भाग 7
भोर के सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही हैं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही हैं, और पास के पोखरे के जल में धीरे-धीरे आकर उतर रही हैं। चारों ओर किरणों का ही जमावट है, छतों पर, मुड़ेरों पर किरण-ही-किरण हैं। कामिनीमोहन अपनी फुलवारी में टहल रहा है, और छिटकती हुई किरणों की यह लीला देख रहा है। पर अनमना है। चिड़ियाँ चहकती हैं, फूल महँक रहे हैं, ठण्डी-ठण्डी पवन चल रही है, पर उसका मन इनमें नहीं है; कहीं गया हुआ है। घड़ी भर दिन आया, फुलवारी में बासमती ने पाँव रखा, धीरे-धीरे कामिनीमोहन के पास आ कर खड़ी हुई। देखते ही कामिनीमोहन ने कहा, क्या अभी सोकर उठी हो?
बासमती-हाँ! अभी सोकर उठी हूँ!!! यह तो आप न पूछेंगे! क्या रात जागते ही बीती?
कामिनीमोहन-क्या सचमुच बासमती, तुम आज रात भर जगी हो? जान पड़ता है इसी से तुम्हारी आँखें लाल हो रही हैं।
बासमती-नहीं तो क्या अभी सोकर उठी हूँ, इससे आँख लाल हैं!
कामिनीमोहन-मैं तुमको छेड़ता नहीं, बासमती! मैं भी यही कहता था, रात भर तुम जगी हो, उसी से। अब तक क्या सोती रही हो! अच्छा, इन बातों को जाने दो। कहो, रात क्या किया?
बासमती-मैंने रात सब कुछ किया, आपकी सब अड़चनें दूर हो गयीं। मुझको जो कुछ करना था मैं कर चुकी, अब देखूँ आप क्या करते हैं।
कामिनीमोहन-वह क्या बासमती?
बासमती-क्या आपने देवकिशोर बाबू की बात नहीं सुनी?
कामिनीमोहन-हाँ! इतना तो सुना है, वह रात टूटे हुए तारे के ऊपर गिर पड़ा, उसका सर फूट गया।
बासमती-सर क्या फूट गया, यह कहिये थोड़ी चोट आ गयी थी, पर बड़े लोगों की बातें ही बड़ी होती हैं और वह सुकुमार भी बहुत हैं, इसीसे थोड़ा सा लहू निकलते ही अचेत हो गये, नहीं तो कोई बात नहीं थी। दूसरा कोई होता तो उँह भी नहीं करता।
कामिनीमोहन-तो फिर मुझको इससे क्या?
बासमती-क्यों? इससे ही तो आपका सुभीता हुआ? इस काम ही ने तो आपके पथ के सब काँटों को दूर कर दिया।
कामिनीमोहन-कैसे?
बासमती-आप जानते हैं हरलाल कैसे हथकण्डे का है, आपके काम के लिए मैंने उसको बहुत दिनों से गाँठ रखा था, पर यह सोचती थी, जब तक वह किसी भाँति पारवती ठकुराइन के घर में पाँव न रखेगा, काम न निकलेगा। जब मैंने देवकिशोर बाबू के गिरने और सर में चोट लगने की बात सुनी, उसी घड़ी मुझको एक बात सूझी, मैं उसको पूरा करने के लिए चट घर से उठी, और हरलाल के पास पहुँची, उसको ठीक ठाक करके, लगे पाँव देव-किशोर बाबू के घर गयी। भाग्य से बैद महाराज भी कल्ह कहीं गये हुए थे, इसलिए मैंने बातों में फाँसकर पारबती ठकुराइन को अपने रंग में ढाल लिया और उन्हीं के कहने से हरलाल को उनके घर लिवा गयी। मैं जब हरलाल को लेने जाती थी पथ में आपसे भी मिलती गयी थी, पर उस घड़ी आपसे कुछ कहा नहीं था, यह आप जानते हैं। हरलाल ने वहाँ पहुँच कर सब कुछ कर दिया।
कामिनीमोहन-क्या कर दिया? कहो भी तो!
बासमती-हरलाल ने वहाँ पहुँच कर देवकिशोर बाबू के सर की चोट को भली-भाँति देखा, देख कर जाना, बहुत थोड़ी चोट है, गीला कपड़ा बाँधकर जो रह-रह कर पानी उस पर दिया जाता है, यही उसको अच्छा कर देगा। पर दिखलाने को वह झूठ-मूठ जतन करने लगा। एक दिन उसने काली माई के चौरे पर देवकिशोर बाबू को जूता पहने चढ़ते देखा था, यह बात उसको भूली न थी, इसलिए इसी बहाने से उसने एक ऐसी नई उपज निकाली, जिससे आपका काम भली-भाँति निकल आया।
कामिनीमोहन-वह कैसे?
