श्रीविष्णुपुराण - तृतीय अंश - अध्याय ११
सगर बोले -
हे मुने ! मैं गृहस्थके सदाचारोंको सुनना चाहता हूँ, जिनका आचरण करनेसे वह इहलोक और परलोक दोनों जगह पतित नहीं होता ॥१॥
और्व बोले -
हे पृथिवीपाल ! तुम सदाचारके लक्षण सुनो । सदाचारी पुरुष, इहलोक और परलोक दोनोंहीको जीत लेता है ॥२॥
'सत्' शब्दका अर्थ साधु है और साधु वही है जो दोषरहित हो । उस साधु पुरुषका जो आचरण होता है उसेको सदाचार कहते हैं ॥३॥
हे राजन् ! इस सदाचारके वक्ता और कर्ता सप्तर्षिगण, मनु एवं प्रजापति हैं ॥४॥
हे नॄप ! बुद्धिमान, पुरुष स्वस्थ चित्तसे ब्राह्ममुहुर्तमें जगकर अपने धर्म और धर्मविरोधी अर्थका चिन्तन करे ॥५॥
तथा जिसमें धर्म और अर्थकी क्षति न हो ऐसे कामका भी चिन्तन करे । इस प्रकार दृष्ट और अदृष्ट अनिष्टकी निवृत्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गके प्रति समान भाव रखना चाहिये ॥६॥
हे नृप ! धर्मविरुद्ध अर्थ और काम दोनोंका त्याग कर दे तथा ऐसे धर्मका भी आचरण न करे जो उत्तरकालमें दुःखमय अथवा समाज - विरुद्ध हो ॥७॥
हे नरेश्वर ! तदनन्तर ब्राह्ममूहूर्तमें उठकर प्रथम मूत्रत्याग करे । ग्रामसे नौऋत्यकोणमें जितनी दूर बाण जा सकता है उससे आगे बढ़कर अथवा अपने निवास स्थानसे दूर जाकर मल-मुत्र त्याग करे । पैर धोया हुआ और जुठा जल अपने घरके आँगनमें न डाले ॥८-१०॥
अपनी या वृक्षकी छायाके ऊपर तथा गौ, सूर्य, अग्नि, वायु, गुरु, और द्विजातीय पुरुषके सामने बुद्धिमान, पुरुष कभी मल-मुलत्याग न करे ॥११॥
इसी प्रकार हे पुरुषर्षभ ! जुते हुए खेतमें, सत्यसम्पन्न भूमिमें, गौओंके गोष्ठमें, जन समाजमें, मार्गके बीचमें, नदी आदि तीर्थस्थानोंमे, जल अथवा जलाशयके तटपर और श्मशानमें भी कभी मल - मूत्रका त्याग न करे ॥१२-१३॥
हे राजन् ! कोई विशेष आपत्ति न हो तो प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि दिनके समय उत्तर मुख और रात्रिके समय दक्षिण - मुख होकर मूत्रत्याग करे ॥१४॥
मल - त्यागके समय पृथिवीको तिनकोंसे और सिरको वस्त्रसे ढाँप ले तथा उस स्थानपर अधिक समयतक न रहे और न कुछ बोले ही ॥१५॥
हे राजन् ! बाँबीकी, चूहोंद्वारा बिलसे निकाली हुई, जलके भीतरकी, शौचकर्मसे बची हुई, घरके लीपनकी, चींटी आदि छोटे-छोटे जीवोंद्वारा निकली हुई और हलसे उखाडी़ हुई - इन सब प्रकारकी मृत्तिकाओंका शौच उखाड़ी हुई - इन सब प्रकारकी मॄत्तिकाओंका शौच कर्ममें उपयोग न करे ॥१६-१७॥
हे नृप ! लिंगमें एक बार, गुदामें तीन बार, बायें हाथमें दस बार और दोनों हाथोंमें सात बार मृत्तिका लगानेसे शौच सम्पन्न होता है ॥१८॥
तदनन्तर गन्ध और फेनरहित स्वच्छ जलसे आचमन करे । तथा फिर सावधानतापूर्वक बहुत - सी मृत्तिका ले ॥१९॥
उससे चरण - शुद्धि करनेके अनन्तर फिर पैर धोकर तीन बार कुल्ला करे और दो बार मुख धोवे ॥२०॥
तत्पश्चात् जल लेकर शिरोदेशमें स्थित इन्द्रियरन्ध्र, मुर्द्धा, बाहु, नाभि और हृदयको स्पर्श करे ॥२१॥
