्हें डर लगता है । "प्रोलेस्या, आखिर इसका निर्णय तो केवल तुम्हें ही करना पड़ेगा। दादी मां और मेरे बीच तुम्हें किसी एक को चुनना होगा। केवल इतना ध्यान रखना कि तुम्हारे बिना मुझे अपना जीवन एक भारी बोझ सा प्रतीत होगा। "मेरे प्रियतम," उसने भावोच्छवासित होकर स्नेह-सिक्त स्वर में कहा । " मैं कृतज्ञ हूं- तुम्हारे इन शब्दों के लिए। तुमने मेरी आत्मा को कितनी शान्ति पहुंचायी है ! किन्तु मैं तुमसे विवाह न कर सकूँगी। जैसी में आज हूं, वैसे ही -अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो -मैं आजीवन तुम्हारे संग रहने के " 14 १५७
( ॥ लिए प्रस्तुत हूं। किन्तु जल्दी मत करो। सोच-विचार कर ही कोई कदम उठाना उचित होगा । फिर इस सम्बंध में दादी मां से भी बातचीत करनी पड़ेगी।" ओलेम्या, सुनो,” बिजली की तेजी से एक नया विचार मेरे मस्तिष्क में कौंध गया । “विवाह के लिए जो तुम आनाकानी कर रही हो, वह क्या इसलिये तो नहीं कि तुम्हें गिरजे में जाने से डर लगता है ? वास्तव में मुझे विवाह की चर्चा इसी विषय को लेकर आरम्भ करनी चाहिए थी। इस सम्बंध में मैं अोलेस्या से प्रायः हर रोज बहस किया करता था। मैंने उसे अनेक बार समझाया था कि उसका यह भय बिलकुल निराधार और निरर्थक है कि जादू-टोना करने के कारण उसका कुल अभिशाप-ग्रस्त हो गया है । रूस में प्रायः प्रत्येक बुद्धिजीवी ज्ञान-प्रचारक होता है। पिछली दशा- ब्दियों के रूसी-साहित्य ने यह तत्व हमारे रक्त में घोल दिया है । यदि अोलेस्या कट्टर-धार्मिक विचारों की स्त्री होती. विला नागा उपवास रखती, नियमित रूप से गिरजे में जाती, तो में उसके धार्मिक-विचारों पर हल्का सा कटाक्ष ( "हल्का सा" इसलिये, क्योंकि मैं स्वयं धर्म में विश्वास रखता हूं।) करने से कभी न चूकता और हर दम उसकी बौद्धिक जिज्ञासा और चेतना को जागृत करने के प्रयास में जुटा रहता । किन्तु प्रोलेस्या ने मुझ से कभी अपने मन की बात नहीं छिपायी। उसका यह अबोध और दृढ़ विश्वास था कि उसके कुल के लोगों ने ईश्वर से नाता तोड़कर पैशाचिक-शक्तियों के संग अपना सम्बंध जोड़ लिया है । वह भगवान का नाम लेने में भी हिचकती थी। मेरे कहने-सुनने के बावजूद अन्ध-विश्वासों में उसकी अडिग आस्था ज्यों-की-त्यों बनी रही। मेरे सब तर्क और व्यंग्य-जो कभी-कभी बहुत कठोर और क्रूर भी हो जाते थे -एक रहस्यमयी और देवाधीन नियति पर उसके विनम्र विश्वास के सामने चूर-चूर हो जाते थे । 'प्रोलेस्या, क्या तुम्हें गिरजे से डर लगता है ?" मैंने दुबारा पूछा। उसने चुपचाप अपना सर झुका दिया । 'तुम सोचती हो कि भगवान तुम्हें स्वीकारेगा नहीं ?" मैं उत्तेजित होकर बोलता जा रहा था। "तुम सोचती हो कि वह तुम्हें अपनी दया से. वंचित रखेगा ? लाखों देवदूत जिसके अधीन है, धरती पर अवतरित होकर मानव- कल्याण के लिए जिसने अपमानजनक और भयानक मृत्यु को गले लगाया, क्या वह तुम्हें क्षमा नहीं करेगा ? तुम उस परमात्मा में विश्वास नहीं कर पातीं जिसने डाकू और हत्यारे जैसे पापियों को स्वर्ग में स्थान दिया, जिसने एक पतित, पथभ्रष्ट नारी के पश्चाताप को गौरव दिया था ?" ओलेस्था के लिए ये बातें नयी नहीं थीं अनेक बार हम इस सम्बंध में बातचीत कर चुके थे। किन्तु इस बार उसने मेरी एक न सुनी । उसने जल्दी से 40 १५८
11 अपनी शॉल · उतार डाली और उसे मरोड़-सिकोड़कर मेरे मुंह पर दे मारा। फिर क्या था, हम दोनों गुत्थम-गुत्था हो गये। मैं उसके बालों से नागफनी का फूल खींचने की चेष्टा करने लगा। खींच-तान में वह गिर पड़ी और गिरते- गिरते उसने मुझे भी अपने संग घसीट लिया। हम दोनों खुशी से हंसते जा रहे थे । उसने अपने गर्म, मधुर होंठ- जो हाफने के कारण तनिक खुल गये थे मेरे होठों पर रख दिये। उस रात एक दूसरे से विदा लेकर जब हम अपने-अपने घर की ओर चल पड़े, तो कुछ फासला तय करने के बाद मुझे पोलेस्या की आवाज सुनायी दी। वान्या, जरा रुक जाओ । मैंने तुमसे एक बात कहनी है । उससे मिलने के लिए मैंने अपने पांव वापिस मोड़ लिए। वह मेरी ओर तेजी से भागती आ रही थी। आकाश में हंसिया-चांद उग पाया था, जिसके फोके आलोक में प्रोलेस्या की आंखें आंसुओं से चमक रही थीं। 'पोलेस्या, क्या बात है ?" मैंने चिन्तित होकर पूछा । उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए और बारी-बारी से उन्हें चूमने लगी। "वान्या, तुम कितने अच्छे, कितने दयाशील हो।" उसने कांपते स्वर में कहा । " मैं अभी सोच रही थी कि तुम मुझे कितना चाहते हो। मेरी हार्दिक इच्छा है कि किसी तरह मैं तुम्हारे काम पा सकू, किसी तरह तुम्हें बहुत खुश कर सकू। "योलेस्या ... मेरी प्यारी बच्ची ! इस तरह अपने को परेशान मत ॥ 51 . करो ... 41 41 "अच्छा, सुनो,” वह कह रही थी, 'अगर किसी दिन में गिरजे में चली जाऊं तो क्या तुम बहुत खुश होगे ? अपने दिल की बात कहना । मैं तुम्हारे मुंह से झूठ नहीं सुनूंगी।" मैं सोचने लगा। मेरे दिल में एक विचित्र सा वहम उठ रहा था। क्या गिरजे में उसका जाना अनिष्टकर तो नहीं होगा ? 'तुम चुप क्यों हो गये ? बोलो, क्या तुम खुश होगे ? या तुम इसको १ कोई महत्व नहीं दोगे ?" 'पोलेस्या, समझ में नहीं पाता, क्या कहूं । मैं हकला रहा था। खुश क्यों नहीं हूंगा? क्या मैंने स्वयं तुम से अनेक बार यह बात नहीं कही कि पुरुष चाहे धर्म और परमात्मा पर विश्वास न करे, चाहे वह उनका मजाक ही क्यों न उड़ाए, किन्तु स्त्रियों की बात अलग है। धर्म में उनकी श्रद्धा और अास्था होना आवश्यक है। स्त्रियों में नारीत्व की सुन्दर, पुनीत अभिव्यक्ति उसी समय होती है जब वे परमात्मा के आश्रय को अपनी सहज, मधुर आस्था के संग स्वीकार कर लें।" ! १५६
