श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १९
श्रीपराशरजी बोले -
हिरण्यकशिपुने कृत्याको भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्लादको बुलाकर उनके इस प्रभावका कारण पूछा ॥१॥
हिरण्यकशिपु बोला - अरे प्रह्लाद ! तु बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित हैं या स्वाभाविक ही है ॥२॥
श्रेपराशरजी बोले -
पिताके इस प्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रह्लादजीने उसके चरणोनें प्रणाम कर इस प्रकार कहा - ॥३॥
"पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिसजिसके हृदयमें श्रीअच्युतभगवान्का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है ॥४॥
जो मनुष्य अपने समान दूसरोंका बुरा नहीं सोचना, हे तात ! कोई कारण न रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं सोचता, हे तात ! कोई कारण अन रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं होता ॥५॥
जो मनुष्य मन, वचन या कर्मसे दूसरोंको कष्ट देता है उसके उस परपीडारूप बीजसे ही उप्तन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है ॥६॥
अपनेसहित समस्त प्राणियोंमें श्रीकेशवको वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ ॥७॥
इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होनेसे मुझको शारिरीक मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥८॥
इसी प्रकार भगवान्को सर्वभूतमय जानकर विद्वानोंको सभी प्राणियोंमें अविचल भक्ति ( प्रेम ) करनी चाहिये" ॥९॥
श्रीपराशरजी बोले - अपने महलकी अट्टालिकापर बैठे, हुए उस दैत्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य अनुचरोंसे कहा ॥१०॥
हिरण्यकशिपु बोला -
यह बड़ा दुरात्मा है , इसे इस सौ योजन ऊँचे महलसे गिरा दो, जिससे यह इस पर्वतके ऊपर गिरे और शिलाओंसे इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायँ ॥११॥
तब उन समस्त दैत्य और दानोवोंने उन्हें महलसे गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलनेसे हृदयमें श्रीहरिका स्मरण करते करते नीचे गिर गये ॥१२॥
जगत्कार्ता भगवान् केशवके परमभक्त प्रह्लादजीके गिरते समय उन्हें जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया ॥१३॥
तब बिना किसी हड्डी- पसलीके टुटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कहा ॥१४॥
हिरण्यकशिपु बोला - यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे यह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप मायासे ही इसे मार डालिये ॥१५॥
शम्बरसुर बोला -
हे दैत्येन्द्र ! इस बालकको मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी मायाका बल देखो ! देखो, मैं तुम्हें सैकड़ो - हजारों - करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ ॥१६॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुरने समदर्शी प्रह्लादके लिये, उनके नाशकी इच्छासे बहुत-सी मायाएँ रचीं ॥१७॥
किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुरके प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रह्लादजी सावधान चित्तसे श्रीमधुसूदनभगवान्का स्मरण करते रहे ॥१८॥
उस समय भगवान्की आज्ञासे उनकी रक्षाके लिये वहाँ ज्वाला-मालाओंसे युक्त सुदर्शनचक्र आ गया ॥१९॥
उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्र उस बालककी रक्षा करते४ हुए शम्बरसुरकी सहस्त्री मायाओंको एक - एक करके नष्ट कर दिया ॥२०॥
तब दैत्यराजने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र ही इस दुरात्माको नष्ट कर दो ॥२१॥
अतः उस अति तीव्र शीतल और रुक्ष वायुने, जो अति असहनीय था, ' जो आज्ञा' कह उनके शरीरको सुखानेके लिये उसमें प्रवेश किया ॥२२॥
अपने शरीरमें वायुका आवेश हुआ जान दैत्यकुमार प्रह्लादने भगवान् धरणीधरको हृदयमें धारण किया ॥२३॥
उनके हृदयमें स्थित हुए, श्रीजनार्दनने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायुको पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया ॥२४॥
इस प्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओंके क्षीण हो जानेपर महामति प्रह्लादजी अपने गुरुके घर चले गये ॥२५॥
तदनन्तर गुरुजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजीकी बनायी हुई राज्यफलाप्रदायिनी राजनीतिका अध्ययन कराने लगे ॥२६॥
जब गुरुजीने उन्हें नीतिशास्त्रमें निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा - 'अब यह सुशिक्षित हो गया है'॥२७॥
आचार्य बोले -
हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्रको नीतिशास्त्रमें पूर्णतया निपूण कर दिया है, भृग-नन्दन शुक्राचार्यजीने जो कुछ कहा है उसे प्रह्लाद तत्वतः जानता है ॥२८॥
हिरण्यकशिपु बोला - प्रह्लाद ! ( यह तो बता ) राजाको मित्रोंसे कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओंसे कैसा ? तथा त्रिलोकीमें जो मध्यस्थ ( दोनों पक्षोंके हितचिन्तक ) हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? ॥२९॥
