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भाग 27

 


बरसात के प्रारम्भिक दिन थे। संध्या होने में विलंब था। दशाश्वमेध घाट वाली चुंगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का वृक्ष है, उसके नीचे कितने ही मनुष्य कहलाने वाले प्राणियों का ठिकाना है। पुण्य-स्नान करने वाली बुढ़ियों की बाँस की डाली में से निकलकर चार-चार चावल सबों के फटे आँचल में पड़ जाते हैं, उनसे कितनों के विकृत अंग की पुष्टि होती है। काशी में बड़े-बड़े अनाथालय, बड़े-बड़े अन्नसत्र हैं और उनके संचालक स्वर्ग में जाने वाली आकाश-कुसुमों की सीढ़ी की कल्पना छाती फुलाकर करते हैं; पर इन्हें तो झुकी हुई कमर, झुर्रियों से भरे हाथों वाली रामनामी ओढ़े हुए अन्नपूर्णा की प्रतिमाएँ ही दो दाने दे देती हैं।
दो मोटी ईंटों पर खपड़ा रखकर इन्हीं दानों को भूनती हुई, कूड़े की ईंधन से कितनी क्षुधा-ज्वालाएँ निवृत्त होती हैं। यह एक दर्शनीय दृश्य है। सामने नाई अपने टाट बिछाकर बाल बनाने में लगे हैं, वे पीपल की जड़ से टिके हुए देवता के परमभक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल उन्हीं पर चढ़ाते हैं। वे नग्न-भग्न देवता, भूखे-प्यासे जीवित देवता, क्या पूजा के अधिकारी नहीं उन्हीं में फटे कम्बल पर ईंट का तकिया लगाये विजय भी पड़ा है। अब उसके पहचाने जाने की तनिक भी संभावना नहीं। छाती तक हड्डियों का ढाँचा और पिंडलियों पर सूजन की चिकनाई, बालों के घनेपन में बड़ी-बड़ी आँखें और उन्हें बाँधे हुए एक चीथड़ा, इन सबों ने मिलकर विजय को-'नये' को-छिपा लिया था। वह ऊपर लटकती हुए पीपल की पत्तियों का हिलना देख रहा था। वह चुप था। दूसरे अपने सायंकाल के भोजन के लिए व्यग्र थे।
अँधेरा हो चला, रात्रि आयी, कितनों के विभव-विकास पर चाँदनी तानने और कितनों के अन्धकार में अपनी व्यंग्य की हँसी छिड़कने! विजय निष्चेष्ट था। उसका भालू उसके पास घूमकर आया, उसने दुलार किया। विजय के मुँह पर हँसी आयी, उसने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिर पर रख पूछा, 'भालू! तुम्हें कुछ खाने को मिला?' भालू ने जँभाई लेकर जीभ से अपना मुँह पोंछा, फिर बगल में सो रहा। दोनों मित्र निश्चेष्ट सोने का अभिनय करने लगे।
एक भारी गठरी लिए दूसरा भिखमंगा आकर उसी जगह सोये हुए विजय को घूरने लगा। अन्धकार में उसकी तीव्रता देखी न गयी; पर वह बोल उठा, 'क्यों बे बदमाश! मेरी जगह तूने लम्बी तानी है मारूँ डण्डे से, तेरी खोपड़ी फूट जाय!'
उसने डण्डा ताना ही था कि भालू झपट पड़ा। विजय ने विकृत कण्ठ से कहा, 'भालू! जाने दो, यह मथुरा का थानेदार है, घूस लेने के अपराध में जेल काटकर आया है, यहाँ भी तुम्हारा चालान कर देगा तब?'
भालू लौट पड़ा और नया भिखमंगा एक बार चौंक उठा, 'कौन है रे?' कहता वहाँ से खिसक गया। विजय फिर निश्चिन्त हो गया। उसे नींद आने लगी। पैरों में सूजन थी, पीड़ा थी, अनाहार से वह दुर्बल था।
एक घण्टा बीता न होगा कि एक स्त्री आयी, उसने कहा, 'भाई!' 'बहन!' कहकर विजय उठ बैठा। उस स्त्री ने कुछ रोटियाँ उसके हाथ पर रख दीं। विजय खाने लगा। स्त्री ने कहा, 'मेरी नौकरी लग गयी भाई! अब तुम भूखे न रहोगे।'
'कहाँ बहन दूसरी रोटी समाप्त करते हुए विजय ने पूछा।
'श्रीचन्द्र के यहाँ।'
विजय के हाथ से रोटी गिर पड़ी। उसने कहा, 'तुमने आज मेरे साथ बड़ा अन्याय किया बहन!'
'क्षमा करो भाई! तुम्हारी माँ मरण-सेज पर है, तुम उन्हें एक बार देखोगे?'
विजय चुप था। उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। उसने कहा, 'माँ मरण-सेज पर! देखूँगा यमुना परन्तु तुमने...!'