में चुप हो गया। प्रोलेस्या ने चुपचाप अपना सिर मेरी छाती पर रख दिया। 'किन्तु तुमने मुझ से यह प्रश्न पूछा क्यों ?" प्रोलेस्या चौंक गयी। 'कुछ नहीं । मैं सिर्फ जानना चाहती थी। भूल जानो इस बात को । अच्छा अब मैं चली। कल अवश्य पाना।" और वह चली गयी। मैं देर तक अंधेरे में अांखें फाड़ता हुआ खड़ा रहा । उसकी पदचाप क्षण प्रति क्षरण धीमी होती गयी। सहसा एक भयंकर अनिष्ट की आशंका मेरी आत्मा को झिंझोड़ गयी। मेरे मन में एक अदम्य प्रेरणा उठी कि मैं अोलेस्या के पीछे भागकर बीच रास्ते में उसे रोक लूं और उससे अनुनय-विनय करू', प्रार्थना करू कि वह गिरजे में न जाए। यदि वह मेरा अनुरोध न माने तो जबरदस्ती उससे वचन ले लूं । किन्तु मैंने अपनी इच्छा को दबा दिया और घर वापिस लौटते हुए खुद अपना मजाक उड़ाने लगा । -तुम खुद अंधविश्वासों के शिकार बनते जा रहे हो। हे भगवान ! उस दिन मैंने अपने अन्तर्मन की पुकार क्यों नहीं सुनी ? आज मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि हत्-प्रेरणा--- चाहे वह कितनी ही धुंधली, अस्पष्ट और रहस्यमयी क्यों न हो- कभी मिथ्या नहीं होती। " " प्यारे वान्या बारह जिस दिन हमारी मुलाकात हुई थी, उसके अगले दिन ट्रिटी (ईसाई धर्म के अनुसार परमात्मा का वह स्वरूप, जिसमें परमपिता, परमपुत्र और धर्म-आत्मा समाहित होते हैं ) रविवार था। धार्मिक-पर्व का भोज उस वर्ष शहीद टिमाठी-दिवस पर होना निश्चित हुआ था। जन-श्रुति के अनुसार उस दिन फसल' के खराब होने के चिन्ह प्रकट होते हैं। पेरीब्रोद के गांव में गिरजा तो था, लेकिन गिरजे का पादरी नहीं था । लैंट और अन्य धार्मिक भोजों के प्रमुख अवसरों पर बोल्चये गांव का पादरी ही यहां प्रार्थना करने प्राता था। उस दिन मुझे किसी काम से निकटवर्ती कस्बे में जाना था। सुबह आठ बजे ही ठंडे-ठंडे में घोड़े पर सवार होकर रवाना हो गया। आस-पास के गांवों में दौरे पर जाने के लिए मैंने छः सात वर्ष की आयु का एक घोड़ा खरीद लिया था। घोड़ा स्थानीय-नस्ल का था, किन्तु उसके भूतपूर्व मालिक ने पर्यवेक्षक थे-बड़ी होशियारी से उसका पालन-पोषण किया था । घोड़े का नाम तारन्चिक था। मुझे वह बहुत पसन्द आया था- उसकी मजबूत सुघड़ टांगें, माथे पर मुके हुए घने बाल' जिसके नीचे क्रुद्ध, शंकित अांखें चमकती रहती थीं, और उसके जोर से भिचे हुए होंठ मुझे बहुत आकर्षक लगते थे। उसका रंग भी जो भूमि-
। अजीबोगरीब था: चूहे का मटियाला सलेटी रंग, किन्तु उसकी देह के पिछले हिस्से पर सफेद और काले धब्बे पड़े हुए थे मुझे गांव के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना पड़ा। गिरजे और शराब खाने के बीच का चौकोर हरा-भरा मैदान छकड़ा-गाड़ियों से भर गया था, जिनमें वोलोशा, जुलन्या और पैचालोबका आदि समीपवर्ती गावों के किसान अपने बीवी-बच्चों के संग भोज में सम्मिलित होने आये थे। छकड़ों के इर्द-गिर्द बड़ी चहल-पहल थी। सुबह से ही लोग-- कड़ी पाबन्दियों के बावजूद-- शराब पीने में मस्त थे (धार्मिक-त्योहारों पर और रात के समय शराब पीना निशिद्ध था, किन्तु लोग लुक-छिप कर शराबखाने के भूतपूर्व मालिक रूल से वोदका खरीद लाते थे )। हवा बन्द थी और सुबह से ही गर्मी की घुटन महसूस होने लगी थी। जब सुबह इतनी उमस थी तो दुपहर में गर्मी का क्या हाल होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं था। गर्म, तपा हुआ आकाश, जिसमें बादल का एक भी टुकड़ा दिखाई न देता था, चादी सी चमचमाती सफेद धूल से ढका था। शहर में अपना काम समाप्त करने के बाद मैं भोजन करने के लिए सराय में गया । यहूदियों के ढंग से पकायी गई पाइक मछली को जल्दी-जल्दी निगलने के बाद बहुत ही रद्दी, मटियाले रंग की बियर पीकर मैं घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में लुहार की दुकान दिखाई दी तो याद आया कि कुछ दिनों से तारन्चिक की अगली बाई टांग की नाल ढीली हो गयी है । उसे बदलवाने के लिए मैं वहीं रुक गया। डेढ़ घंटा वहीं लग गया। पेरीबोद पहुंचते-पहुंचते शाम के लगभग साढ़े चार-पांच का समय हो चुका था। मैदान में नशे में धुत लोगों के झुंड के झुंड शोर मचाते, हंसते-बोलते धूम रहे थे। शराबखाने का प्रागन और गलियारा धक्कम-धुकका करते गाहकों की अपार भीड़ से खचाखच भरा था। पेरीनोद के निवासी भी पास-पड़ोस के गांवों से आये हुए उन किसानों में मिल गये थे, जो अपने छकड़ों की छाया तले बैठ कर विश्राम कर रहे थे। हर जगह पीछे मुड़े हुए सिर और हवा में उठी हुई बोतलें दिखायी दे रही थीं। उस भीड में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसके होश-हवास दुरुस्त हों। लोगों का नशा एक ऐसी चोटी पर पहुंच चुका था, जहां हर किसान छाती ठोंक कर गर्वोन्नत भाव से अपने पियक्कडपन की कहानियां बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने लगता है, भारी कदमो से लड़खड़ाता हुप्रा चलता है, सिर हिलाते ही उसकी जांधे डगमगा जाती है, घुटने झुक जाते हैं और वह सहमा अपना संतुलन खो कर पीछे की ओर गिरने लगता है। घोड़े उदासीन भाव से भूमा खा रहे थे और उनके इर्द-गिर्द बच्चे उछलते-कूदते शोर मचा रहे थे। कहीं कोई रोती-कराहती स्त्री नशे में धुत, अपने पति पर गालियों की वर्षा कर रही थी और उसे उसकी शास्तीन से पकड़ कर घसीटनी हुई घर की ओर खीचे ले जा रही थी। एक मेड़ की छाया में बीस-पच्चीस स्त्री-पुरुष एक अंधे गायक को घेर कर बैठे थे, जो बाजा बजाता हुअा गा रहा था। गाने के संग वह कापती आवाज में गुनगुनाता भी जाता था। उसका तीखा, खरखराता स्वर भीड़ के कोलाहल को चीरता हुश्रा चारों और गूंज जाता था। यह एक पुराना, चिर-परिचित लोक गीत गा रहा था : सांझ का सूरज डूब गया हो, रात अंधेरी घिर आई । तुरुक लुटेरे टूट पड़े हो, जहन्नुमी बदली छायी ! इस लोक-गीत में आगे कहा गया है कि जब तु सनाएं ‘पोचायेव मठ' पर अधिकार न जमा मनी तो उन्होंने छल-कपट का रास्ता अपनाया। उन्होंने मठ में एक नोमवनी उपहार के रूप में भेजी, जिसमें बारूद भरा हुआ था। बैलों की बारह जोड़ियों द्वारा वह मोमबत्ती मठ में पहुंचायी गयी । मोमबत्ती को देख कर मर के पुजारी फूले नहीं समाए । वे पोचायेव की देवी के सामने उसे जलाने चले, किन्तु भगवान ने इस भयंकर अपराध से उन्हें बचा लिया : मठाधीश ने सपना देखा, सपने में प्रभु का ऐलान : खंड-खंड कर दो खंजर से, लेजा मोमबत्ती मैदान । पुजारियों ने यही किया : खंड-खंड खंजर से कर दी, लेजा मोमबत्ती मैदान ! फेंक दिये सब गोली-गोले, संतों ने चहुं ओर निदान ! मैदान की गर्म हवा वोदका, प्याज, भेड़ के खाल के कोटों, घर पर बने तेज तम्बाबू और धूल भो आदमियों के पसीने की दुर्गन्ध से बोझिल हो उठी थी। भीड़ के कोलाहल से डर कर तारन्चिक बार-बार बिदक रहा था। बड़ी सावधानी से उमे मनाता पुचकारता हुअा में जमघट के बीच रास्ता बना कर आगे बढ़ने लगा। लोग चुपचाप एक तरफ खड़े होकर मुझे क्रुद्ध, अशिष्ट और कौतूहल भरे भाव से देख रहे थे। गांव की पुरानी प्रथा की उपेक्षा करते हुए १६२
। " -मेरे हृदय उनमें से किसी ने भी गुझे देख कर सिर से टोपी नहीं उतारी। किन्तु एक बात अवश्य हुई - मैदान में मुझे जाते देख कर भीड़ का शोर-नाराबा काफी कम हो गया। अचानक गीड़ में से नशे में झूमता हुआ कोई व्यक्ति जोर से चिल्लाया । मैं उसके शब्द नहीं सुन पाया, किन्तु बहुत से लोग उसे सुनकर जार मे ठहाका लगा कर हंसने लगे। एक भतभीत स्त्री ने चिल्लाने वाले उस व्यक्ति को वीच में ही रोकने की चेष्टा की। "चुप भी हो जा मूर्ख, गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा है ! अगर उसने सुन लिया तो ?" "सुन लेगा तो मेरा क्या बिगाड़ेगा ?" उस आदमी ने निडर होकर जोर से वाहा। "क्या वह मेरा अफसर है ? यह कोई जंगल घोड़े ही है कि जब मन चाहा अपनी ... एक लम्बा, अश्लील और भयानक वाक्य हवा में गूंज गया, जिसे सुनकर भीड़ के लोग जोर-जोर में कहकहे लगाने लगे। मैंने तेजी से अपना घोड़ा मोड़ लिया और अपने हाथ में चावुक पकड़ ली। उस समय मैं गुस्से में पागल हो गया था-- में वह प्रचंड क्रोधाग्नि जलने लगी थी. जिस में भय और और तर्क जल कर राख हो जाते है । अवानक मेरे मन में एक विचित्र, विपाद- पूर्ण विचार उठा : " यह सब कुछ मेरे जीवन में पहले कभी हो चुका है । मुझे लगा मानो मैंने यह दृश्य पहले - अनेक वर्ष पहले कहीं देखा था। आज की तरह तेज, चुनचुनाती धूप फैली थी। मैं एक चौडे मैदान में भीड़ के बीच खड़ा था और याज की ही भांति लोग उत्तेजित स्वरों में जोर-जोर से चीरव- चिल्ला रहे थे। गुस्से में उबलता हुआ मैं पीछे मुड़ गया था- बिलकुल अाज की तरह । “किन्तु कहां ? यह घटना कहा घटी थी ? यह दृष्य मैंने कब देखा था ?" मैंने चाबुक झुका ली और घोड़े को अपने घर की और दौड़ाने लगा। योला धीरे से रसोई के बाहर आया। घोड़े की लगाम मेरे हाथ मे लेते हुए वह रूखे स्वर में बोला, " मारीनो पका की जागीर का कारिन्दा आया है । कमरे में बैठा आपकी इन्तजार कर रहा है।" गुझे लगा मानो एक बहुत ही कडुनी और महत्वपूर्ण बात उसके होठों पर आकर रुक गयी हो । एक विद्वेषपूर्ण, व्यंगात्मक मुस्कान की हल्की सी छाया उसके चेहरे पर खिच भायी थी। मैं कुछ देर तक जानबूझ कर दहलीज में ठिठका खड़ा रहा। कमरे में जाने से पूर्व मैंने सिर घुपा कर, उद्धत-भाव से यर्मोला को देखा, किन्तु वह अपना मुंह दूसरी तरफ फेर कर घोड़े को अस्तबल की ओर ले जा रहा था। तारचिक अपनी गरदन ऊपर उठा कर उसके पीछे पीछे अनमने भाव से घिसटता चला जा रहा था। . १६३
(6 " " गया ( मेरे कमरे में समीपवर्ती जागीर का कारिन्दा निकिता मिशचेको बैठा हुआ था। उसने भूरे रंग की छोटी वास्कट- -जिस पर कत्थई रंग की धारियां पड़ी हुई थीं- तंग नीली पतलून पीर भड़कीली टाई पहन रखी थी, अपने तेल से सने वालों के बीचोंबीच मांग निकाली हुई थी और उसके कपड़ों से " ईरानी इत्र" की खुशबू पा रही थी। मुझे देखते ही वह कुर्सी से उछल पड़ा और प्रणाम करने के लिए अपनी कमर दुहरी करके भुक गया। यह दांत निपोर कर मुस्करा रहा था, जिसमें उसके दोनों जबड़ों के पीले मसूड़े दिखायी दे रहे थे। " नमस्कार," प्रसन्न-भाव से उसने चहचहाना शुरू कर दिया । 'आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई। प्रार्थना समाप्त होने के बाद मैं यहां चला आया था और तब से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं। आपसे मिले मुद्दत गुजर गयी । आज मन में पाया--- चलो, लगे हाथों आपके दर्शन भी कर आऊं। क्या बात है, आजकल' आपने उस तरफ जाना बिलकुल छोड़ दिया। युवतियां आपको लेकर हंसी-मजाक करती हैं।" अचानक उसे कुछ याद आया और वह कहकहे लगाता हुआ हंसने लगा। आज बड़ा दिलचस्प तमाशा हुआ ... मैं तो हंसते-हंसते लोट-पोट हो हा-हा-हा !' हंसी के मारे वह बेहाल हुया जा रहा था। 'कैसा तमाशा ? बात खोल कर कहो !" मैंने उसे बीच में टोकते हुए पूछा और अपनी झुंझलाहट को छुपाने की कोई चेष्टा नहीं की। 'आज यहां प्रार्थना के बाद हो-हल्ला मच गया ।" हंसी के कारण उसके वाक्य बीच-बीच में टूट जाते थे । "पेरीनोद की कुछ लड़कियों ने... हा-हा-हा... क्या करू, हंसी के मारे वोला नहीं जा रहा ... हां, तो मैं कह रहा था कि आज पेरीलोद की कुछ लड़कियों ने मैदान में एक डायन को पकड़ लिया - मेरा कहने का मतलब है कि वे मूर्ख, गंवार औरतें उसे डायन समझ बैठीं। बस, फिर क्या था ! उन्होंने उसकी बुरी गत बना दी । अरे, वे तो उसका मह कोलतार से काला करने जा रही थीं, किन्तु वह उन्हें चकमा देकर भाग निकली ! उसके यह कहने की देर थी कि एक भयानक विचार मेरे मस्तिष्क में बिजली सा कौंध गया। मैं घबरा उठा और झपट कर उस क्लर्क का कंधा पकड़ लिया। 'क्या कह रहे हो ?" क्रोध में उबलता हुआ मैं जोर से चिल्ला उठा। "दांत क्यों फाड़ रहे हो ? जल्दी बताओ, डायन से तुम्हारा क्या मतलब है ? कौन सी डायन ? वह कौन थी ? तुम किस डायन की बात कर रहे हो ? ?" उसकी हंसी गायब हो गयी। भयभीत आंखों से मेरी ओर देखते हुए वह बोला, "मैं... मैं कुछ नहीं जानता हजूर ।" घबराहट के कारण वह हकलाने 11 (C १६४