फिर भली प्रकार स्नान करनेके अनन्तर केश सँवारे और दर्पण, अत्र्जन तथा दुर्वा आदि मांगलिक द्रव्योंका यथाविधि व्यवहार करे ॥२२॥
तदनन्तर हे पृथिवीपते ! अपने वर्णधर्मके अनुसार आजीविकाके लिये धनोपार्जन करे और श्रद्धापूर्वक यज्ञानुष्ठान करे ॥२३॥
सोमसंस्था, हविस्संस्था और पाकसंस्था - इन सब धर्म-कर्मोका आधार धन ही है ।* अतः मनुष्योंको धनोपार्जनका यत्न करना चाहिये ॥२४॥
नित्यकर्मोंके सम्पादनके लिये नदी, नद, तडाग, देवालयोंकी बावड़ी और पर्वतीय झरनोंमें स्नान करना चाहिये ॥२५॥
अथवा कुँएसे जल खींचकर उसके पासकी भूमिपर स्नान करे और यदि वहाँ भूमिपर स्नान करना सम्भव न हो तो कुँएसे खींचकर लाये हुए जलसे घरहीमें नहा ले ॥२६॥
स्नान करनेके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर देवता, ऋषिगण और पितृगणका उन्हींके तीर्थसे तर्पण करे ॥२७॥
देवता और ऋषियोंके तर्पणके लिये तीन - तीन बार तथा प्रजापतिके लिये एक बार जल छोड़े ॥२८॥
हे पृथिवीपते ! पित्रुगण और पितामहोंकी प्रसन्नताके लिये तीन बार जल छोड़े तथा इसी प्रकार प्रपितामहोंको भी सन्तुष्ट करे एवं मातामह ( नाना ) और उनके पिता तथा उनके पिताको भी सावधानतापूर्वक पितृ-तीर्थसे जलदान करे । अब काम्य तर्पणका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो ॥२९-३०॥
'यह जल माताके लिये हो, यह प्रमाताके लिये हो, यह वृद्धाप्रमाताके लिये हो, यह गुरुपत्नीको, यह गुरुको, यह मामाको, यह प्रिय मित्रको तथा यह राजाको प्राप्त हो - हे राजन् ! यह जपता हुआ समस्त भूतोंके हितके लिये देवादितर्पण करके अपनी इच्छानुसार अभिलषित सम्बन्धीके लिये जलदान करे' ॥३१-३२॥
( देवादितर्पणके समय इस प्रकार कहे - ) देव , असुर, यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्याक, सिद्ध, कूष्माण्ड, पशु, पक्षी, जलचर, स्थलचर और वायु-भक्षक आदि सभी प्रकारके जीव मेरे दिये हुए इस जलसे तृप्त हों ॥३३-३४॥
जो प्राणी सम्पूर्ण नरकोंमें नाना प्रकारकी यातनाएँ भोग रहे हैं उनकी तृप्तीके लिये मैं यह जलदान करता हूँ ॥३५॥
जो मेरे बन्धु अथवा अबन्धु हैं, तथा जो अन्य जन्मोंमें मेरे बन्धु थे एवं और भी जो-जो मुझसे जलकी इच्छा रखनेवाले हैं वे सब मेरे दिये हुए जलसे परितृप्त हों ॥३६॥
क्षुधा और तृष्णासे व्याकुल जीव कहीं भी क्यों न हों मेरा दिया हुआ यह तिलोदक उनको तृप्ति प्रदान करे' ॥३७॥
हे नॄप ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह काम्यतर्पणका निरूपण किया, जिसके करनेसे मनुष्य सकल संसारको तृप्त कर देता है और हे अनघ ! इससे उसे जगत्की तृप्तिसे होनेवाला पुण्य प्राप्त होता हैं ॥३८॥
इस प्रकार उपरोक्त जीवोंका श्रद्धापूर्वक काम्यजलदान करनेके अनन्तर जीवोंको आचमन करे और फिर सूर्यदेवको जलज्जलि दे ॥३९॥
( उस समय इस प्रकार कहे - ) 'भगवान विवस्वान्को नमस्कार है जो वेद-वेद्य और विष्णुके तेजस्स्वरूप है तथा जगत्को उप्तन्न करनेवाले, अति पवित्र एवं कर्मोके साक्षी हैं' ॥४०॥
