खौफनाक प्रयोग
जब वैज्ञानिक नैतिक वर्जनाओं के खिलाफ जाते है तो हम मान सकते हैं की इसके भयानक नतीजे होगे | ऐसा कहानियों में बताया जाता है और जो मैरी शेल्ली के फ्रैंकइंस्टीन के समय से ये बात मान्य है | चाहे हमारे वैज्ञानिक कितने भी नेक इरादे से काम को अंजाम दें, उनकी नैतिकता की हदों को पार करने से साइंस में छपने वाला लेख नहीं बल्कि राक्षीय कातिलों की नस्ल, या समय –वक़्त में एक गड्ढा उत्पन्न होगा |
हकीकत की दुनिया में लेकिन मसले इतने आसान नहीं होते हैं | कई वैज्ञानिक आपको इस बात का भरोसा दिलाएंगे की नैतिकता के नियम कभी भी सही शोध में अड़चन नहीं बनेंगे – की किसी भी बात को साबित करने का एक सही रास्ता है | पर अगर उनसे अकेले में पूछा जाये, शायद एक या तीन शराब के गिलास के बाद और वो मानेंगे की गलत काम का भी अपना मज़ा है | नियमों का थोडा उल्लंघन करो और हमारे सबसे पुरानी वैज्ञानिक समस्याओं का स्पष्टीकरण और मुद्दों का हल निकल सकता है :पोषण बनाम प्रकृती,दिमागी बिमारियों की वजह,इंसान बन्दर से कैसे विकसित हुआ इस रहस्य का जवाब | ये खोजें सब वहां हमारा इंतज़ार कर रही हैं, की हम उन्हें ढूँढ लें, सिर्फ हम अपनी आत्मा को खोने के लिए तैयार हों |
आगे लिखे हैं ७ ऐसे भयानक शोध –दिमागी शोध,सच में – जो ये दिखाते हैं की कैसे समकालीन विज्ञान विकसित हो अगर हम उसका मार्गदर्शन करने वाले नैतिक हदों को तोड़ दें | इन्हें घर पर करने की चेष्टा न करें – या कहीं भी नहीं करें | ऐसे भी मत बनिए की जैसे आप उन राज़ों को जानना नहीं चाहते जो ये शोध उजागर करेंगे |
# जुड़वाँ को अलग करना
शोध : जुड़वाँ को पैदा होते ही अलग कर दो- और फिर उनके वातावरण के हर पहलू पर नज़र रखें |
प्रस्ताव : प्रकृति और पोषण के बीच का खेल समझने की खोज में शोधकर्ताओं के पास एक सबसे ज़ाहिर साधन है – हमशकल जुड़वाँ, दो लोग जिनके जीनस लगभग 100 % एक जैसे हैं | पर जुड़वाँ हमेशा साथ बड़े होते हैं, अक्सर एक ही जैसे वातावरण में | कुछ शोधों में ऐसे जुड़वाँ को ढूंडा गया था जो काफी कम उम्र में अक्सर गोद लिए जाने की वजह से,अलग हो गए थे | लेकिन ये नियंत्रण कर पाना नामुमकिन है की जुदा हुए जुड़वाँ की ज़िंदगी किस किस तरीके से जुडी है | अगर वैज्ञानिक जुड़वाँ को शुरू से नियंत्रित कर सकते तो वो एक कड़ी शोध के निर्माण से हो सकता है | सोचा जाये तो ये सबसे अनैतिक शोधों में से है पर शायद यही एक तरीका है ( शोध के लिए आदमियों को क्लोन करने के इलावा जो की बिना किसी बहस के शायद सबसे अनैतिक है )जिससे हम आनुवंशिकी और परवरिश के कई बड़े सवालों के जवाब हासिल कर पायेंगे |
ये कैसे काम करता है : ऐसी औरतें जो जुड़वाँ से गर्भवती हैं उनको समय से पहले इस शोध के लिए नामांकित करना होगा ताकि जनम से ही दोनों बच्चों का वातावरण बिलकुल अलग हो जाए | एक बार किन कारकों का विश्लेषण करना है उसका चुनाव हो जाये, शोधकर्ता दोनों बच्चो के लिए शोध घरों का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें ये देखा जाए की उनकी परवरिश की हर ज़रुरत, खाने से लेकर मौसम को सही मात्रा में नियंत्रित किया जा रहा है |
अंजाम : सभी विभागों को इससे काफी फायदा होगा, लेकिन सबसे ज्यादा फायदा होगा मनोवैज्ञानिकों को जिनके लिए परवरिश की अहमियत आज भी अस्पष्ट है | विकासशील मनोवैज्ञानिक इंसान के व्यक्तित्व को लेकर नयी खोजें कर सकते हैं – उदाहरण के तौर पर हमें अंत में ये समझ आएगा की क्यूँ साथ बड़े होने वाला जुड़वाँ एक दुसरे से बिलकुल अलग हैं और जो अलग पले बड़े हैं वो काफी एक जैसे हैं |
# मस्तिष्क की जांच
शोध: एक जीवित इंसान के दिमाग की कोशिकाएं निकाल ये देखना की कौनसे जीन्स चालू है और कौनसे नहीं |