लगा था। उसका नाम साम्यूलिखा या शायद मान्यूलिखा है-हां, याद आया, वह शायद मान्यूलिखा की बेटी है। उसके बारे में गांव वाले बात कर रहे थे, किन्तु अब मुझे कुछ याद नहीं रहा झूट नहीं बोल रहा हूं, हजूर !" जो कुछ उसने देखा-सुना था, उसका शुरू से प्रास्त्रीर तक पुरा विवरगा मैंने उसके मुंह मे सुन लिया। वह बड़े भोंड़े और बेढंगे रूप से सब बातें बतला रहा था। बटनाओं के तरतीव को वह बीच-बीच में गड़बड़ कर देता था, शुरू की बात अन्त में और अन्त की बात शुरू में कह डालता था। मैं खोद-खोद कर उससे प्रश्न पूछ रहा था और कभी-कभी तो उसके विवरण की असंगतियों को खकर इतना अधिक झंझला उठता था कि होठों तक गाली पाकर रुक जाती थी। उसके विवरण से मुझे बहुत कम बातें पता चल सकीं। दो महीने बाद लकड़हारे की पत्नी ने -जो प्रार्थना के समय भौजूद थी- मुझे पूरे विस्तार के संग उस घटना का ब्यौरा दिया था, जिसके आधार पर मैं इस दुर्घटना के सब पहलुओं के सम्बंध में समुचित रूप से जानकारी हासिल कर सका । अनिष्ट की वह आशंका, जो उस शाम अोलेस्या के जाने के बाद मेरे मन में उठी थी, आखिर सच निकली। ओलेस्या अपने भय पर काबू पाकर दूसरे दिन गिरजा घर में गयी थी। जब उसने गिरजा घर में प्रवेश किया, उस समय आधी प्रार्थना समाप्त हो चुकी थी। वह चुपचाप पीछे की पांत में आकर खड़ी हो गयी, किन्तु कुछ किसानों की नजर उस पर पड़ गयी। प्रार्थना के दौरान' में औरतें आपस में कानाफूसी कर रही थीं और पीछे मुड़-मुड़कर ओलेस्या को देखती जा रही थीं। इसके बावजूद प्रोलेस्या अपना सारा साहस बटोर कर प्रार्थना की समाप्ति तक गिरजे में खड़ी रही। कदाचित् वह उन औरतों की विद्वेष-पूर्ण निगाहों का अर्थ न समझ सकी, या शायद समझ कर भी अभिमान-वश उसने उन्हें नजर- अन्दाज कर दिया था। प्रार्थना समाप्त होने पर जव मोलेस्या गिरजे से बाहर आयी तो स्त्रियों के एक झुंड ने उसे घेर लिया और अांखें फाड़-फाड़ कर उसे देखने लगीं। प्रोलेल्या भयग्रस्त हिरनी की तरह असहाय मी उनके बीच खड़ी रही। उसी समय एक बवंडर सा उठ खड़ा हुग्रा। चारों ओर से प्रोलेस्या पर क्रूर कटाक्षों, कुत्सित पारोपों, गन्दी गालियों और हंसी के वीभत्स ठहाकों की बौछार होने लगी। औरतों का क्रोध क्षरण-प्रति-क्षरण बढ़ता गया और उन्होंने अपने व्यंग-बाणों से बेचारी अोलेस्या को छलनी सा कर दिया। चिल्लाती- चिंघाड़ती स्त्रियों के घेरे को तोड़ कर वाहर निकलने के लिए उसने अनेक विफल प्रयास किये, किन्तु हर बार उसे धक्के देकर बीच में ठेल दिया जाता था। "रांड का मुंह कोलतार से काला कर दो, तब इसकी अक्ल ठिकाने पाएगी !' एक बूड़ी स्त्री पीछे से चिल्लायी (यूक्रेन में कोलतार घृणा का सूचक समझा
जाता था। किमी लड़की को बदनाम और अपमानित करने के लिए इतना ही काफी था कि उसके घर के दरवाजे पर कोलतार लगा दिया जाय) । बुढ़िया का यह कहना था कि उसी समय कोलतार का कनस्तर और ब्रश आ पहुंचा। स्त्रियां शीघ्रता से इन चीजों को एक-दूसरे के हाथों में देने लगी ताकि जल्द-से- जल्द सोम्या का मह कोलतार से लेप दिया जाए । मोलेस्या से अव और अधिक न सहा गया। जुद्ध शेरनी की तरह वह पास खड़ी एक स्त्री पर झपट पड़ी और उसे नीचे गिरा दिया। फिर क्या था ! धूमे-मुक्के चलने लगे, धनकम धुक्के में अनेक स्त्रियां धरती पर लोटने लगीं। इसे एक विचित्र चमत्कार ही समझना चाहिए कि अोलेस्या अन्त में उन पागल स्त्रियों के चंगुल से निकलने में सफल हो गयी। बदहवास सी होकर वह सड़क पर भागने लगी, उसका रूमाल नीचे गिर गया, कपड़े फट गये, उबड़ी हुई थिगलियों के बाहर उसके शारीर का नंगा मांस झांकने लगा। पूरा एक जमघट मा लग गया। हंसी के ठहाकों, गालियों और अपमान जनक फिकरों के साथ- माय 37 पर पत्थरों की बौछार भी की जाने लगी । कुछ लोगों ने उसका पीछा भी किया, किन्तु कुछ दूर चलकर वे वापिस लौट आए । लगभग पचास फीट भागने के बाद अोलेस्या अचानक एक गयी और अपना पीला, खरोचों से भरा, खून से लथपथ चेहरा भीड़ की ओर मोड़ कर जोर से चिल्लायी, “तुम भी याद रखोगे ! एक दिन आयेगा जब रोते-रोते तुम्हारी आंखें फूट जायेंगी !" उसके अभिशाप का एक-एक शब्द मैदान में गूंज गया । लकड़हारे की पत्नी ने मुझे बतलाया कि प्रोलेस्या की धमकी में भविष्य वाणी का जहरीला सत्य ध्वनित हो रहा था। उसके प्रत्येक शब्द में ऐसी तीखी और प्रचण्ड घृणा भरी थी कि मैदान में खड़ा हर व्यक्ति किसी भावी-अनिष्ट की आशंका से भयानान्त हो गया, किन्तु दूसरे क्षण ही उन्होंने दुबारा मोलेस्या पर गालियों की बौछार करनी गुम्द कर दी । मैं एक बार पुनः इस बात को दुहरा दूं कि इस दुर्घटना का विस्तृत व्यौरा मुझे बाद में ही मालूम हुआ । मिशचैको की कहानी को अन्त तक सुनने की न तो मुझ में शक्ति ही रह गयी थी और न धैर्य ही । मैं हड़बड़ा कर ग्रागन की शोर दौड़ा । कदाचित अभी यमौला ने घोड़े की काठी-लगाम नहीं उतारी होगी, मैंने सोचा। क्लर्क से मैंने एक शब्द भी न कत्रा और वह हमा-बरका मा मुझे देवता रहा। मेरा अनुमान सही निकला -- यमाला भाजी तारचिका को खावें में ही बुमा रहा था। मैंने घोड़े पर लगाम डाली, काठी कसी और उसे जंगल' की और सरपट दौड़ाने लगा। प्रोलेस्या के घर पहुंचने के लिए मैंने लम्बा रास्ता चुना, ताकि शरावियों की भीड़ का दुबारा सामना न करना पड़े।
तेरह घोड़े को दौड़ाते हुए मेरे मस्तिष्क में जो विचार भनभना रहे थे उनका वर्णन असंभव है । कभी-कभी तो मैं यह भी भूल जाता था कि मैं कहां जा रहा हूं, क्यों जा रहा हूं। मुझे लग रहा था मानो मैं एक भयानक दुःस्वप्न देख रहा हूं-- एक विचित्र, अर्थहीन, अथाह भय के भंवर में फस गया हूं, केवल यह धुंधली सी चेतना शेष रह गयी है कि कहीं कुछ ऐसा अनर्थ हो गया है, जो अमिट और अमोचनीय है । न जाने क्यों मजमे के उस अंधे गायक की ये पंक्तियां घोड़े की टापों से ताल मिलाती हुई बार-बार मेरे मस्तिष्क में घूम जाती थीं : तुरुक लुटेरे टूट पड़े हो, जहन्नुमी बदली छायी ! मान्यूलिखा की झोपड़ी की ओर जाने वाली पगडंडी पर पहुंचते ही मैं तारन्चिक से नीचे उतर गया और उसकी लगाम पकड़ कर पैदल चलने लगा। काठी के नीचे लटकता हुआ कपड़ा और घोड़े के वे अंग जो जीन से ढके हुए थे, सफेद भाग में लतपथ हो रहे थे। इतनी प्रचण्ड गर्मी में घोड़ा दौड़ाने के कारण मेरे सिर की नाड़ियों में रक्त की पिचकारिया सी छूट रही थीं। मैंने घोड़े को जंगले से बांध दिया और सीधा मान्यूलिखा की झोपड़ी में घुस गया। 