तदनन्तर जलाभिषेक और पुष्प तथा धूपादि निवेदन करता हुआ गृहदेव और इष्टदेवका पूजन करे ॥४१॥
हे नॄप ! फिर अपूर्व अग्निहोत्र करे, उसमें पहले ब्रह्माको और तदनन्तर क्रमशः प्रजापति, गुह्ना, काश्यप और अनुमतिको आदरपूर्वक आहुतियाँ दे ॥४२-४३॥
उससे बचे हुए हव्यको पृथिवी और मेघके उद्देश्यसे उदकपात्रमें , ** धाता और विधाताके उद्देश्यसे द्वारके दोनों ओर तथा ब्रह्माके उद्देश्यसे घरके मध्यमें छोड़ दे । हे पुरुषव्याघ्र ! अब मैं दिक्पालगणकी पूजाका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो ॥४४-४५॥
बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओंमें क्रमशः इन्द्र, यम, वरुण और चन्द्रमाके लिये हुताशिष्ट सामग्रीसे बलि प्रदान करे ॥४६॥
पूर्व और उत्तर दिशाओंमें धन्वन्तरिके लिये बलि दे तथा इसके अनन्तर बलिवैश्वदेव - कर्म करे ॥४७॥
बलिवैश्वदेवके समय वायव्यकोणमें वायुको तथा अन्य समस्त दिशाओंमें वायु एवं उन दिशाओंको बलि दे, इसी प्रकार ब्रह्मा, अन्तरिक्ष और सूर्यको भी उनकी दिशाओंके अनुसार ( अर्थात् मध्यमें ) बलि प्रदान करे ॥४८॥
फिर हे नरेश्वर ! विश्वेदेवों, विश्वभूतों, विश्वपतियों, पितरों और यक्षोंके उद्देश्यसे ( यथास्थान ) बलि दान करे ॥४९॥
तदनन्तर बुद्धिमान, व्यक्ति और अन्न लेकर पवित्र पृथिवीपर समाहित चित्तसे बैठकर स्वेच्छानुसार समस्त प्राणियोंको बलि प्रदान करे ॥५०॥
( उस समय इस प्रकार कहे - ) 'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा और भी भी चींटी आदि कीट-पतंग ओ अपने कर्मबन्धनसे बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्नकी इच्छा करते है, उन सबके लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ । वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों ॥५१-५२॥
जिनके माता, पिता अथवा कोई और बन्धु नहीं हैं तथा अन्न प्रस्तुत करनेका साधन और अन्न भी नहीं है उनकी तृप्तीके लिये पृथिवीपर मैंने यह अन्न रखा है; वे इससे तृप्त होकर आनन्दित हों ॥५३॥
सम्पूर्ण प्राणी, यह अन्न और मैं - सभी विष्णु है; क्योंकी उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं । अतः मैं समस्त भूतोका शरीररूप यह अन्न उनके पोषणके लिये दान करता हुँ ॥५४॥
यह जो चौदह प्रकारका *** भूतसमुदाय है उसमें जितने भी प्राणिगण अवस्थित हैं उन सबकी तृप्तिके लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है; वे इससे प्रसन्न हों' ॥५५॥
इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवोंके उपकारके लिये पृथिवीमें अन्नदान करे, क्योंकी गृहस्थ ही सबका आश्रय है ॥५६॥
हे नरेश्वर ! तदनन्तर कुत्ता, चाण्डाल, पक्षिगण तथा और भी जो कोई पतित एवं पुत्रहीन पुरुष हों उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीमें बलिभाग रखे ॥५७॥
