एक द्वंद मेरा मुझसे ही
ख्वाहिशो के समंदर से हर रोज़ एक लहर आकर मुझे थपेड़े मारती है
झकझोर कर मेरे दिल को मुझसे पूछती है, की तू इतनी जल्दी क्यों हार मानती है
हज़ारो सवाल है दिल मे, जिनका कोई जवाब नही
क्यों एक अरसे से मेने आईने में खुद को देख नही
सूरज देख कर जल जाती हूं, चाँद देख कर थम जाती हूं
अपने ही दिल के दरिया में कभी बर्फ सी जम जाती हूं
उठ खड़ी होती हू फिर से जीने के लिए
केवल दरिया नही खुशियो का पूरा समंदर पीने के लिए
हर राह के अंत मे एक दरवाजा या खिड़की जरूर आती है
और अगर ना आये तो मुझे लकड़ी की कारीगरी भी आती है
मेरा हर सपना मुझे अपने पास थोड़ा और खिंचता है
और मेरा दिल मेरे हर सपने को नई उम्मीदों से सींचता है
इस खेल में हारती भी मैं हु और मैं ही विजेता भी,
हर रोज़ होता है इसी तरह होता है, एक द्वंद मेरा मुझसे ही।
अपेक्षा