'अोलेस्या शायद यहां नहीं है !" यह विचार आते ही मैं डर से कांप गया। किन्तु एक क्षण बाद ही मैंने उसे पलंग पर लेटे पाया। वह तकिये पर सिर रखे दीवार की ओर मुंह मोड़कर लेटी थी। जब मैंने दरवाजा खोला तो उसने सिर मोड़कर मेरी ओर नहीं देखा, पहले की तरह दीवार की ओर मुंह किये पड़ी रही। पलंग के पास ही फर्श पर मान्यूलिखा बैठी थी। मुझे देखते ही वह उछल कर खड़ी हो गयी और जोर-जोर से मेरी ओर हाथ हिलाने लगी। "आ गये मुंह दिखाने ! नाश हो तुम्हारा !" दबे होठों से वह फुत्कार उठी और धीरे-धीरे मेरे निकट खिसक आयी। क्रोध में जलती उसकी फीकी, कठोर अांखें सीधी मुझ पर जम गयीं। "देख लिया ? तुम्हारे कारण हमारी जो दुरगत हुई, उससे तुम्हें शान्ति मिल गयी ?" 'देखो, दादी मां !” मैंने तनिक सख्त लहजे में कहा । "यह वक्त गड़े मुर्दे उखाड़ने का नहीं है । पहले यह बतायो अोलेस्या कैसी है ?" 'हिश ! धीरे बोलो। वह बेहोश पड़ी है। यह सब तुम्हारी कारस्तानी है । हम दोनों सुख-शान्ति से रहते थे। अगर तुम हमारे घरेलू मामलों में अपनी टांग न अड़ाते तो हमें आज यह दिन क्यों देखना पड़ता ? तुमने अपनी बेहूदा बातों से इस लड़की का सिर फिरा दिया, जिसका फल हम आज भुगत रहे हैं।
तुम्हें क्या दोष दूं, बेवकूफ तो मैं ही थी, जो आंखों पर पट्टी बांधे बैठी रही। पहले दिन जब तुम जोर-जबरदस्ती करके हमारे घर घुस आए थे, उसी दिन से मेरे मन में डर बैठ गया था। मैं जानती थी कि किसी न किसी दिन जरूर कोई विपत्ति हमारे ऊपर आएगी। सच बताओ, क्या तुमने ही उसे गिरजे में जाने के लिये नहीं फुसलाया ?" अचानक वह जोर से भभक उठी। क्रोध से उसका चेहरा विकृत हो आया। " हां, मैं तुम से पूछ रही हूं। तुम एक निठल्ले, आवारागर्द शख्स हो । बेशर्म कुत्ते ! तुमने ही उसे फुसलाया था! लोमड़ी की तरह बगले मत झांको, सच बताओ, उसे तुमने गिरजे में जाने के लिए क्यों कहा? 11 'दादी मां, में सौगन्ध खा कर कहता हूं कि मैंने उसे कभी गिरजे में जाने के लिए नहीं कहा । वह खुद जाना चाहती थी।" "हे भगवान !" उसने अपने हाथ मसलते हुए कहा । 'जब वह गिरजे से भागती हुई आयी तो उसकी शक्ल देखकर मुझे अपनी आंखों पर एकाएक विश्वास न हुआ। बुरा हाल था उसका । ब्लाऊज फटकर चिथड़ा-चिथड़ा हो गया था, रूमाल का कहीं पता न था। कभी रोती थी, कभी हंसती थी, मानो पागल हो गयी हो। फिर वह विस्तरे पर लेट गयी और रोते-रोते उसकी आंख लग गयी। उसे सोते देखकर मैंने चैन की सांस ली। मेरी अक्ल पर तो पत्थर पड़ गये है, तभी तो सोचने लगी कि सोकर उसका जी हल्का हो जाएगा। मैंने देखा कि उसका हाथ पलंग से नीचे लटक रहा है । 'हाथ उठाकर पलंग पर रख दूं. वरना अकड़ जायेगा।' मैंने सोचा। किन्तु उसके हाथ को छूते ही पता चला कि वह बुखार से जल रही है। एक घंटे तक वह बुखार में प्रलाप करती रही । उसकी बातों को सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आने लगता था। अभी अभी तो चुप हुई है। देख लिया अपनी करतूत का नतीजा ? तुम्हारे कारण, हां, सिर्फ तुम्हारे ही कारण उसकी यह दुरगत हुई है ।" क्षोभ और व्यथा की एक नयी लहर ने उसके स्वर को कुंठित कर दिया। अचानक वह फूट पड़ी। रोने के कारण उसका चेहरा विकृत और वीभत्स हो गया । उसके होठ के कोले फैलकर नीचे की ओर झुक पाए थे, उसके चेहरे की तनी हुई मांस-पेशियां कांप रही थीं, भौंहे ऊपर चढ़ गयी थी, माथे पर सलवटें उलझ गयीं थीं और आंखों से मटर के दानों से गोल-गोल आंसू टपाटप गिर रहे थे। वह हाथों से अपना सर पकड़ कर, कुहनियों को मेज पर टिकाए बैठी थी। उसका शरीर पत्ते की तरह कांप रहा था। "मेरी नन्ही बच्ची ...! मेरी प्यारी बच्ची मेरे तो भाग्य फूट गये..." वह जोर जोर से रिरियाने लगी। ! हाय १६८
16 "यह 'हाय-हाय' बन्द करो !” मैंने झिड़क कर उसे बीच में ही टोक दिया। "तुम उसे जगा डालोगी।' वह न्नुप हो गयी । किन्तु उसकी देह अब भी रह रह कर कांप उठती थी, चेहरे पर वही वीभत्स मुद्रा विराजमान थी और आंखों से पहले की तरह प्रांतू बह कर मेज पर टपकते जाते थे। इसी तरह लगभग दस मिनट बीत गये । मैं मान्यूलिखा के पास बैठा-बैठा अवसन्न-भाव से खिड़की के गीशे पर उड़ती हुई मक्खी की भनभनाहट का ऊवा, उकताया सा स्वर सुनता रहा । " दादी मां," अचानक अोलेस्पा कुछ बुदबुदाने लगी । उसका स्वर इतना धीमा था कि हमें वह मुश्किल से ही सुनायी दिया। "दादी-मां, यहां कौन बैठा है ?" मान्यूलिखा लड़खड़ाते कदमों से चल कर पलंग के पैताने पर बैठ गयी और सिसकने लगी। " मेरी बच्ची ! हाय मेरी बच्ची ! मेरे तो करम फूट गये कया करू? हम तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहे !" "दादी मां, चुप हो जायो !" अोलेस्या ने दयनीय भाव से अभ्यर्थना की। उसका स्वर एक गहरी व्यथा में डूबा था। मैं झिझकता हुअा अोलेस्या के पलंग के पास सरक आया । किसी बीमार व्यक्ति के सम्मुख अपने स्वस्थ शरीर के प्रति जो लज्जा उत्पन्न होती है, वहीं में भी महसूस कर रहा था। संकोच में गड़ा हुअा मैं बेवकूफ सा उसके सामने खड़ा रहा। "अोलेस्या, देखो, मैं हूं," मैंने धीमे स्वर से कहा। अभी सीधा गांव से पा रहा हूं। सुबह शहर चला गया था । कैसी तबियत है, प्रोलेस्या ?" अपना मुंह तकिये से उठाये बिना उसने अपनी बांह पीछे की ओर पसार दी, मानो वह हवा में कुछ टटोल रही हो। मैं उसका भाव समझ गया और उसका गर्म हाथ अपने दोनों हाथों में समेट लिया। दो बड़े-बड़े नीले दाग-एक कलाई के ऊपर और दूसरा कुहनी के ऊपर - -उसकी सफेद कोमल त्वचा पर चमक रहे थे । प्यारे.. प्रोलेस्या के शब्द बड़ी कठिनाई से बाहर निकल रहे थे । "मैं तुम्हें देखना चाहती हूं ... किन्तु देख नहीं पाती। उन्होंने मेरा चेहरा ... बिगाड़ दिया है। वही चेहरा- जो तुम्हें अच्छा लगता था। अच्छा लगता था न ? मुझे यह बात हमेशा सुख पहुंचाती थी। किन्तु अब अब तुम मुझे देखकर नफरत से नाक सिकोड़ लोगे ... इसीलिए ... मैं ... नहीं चाहती कि अव तुम मेरा मुंह कभी देखो ...।" "श्रोलेस्या, मुझे माफ कर दो।" मैंने झुक कर उसके कान में कहा । उसने बुखार में तपते अपने हाथ से मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया। " .
