कुचिपुड़ी
कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्वदेशी नृत्य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्णा जिले का एक कस्बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी शताब्दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्य परम्परा है। कुचीपुडी कला का जन्म अधिकांश भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी।
परम्परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया।
महिला नृत्यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्य को पुन: परिभाषित किया। कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्मी नारायण, चिंता कृष्णा मूर्ति और तादेपल्ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्य को और समृद्ध बनाया है। डॉ॰ वेमापति चिन्ना सत्यम ने इसमें कई नृत्य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्य रूप के क्षितिज को व्यापक बनाया। यह परम्परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं।