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भाग 47

 


महाराज से जुदा होकर देवीसिंह और बलभद्रसिंह से बिदा होकर भूतनाथ ये दोनों ही नकाबपोशों का पता लगाने के लिए चले गये। बचा हुआ दिन और तमाम रात तो किसी ने इन दोनों की खोज न की मगर दूसरे दिन सबेरा होने के साथ ही इन दोनों की तलबी हुई और थोड़ी ही देर में जवाब मिला कि उन दोनों का पता नहीं है कि कहां गये और अभी तक क्यों नहीं आये। हमारे महाराज समझ गये कि देवीसिंह की तरह भूतनाथ भी उन्हीं दोनों नकाबपोशों का पता लगाने चला गया, मगर उन दोनों के न लौटने से एक तरह की चिन्ता पैदा हो गई और लाचार होकर आज दरबारे-आम का जलसा बन्द रखना पड़ा।
दरबारे - आम के बन्द होने की खबर वहां वालों को तो मिल गई मगर वे दोनों नकाबपोश अपने मालूमी समय पर आ ही गये और उनके आने की इत्तिला राजा वीरेन्द्रसिंह से की गई। उस समय राजा वीरेन्द्रसिंह एकान्त में तेजसिंह तथा और भी कई ऐयारों के साथ बैठे हुए देवीसिंह और भूतनाथ के बारे में बातें कर रहे थे। उन्होंने ताज्जुब के साथ नकाबपोशों का आना सुना और उसी जगह हाजिर करने का हुक्म दिया।
हाजिर होकर दोनों नकाबपोशों ने बड़े अदब से सलाम किया और आज्ञा पाकर महाराज से थोड़ी दूर पर तेजसिंह के बगल में बैठ गये। इस समय तखलिये का दरबार था तथा गिनती के मामूली आदमी बैठे हुए थे, राजा वीरेन्द्रसिंह को नकाबपोश की बातें सुनने का शौक था इसलिए तेजसिंह के बगल में ही बैठने की आज्ञा दी और स्वयं बातचीत करने लगे।
वीरेन्द्र - आज भूतनाथ के न होने से मुकद्दमे की कार्रवाई रोक देनी पड़ी।
नकाब - (अदब से हाथ जोड़कर) जी हां, मैंने यहां पहुंचने के साथ ही सुना कि 'कल से देवीसिंहजी और भूतनाथ का पता नहीं है इसलिए आज दरबार न होगा।' मगर ताज्जुब की बात है कि भूतनाथ और देवीसिंहजी एक साथ कहां चले गये। मैं तो यही समझता हूं कि भूतनाथ हम लोगों का पता लगाने के लिए निकला है और उसका ऐसा करना कोई ताज्जुब की बात भी नहीं मगर देवीसिंहजी बिना मर्जी के चले गये इस बात का ताज्जुब है।
वीरेन्द्र - देवीसिंह बिना मर्जी के नहीं चले गये बल्कि हमसे पूछके गये हैं।
नकाब - तो उन्हें महाराज ने हम लोगों का पीछा करने की आज्ञा क्यों दी हम लोग तो महाराज के ताबेदार स्वयं ही अपना भेद कहने के लिए तैयार हैं और शीघ्र ही समय पाकर अपने को प्रकट करेंगे ही, केवल मुकद्दमे की उलझन खोलने और कैदियों को निरुत्तर करने के लिए अपने को छिपाये हुए हैं।
तेज - आप लोगों को शायद यह मालूम नहीं कि भूतनाथ ने देवीसिंह को अपना दोस्त बना लिया है। जिस समय भूतनाथ के मुकद्दमे का बीज रोपा गया था उसके कई घंटे पहिले ही देवीसिंह ने उसकी सहायता करने की प्रतिज्ञा कर दी थी क्योंकि वह भूतनाथ की चालाकी, ऐयारी तथा उसके अच्छे कामों से प्रसन्न थे।
नकाब - ठीक है तब तो ऐसा हुआ ही चाहिए परन्तु कोई चिन्ता नहीं, भूतनाथ वास्तव में अच्छा आदमी है और उसे महाराज की सेवा का उत्साह भी है।
तेज - इसके अतिरिक्त उसने हमारे कई काम भी बड़ी खूबी के साथ किये हैं।
नकाब - ठीक है।
तेज - हां मैं एक बात आपसे पूछना चाहता हूं।
नकाब - आज्ञा!
तेज - निःसन्देह भूतनाथ और देवीसिंह आप लोगों का भेद लेने के लिए गये हैं, अस्तु आश्चर्य नहीं कि वे दोनों उस ठिकाने तक पहुंच गये हों जहां आप लोग रहते हैं और आपको उनका कुछ हाल भी मालूम हुआ हो!
नकाब - न तो वे हम लोगों के डेरे तक पहुंचे और न हम लोगों को उनका कुछ हाल ही मालूम है। हम लोगों के विषय में हजारों आदमी बल्कि यों कहना चाहिए कि आजकल यहां जितने लोग इकट्ठे हो रहे हैं सभी आश्चर्य करते हैं और इसलिए जब हम लोग यहां आते हैं तो सैकड़ों आदमी चारों तरफ से घेर लेते हैं और जाते समय तो कोसों तक पीछा करते हैं इसलिए हम लोगों को भी बहुत घूम-फिर तथा लोगों को भुलावा देते हुए अपने डेरे की तरफ जाना पड़ता है।
तेज - तब तो उन दोनों का न लौटना आश्चर्य है।
नकाब - बेशक, अच्छा तो आज हम लोग कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का कुछ हाल महाराज को सुनाते जायं, आखिर आ गये हैं तो कुछ काम करना ही चाहिए।
वीरेन्द्र - (ताज्जुब से) उनका कौन-सा हाल?
नकाब - वही तिलिस्म के अन्दर का हाल। जब तक राजा गोपालसिंह वहां थे तब तक का हाल तो उनकी जुबानी आपने सुना ही होगा मगर उसके बाद क्या हुआ और तिलिस्म में उन दोनों भाइयों ने क्या किया सो न सुना होगा, वह सब हाल हम लोग सुना सकते हैं, यदि आज्ञा हो तो...।
वीरेन्द्र - (ज्यादे ताज्जुब के साथ) कब तक का हाल आप सुना सकते हैं
नकाब - आज तक का हाल, बल्कि आज के बाद भी रोज-रोज का हाल तब तक बराबर सुना सकते हैं जब तक उनके यहां आने में दो घंटे की देर हो।
वीरेन्द्र - हम बड़ी प्रसन्नता से उनका हाल सुनने के लिए तैयार हैं। बल्कि हम चाहते हैं कि गोपालसिंह और अपने पिताजी के सामने वह हाल सुनें।
नकाब - जो आज्ञा, मैं सुनाने के लिए तैयार हूं।
वीरेन्द्र - मगर वह सब हाल आप लोगों को कैसे मालूम हुआ, मालूम होता है और होगा?
नकाब - (हाथ जोड़कर) इसका जवाब देने के लिए मैं अभी तैयार नहीं हूं, लेकिन यदि महाराज मजबूर करेंगे तो लाचारी है क्योंकि हम लोग महाराज को अप्रसन्न भी नहीं किया चाहते।
वीरेन्द्र - (मुस्कुराकर) हम तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना भी नहीं चाहते।
इतना कहके वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह स्वयं उठकर महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये और थोड़ी ही देर में लौट आकर बोले, “चलिए महाराज बैठे हैं और आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।” सुनते ही सब कोई उठ खड़े हुए और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ चले। उसी समय तेजसिंह ने एक ऐयार राजा गोपालसिंह के पास भेज दिया।