मन्त्नियों, अमात्यो, बाह्य और अन्तःपूरके सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों ( जिन्हें जीतकर बलात् दास बना लिया हो ) तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये ? ॥३०॥
हे प्रह्लाद ! यह ठिक-ठिक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्योंका विधान किस प्रकार करे, दुर्ग और आटविक ( जंगली मनुष्य ) आदिको किस प्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरुप काँटेको कैसे निकाले ? ॥३१॥
यह सब तथा और भी जो कुछ तुने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मै तेरे मनके भावोंको जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥३२॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब विनयभूषण प्रह्लादजीने पिताके चरणोमें प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे हाथ जोड़कर कहा ॥३३॥
प्रह्लादजी बोले -
पिताजी ! इससे सन्देह नहीं, गुरुजीने तो मुझे इन सभी विषयोंकी शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नहीं है ॥३४॥
साम, दान, तथा दण्ड और भेद - ये सब उपाय मित्रादिके साधनेके लिये बतलाये गये है ॥३५॥
किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे माहाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन शाधनोंसे लेना ही क्या है ? ॥३६॥
हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमें भला शत्रु-मित्रकी बात ही कहाँ है ? ॥३७॥
श्रीविष्णुभगवान् तो आपमें, मुझमें और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान हैं ,फिर 'यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है' ऐसे भेदभावको स्थान ही कहाँ है ? ॥३८॥
इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मोमें प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जालको सर्वथा छोड़कर अपने शुभके लिये ही यत्न करना चाहिये ॥३९॥
हे दैत्यराज ! अज्ञानके कारण ही मनुष्योंकी अविद्यामें विद्या-बुद्धि होती है । बालक क्या अज्ञानवश खद्योतको ही अग्नि नहीं समझ लेता ? ॥४०॥
कर्म अवही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो । इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही है ॥४१॥
हे महाभाग ! इस प्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये ॥४२॥
राज्य पानेकी चिन्ता किसे नहीं होती और धनकी अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हीको हैं जिन्हें मिलनेवाले होते हैं ॥४३॥
हे महाभाग ! महत्त्व प्राप्तिके लिये सभी यत्न करते हैं, तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है, करते हैं तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है उद्यम नहीं ॥४४॥
हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्बल और अनीतिज्ञोंकी भी भाग्यवश नाना प्रकारके भाग और राज्यादि प्राप्त होते हैं ॥४५॥
इसलिये जिसे महान् वैभवकी इच्छा हो उसे केवल पूण्यसत्र्चयका ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्षकी इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये ॥४६॥
देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, और सरीसृप ये सब भगवान विष्णूसे भिन्न से स्थित हुए भी वास्तवमें श्रीअनन्तके ही रूप हैं ॥४७॥
इस बातको जाननेवाला पुरुष सम्पूण चराचर जगतको आत्मवत देखे, क्योंकि यह सब विश्वरूपधारी भगवान् विष्णु ही हैं ॥४८॥
ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान् अच्युत प्रसन्न होते हैं और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते है ॥४९॥
श्रीपराशरजी बोले -
यह सुनकर हिरण्यकशिपुन्र क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासनसे उठकर हिरण्यकशिपुने वक्षःस्थलमें लात मारी ॥५०॥
और क्रोध तथा अमर्षसे जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसारको मर डालेगा इस प्रकर हाथ मलता हुआ बोला ॥५१॥
हिरण्यकशिपुने कहा -
हे विप्रचित्ते ! हे रहो ! हे बल तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाशसे बाँधकर महासागरमें डाल दो देरी मत करो ॥५२॥
नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य दानव आदि भी इस मूढ दुरात्माके मतका ही अनुगमन करेंगे ( अर्थात इसकी तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायँगे ) ॥।५३॥
हमने इस बहुतेरा रोका, तथापि यह दूष्ट शत्रुकी ही स्तुति किये जाता है । ठीक है, दुष्टोंको तो मार देना ही लाभदायक होता है ॥५४॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब उन दैत्योंने अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य कर तुरन्त ही उन्हें नागपाशसे बाँधकर समुद्रमें डाल दिया ॥५५॥
