विद्यारंभ संस्कार
जब बालक/ बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें।
प्रत्येक अभिभावक का यह परम पुनीत धर्म र्कत्तव्य है कि बालक को जन्म देने के साथ-साथ आई हुई जिम्मेदारियों में से भोजन, वस्त्र आदि की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करे। जिस प्रकार कोई माता-पिता जन्म देने के बाद उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी से इंकार कर उसे कहीं झाड़ी आदि में फेंक दें, तो वे अपराधी माने जायेंगे। ठीक उसी प्रकार जो लोग बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध न करके, उन्हें मानसिक विकास एवं मानव जाति की संगृहित ज्ञान-सम्पत्ति का साझेदार बनने से वंचित रखते हैं, वे भी उसी श्रेणी के अपराधी हैं, जैसे कि बच्चों को भूखों मार डालने वाले। इस पाप एवं अपराध से मुक्ति पाने के लिए हर अभिभावक को अपने हर बच्चे की शिक्षा का चाहे वह लड़की हो या लड़का, अपनी सामर्थ्यानुसार पूरा-पूरा प्रबंध करना होता है। इस धर्म र्कत्तव्य की पूर्ति का, अनुशासन का पालन करते हुए उसे अपने उत्तरदायित्व को निभाने की घोषणा के रूप में बालक का विद्यारम्भ संस्कार करना पड़ता है। देवताओं की साक्षी में समाज को यह बताना पउ़ता है कि मैं अपने परम पवित्र र्कत्तव्य को भूला नहीं हूँ, वरन् उसकी पूतिर् के लिए समुचित उत्साह के साथ कटिबद्ध हो रहा हूँ। ऐसा ही प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। किसी को भी अपनी सन्तान को विद्या से वंचित नहीं रहने देना चाहिए। विद्यारम्भ संस्कार द्वारा बालक-बालिका में उन मूल संस्कारों की स्थापना का प्रयास किया जाता है, जिनके आधार पर उसकी शिक्षा मात्र ज्ञान न रहकर जीवन निमार्ण करने वाली हितकारी विद्या के रूप में विकसित हो सके। समारोह द्वारा बालक के मन में ज्ञान प्राप्ति के लिए उत्साह पैदा किया जाता है। उत्साह भरी मनोभूमि में देवाराधन तथा यज्ञ के संयोग से वांछित ज्ञानपरक संस्कारों का बीजारोपण भी सम्भव हो जाता है।
गणेश को विद्या और सरस्वती को शिक्षा का प्रतीक माना गया है। विद्या और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी है। शिक्षा उसे कहते हैं कि जो स्कूलों में पढ़ाई जाती है। भाषा, लिपि, गणित, इतिहास, शिल्प, रसायन, चिकित्सा, कला, विज्ञान आदि विभिन्न प्रकार के भौतिक ज्ञान इसी क्षेत्र में आते हैं। शिक्षा से मस्तिष्क की क्षमता विकसित होती है और उससे लौकिक सम्पत्तियों, सुविधाओं, प्रतिष्ठाओं एवं अनुभूतियों का लाभ मिलता है। सांसारिक जीवन की सुख-सुविधा के लिए इस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता भी है। यह सरस्वती आराधना है। विद्या के प्रतिनिधि गणेश जी हैं। विद्या का अर्थ है विवेक एवं सद्भाव की शक्ति। सद्गुण इसी वगर् में गिने जाते हैं। उचित और अनुचित का, कर्त्तव्य और अकत्तर्व्य का विवेक विद्वानों को ही होता है। आज के छोटे से लाभ-हानि की तुलना में वे दूरवर्त्ती हानि-लाभ को महत्त्व देते हैं और इतना साहस और धैर्य बनाये रहते हैं। जिसके आधार पर दूरवर्ती बड़े लाभ के लिए वतर्मान में थोड़ा कष्ट सह सकें अथवा भविष्य की अधिक हानि को कठिनाइयों का स्वरूप समझते हुए आज के छोटे-मोटे प्रलोभन या आकषर्ण का परित्याग कर सकें। विचारों और वर्णों को सुव्यवस्थित बनाने के लिए किया हुआ श्रम-गणेश की आराधना के लिए किया गया तप ही मानना चाहिए। आदर्शवादिता की उच्चस्तरीय सद्भावनाओं का समावेश जिस विचारणा में सन्निहित हो, उन्हें गणेश कहना चाहिए। गणेश के बाद सरस्वती का पूजन कराया जाता है। गणेश का स्थान प्रथम और सरस्वती का दूसरा है। भावना को प्रधान और चतुरता को गौण माना गया है। शिक्षा के, चतुरता के ऊपर विवेक एवं आदशर् को अंकुश लिए हुए देखा जा सकता है। धर्म, कर्त्तव्य एवं औचित्य का, गणेश का नियन्त्रण हमारी सारी गतिविधियों पर होना चाहिए। अन्यथा वे निरंकुश होकर उच्छृंखलता बरतेंगी और पतन के गहन गर्त में गिरा देंगी। बालक चाहे जितनी विद्या पढ़े, विद्वान् और क्रियाकुशल कितना ही अधिक क्यों न हो जाए, उसे आजीवन यह स्मरण रखना चाहिए कि सदुद्देश्य से एक कदम भी विचलित न हुआ जाए। समृद्धियों एवं विभूतियों को तनिक भी उच्छृंखल न होने दिया जाए। शिक्षा और बुद्धि का दुरुपयोग न होने पाए। उनके द्वारा जो भी प्रगति हो, वह पतन की ओर नहीं, उत्थान की ओर ही ले जाने वाली हो। मस्तिष्क पर सदैव विवेक का नियन्त्रण बना रहे, इस तथ्य को हृदय में प्रतिष्ठापित करने के लिए बालक विद्यारम्भ के समय गणेश पूजन करता है। माता का स्नेह जिस प्रकार पुत्र के लिए आजीवन आवश्यक है, उसी प्रकार विद्या का, सरस्वती का अनुग्रह भी मनुष्य पर आजीवन रहना चाहिए। सरस्वती माता हमारी प्रत्यक्ष देवी हैं-अध्ययन के द्वारा ही उनकी आराधना होती है। उपासना, आहार, स्नान, शयन आदि की तरह अध्ययन भी हमारे दैनिक जीवन में आवश्यकता का एक अंग बना रहे, तो समझना चाहिए कि सरस्वती पूजन का वास्तविक तात्पयर् समझ लिया गया।