फिर गो-दोहनकलपर्यंन्त अथवा इच्छानुसार इससे भी कुछ अधिक देर अतिथि ग्रहण करनेके लिये घरके आँगनमें रहे ॥५८॥
यदि अतिथि आ जाय तो उसका स्वागतादिसे तथा आसन देकर और चरण धोकर सत्कार करे ॥५९॥
फिर श्रद्धापूर्वक भोजन कराकर मधुर वाणीसे प्रश्नोत्तर करके तथा उसके जानेके समय पीछे-पीछे जाकर उसको प्रसन्न करे ॥६०॥
जिसके कुल और नामका कोई पता न हो तथा अन्य देशसे आया हो उसी अतिथीका सत्कार करे, अपने ही गाँवमें रहनेवाले पुरुषकी अतिथिरूपसे पूजा करनी उचित नहीं है ॥६१॥
जिसके पास कोई सामग्री न हो, जिससे कोई सम्बन्ध न हो, जिसके कुल - शीलका कोई पता न हो और जो भोजन करना चाहता हो उस अतिथिका सत्कार किये बिना भोजन करनेसे मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होता है ॥६२॥
गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि आये हु अतिथिके अध्ययन, गोत्र, आचरण और कुल आदिके विषयमें कुछ भी न पूछकर हिरण्यगर्भ - बुद्धिसे उसकी पूजा करे ॥६३॥
ने नॄप ! अतिथी - सत्कारके अनन्तर अपने ही देशके एक और पात्र्चयज्ञिक ब्राह्मणको जिसको आचार और कुल आदिका ज्ञान हो पितृगणके लिये भोजन करावे ॥६४॥
हे भूपाल ! ( मनुष्ययज्ञकी विधिसे ' मनुष्येभ्यो हन्त ' इत्यादि मन्त्नोच्चारणपूर्वक ) पहले ही निकालकर अलग रखे हुए हन्तकार नामक अन्नसे उस श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन करावे ॥६५॥
इस प्रकार ( देवता, अतिथि और ब्राह्मणको ) ये तीन भिक्षाएँ देकर, यदि सामर्थ्य हो तो परिव्राजक और ब्रह्माचारियोंकी भी बिना लौटाये हुए इच्छानुसार भिक्षा दे ॥६६॥
तीन पहले तथा भिक्षुगण - ये चारों अतिथि कहलाते हैं । हे राजन् ! इन चारोंका पूजन करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥६७॥
जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है उसे वह अपने पाप देकर उसके शुभकर्मोको ले जाता है ॥६८॥
हे नरेश्वर ! धाता, प्रजापति, इन्द्र अग्नि वसुगण और अर्यमा ये समस्त देवगण अतिथिमें प्रविष्ट होकर अन्न भोजन करते हैं ॥६९॥
अतः मनुष्यको अतिथि पूजाके लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये । जो पुरुष अतिथिके बिना भोजन करता है वह तो केवल पाप ही भोग करता है ॥७०॥
तदनन्तर गृहस्थ पुरुष पितृगृहमें रहनेवाली विवाहिता कन्या, दुखिया और गर्भिणी स्त्री तथा वृद्ध और बालकोंको संस्कृत अन्नसे भोजन कराकर अन्तमें स्वयं भोजन करे ॥७१॥
इन सबको भोजन कराये बिना जो स्वयं भोजन कर लेता है वह पापमय भोजन करता है और अन्तमें मरकर नरकमें श्लेष्मभोजी कीट होता है ॥७२॥
जो व्यक्ति स्नान किये बिना भोजन करता है वह मल भक्षण करता है , जप किये बिना भोजन करनेवाला रक्त और पूय पान करता है, संस्कारहीन अन्न खानेवाला मुत्र पान करता है तथा जो बालक वृद्ध आदिसे पहले आहार करता है वह विष्ठाहारी है । इसी प्रकार बिना होम किये भोजन करनेवाला मानो कीड़ोको खाता है और बिना दान किये खानेवाला विष भोजी है ॥७३-७४॥