64 " 10 "कैसी बात करते हो प्यारे. क्या कभी ऐसे कहा जाता है ? तुम्हें इस तरह की बात सोचते हुए शर्म भी नहीं पाती ! क्या यह तुम्हारा दोष है ? मूर्ख तो मैं हूं जो अपने हाथों से यह आफत मोल ले ली। नहीं प्यारे, तुम नाहक अपने को दोष मत दो। 'अोलेस्या, एक बात कहूं ? किन्तु पहले वचन दो कि जो मैं कहूंगा, वह मानोगी ।" 'वचन देती हूं ... तुम्हारी बात सर प्रांग्खों पर ... 'मुझे डॉक्टर को बुलाने के लिए अपनी अनुमति दे दो। तुम चाहे उसकी बात न मानना. किन्तु तुम 'हां' कर दो। अगर तुम्हारा मन न हो तो मेरी खातिर ही सही .. 'मुझे अपनी चाल में फंसा लिया न? नहीं प्यारे ... मैं ऐसा नहीं कर सकती । मुझे अपना वचन वापिस लेने दो। अगर मैं मीत के किनारे भी बैठी हूं, तो भी डॉक्टर को अपने पास न फटकने दूंगी। किन्तु मुझे तो कोई बीमारी ही नहीं है --- बेकार डॉक्टर को बुलाने से क्या लाभ ? जरा डर गयी थी, और कोई बात नहीं है। रात तक ठीक हो जाऊगी। अगर ठीक न भी हुई, तो दादी घाटी के फूलों का सत या चाय में रसभरी घोल कर दे देंगी, उससे ठीक हो जाऊंगी। डॉक्टर आकर क्या करेगा ? तुम्हीं तो मेरे सबसे बड़े डॉक्टर हो । देखो, तुम्हारे यहां आने से ही मेरी पीड़ा कम हो गयी है। केवल मन में एक साध बाकी है, तुम्हें एक नजर देख लूं । लेकिन डर लगता है ... धीरे से मैंने उसका सिर तकिये से उठाया। बुखार में उसका चेहरा तप रहा था, काली आंखों में एक अस्वभाविक सी चमक थी, सूखे पपड़ाये होंठ कांप रहे थे। उसके चेहरे और गले पर चोट के लाल निशान उभर आये थे। आंखों के नीचे और माथे पर काले घाव दिखायी दे रहे थे। "मेरी ओर मत देखो। इस भवे चेहरे को देखकर क्या करोगे !" उसने याचना भरे स्वर में मुझो कहा और अपने हाथों से मेरी आंखों को बन्द करने की चेष्टा करने लगी। मेरा हृदय करणा से छलछला उठा । मैंने अपने होंठ उसके हाथ पर, जो कम्बल पर निर्जीव, निढाल सा पड़ा था, रख दिये और उसे अपने चुम्बनों से ढंक दिया । पहले जब कभी मैं उसके हाथों को चूमने लगता था, तो वह शरमा कर उन्हें खींच लेती थी। किन्तु अब उसने अपने हाथ को मेरे होठों से नहीं हटाया और दूसरे हाथ से वह धीरे-धीरे मेरे गाल सहलाने लगी। क्या तुम्हें सब पता चल गया ?" उसने दवे स्वर में मुझसे पूछा। मैंने 'हां' कह कर सिर हिला दिया। मिशचेन्को ने मुझे सब बातें नहीं बतायी थीं, किन्तु अोलेस्या के मुंह से उस दुर्घटना के सम्बंध में कुछ भी कहल- वाने से उसे कितनी पीड़ा पहुंचेगी, यह मैं जानता था। किन्तु उसके अपमान की बात याद आते ही मेरा खून खौलने लगा। "काश, उस वक्त मैं वहां मौजूद होता ! अगर मैं वहां होता तो ... तो..." मैं मुट्ठियां तान कर जोर-जोर से चिल्लाया। "ऐसा मत कहो। सब ठीक हो जायगा। क्रोध मत करो, प्यारे !" अोलेस्या ने विनीत भाव से मुझे बीच में ही टोक दिया। मेरा गला रुंध आया । सूत्रों से आंखें जलन लगीं। उसके कंधों में सिर छिपा कर मैं फफक-फफक कर रोने लगा। हिचकियों से मेरा सारा शरीर कांप उठता था। "तुम रो रहे हो?" उसका स्वर विस्मय, कहाणा और सहानुभूति से भर उठा ! "प्यारे, नाहक अपना जी छोटा न करो। अपने को पीड़ा देने से क्या लाभ ? हम दोनों को ये चन्द अाखिरी दिन हंसी-खुशी में बिता देने चाहिएं - तब हमें एक-दूसरे से बिदा लेने में दुःख नहीं होगा।" मैंने आश्चर्य में अपना सिर ऊपर उठाया। एक विचित्र सी आशंका ने मुझे पा दबोचा। 'आखिरी दिन ...आखिरी क्यों ? भला हम एक दूसरे से जुदा क्यों होंगे ?" कुछ देर तक अांखें मूंदे वह चुपचाप लेटी रही । "हमें जुदा होना ही पड़ेगा, वान्या !" उसके स्वर में संशय की कोई छाया नहीं थी। "हम ज्यादा दिन यहां नहीं ठहर सकते । जब मैं स्वस्य हो जाऊंगी तो हम यहां से चल पड़ेंगे । 'क्या तुम्हें किसी का डर है ?" "नहीं प्यारे वान्या, मैं अाज तक किसी से नहीं डरी और न कभी डरूगी। किन्तु हम लोगों को अपराध करने का मौका क्यों दें ? तुम्हें शायद मालूम नहीं- उन लोगों के व्यवहार ने मुझे इतना क्रुद्ध बना दिया था कि मैं गुस्से में उन्हें शाप दे बैठी । अब यदि उन पर कोई विपत्ति पड़ेगी, तो वे हमें ही दोष देंगे। मवेशी मरेंगे, तो हमारा दोष, कहीं आग लग जाय, तो हमारा दोप ! जरा-जरा सी बात पर वे हमें लाछित करेगे। क्यों, यह बात ठीक है न, दादी मां ?" उसने अपनी आवाज तनिक ऊंची करके कहा । " क्या कहा बेटी, मैं सुन नहीं सकी ?" मान्यूलिखा पास खिसक पायी, हथेली को गोल करके कान पर रख दिया और प्रश्नयुक्त दृष्टि से अोलेस्था की ओर देखने लगी। 'मैं कह रही थी दादी मां, कि अब गांव में जरा सी भी कोई बात हो जाए, दोष हमारे मत्थे ही मड़ा जायेगा।
" मैंने कहा। 'यह तो होगा ही बेटी। गरीबों पर तो उंगली सव ही उठाते हैं। ये मूर्ख हमें गान्ति मे थोड़े ही रहने देगे- कोई न कोई उपद्रव खड़ा करते रहेंगे। मुझे गांव में भी तो इसी तरह बाहर निकाला था [-याद नहीं ? मैंने एक खरदिमाग औरत को जरा सी धमकी दे दी। बात पायी-गयी हो गयी । संयोग- वश उसके बच्चे की मृत्यु हो गयी। भगवान जानता है, उसकी मृत्यु का मेरी धमकी से कोई सम्बंध नहीं था। लेकिन इतनी अक्ल कहां है उन लोगों में ? मार-मार कर मुझे गांव से बाहर खदेड़ कर ही दम लिया। नासपीट कहीं के ! उन्होंने मुझ पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिये । उन दिनों तुम दूध पीती बच्ची थी। 'मुझे चाहे कितने पत्थर मार लो. किन्तु बेचारी बच्ची ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?' मैंने मन-ही-मन सोचा। तुम नहीं जानती कि तुम्हें बचाने के लिए मुझे कितनी तकलीफ उठानी पड़ी। ये लोग सब-के-सब जंगली और बर्बर हैं-दया-धर्म तो इन्हें छू तक नहीं गया है। इनमें से हर आदमी को फांसी पर चढ़ा देना चाहिए, तब इन्हें पता चलेगा !'' 