अंश ५
फिर वह चकवे के पास जा पहुँचते। उससे वही प्रश्न करते, लेकिन उन्हें लगता जैसे चकवा उनसे पूछ रहा है -- "तुम कौन हो?" वह कहते, "अरे, तुम मुझे नहीं जानते? सूर्य मेरे नाना और चंद्रमा मेरे दादा हैं। उर्वशी और धरती ने अपने-आप मुझे अपना स्वामी बनाया है। में वहीं पुरुरवा हूँ।" लेकिन चकवा भी चुप रहता। महाराज वहाँ से हटकर कमल पर मंडराते हुए भौरों से पूछने लगते। पर वे भी क्या जवाब देते! फिर उन्हें हाथी दिखाई दे जाता। उसके पास जाकर वह पूछते, "हे मतवाले हाथी! तुम दूर तक देख सकते हो। क्या तुमने सदा जवान रहनेवाली उर्वशी को देखा है। तुम मेरे समान बलवान हो। मैं राजाओं का स्वामी हूँ। तुम गजों के स्वामी हो। तुम दिन-रात अपना दान यानी मद बहाया करते हो, मेरे यहाँ भी दिन-रात दान दिया जाता है। तुमसे मुझे बड़ा स्नेह हो गया है। अच्छा, सुखी रहो। हम तो जा रहे हैं।"
और फिर उनको दिखाई दे जाता एक सुहावना पर्वत। उसीसे पूछने लगते, "हे पर्वतों के स्वामी! क्या तुमने मुझसे बिछुड़ी हुई सुंदरी उर्वशी को कहीं इस वन में देखा है। उन्हें ऐसा लगता जैसे पर्वतराज ने कुछ उत्तर दिया है। उन्हें खुशी होती, पर तभी मालूम होता कि वह पर्वतराज का उत्तर नहीं था, बल्कि पहाड़ की गुफा से टकराकर निकलनेवाली उन्हीं के शब्दों की गूँज थी।
यहाँ से हटे तो नदी दिखाई दे गई। उसी से उर्वशी की तुलना करने लगे। लेकिन जब वह भी कुछ नहीं बोली तो हिरन के पास जा पहुँचे। उसने भी उनकी बातें अनसुनी करके दूसरी ओर मुँह फेर लिया।ठीक ही है, जब खोटे दिन आते हैं तो सभी दुरदुराने लगते हैं। लेकिन तभी उन्होंने लाल अशोक के पेड़ को देखा। उससे भी वही प्रश्न किया और जब वह हवा से हिलने लगा तो समझे कि वह मना कर रहा है - उसने उर्वशी को नहीं देखा।
इसी प्रकार पागलों की तरह प्रलाप करते हुए जब वह यहाँ से मुड़े तो उन्हें एक पत्थर की दरार में लाल मणि-सा कुछ दिखाई दिया।
सोचने लगे कि न तो यह शेर से मारे हुए हाथी का मांस हो सकता है और न आग की चिनगारी। मांस इतना नहीं चमकता और चूँ कि अभी भारी वर्षा होकर चुकी है, इसलिए आग के रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता। यह तो अवश्य लाल अशोक के समान लाल मणि है। इसे देखकर मेरा मन ललचा रहा है।
यह सोचकर वह आगे बढ़े और मणि को निकाल लिया। लेकिन फिर ध्यान आया कि जब उर्वशी ही नहीं है तो मणि का क्या होगा! इसलिए उसे गिरा दिया। उसी समय नेपथ्य में से किसी की वाणी सुनाई दी, "वत्स! इसे ले लो, ले लो, यह प्रियजनों को मिलानेवाली है और पार्वती के चरणों की लाली से बनी है। जो इसे अपने पास रखता है उसे वह शीघ्र ही प्रिय से मिलवा देती है।"
