अठारहवां भाग बयान - 1
कह सकते हैं कि तारासिंह के हाथ में नानक का मुकद्दमा दे ही दिया गया। राजा वीरेन्द्रसिंह ने तारासिंह को इस काम पर मुकर्रर किया था कि वह नानक के घर जाय और उसकी चाल-चलन तथा उसके घर के सच्चे-सच्चे हाल की तहकीकात करके लौट आवे मगर इसके पहिले कि तारासिंह नानक की चाल-चलन और उसकी नीयत का हाल जाने, उसने नानक के घर ही की तहकीकात शुरू कर दी और उसकी स्त्री का भेद जानने के लिए उद्योग किया। जब नानक की स्त्री सहज ही में तारासिंह के पास आ गई तो उसे उसकी बदचलनी का विश्वास हो गया और उसने चाहा कि किसी तरह नानक की स्त्री को टाल दे और इसके बाद नानक की नीयत का अन्दाजा करे मगर उसकी कार्रवाई में उस समय विघ्न पड़ गया जब नानक की स्त्री तारासिंह के सामने जा बैठी और उसी समय बाहर से किसी के चिल्लाने की आवाज आई।
हम कह चुके हैं कि नानक के यहां एक मजदूरनी थी। वह नानक के काम की चाहे न थी मगर उसकी स्त्री के लिए उपयुक्त पात्र थी और उसके द्वारा नानक की स्त्री का सब काम चलता था। मगर इस तारासिंह वाले मामले में नानक की स्त्री श्यामा की बातचीज हनुमान छोकरे की मारफत हुई थी इसलिए बीच वाले मुनाफे की रकम में उस मजदूरनी के हाथ झंझी कौड़ी भी न लगी थी जिसका उसे बहुत रंज हुआ और वह दोस्ती के बदले में दुश्मनी करने पर उतारू हो गई। इसलिए कि श्यामारानी को उससे किसी तरह का पर्दा तो था ही नहीं, उसने मजदूरनी से अपना भेद तो सब कह दिया मगर उसने हानि-लाभ पर ध्यान न दिया। इसलिए वह मजदूरनी चुपचाप सब कार्रवाई देखती-सुनती और समझती रही मगर जब श्यामारानी तारासिंह के यहां चली गई और कुछ देर बाद नानक घर में आया तो उसने अपना नाम प्रकट न करने का वादा कराके सब हाल नानक से कह दिया और तारासिंह का मकान दिखा देने के लिए भी तैयार हो गई क्योंकि उसे पता-ठिकाना तो मालूम हो ही चुका था।
नानक ने जब सुना कि उसकी स्त्री किसी परदेशी के घर गई है, तब उसे बड़ा ही क्रोध आया और उसने ऐयारी के सामान से लैस होकर अकेले ही अपनी स्त्री का पीछा किया।
नानक ने यद्यपि किसी कारण से लोकलाज को तिलांजलि दे दी थी मगर ऐयारी को नहीं। उसे अपनी ऐयारी पर बहुत भरोसा था और वह दस-पांच आदमियों में अकेला घुसकर लड़ने की हिम्मत भी रखता था। यही सबब था कि उसने किसी संगी-साथी का खयाल न करके अकेले ही श्यामारानी का पीछा किया, हां यदि उसे यह मालूम होता कि श्यामारानी का उपपति तारासिंह है तो कदापि अकेला न जाता।
नानक औरत के वेश में घर से बाहर निकला और जब उस मकान के पास पहुंचा जिसमें तारासिंह ने डेरा डाला था, तो कमन्द लगाकर मकान के ऊपर चढ़ गया और धीरे-धीरे उस कोठरी के पास जा पहुंचा जिसके अन्दर तारासिंह और श्यामारानी थी और बाहर तारासिंह का चेला और नानक का नौकर हनुमान हिफाजत कर रहा था। वहां पहुंचते ही उसने एक लात अपने नौकर की कमर में ऐसी जमाई कि वह तिलमिला गया और जब वह चिल्लाया तो उसे चिढ़ाने की नीयत से स्वयं नानक भी औरतों ही की तरह चिल्ला उठा।
यही वह चिल्लाने की आवाज थी जिसे कोठरी के अन्दर बैठे हुए तारासिंह और श्यामा ने सुना था। चिल्लाने की आवाज सुनते ही तारासिंह उठ खड़ा हुआ और हाथ में खंजर लिए कोठरी के बाहर निकला। वहां अपने चेले और हनुमान के अतिरिक्त एक औरत को खड़ा देख वह ताज्जुब करने लगा और उसने औरत अर्थात् नानक से पूछा, ''तू कौन है?'
नानक - पहिले तू ही बता कि तू कौन है जिसमें तुझे मार डालने के बाद यह तो मालूम रहे कि मैंने फलाने को मारा था।
तारा - तेरी ढिठाई पर मुझे ताज्जुब ही नहीं होता बल्कि यह तो मालूम होता है कि तू औरत नहीं कोई ऐयार है!
नानक - (गम्भीरता के साथ) बेशक मैं ऐयार हूं तभी तो अकेले तेरे घर में घुस आया हूं। शैतान, तू नहीं जानता कि बुरे कर्मों का फल क्योंकर मिलता है। और वह कितना बड़ा ऐयार है जिसकी स्त्री को तूने धोखा देकर बुला लिया है!
