बयान - 17
अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुँच कर डेरा डाला।
राजा सुरेंद्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गए और अपने साथ शहर में आए।
महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और जाफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने जाफत से इंकार किया और कहा – 'कई वजहों से मैं आपकी जाफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि जाफत से क्यों इनकार करता हूँ।'
राजा सुरेंद्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।
रात के वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठा कर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।
रात को ही यह राय पक्की हो गई कि सवेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़ ले कर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुँचे।
कुँवर वीरेंद्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह से हाथ जोड़ कर अर्ज किया - 'जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि जब वे लोग इस खोह के पास पहुँच जाएँ, तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़ कर पहले अकेले आ कर हमसे मिल जाना।, अब आप कहें तो योगी जी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जा कर मिल आऊँ।'
महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा - 'योगी जी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिल कर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ता है।'
कुँवर वीरेंद्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ ले कर खोह में गए। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों, मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुँचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।
बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले - 'आप लोग आ गए?'
पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुँच कर उनकी बात का जवाब दिया -
कुमार - 'आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़ कर आपसे मिलने आया हूँ।'
सिद्धनाथ – 'बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आए, आज कुमारी चंद्रकांता से आप लोग जरूर मिलोगे।'
तेजसिंह – 'आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।'
सिद्धनाथ – 'कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।'
तेजसिंह - (ताज्जुब से उनकी तरफ देख कर) 'हाँ, उत्पात तो हुआ था, कोई जालिम खाँ, नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।'
सिद्धनाथ – 'हाँ, यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा उस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गए, अब उनके संगी-साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते-टहलते हम लोग बात करें।'
कुमार - 'बहुत अच्छा।'
तेजसिंह – 'जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिम खाँ कौन था?'
सिद्धनाथ – 'यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाजिम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।'
कुमार - 'ठीक है, जो आप सोचते हैं वही होगा।'
सिद्धनाथ – 'महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गए?'
कुमार - 'जी हाँ, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।'
सिद्धनाथ – 'जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।'
कुमार - 'क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बाँधेगे ?'
सिद्धनाथ – 'कौन ठिकाना?'
कुमार - 'अब हुक्म हो तो बाहर जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊँ।'
सिद्धनाथ – 'हाँ, पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।
कुमार - 'कहिए।'
सिद्धनाथ – 'कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गई हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाए, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकांता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकांता से किसी तरह की बेअदबी हो जाए या जोश में आ कर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।
अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई। मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन-रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी - सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना। कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे-पीछे रवाना हो गए।
थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुला कर सिद्धनाथ ने कहा - 'तू अभी चंद्रकांता के पास जा और कह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जा कर बैठो।'
यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर-उधर घूमने लगे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी-अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गए कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगी जी के पीछे-पीछे घूमते रह गए।
घूम-फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुँचे जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहाँ पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देख कर कहा - 'जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकांता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूँ।'
कुँवर वीरेंद्रसिंह उस कमरे में अंदर गए। दूर से कुमारी चंद्रकांता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।
देखते ही कुँवर वीरेंद्रसिंह, कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकांता कुमार की तरफ। अभी एक-दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिर कर बेहोश हो गए।
तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बँध गई। बेचारी चंपा, कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला ले कर दौड़ी हुई आई।
दोनों के मुँह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा-सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल कर हलका लखलखा बना कर दोनों को सुँघाया।
कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकांता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।
कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता दोनों होश में आए, दोनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, मुँह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन-सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठाएँ, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आ कर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आँखें डबडबा आईं थीं बल्कि आँसू की बूँदे बाहर गिरने लगीं।
घंटों बीत गए, देखा-देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तन-बदन की सुधा न रही। कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।
कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हाँ, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुँचा हुआ प्रेम देख कर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा-देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाए। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगे। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली - 'कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूँगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?'
किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़ कर न बिगाड़े, इसीलिए योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे, दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हाँ, चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आँखें जो मिल-जुल कर एक हो रही थीं हिल-डुल कर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ-कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बे-सिर-पैर की, टूटी-फूटी पागलों की-सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आएँ। न तो कुमारी चंद्रकांता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।
वे दोनों पहर आमने-सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहाँ दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आ कर कहा - 'कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबा जी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।'
कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबरा कर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल-की-दिल ही में रह गई।
कुमारी चंद्रकांता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुँच कर जल्दी मचा दी। आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े, जिन्होंने कुमार को अपने पास बुला कर कहा - 'कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकांता के पास बैठे रहो। दोपहर होने वाली है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।'
कुमार - '(सूरज की तरफ देख कर) जी हाँ दिन तो... ।'
बाबा - 'दिन तो क्या?'
कुमार - (सकपकाए-से हो कर) 'देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊँ?'
बाबा – 'हाँ जाओ, उन लोगों को यहाँ ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लाएँ जो कुमारी चंद्रकांता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।'
कुमार - 'बहुत अच्छा।'
बाबा – 'जाओ अब देर न करो।'
कुमार - 'प्रणाम करता हूँ।'
बाबा – 'इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।'
तेजसिंह – 'दंडवत।'
बाबा – 'तुमको तो जन्म भर दंडवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हाल खोह के बाहर वाले न सुनें और आते वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।'
तेजसिंह – 'जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे।'
बाबा – 'अच्छा जाओ।'
दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से विदा हो, उसी मालूमी राह से घूमते-फिरते खोह के बाहर आए।