यह वाणी सुनकर महाराज चकित रह गए। उन्हें जान पड़ा कि मानो किसी मुनि ने यह कृपा की है। उन्होंने उस अज्ञात मुनि को धन्यवाद दिया और मणि को उठा लिया। इसी समय उनकी दृष्टि बिना फूलवाली एक लता पर पड़ी। न जाने क्यों उनका मन उछल पड़ा। उन्हें सुख मिला। वह उन्हें उर्वशी के समान दिखाई पड़ी और जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उर्वशी सचमुच वहाँ आ गई; पर उनकी आँखें बंद थीं। उसी तरह कुछ देर बोलते रहे। जब आँखें खोली और उर्वशी को देखा तो वह मूच्र्छित होकर गिर पड़े। उर्वशी भी रोने लगी और उन्हें धीरज बँधाने लगी। कुछ देर बाद महाराज की मूर्च्छा दूर हुई तो उन्हें कार्तिकेय के श्राप के कारण उर्वशी के लता बन जाने के रहस्य का पता लगा। यह भी पता लगा कि पार्वती के चरणों की लाली से पैदा होनेवाली मणि से ही इसे शाप से मुक्ति मिली है।
उर्वशी उनसे बार-बार क्षमा माँगने लगी, "मुझे क्षमा कर दीजिए, क्योंकि मैंने ही क्रोध करके आपको इतना कष्ट पहुँचाया।" महाराज बोले, "कल्याणी! तुम क्षमा क्यों माँगती हो! तुम्हें देखते ही मेरी आत्मा तक प्रसन्न हो गई है।" और फिर उन्होंने उसे वह मणि दिखाई, जिसके कारण उसका श्राप दूर हो गया था। उर्वशी ने उस मणि को सिर पर धारण किया तो उसके प्रकाश में उसका मुख अरुण-किरणों से चमकते हुए कमल के समान सुहावना लगने लगा।
इसी समय उर्वशी ने याद दिलाया, "हे प्रिय बोलनेवाले! आप बहुत दिनों से प्रतिष्ठान पुरी से बाहर हैं। आपकी प्रजा इसके लिए मुझे कोस रही होगी। इसलिए आइए अब लौट चलें।
महाराज ने उत्तर दिया, "जैसा तुम चाहो।" और लौट पड़े।
नंदन वन आदि देवताओं के बनों में घूमकर महाराज पुरुरवा फिर अपने नगर में लौट आए। नागरिकों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और वह प्रसन्न होकर राज करने लगे। संतान को छोड़ कर उन्हें अब और किसी बात की कमी नहीं थीं। उन्हीं दिनों एक दिन एक सेवक महारानी के माथे की मणि ताड़ की पिटारी में रखे ला रहा था कि इतने में एक गिद्ध झपटा और उसे मांस का टुकड़ा समझकर उठाकर उड़ गया। यह समाचार पाकर महाराज आसन छोड़कर दौड़ पड़े। पक्षी अभी दिखाई दे रहा था। उन्होंने अपना धनुषबाण लाने की आज्ञा दी।
लेकिन जबतक धनुष आया तब तक वह पक्षी बाण की पहुँच से बाहर निकल चुका था और ऐसा लगने लगा था मानो रात के समय घने बादलों के दल के साथ मंगल तारा चमक रहा हो। यह देखकर महाराज ने नगर में यह घोषणा करवाने की आज्ञा दी कि जब यह चोर पक्षी संध्या को अपने घोंसले में पहुँचे तो इसकी खोज की जाय।
यह वही मणि थी, जिसके कारण उर्वशी और महाराज का मिलन हुआ था। इसलिए महाराज उसका विशेष आदर करते थे। वह यह बात विदूषक को बता ही रहे थे कि कंचुकी ने आकर महाराज की जय-जयकार की। उसने कहा, "आपके क्रोध ने बाण बनकर इस पक्षी को मार डाला और इस मणि के साथ यह धरती पर गिर पड़ा।"
महाराज ने उस मणि को आग में शुद्ध करके पेटी में रखने की आज्ञा दी और यह जानने के लिए कि बाण किसका है उसपर अंकित नाम पढ़ने लगे। पढ़कर वह सोच में पड़ गए। उस पर लिखा हुआ था - यह बाण पुरुरवा और उर्वशी के धनुर्धारी पुत्र का है। उसका नाम आयु है और वह शत्रुओं के प्राण खींचनेवाला है।
विदूषक यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने महाराज को बधाई दी, पर वह तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे।
यह पुत्र कैसे पैदा हुआ। वह तो कुछ जानते ही नहीं। शायद उर्वशी ने दैवी-शक्ति से इस बात को छिपा रखा हो। पर उसने पुत्र को क्यों छिपा रखा?