'मैं दुर्बल हूँ भाई! नारी-हृदय दुर्बल है, मैं अपने को रोक न सकी। मुझे नौकरी दूसरी जगह मिल सकती थी; पर तुम न जानते होगे कि श्रीचन्द्र का दत्तक पुत्र मोहन का मेरी कोख से जन्म हुआ है।'
'क्या?'
'हाँ भाई! तुम्हारी बहन यमुना का रक्त है, उसकी कथा फिर सुनाऊँगी।'
'बहन! तुमने मुझे बचा लिया। अब मैं मोहन की रोटी सुख से खा सकूँगा।
पर माँ मरण-सेज पर... तो मैं चलूँ, कोई घुसने न दे तब!'
'नहीं भाई! इस समय श्रीचन्द्र बहुत-सा दान-कर्म करा रहे हैं, हम तुम भी तो भिखमंगे ठहरे-चलो न!'
टीन के पात्र में जल पीकर विजय उठ खड़ा हुआ। दोनों चले। कितनी ही गलियाँ पार कर विजय और यमुना श्रीचन्द्र के घर पहुँचे। खुले दालान में किशोरी लिटाई गयी थी। दान के सामान बिखरे थे। श्रीचन्द्र मोहन को लेकर दूसरे कमरों में जाते हुए बोले, 'यमुना! देखो, इसे भी कुछ दिला दो। मेरा चित्त घबरा रहा है, मोहन को लेकर इधर हूँ; बुला लेना।'
और दो-तीन दासियाँ थीं। यमुना ने उन्हें हटने का संकेत किया। उन सबने समझा-कोई महात्मा आशीर्वाद देने आया है, वे हट गयीं। विजय किशोरी के पैरों के पास बैठ गया। यमुना ने उसके कानों में कहा, 'भैया आये हैं।'
किशोरी ने आँखें खोल दीं। विजय ने पैरों पर सिर रख दिया। किशोरी के अंग सब हिलते न थे। वह कुछ बोलना चाहती थी; पर आँखों से आँसू बहने लगे। विजय ने अपने मलिन हाथों से उन्हें पोंछा। एक बार किशोरी ने उसे देखा, आँखों ने अधिक बल देकर देखा; पर वे आँखें खुली रह गयीं। विजय फिर पैरों पर सिर रखकर उठ खड़ा हुआ। उसने मन-ही-मन कहा-मेरे इस दुःखमय शरीर को जन्म देने वाली दुखिया जननी! तुमसे उऋण नहीं हो सकता!
वह जब बाहर जा रहा था, यमुना रो पड़ी, सब दौड़ आये।
इस घटना को बहुत दिन बीत गये। विजय वहीं पड़ा रहता था। यमुना नित्य उसे रोटी दे जाती, वह निर्विकार भाव से उसे ग्रहण करता।
एक दिन प्रभात में जब उषा की लाली गंगा के वक्ष पर खिलने लगी थी, विजय ने आँखें खोलीं। धीरे से अपने पास से एक पत्र निकालकर वह पढ़ने लगा-'वह विजय के समान ही उच्छृंखल है।... अपने दोनों पर तुम हँसोगी। किन्तु वे चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे ऐसी शंका हो रही है कि तारा (तुम्हारी यमुना) की माता रामा से मेरा अवैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।'
पढ़ते-पढ़ते विजय की आँखों में आँसू आ गये। उसने पत्र फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब भी न मिटा, उज्ज्वल अक्षरों से सूर्य की किरणों में आकाश-पट पर वह भयानक सत्य चमकने लगा।
उसकी धड़कन बढ़ गयी, वह तिलमिलाकर देखने लगा। अन्तिम साँस में कोई आँसू बहाने वाला न था, वह देखकर उसे प्रसन्नता हुई। उसने मन-ही-मन कहा-इस अन्तिम घड़ी में हे भगवान्! मैं तुमको स्मरण करता हूँ; आज तक कभी नहीं किया था, तब भी तुमने मुझे कितना बचाया, कितनी रक्षा की! हे मेरे देव! मेरा नमस्कार ग्रहण करो, इस नास्तिक का समर्पण स्वीकार करो! अनाथों के देव! तुम्हारी जय हो!
उसी क्षण उसके हृदय की गति बन्द हो गयी।
आठ बजे भारत-संघ का प्रदर्शन निकलने वाला था। दशाश्वमेध घाट पर उसका प्रचार होगा। सब जगह बड़ी भीड़ है। आगे स्त्रियों का दल था, जो बड़ा ही करुण संगीत गाता जा रहा था, पीछे कुछ स्वयंसेवियों की श्रेणी थी। स्त्रियों के आगे घण्टी और लतिका थीं। जहाँ से दशाश्वमेध के दो मार्ग अलग हुए हैं, वहाँ आकर वे लोग अलग-अलग होकर प्रचार करने लगे। घण्टी उस भिखमंगों वाले पीपल के पास खड़ी होकर बोल रही थी। उसके मुख पर शान्ति थी, वाणी में स्निग्धता थी। वह कह रही थी, 'संसार को इतनी आवश्यकता किसी अन्य वस्तु की नहीं, जितनी सेवा की। देखो-कितने अनाथ यहाँ अन्न, वस्त्र विहीन, बिना किसी औषधि-उपचार के मर रहे हैं। हे पुण्यार्थियो! इन्हें ना भूलो, भगवान अभिनय करके इसमें पड़े हैं, वह तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं। इतने ईश्वर के मंदिर नष्ट हो रहे हैं धार्मिको। अब भी चेतो!'