'किन्तु तुम जानोगी कहां ? कहीं भी तुम्हारे सगे-सम्बंधी नहीं हैं, जो तुम्हें आश्रय दे सके । इसके अलावा किसी नयी जगह पर घर बसाने के लिए काफी रुपया चाहिए। "कुछ न कुछ इन्तजाम हो ही जायेगा,' ओलेस्या ने मेरी आपत्तियों पर कोई ध्यान नहीं दिया। "दादी मां ने जरूर कुछ धन जोड़ा होगा। इसी दिन के लिए तो वह काम पायेगा।" उसे तुम धन कहती हो ?" मान्यूलिखा का स्वर कटुता से भर गया। वह अोलेस्या के पलंग से उठ कर वापिस अपनी जगह जा बैटी । “धन-वन कुछ नहीं है बेटी, प्रांमुअों से भीगे हुए मुट्ठी भर कोपेक हैं, वही हमारी सम्पत्ति है, हमारा सर्वस्व है। "अोलेस्था, तुम्हें मेरी कोई चिन्ता नहीं। तुमने यह कभी नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना क्या करूंगा ?" यह क्रूर और कटु उलाहना मेरे मुंह में अनायास निकल गया। वह बिस्तर पर बैठ गयी। मान्यूलिखा की उपस्थिति की कोई चिन्ता किये बिना उसने मेरा सर अपनी बांहों में घेर लिया और मेरे माथे और गालों को बार-बार चूमने लगी। "प्यारे, सब से भारी चिन्ता तो तुम्हारी है । किन्तु भाग्य ने हमारे रास्ते एक-दूसरे से अलग कर रखे हैं, जो शायद कभी न मिल सकेंगे। याद है, मैने तुम्हारे भाग्य के नाम पर ताश के पत्ते खोले थे ? जैसा उन्होंने मुझे बताया था, हु-ब-हू वही बातें एक के बाद एक सच होती गयीं। हमारे भाग्य में यह नहीं "
लिखा है कि एक-दूसरे के संग रहकर हम सुखी हो सकें। क्या तुम नहीं जानते कि यदि मुझे इसका बोध न होता तो भला मैं किसी से डरने वाली थी ?" "तुम फिर भाग्य का पचड़ा ले बैठी !" मैं अपना धैर्य खो बैठा । " मैंने न कभी भाग्य पर विश्वास किया है, और न कभी करूगा !" "देखो, मैं हाथ जोड़ती हूं, ऐसे अपशब्द मुंह से न निकालो !" उसने धीरे से बुदबुदाते हुए कहा । " मुझे अपनी चिन्ता नहीं है, तुम्हारे ऊपर कोई संकट न पा जाए, इसकी आशंका हर दम बनी रहती है । खैर, छोड़ो अब इस बात को।" मैंने उसे बहुतेरा समझाया-बुझाया, किन्तु उसने मेरी एक न सुनी । मैंने उसे विश्वास दिलाया कि भाग्य अथवा निर्दयी व्यक्तियों की क्रूरता से हमारा बाल भी बांका न होगा, पर वह मेरी बातों को न सुनकर केवल सिर हिलाती जाती थी और बार-बार मेरे हाथों को चूमती जाती थी। "नहीं, मैं सब जानती हूं। हमें दुःख के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा।" बह अपनी बात पर अड़ी रही । अंधविश्वासों के कारण उसके मन में जो भय और वहम उत्पन्न हो गया था, उसे देखकर मैं स्तम्भित सा रह गया। 'क्या तुम मुझे यह नहीं बताप्रोगी कि तुमने कौन से दिन जाने का निश्चय किया है ?" हताश होकर मैंने उससे पूछा । वह कुछ चिन्ता-मग्न सी हो गयी । कुछ देर बाद एक फीकी-सी मुस्करा- इट उसके होठों पर खिंच आयी । "मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुनाने जा रही हूं। एक दिन जंगल में एक भेड़िये ने खरगोश को देखा। मैं तुम्हें अभी खा जाऊंगा भेडिये ने सरगोश से कहा। 'मुझे प्राण-दान दीजिए, मैं जीवन भर आपका कृतज्ञ रहूंगा। मैं जिन्दा रहना चाहता हूं। मेरे बच्चे घर पर मेरा इंतजार कर रहे होंगे।' खरगोश ने गिड़गिड़ा कर याचना की। किन्तु भेड़िये ने उसकी एक न सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा । 'अन्छा, मुझे तीन दिन की मुहलत दे दीजिए, उसके बाद आप मुझे खुशी से खा लीजियेगा ।' खरगोश ने कहा । भेड़िये ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तीन दिन तक वह खरगोश पर अपनी निगरानी रखता रहा । पहला दिन बीता, दूसरा दिन पाया और आखिर तीसरे दिन भेड़िये ने खरगोश को बुलाकर कहा : 'अब तुम मरने के लिए तैयार हो जायो। मैं तुम्हें खानेवाला हूं !' भेड़िये की यह बात सुनकर खरगोश फूट-फूटकर रोने लगा। 'तुम्हें मुझे एकदम खा लेना चाहिए था । ये तीन दिन तक कितनी भारी यातना सहकर मैंने गुजारे हैं, वह केवल मैं ही जानता हूं।
शायद यह यातना मृत्यु से भी अधिक भयंकर थी।' प्यारे, तुम इस बात को तो मानोगे कि खरगोश की बात में एक बहुत बड़ा सत्य छिपा था ?" मैं कुछ नहीं बोला। अोलेस्या के बिना मेरा जीवन कितना सूना और एकाकी रह जायगा, इसकी सिर्फ कल्पना करने से ही मन उदास हो गया था। अोलेस्या पलंग पर बैठ गयी । वह बहुत गम्भीर दिखायी दे रही थी। "वान्या, एक बात पूर्छ ?" उसने कहा । " क्या तुम्हें इन क्षणों में ----- जब हम एक-दूसरे के संग होते थे - कभी सुक्ष मिला था ?" "श्रोलेस्या, यह कैसा प्रश्न है ?" "जरा ठहरो। क्या तुम्हें कभी यह सोचकर दुःख हुआ था कि तुम मुझ से मिले ही क्यों ? मेरे संग रहते हुए तुमने कभी किसी अन्य स्त्री का प्रभाव महसूस किया था ?" 'एक पल के लिए भी नहीं । न केवल तुम्हारे संग, बल्कि जब मैं अकेला होता था, तो भी मैं किसी और की बात नहीं सोच पाता था- सिवाय " तुम्हारे । 11 'क्या कभी तुमने मेरे प्रति द्वेप-भावना महसूस की है ? क्या तुमने मेरी किसी बात को कभी नापसंद किया है ? क्या कभी तुम मेरे संसर्ग से ऊबे हो ?" "कभी नहीं, प्रोलेस्या !" उसने अपने हाथ मेरे कंधों पर रख दिये । वह मेरी आंखों को देख रही थी-अपनी उन आखों मे. जिनमें अनिर्वचनीय प्यार भरा था। 'अब मुझे पक्का विश्वास हो गया कि कभी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति क्रोध अपवा रोप की भावना उत्पन्न नहीं होगी।" उसने ऐसे दृढ़ और असंदिग्ध स्वर में कहा मानो वह मेरा भविष्य मेरी अांखों में पढ़ रही हो । "मुझ से जुदा होने के बाद तृम कुछ दिनों तक बहुत उदाम रहोगे, तुम्हें अपना दुःख असह्य लगेगा। तुम रोप्रोगे, असू बहाओगे, फिर भी तुम्हारी आत्मा को शान्ति नह मिलेगी। किन्तु कुछ समय बाद मेरी स्मृति धुंधली होती जायगी और तुम मुझे धीरे-धीरे भूलने लगोगे। फिर एक ऐसा समय भी आयेगा जब तुम कोई दुःब महसूस किये बिना मुझे याद कर सकोगे और मेरी स्मृति तुम्हारे हृदय में हल्की सी खुशी भर देगी। उसने अपना सिर नीचे झुकाकर तकिये पर टिका लिया । 'अब तुम जानो, प्यारे,” उसने धीमे स्वर में कहा । "अपने घर लौट जायो । मैं जरा थक गयी हूं। जरा ठहरो, जाने से पह ने एक बार मुझे चूमोगे नहीं ? यहां ... पास आया। घबरानो नहीं, दादी मां कुछ न कहेंगी। क्यों दादी मां, तुम बुरा तो नहीं मानोगी ?" १७४