तारा - (जोर से हंसकर) अ ह ह ह! अब मुझे विश्वास हो गया कि बेहया नानक तू ही है और शायद अपनी पतिव्रता की आमदनी गिनने के लिए यहां आ पहुंचा है। अच्छा तो अब तुझे यह भी जान लेना चाहिए कि जिसका तू मुकाबला कर रहा है उसका नाम तारासिंह है और वह राजा वीरेन्द्रसिंह की आज्ञानुसार तेरी चाल-चलन की तहकीकात करने आया है।
तारासिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही नानक सन्न हो गया। उधर उसकी स्त्री ने जब यह जाना की इस कोठरी के बाहर उसका पति खड़ा है तो वह नखरे से रोने-पीटने लगी तथा यह कहती हुई कोठरी के बाहर निकलकर नानक के पैरों में गिर पड़ी कि मुझे तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहां ले आया है।
नानक थोड़ी देर तक सन्नाटे में रहा, इसके बाद तारासिंह की तरफ देखके बोला -
नानक - क्यों ऐयारों का यही धर्म है कि दूसरों की औरतों को खराब करें और बदकारी का धब्बा अपने नाम के साथ लगावें।
तारा - नहीं-नहीं, ऐयारों का यह काम नहीं है, और ऐयारों को यह भी उचित नहीं है कि सब तरफ का खयाल छोड़ केवल औरतों की कमाई पर गुजारा करें। मैंने तेरी औरत को किसी बुरी नीयत से नहीं बुलाया बल्कि चाल-चलन का हाल जानने के लिए ऐसा किया है। जो बातें तेरे बारे में सुनी हैं और जो कुछ यहां आने पर मैंने मालूम कीं उनसे जाना जाता है कि तू बड़ा ही कमीना और नमकहराम है। नमकहराम इसलिए कि मालिक के काम की तुझे कुछ भी फिक्र नहीं है और इसका सबूत केवल मनोरमा ही बहुत है जिसके साथ तू शादी किया चाहता था और जिसने जूतियों से तेरी पूजा ही नहीं की बल्कि तिलिस्मी खंजर भी तुझसे ले लिया।
नानक - यह कोई आवश्यक नहीं है कि ऐयारों का काम सदैव पूरा ही उतरा करे, कभी धोखा खाने में न आवे! यदि मनोरमा की ऐयारी मुझ पर चल गई तो इसके बदले में कमीना और नमकहराम कहे जाने लायक मैं नहीं हो सकता। क्या तुमने और तुम्हारे बाप ने कभी धोखा नहीं खाया और मेरी स्त्री को जो तुम बदनाम कर रहे हो वह तुम्हारी भूल है। वह तो खुद कह रही है कि 'मुझे तो तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहां ले आया है।' मेरी स्त्री बदकार नहीं है बल्कि वह साध्वी और सती है, असल में बदमाश तू है जो इस तरह धोखा देकर पराई स्त्री को अपने घर में बुलाता है और मुझे यहां पर अकेला जानकर गालियां देता है, नहीं तो मैं तुझसे किसी बात में कम नहीं हूं।
तारा - नहीं-नहीं, तू बहुत बातों में मुझसे बढ़के है, और मैं भी अकेला समझके तुझे गालियां नहीं देता बल्कि दोषी जानकर गालियां देता हूं। तू अपनी स्त्री को साध्वी-सती छोड़के चाहे माता से भी बढ़कर समझ ले, मेरी कोई हानि नहीं है। मैं वास्तव में जिस काम के लिए आया था उसे कर चुका, अब यहां से जाकर मालिक से सब रह दूंगा और तेरे गम्भीर स्वभाव की प्रशंसा भी करूंगा, जिसे सुनकर तेरा बाप बहुत ही प्रसन्न होगा जो अपनी एक भूल के कारण हद से ज्यादे पछता रहा है और बदनामी का टीका मिटाने के लिए जी-जान से उद्योग कर रहा है मगर तुझ कपूत के मारे कुछ भी करने नहीं पाता। (हंसकर) ऐसी कुल्टा स्त्री को सती और साध्वी समझने वाला अपने को ऐयार कहे यही आश्चर्य है।
नानक - मेरे ऐयार होने में तुम्हें कुछ शक है!
तारा - कुछ! अजी बिल्कुल शक है!
नानक - यदि तुम ऐसा समझ भी लो तो इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है, इससे ज्यादे तुम और कुछ भी नहीं कर सकते कि यहां से जाकर राजा वीरेन्द्रसिंह से मेरी झूठी शिकायतें करो मगर इस बात को भी समझ लो कि मैं किसी का ताबेदार नहीं हूं।
तारा - (क्रोध से) तू किसी का ताबेदार नहीं ह।
तारासिंह को क्रोधित देख नानक डर गया, केवल इसलिए कि इस जगह वह अकेला था और अकेले ही इस मकान में तारासिंह का मुकाबला करना अपनी ताकत से बाहर समझता था जिसके दो चेले भी यहां मौजूद थे, अस्तु समय पर ध्यान देकर वह चुप हो गया मगर दिल में वह तारासिंह का जानी दुश्मन हो गया। उसने मन में निश्चय कर लिया कि तारासिंह को किसी-न-किसी ढंग से अवश्य नीचा दिखाना बल्कि मार डालना चाहिए।
नानक ने और भी न मालूम क्या सोचकर अपनी जुबान को रोका और सिर नीचा करके चुपचाप खड़ा रह गया। तारासिंह ने कहा, ''बस अब तू जा और अपनी साध्वी तथा नौकर को भी अपने साथ लेता जा!''
नानक ने इस आज्ञा को गनीमत समझा और चुपचाप वहां से रवाना हो गया। उसकी स्त्री और नौकर भी उसके पीछे चल पड़े।
उसी समय तारासिंह ने भी अपना डेर कूच कर दिया और शहर के बाहर हो चुनार का रास्ता लिया, मगर दिल में सोच लिया कि कम्बख्त नानक अवश्य मेरा पीछा करेगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि धोखा देकर जान लेने की फिक्र भी करे।