अतः हे राजेन्द्र ! गृहस्थको जिस प्रकार भोजन करना चाहिये - जिस प्रकार भोजन करनेसे पुरुषको पाप - बन्धन नहीं होता तथा इह लोकमें अत्यन्त आरोग्य, बल बुद्धिकी प्राप्ती और आरष्टोंकी शान्ति होती है और जो शत्रुपक्षका ह्यास करनेवाली है वह भोजनविधि सुनो ॥७५-७६॥
गृहस्थको चाहिये कि स्नान करनेके अनन्तर यथाविधि देव, ऋषि और पितृगणका तर्पण करके हाथमें उत्तम रत्न धारण किये पवित्रतापूर्वक भोजन करे ॥७७॥
हे नॄप ! जप तथा अग्निहोत्रके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर अतिथि, ब्राह्मण, गुरुजन, और अपने आश्रित ( बालक एवं वृद्धों ) को भोजन करा सुन्दर सुगन्धयुक्त उत्तम पुष्पमाला तथा एक ही वस्त्र धारण किये हाथ - पाँव और मूँह धोकर प्रीतिपूर्वक भोजन करे । हे राजन् ! भोजनके समय इधर उधर न देखे ॥७८-७९॥
मनुष्यको चाहिये कि पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके, अन्यमना न होकर उत्तम और पथ्य अन्नको प्रोक्षणके लिये रखे हुए मन्त्नपूत जलसे छिड़क कर भोजन करे ॥८०॥
जो अन्न दुराचारी व्यक्तिका लाया हुआ हो, घृणाजनक हो अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कारशुन्य हो उसको ग्रहण न करे । हे द्विज ! गृहस्थ पुरुष अपने खाद्यमेंसे कुछ अंश अपने शिष्य तथा अन्य भूखे प्यासोंको देकर उत्तम और शुद्ध पात्रमें शान्त चित्तस भोजन करे ॥८१-८२॥
हे नरेश्वर ! किसी बेत आदिके आसन ( कुर्सी आदि ) पर रखे हुए पात्रमें, आयोग्य स्थानमें, असमय ( सन्ध्या आदि काल ) में अथवा अत्यन्त संकुचित स्थानमें कभी भोजन न करे । मनुष्यको चाहिये कि ( परोसे हुएज भोजनका ) अन्य भाग अग्निको देकर भोजन करे ॥८३॥
हे नॄप ! जो अन्न मन्त्नपूत और प्रशस्त हो तथा जो बासी न हो उसीको भोजन करे । परंतु फल, मूल और सुखी शाखओंको तथा बिना पकाये हुए लेह्या ( चटनी ) आदि और गुड़के पदार्थोंके लिये ऐसा नियम नहीं हैं । हे नरेश्वर ! सारहीन पदार्थोंको कभी न खाय ॥८४-८५॥
हे पृथिवीपते ! विवेकी पुरुष मधु, जल, दही, घी और सत्तूके सिवा और किसी पदार्थको पूरा न खाय ॥८६॥
भोजन एकाग्रचित्त होकर करे तथा प्रथम मधुररस, फिर लवण और अम्ल ( खट्टा ) रस तथा अन्तमें कटु और तीखे पदार्थोंमो खाय ॥८७॥
जो पुरुष पहले द्रव पदार्थोको बीचमें कठिन वस्तुओंको तथा अन्तमें फिर द्रव पदार्थोंको ही खाता है वह कभी बल तथा आरोग्यसे हीन नहीं होता ॥८८॥
इस प्रकार वाणीका संयम करके अनिषिद्ध अन्न भोजन करे । अन्नकी निन्दा न करे । प्रथम पाँच ग्रास अत्यन्त मौन होकर ग्रहण करे, उनसे पत्र्चप्राणोंकी तृप्ति होती है ॥८९॥
भोजनके अनन्तर भली प्रकार आचमन करे और फिर पूर्व या उत्तरकी और मूख करके हाथोंको उनके मूलदेशक धोकर विधिपूर्वक आचमन करे ॥९०॥
तदनन्तर, स्वथ और शान्त चित्तसे आसनपर बैठकर अपने इष्टदेवोंका चिन्तन करे ॥९१॥