"अच्छा, अच्छा अच्छी तरह से विदा ले लो, मुझे भला क्यों एत- राज होने लगा ? मुझ से छिपाने से क्या लाभ ? मैं तो बहुत दिनों से जानती थी!" दादी ने कहा। "यहां चूमो, यहां, पीर यहां . " ओलेस्या अंगुली से अपनी अांखों, गालों और मुंह की ओर इशारा कर रही थी। "शोलेस्या, तुम तो मुझ से ऐसे, विदा ले रही हो जैसे तुम मुझ से अन्तिम वार मिल रही हो और फिर कभी मिलोगी ही नहीं !" मैं भोलेस्या के विचित्र व्यवहार को देखकर भयभीत सा हो गया था। "प्यारे, मैं नहीं जानती । मैं कुछ नहीं जानती। अच्छा, अब तुम शान्ति से घर लौट सकते हो। किन्तु नहीं .. एक पल ठहरो! जरा सुनो। जानते हो मैं किसलिए दुखी हूं ?" उमने बहुत ही हौले से कहा ! 'मैं तुम्हारे बच्चे की मां न बन सकी। काश, यदि ऐसा हो पाता... मैं मान्यूलिखा के संग झोपड़ी से बाहर शा गया। पर देखा --- प्राधे अाकाश को कटे-फटे किनारों वाले एक विशालकायू बादल ने घेर लिया था, किन्तु पश्चिम में डूबता हुआ सूर्य अब भी चमक रहा था । घिरता अंधकार, बुझी-बुझी सी धूप, आलोक और अंधकार का उदास, विपादपूर्ण मा भेल ... लगता था गानो इस शान्ति के पीछे एक बहुत ही भयावह और इरावनी छाया छिपी है। बुढ़िया ने प्रांग्वों पर हाथ की छाया देकर अाकाश की ओर देखा और भेदभरी मुद्रा में सिर हिलाने लगी। 'आज पेरीबोद पर मूसलाधार बारिश पड़ेगी।" उसने विश्वास के साथ कहा । "ओले भी पड़ सकते हैं । ईश्वर ही बचाए !" 12 चौदह पेरीबोद पहुंचते देर न हुई कि हवा का तूफानी झक्कड़ चल पड़ा । धूल के बादल सड़क पर उड़ने लगे। बारिश की पहली बौछार के भारी थपड़ो से धरती सिहरने लगी। मान्यूलिखा का अनुमान सही निवाला । गर्मी के उस झुलसतै-उमसते दिन सुबह से आकाश में जो श्यामल मेघ घिरते रहे थे, शाम होते ही वे अचानक पेरीबोद पर पूरे गर्जन-तर्जन के संग फट पड़े। आकाश बार-बार बिजली से चमक उठना था । बादलों की कर्णभेदी गड़गड़ाहट मेरे कमरे की खिड़कियों को झनझना जाती थी। रात के पाठ बजे के करीब तूफान की प्रचण्डता तनिक कम हुई। किन्तु कुछ देर बाद वह नये जोश खरोश के साथ चलने लगा। अचानक मेरे पुराने घर की छत और दीवारों को कोई जोर जोर से खटखटाने
लगा । मैं कारण जानने के लिए खिड़की की ओर भागा । अखरोटों जितने बड़े- बड़े प्रोले धरती से टकरा कर ऊपर की ओर उछल रहे थे। मेरे घर के सामने ही शहतूत का वृक्ष नंगी शाखाएं फैलाए खड़ा था। अोलों की तेज बौछार से उसके सारे पत्ते एक-एक करके झड़ गये थे। यर्मोला की काली छाया नीचे दिखलायी दी। वह रसोई से बाहर निकल कर खिड़कियां बन्द कर रहा था। ओलों से अपने को बचाने के लिए उसने कोट से अपने सिर और कंधों को ढक लिया था। किन्तु यर्मोला देर से आया था। बर्फ के एक बड़े लोंदे के भयंकर आघात से खिड़की के शीशे टूटकर चूर-चूर हो गये थे और उसके कुछ टुकड़े मेरे कमरे के फर्श पर बिखर आए थे। थकान के मारे मेरा सारा शरीर टूट रहा था। कमरे में घुसते ही बिना कपड़े उतारे मैं पलंग पर लेट गया। मुझे मालूम था कि मैं सो नहीं सकूँगा। बेचैनी से सारी रात बिस्तर पर करवटें लेते हुए बिता दूंगा। मैंने यह सोचकर अपने कपड़े भी नहीं उतारे कि रात को नींद न आने पर मैं समय काटने के लिए कमरे में चहल कदमी करता रहूंगा। किन्तु एक बड़ी विचित्र बात हुई । मैंने क्षण भर के लिए ही आस मूंदी होंगी, किन्तु जागने पर देखा कि खिड़की पर सूरज की किरणें चमक रही है और धूल के अनगिनत सुनहरे करण धूप में झिलमिला रहे हैं। यर्मोला मेरे सिरहाने खड़ा था। वह शायद काफी देर से बड़ी अधीरता से मेरे जागने की प्रतीक्षा कर रहा था। उसका चेहरा एक गहरी चिन्ता में डूबा था। 1 " "हज़र," उसने संत्रस्त भाव से कहा । " हजूर, आपको यहां से फौरन चल देना चाहिए। मैंने अपने पांव पलंग से नीचे रख दिये और चकित-मुद्रा में उसकी ओर देखने लगा। चला जाऊ? कहां चला जाऊं ? क्यों ? यर्मोला, तुम्हारे होश-हवास तो ठीक है ? "हा, बिलकुल ठीक है हजूर," वह कोध में गुर्राया । "आपको मालूम है, कल रात अोलों ने कितना नुकसान किया ? आधी से ज्यादा फसल बिलकुल बरवाद हो गयी है - देखकर लगता है मानो कोई उसे रौंदकर चला गया है। कानामैक्सिम, कोजयोल, मुट, प्रोकोपयुक्त, गोर्डी अोल फिर - कोई ऐसा किसान नहीं है जिसकी फसल बची रह गयी हो । आखिर यह उस बदमाश डायन की ही तो कारस्तानी है ! भगवान करे, उसका सत्यानास हो !' अचानक मुझे पिछले दिन की घटना स्मरण हो आयी। अोलेस्या ने कल गिरजे के पास जो धमकी दी थी, यर्मोला का संकेत उसी ओर था।
" गांव वाले गुस्से में पागल हो रहे हैं," यर्मोला ने कहा । " सुबह से वे शराब पी रहे हैं और नशे में धुत होकर जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं। हजूर, उन्होंने आपके बारे में भी कुछ बुरी-भली बातें कही हैं। हमारे गांव के लोगों को तो आप जानते ही हैं। डायनों को वे जो भी सजा दें, अच्छा है। किन्तु इससे पहले कि वे आपके ऊपर अंगुली उठाएं, आपको यहां से जल्द से जल्द चल देना चाहिए।" प्रोलेस्या का भय आखिर निराधार नहीं था। उसे और मान्यूलिखा को इस खतरे की चेतावनी मुझे तुरन्त दे देनी चाहिए, वरना न जाने गांव के ये लोग क्या कर बैठे? मैंने शीघ्रता से कपड़े पहने, मुंह पर पानी छिड़क लिया और आध घंटे बाद तेजी से घोड़ा दौड़ाता हुआ 'पिशाच-कुटी' की ओर चल पड़ा। ज्यों ज्यों झोपड़ी निकट आने लगी, मेरा दिल एक अनिश्चित भय और चिन्ता से धड़कने लगा। मुझे लग रहा था मानो कोई नया, अप्रत्याशित दुख का पहाड़ मुझ पर गिरने वाला है। रेतीली ढलान पर उतरता हुआ मैं भागने लगा और झोपड़ी तक पहुंचकर ही दम लिया। झोपड़ी की खिड़कियां खुली हुई थीं और अधखुले दरवाजे से उसके भीतर का भाग दिखायी दे रहा था । "हे भगवान, यह मैं क्या देख रहा हूं !" मैं धीरे से बुदबुदाया। मेरा दिल डूबने लगा। झोपड़ी खाली पड़ी थी। भीतर के कमरे में कूड़ा-कचरा बिखरा हुआ था, जिसे देखकर लगता था मानो उन्हें अचानक -बहुत जल्दी में-वहां से प्रस्थान करना पड़ा था। फर्श पर फटे चीथड़ों का ढेर लगा था। लकड़ी का पलंग एक कोने में खड़ा हुआ था। मेरा दिल भारी हो गया। प्रांसू उमड़ उमड़ कर आने लगे । झोपड़ी से बाहर जाने ही वाला था कि मेरी आंखें अचानक एक चमकीली सी चीज पर जा पड़ी, जो खिड़की के एक कोने से लटक रही थी। लगता था मानो उसे जानबूझ कर वहां लटकाया गया हो। वह सस्ते लाल दानों की एक माला थी। पोलेस्ये में ये दाने " मूंगा" कहलाते थे। ओलेल्या और उसके कोमल, उदार प्रेम की जो एकमात्र निशानी मेरे पास बची रह गयी, वह थी यह लाल मूगों की माला .|