उस समय प्रह्लादजीके हिलने डुलनेसे संम्पूर्ण महासागरमें हलचल मच गयी और अत्यन्त क्षोभके कारण उसमें सब और ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं ॥५६॥
हे महामते ! उस महान् जल पूरसे सम्पूर्ण पृथिवीको डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस प्रकार कहा ॥५७॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे दैत्यो ! तुम इस दुर्मतिको इस समुद्रके भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरस सम्पूर्ण पर्वतोंसे दबा दो ॥५८॥
देखो, इसे न तो अग्निने जलाया, न यह शस्त्रोंसे कटा, न सर्पोंसे नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मयाओंसे, ऊपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोंसे ही मारा गया । यह बालक अत्यन्त दुष्ट चित्त है, अब इसके जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है ॥५९-६०॥
अतः अब यह पर्वतोंसे लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ॥६१॥
तब दैत्य और दानवोंने उसे समुद्रमें ही पर्वतोसें ढँककर उसके ऊपर हजारों योजनका ढेर कर दिया ॥६२॥
उन महामतिने समुद्रमें पर्वतोंसे लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मोंके समय एकाग्र चित्तसे श्रीअच्युतभगवान्की इस प्रकार स्तुति की ॥६३॥
प्रह्लादजी बोले -
हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है ! हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥६४॥
गो ब्राह्मण हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान कृष्णको नमस्कार है । जगत्-हितकारी श्रीगोविन्दको बारम्बार नमस्कार है ॥६५॥
आप ब्रह्मारूपसे विश्वकी रचाना करते हैं, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरुपसे पालन करते हैं, और अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करते हैं - ऐसें त्रिमूर्तिधार आपको नमस्कार है ॥६६॥
हे अच्युत ! देव , यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका ( चींटी ), सरीसृप, पृथिवी, जल, अग्नि, आकाश, वायु शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुण इन सबके परमार्थिक रूप आप ही है, वास्तवमें आप ही ये सब हैं ॥६७-६९॥
आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत हैं तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म हैं ॥७०॥
हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मोके भोक्ता और उनकी सामग्री हैं तथा सर्व कर्मोके जितने भी फल हैं वे सब भी आप ही है ॥७१॥
हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनोंमें आपहीके गुण और ऎश्वर्यकी सूचिका व्याप्ति हो रही है ॥७२॥
योगिगण आपहीका ध्यान धरते हैं और याज्ञिकगण आपहीका यजन करते हैं, तथा पितुगण और देवगणके रूपसे एक आप ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं ॥७३॥
हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूल रूप है, उससे सूक्ष्म यह संसार ( पृथिवीमण्डल ) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी है; उसमें भी जो अन्तरात्मा है वह और भी अत्यन्त सूक्ष्म है ॥७४॥
उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय आपका कोई अचिन्त परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है ॥७५॥
हे सर्वात्पर ! समस्त भुतोंमें आपकी जो गुणाश्राय पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है ॥७६॥
जोवा वाणी और मनके परे है, उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता हूँ ॥७७॥
ॐ वन भगवान् वासुदेवको सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्ति और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त ( असंग ) हैं ॥७८॥
जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है ॥७९॥
जिनके पर-स्वरुपको न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार-शरीरोंका सम्यक् अर्चन करते हैं उन महात्माको नमस्कार है ॥८०॥
जो ईश्वर सबके अन्तः करणोंमें स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोंको देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥८१॥
जिनसे यह जगत् सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है वे जगत्के आदिकारण और योगियोंके ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥८२॥
जिनमें यह सम्पुर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥८३॥
ॐ जिनमें सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं , उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है ॥८४॥
भगवान् अनन्त सर्वगामी हैं; अतः वे ही मेरे रूपसे स्थित हैं, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझहीसे हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातनमें ही यह सब स्थित है ॥८५॥
मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं हि जगत्के आदि और अन्तमें स्थित ब्रह्मसंज्ञाक परमपुरुष हूँ ॥८६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥१९॥