सहसा उसकी वाणी बंद हो गयी। उसने स्थिर दृष्टि से एक पड़े हुए कंगले को देखा, वह बोल उठी, 'देखो वह बेचारा अनाहार-से मर गया-सा मालूम पड़ता है। इसका संस्कार...'
'हो जायेगा। हो जायेगा। आप इसकी चिन्ता न कीजिये, अपनी अमृतवाणी बरसाइये।' जनता में कोलाहल होने चला; किन्तु वह आगे बढ़ी; भीड़ भी उधर ही जाने लगी। पीपल के पास सन्नाटा हो चला।
मोहन अपनी धाय के संग मेला देखने आया था। वह मान-मन्दिर वाली गली के कोने पर खड़ा था। उसने धाय से कहा, 'दाई, मुझे वहाँ ले चलकर मेला दिखाओ, चलो, मेरी अच्छी दाई।'
यमुना ने कहा, 'मेरे लाल! बड़ी भीड़ है, वहाँ क्या है जो देखोगे?'
मोहन ने कहा, 'फिर हम तुमको पीटेंगे।'
'तब तुम पाजी लड़के बन जाओगे, जो देखेगा वही कहेगा कि यह लड़का अपनी दाई को पीटता है।' चुम्बन लेकर यमुना ने हँसते हुए कहा।
अकस्मात् उसकी दृष्टि विजय के शव पर पड़ी। वह घबराई कि क्या करे। पास ही श्रीचन्द्र भी टहल रहे थे। उसने मोहन का उनके पास पहुँचाते हुए हाथ जोड़कर कहा, 'बाबूजी, मुझे दस रुपये दीजिये।'
श्रीचन्द्र ने कहा, 'पगली क्या करेगी
वह दौड़ी हुई विजय के पास गयी। उसने खड़े होकर उसे देखा, फिर पास बैठकर देखा। दोनों आँखो से आँसू की धारा बह चली।
यमुना दूर खड़े श्रीचन्द्र के पास आयी। बोली, 'बाबूजी, मेरे वेतन में से काट लेना, इसी समय दीजिये, मैं जन्म-भर यह ऋण भरूँगी।'
'है क्या, मैं भी सुनूँ।' श्रीचन्द्र ने कहा।
'मेरा एक भाई था, यहीं भीख माँगता था बाबू। आज मरा पड़ा है, उसका संस्कार तो करा दूँ।'
वह रो रही थी। मोहन ने कहा, 'दाई रोती है बाबूजी, और तुम दस ठो रुपये नहीं देते।'
श्रीचन्द्र ने दस का नोट निकालकर दिया। यमुना प्रसन्नता से बोली, 'मेरी भी आयु लेकर जियो मेरे लाल।'
वह शव के पास चल पड़ी; परन्तु उस संस्कार के लिए कुछ लोग भी चाहिए, वे कहाँ से आवें। यमुना मुँह फिराकर चुपचाप खड़ी थी। घण्टी चारों और देखती हुई फिर वहीं आयी। उसके साथ चार स्वयंसेवक थे।
स्वंयसेवकों ने पूछा, 'यही न देवीजी?'
'हाँ।' कहकर घण्टी ने देखा कि एक स्त्री घूँघट काढ़े, दस रुपये का नोट स्वयंसेवक के हाथ में दे रही है।
घण्टी ने कहा, 'दान है पुण्यभागिनी का-ले लो, जाकर इससे सामान लाकर मृतक संस्कार करवा दो।'
स्वयंसेवक ने उसे ले लिया। वह स्त्री बैठी थी। इतने में मंगलदेव के साथ गाला भी आयी। मंगल ने कहा, 'घण्टी! मैं तुम्हारी इस तत्परता से बड़ा प्रसन्न हुआ। अच्छा अब बोलो, अभी बहुत-सा काम बाकी है।'
'मनुष्य के हिसाब-किताब में काम ही तो बाकी पड़े मिलते हैं।' कहकर घण्टी सोचने लगी। फिर उस शव की दीन-दशा मंगल को संकेत से दिखलायी।
मंगल ने देखा एक स्त्री पास ही मलिन वसन में बैठी है। उसका घूँघट आँसुओं से भींग गया है और निराश्रय पड़ा है एक कंकाल!