( और इस प्रकार कहे -) "(प्राणरूप ) पवनसे प्रज्वलित हुआ जठराग्नि आकाशके द्वारा अवकाशयुक्त अन्नका परिपाक करे और ( फिर अन्नरससे ) मेरे शरीरके पार्थिव धातुओंको पुष्ट करे जिससे मुझे सुख प्राप्त हो ॥९२॥
यह अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका बल बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रूपमें परिणत हुआ बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रुपमें परिणत हुआ यह अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका बल अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका बल अन्न मेरे शरीरस्थ पथिवी, जल , अग्नि और वायुका बल बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रूपमें परिणत हुआ यह अन्न ही मुझे निरन्तर सुख देनेवाला हो ॥९३॥
यह अन्न मेरे प्राण, अपान समान, उदार और व्यानकी पुष्टि करे तथा मुझे भी निर्बाध सुखकी प्राप्ति हो ॥९४॥
मेरे खाये हुए सम्पूर्ण अन्नका अगस्ति नामक अग्नि और बडवानल परिपाक करें, मुझे उसके परिणामसे होनेवाला सुख प्रदान करें और उससे परिणामसे होनेवाला सुख प्रदान करें मुझे उससे मेरे शरीरको आरोग्यता प्राप्त हो ॥९५॥
'देह और इन्द्रियादिके अधिष्ठाता एकमात्र भगवान् विष्णु ही प्रधान हैं' - इस सत्यके बलसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न इन्द्रियादिके अधिष्ठाता एकमात्र भगवान् विष्णु ही प्रधान है' - इस सत्यके बलसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न परिपक्क होकर मुझे आरोग्यता प्रदान करे ॥९६॥
'भोजन करनेवाला , भोज्य अन्न और उसका परिपाक - ये सब विष्णु ही है ' - इस सत्य भावसाके बलसे मेरा खाया हुआ यह अन्न पच जाय' ॥९७॥
ऐसा कहकर अपने उदरपर हाथ फेरे और सावधान होकर अधिक श्रम उप्तन्न न करनेवाले कार्योंमें लग जाय ॥९८॥
सच्छास्त्रोंका अवलोकन आदि सन्मार्गके अविरोधी विनोदोंसे शेष दिनको व्यतीत करे और फिर सायंकालके समय सावधानतापूर्वक सन्ध्योपासन करे ॥९९॥
हे राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सायंकालके समय सूर्यके रहते हुए और प्रातःकाल तारागणके चमकते हुए ही भली प्रकार आचमनादि करके विधिपूर्वक सन्धोपासन करे ॥१००॥
हे पार्थिव ! सूतक ( पुत्र जन्मादिसे होनेवाला अशुचिता ), अशौच ( मृत्युसे होनेवाली अशुचिता ) , उन्माद, रोग और भय आदि कोई बाधा न हो तो प्रतिदिन ही सन्ध्योपासन करना चाहिये ॥१०१॥
जो पुरुष रुग्णावस्थाको छोड़कर और कभी सूर्यके उदय अथवा अस्तके समय सोता है वह प्रायश्चित्तका भागी होता है ॥१०२॥
अतः हे महीपत ! गृहस्थ पुरुष सूर्योदयसे पूर्व ही उठकर प्रातः सन्ध्या करे और सांयकालमें भी तत्कालीन सन्ध्यानवन्दन करे; सोवे नहीं ॥१०३॥
हे नॄप ! जो पुरुष प्रातः अथवा सायंकालीन सन्ध्योपासन नहीं करते वे दुरात्मा अन्धतामिस्त्र नरकमें पड़ते हैं ॥१०४॥
तदनन्तर, हे पृथिवीपते ! सायंकालके समय सिद्ध किये हुए अन्नसे गृहपत्नी मन्त्नहीन बलिवैश्वदेव करे; उस समय भी उसी प्रकार श्वपच आदिके लिये अन्नदान किया जाता है ॥१०५-१०६॥
बुद्धिमान पुरुष उस समय आये हुए अतिथिका भी सामर्थ्यानुसार सत्कार करे । हे राजन् ! प्रथम पाँव धुलाने, आसन देने और स्वागत - सुचक विनम्र वचन कहनेसे तथा फीर भोजन कराने और शयन करानेसे अतिथिका सत्कार किया जाता है ॥१०७॥
हे नृप ! दिनके समय अतिथिके लौट जानेसे जितना पाप लगता है उससे आठगुना पाप सूर्यास्तके समय लौटनेसे होता है ॥१०८॥
अतः हे राजेन्द्र ! सूर्यास्तके समय आये हुए अतिथिका गृहस्थ पुरुष अपनी सामर्थ्यानुसार अवश्य सत्कार करे क्योंकी उसका पूजन करनेसे ही समस्त देवताओंका पूजन हो जाता है ॥१०९॥
मनुष्यको चाहिये कि अपनी शक्तिके अनुसार उसे भोजनके लिये, अन्न, शाक या जल देकर तथा सोनके लिये शय्या या घास - फूसका बिछौना अथवा पृथिवी ही देकर उसका सत्कार करे ॥११०॥
हे नृप ! तदनन्तर, गृहस्थ पुरुष सायंकालका भोजन करके तथा हाथ - पाँच धोकर छिद्रदिहेइन कष्ठमय शय्यापर लेट जाय ॥१११॥
जो काफी बडी़ न हो, टुटी हुई हो , ऊँची नीची हो, मिलन हो अथवा जिसमें जीव हो या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो उस शय्यापर न सोवे ॥११२॥
हे नॄप ! सोनेके समय सदा पूर्व अथवा दक्षिणकी और सिर रखना चाहिये । इनके विपरित दिशाओंकी ओर सिर रखनेसे रोगोंकी उप्तत्ति होती है ॥११३॥
हे पृथ्वीपते ! ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे संग करना उचित है । पूँल्लिंग नक्षत्रसें युग्म और उनमें भी पीछेकी रात्रियोंमें शुभ समयमें स्त्रीप्रसंग करे ॥११४॥
किन्तु यदि स्त्री अप्रसन्नता, रोगिणी, रजस्वला, निरभिलाषिणी, क्रोधिता, दुःखिनी अथवा गर्भिणी हो तो उसका संग न करे ॥११५॥
जो सीधे स्वभावकी न हो, पराभिलाषिणी अथवा निरभिलाषिणी हो, क्षुधार्ता हो, अधिक भोजन किये हुए हो अथवा परस्त्री हो उसके पास न जायः और यदि अपनेमें ये दोष हों तो भी स्त्रीगमन न करे ॥११६॥
पुरुषको उचित है कि स्नान करनेके अनन्तर माला और गन्ध धारण कर काम और अनुरागयुक्त होकर स्त्रीगमन करे । जिस समय अति भोजन किया हो अथवा क्षुधित हो उस समय उसमें प्रवृत्त न हो ॥११७॥
हे राजेन्द्र ! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा और सूर्यकी संक्रान्ति - ये सब पर्वदिन हैं ॥११८॥
इन पर्वदिनोंमें तैल, स्त्री अथवा मांसका भोग करनेवाला पुरुष मरनेपर विष्ठा और मुत्रसे भरे नरकमें पड़ता है ॥११९॥
संयमी और बुद्धिमान पुरुषोंको इन समस्त पर्वदिनोंमें सच्छास्त्रावलोकन, देवोपासना , यज्ञानुष्ठान, ध्यान और जप आदिमें लगे रहना चाहिये ॥१२०॥
गौ- छाग आदि अन्य योगियोंसे , अयोनियोंसे, औषध- प्रयोगसे अथवा ब्राह्मण, देवता और गुरुके आश्रमोंमें कभीं मैथुन न करे ॥१२१॥
हे पृथिवीपते ! चैत्यवृक्षके नीचे, आँगनमें, तीर्थमें पशुशालामें, चौराहेपर, श्मशानमें, उपवनमें अथवा जलमें भी मैथुन करना उचित नहीं है ॥१२२॥
हे राजन् ! पूर्वोक्त समस्त पर्वदिनोंमे प्रातःकाल और सायंकालमें तथा मल-मूत्रके वेगके समय बुद्धिमान पुरुष मैथुनमें प्रवृत्त न हो ॥१२३॥
हे नॄप ! पर्वदिनोमें स्त्रीगमन करनेसे धनकी हानि होती है; दिनमें करनेसे पाप होता है, पथिवीपर करनेसे रोग होते हैं और जलाशयमें स्त्रीप्रसंग करनेसे अमंगल होता है ॥१२४॥
परस्त्रीसे तो वाणीसे क्या, मनसे भी प्रसंग न करे क्योंकी उनसे मैथून करनेवालोंको अस्थि बन्धन भी नहीं होता ( अर्थात उन्हें अस्थिशून्य कीटादि होना पड़ता है ? ) ॥१२५॥
परस्त्रीकी आसक्ति पुरुषको इहलोक और परलोक दोनों जगह भय देनेवाली है; इहलोकमें उसकी आयु क्षीण हो जाती है और मरनेपर वह नरकमें जाता है ॥१२६॥
ऐसा जानकर बुद्धिमान् पुरुष उपरोक्त दोषोंसे रहित अपनी स्त्रीसे ही ऋतुकालमें प्रसंग करे तथा उसकी विशेष अभिलाषा हो तो बिना ऋतुकालके भी गमन करे ॥१२७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥११॥
* गौतमस्मृतिके अष्टम अध्यायमें कहा है -'औपासनमष्टका पार्वणश्राद्धः श्रावण्याग्रहायणी चैत्र्याश्वजीति सप्त पाकयज्ञसंस्थाः । अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्नमासा वाग्रयणं चातुर्मास्यनि निरुढपशुबन्धस्सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञसंस्थाः । अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्त्थः षोडशी वाजपेयोऽतिरात्रप्तोर्यामा इति सप्त सोमसंस्थाः ।'
औपासन, अष्टका श्राद्ध पार्वण श्राद्ध तथा श्रावण अग्रहायण चैत्र और आश्विन मासकी पूर्णिमाएँ - ये सात 'पाकयज्ञ संस्था हैं ' अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, यज्ञपशुबन्ध, और सौत्रामणी ये सात ' हविर्यज्ञसंस्था ' है यथा अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्त्थ, षोडशी , वाजपेय, अतिरात्र , और आप्तोर्याम - ये सात 'सोमयज्ञसंस्था ' हैं ।
** वह जल भरा पात्र जो अग्निहोत्र करते समय समीपमें रख लिया जाता है और ' इदं न मम' कहकर आहुतिका शेष भाग छोड़ा जाता है ।
*** चौदह भूतसमुदायोंका वर्णन इस प्रकार किया गया है - ' अष्टविधं दैवत्वं तैर्यग्योन्यश्च पत्र्चधा भवति । मनुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्गः ॥
अर्थात् आठ प्रकारका देवसम्बन्धी, पाँच प्रकारका तिर्यग्योनिसम्बन्धी और एक प्रकारका मनुष्ययोनिसम्बन्धी - यह संक्षेपसे भौतिक सर्ग कहलाता है । इनका पृथक पृथक विवरण इस प्रकार है - सिद्धगृह्याकगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः । विद्याधराः पिशाचाश्च निर्दिष्टा देवयोनयः ॥
सरीसॄपा वानराश्च पशवो मृगपक्षिणाः । तिर्यत्र्च इति कथ्यन्ते पत्र्चैताः प्राणिजातयः ॥
अर्थ - सिद्ध गुह्राक, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, विद्याधर और पिशाच - ये आठ देवयोनियाँ मानी गयी हैं तथा सरीसृप, वानर, पशु, मृग , ( जंगली प्राणी ) और पक्षी - ये पाँच तिर्यग् योनियाँ कही गयी हैं ।