बासमती ने हरलाल के अभुआने की सारी बातें ज्यों-का-त्यों कामिनीमोहन से कह सुनाई। पीछे कहा। हरलाल के चले जाने पर पारबती ठकुराइन ने देवकिशोर के पास जाकर पूछा, बेटा, तुम कभी काली माई के चौरे पर जूता पहने चढ़ गये थे? लड़के ने कहा-हाँ, अम्मा! मुझसे एक दिन यह चूक हो गयी थी। इतना सुनते ही ठकुराइन के रोंगटे खड़े हो गये, हरलाल की उनको बहुत कुछ परतीत हुई। वह कुछ घड़ी चुपचाप न जाने क्या सोचती रहीं, फिर बोलीं-बासमती! हरलाल ने सौ अधाखिले फूल चढ़ाने को तो कहा, पर यह न बतलाया, किसका फूल! मैंने कहा, क्यों यह भी बतलाने की बात है! कौन नहीं जानता, कालीमाई को अड़हुल का फूल ही प्यारा है; इसलिए सौ अड़हुल का अधखिला फूल ही एक महीने तक चढ़ाना होगा। उन्होंने कहा-इतने फूल मिलेंगे कहाँ! मैंने कहा, कामिनीमोहन बाबू की फुलवारी में कौन फूल नहीं है? नित सौ नहीं पाँच सौ अधाखिले फूल अड़हुल के वहाँ मिल सकते हैं। मेरी इन बातों को सुनकर ठकुराइन फिर कुछ घड़ी चुप रहीं, बहुत सोच विचार करके पीछे बोलीं, क्या और कहीं नहीं मिल सकते? मैंने कहा-इस गाँव में और कहाँ इतने फूल मिलेंगे? उन्होंने कहा-अच्छा, वहीं से फूल आवेंगे, पर कब फूल तोड़े जावें जो वह अधाखिले मिलें। मैंने कहा-जो सूरज डूबते फूल उतार लिए जावें तो वह अधिखिले ही रहेंगे, पर उस बेले देवहूती को वहाँ जाकर फूल तोड़ लाना चाहिए, नहीं तो रात में फूल तोड़ा जाता नहीं और दिन निकलने पर फिर वह फूले हुए ही मिलेंगे। ठकुराइन ने कहा, यही तो कठिनाई है, पर करूँ क्या, समझ नहीं सकती हूँ, जैसा मैं आज दुबिधा में पड़ी हूँ, वैसा दुविधे में कभी नहीं पड़ी। मैंने मन में कहा, बासमती फिर क्या ऐसा फंदा डालती है, जो कोई उससे बाहर निकल जावे। जो ऐसा ही होता तो कामिनीमोहन बाबू मेरी इतनी आवभगत क्यों करते। पर इस मन की बात को मन ही में रखकर उनसे बोली, क्या आपको किसी बात का खटका है, मेरे रहते आपको किसी काम में कठिनाई नहीं हो सकती, मैं आप आकर देवहूती को लिवा जाऊँगी, और उनसे फूल तुड़वा लाया करूँगी। क्या मुझसे एक महीने तक इतना काम भी न हो सकेगा? उन्हांने कहा, क्यों नहीं बासमती! तुम सब कुछ कर सकती हो, मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है। अच्छा, मैं तुम्हारे ही ऊपर इस काम को छोड़ती हूँ, जैसे बने बनाओ, पर ऐसी बात न होवे जिससे फिर देवकिशोर को कुछ झेलना पड़े। मैंने कहा, आप इन बातों से न घबरावें, भगवान् सब अच्छा करेगा। इसके पीछे यह बात ठीक हो गयी, मैं देवहूती के साथ-साथ रहकर फूल तुड़वा लाया करूँगी, कल्ह से यह काम होने लगेगा। मैंने जतन करके देवहूती को आपकी फुलवारी तक पहुँचा दिया। अब आगे आपकी बारी है, देखूँ आप कैसे उस अलबेला को लुभाते हैं, आकाश का चाँद घर में आया है, उसको वश में कर रखना आपका काम है, मैं यही बात पहले कहती थी।
कामिनीमोहन बासमती की बात सुनकर फूला न समाता था, आज उसके जी में यह बात ठन गयी, अब ले लिया है। हँसते-हँसते बोला, क्यों न हो वासमती! तुम्हारा ही काम है, तुमने बहुत कुछ किया जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं भी करूँगा, पर सब कुछ करने का बीड़ा तुम्हीं ने उठाया है, इसलिए सब कुछ तुम्हीं को करना होगा।
बासमती-यह नहीं हो सकता, अब आपको भी कुछ करना होगा। पवन का काम मैं करूँगी, पर आग आपको लगानी पड़ेगी।
कामिनीमोहन-क्या उसको जला कर मिट्टी में थोड़े ही मिलाना है?
बासमती-क्या यह भी मैं कहूँगी, तब आप जानेंगे! पर यह बातें काम की नहीं हैं। मैं नेह की आग लगाने को कहती हूँ, जिसको पवन बनकर मैं सुलगाऊँगी।
कामिनीमोहन-क्या उसका कलेजा ऐसा है, जो नेह की आग मैं वहाँ लगा सकूँगा?
बासमती-क्यों? वह लोहे और पत्थर से थोड़े ही बनी है? फिर आग लगानेवाले तो लोहे और पत्थर में भी आग लगाते हैं। ढंग चाहिए।
कामिनीमोहन-लोहे और पत्थर में आग लगाना, काम रखता है। मैं समझता हँ, बासमती! देवहूती का कलेजा सचमुच लोहे पत्थर का है। उसमें आग लगाना कठिन है।
बासमती-आपकी बातें ऐसी ही हैं, चाहते हैं बहुत कुछ, करते कुछ नहीं। उसका कलेजा मक्खन से भी बढ़कर पिघलनेवाला है, आप इस बात को नहीं जानते, मैं जानती हूँ। अब मैं जाती हूँ, आप अपनी सी करिये, जो न बनेगा, उस को मैं तो ठीक कर ही दूँगी। यह कह कर बासमती वहाँ से चली गयी।