प्रस्ताव: आप वैज्ञानिक शोध के लिए खून और बाल दान करते हैं, पर जिंदा रहते अगर अपने दिमाग का थोडा हिस्सा दान करें तो कैसा रहेगा ? चिकित्सा के नियम इसके लिए हामी नहीं भरेंगे और इसकी वजह भी लाज़मी है : ये एक आक्रामक इलाज है जिसमें जोखिम बहुत ज्यादा है | पर अगर कई स्वस्थ लोगों ने हामी भर दी तो ये एक अहम् सवाल का जवाब दे पायेगा : कैसे परवरिश प्रकृति को प्रभावित करती है और विपरीत ? हांलाकि वैज्ञानिक सिद्धांत ये मानते हैं की हमारे वातावरण हमारे डीएनए को बदल सकता है, उनके पास बहुत कम लिखित उदाहरण हैं इस बात को साबित करने के की ये अनुवांशिक बदलाव कैसे होते हैं और इनका अंजाम क्या होता है |
जानवरों पर करे शोध की मानें तो अंजाम काफी भयानक हो सकता है |एक २००४ की मकगिल विश्वविद्यालय की चूहों की खोज से पता चला है की कुछ मातृत्व के व्यव्हार उनके बच्चों के हिप्पोकाम्पी में मोजूद एक जीन को शांत कर सकता है जिससे वह अपने तनावी होर्मोनेस को सही से संभल नहीं पाते | २००९ में मक गिल के नेतृत्व में एक गुट को ख्याल आया की इसका समान असर इंसानों पर भी होगा : उन मरे लोगों के दिमाग में,जिनको बचपन में शोषण का सामना करना पड़ा था, और जिन्होनें बाद में ख़ुदकुशी करली, अनालोगोउस जीन बहुत दबा हुआ था | पर जिंदा लोगों के दिमाग का क्या ? ये बदलाव कब होता है ? दिमाग की जांच से हम बचपन के शोध का इंसानी दिमाग पर असली असर और बहुत कुछ समझने का मौका मिलेगा |
ये कैसे काम करता है : शोधकर्ता वैसे ही दिमाग की कोशिकाओं को ढूँढेगा जैसे एक शल्य चिकित्सक बायोपसी के दौरान ढूँढता है | मरीज़ को हल्का बेहोश करने के बाद स्थानीय संवेद्नाहारक द्वारा त्वचा को सुन्न कर सर के आस पास ४ पिनों से एक चक्र लगा दिया जाता है | एक शल्य चिकित्सक सर की त्वचा में कुछ मिलीमीटर लम्बा चीरा लगता है, फिर खोपड़ी में एक छोटा सा छेद बना थोडा सा उतक बाहर निकाल लेता है | थोडा सा टुकड़ा ही काफी है क्यूंकि आपको बस कुछ माइक्रोग्रामस डीएनए की ज़रुरत होगी | मान लें की कोई गलती या संक्रमण नहीं हुआ तो दिमाग को नुकसान बहुत कम होगा |
अंजाम : ऐसा शोध शायद हमारे सीखने के तरीकों के बारे में कुछ गहरे सवालों का जवाब देगा | क्या पढने से प्रेफ्रोंटल कोर्टेक्स,उच्च आदेश की अनुभूति का स्थान में मोजूद जींस को चालू कर देता है ? क्या बल्लेबाज़ी के पिंजरे के सामने ज्यादा वक़्त गुज़ारने से मोटर कोर्टेक्स में स्थित जींस की एपिजेनेटिक अवस्था बदल जाती है ?क्या रियल हाउसवाइव्स कार्यक्रम देखने से आपके बाकि बचे दिमाग में मोजूद जींस बदल जाती हैं ? डीएनए से जुड़े अनुभवों को अपने दिमाग में जोड़ने से हम समझ सकते हैं की कैसे जो जिंदगियां हम जीते हैं हम में मोजूद जींस के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं |
# भ्रूण की जांच
शोध :एक इंसानी भ्रूण में ट्रैकिंग एजेंट डाल उसके बिकास की जांच कर सकते हैं |
प्रस्ताव: आजकल गर्भवती औरतें कई जांच करवाती हैं सिर्फ ये जानने के लिए की उनका भ्रूण सामान्य है | तो क्या वह वैज्ञानिकों को इजाज़त देंगी अपने भविष्य की संतान का एक विज्ञान की परियोजना की तरह शोषण करने के लिए |शायद नहीं | पर इस तरह की उग्र शोध के बिना हम इंसानी विकास का बचा हुआ रहस्य कभी नहीं समझ पायेंगे: की कैसे कोशिकाओं का एक छोटा सा गुट पूरे इंसान में बदल जाता है | आजकल शोधकर्ताओं के पास इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए सभी उपकरण हैं, एक ऐसी तकनीक की बदौलत जो समय के साथ कोशिकाओं के अनुवांशिक असर को जांच सकती है | अगर नैतिकता मुद्दा नहीं है, तो हमें सिर्फ एक इच्छुक प्रतियोगी की ज़रुरत है –एक ऐसी माँ जो हमें अपने भ्रूण को शोध के लिए इस्तेमाल करने दे |
ये कैसे काम करता है : अपने भ्रूण की कोशिकाओं की अलग अलग जींस की हलचल समझने के लिए शोधकर्ता एक रिपोर्टर जीन ( हरा प्रोटीन जैसे ), जो की आसानी से दिख जाए,को डालने के लिए एक नकली वायरस का इस्तेमाल कर सकते हैं | जैसे जैसे कोशिकाएं बंट कर अलग अलग होंगी शोधकर्ता हकीकत में ये देख पा रहे थे की कैसे विकास के अलग अलग स्थितियों में जींस बंद और चालू होती हैं | इससे उन्हें पता चलेगा की कौनसे विकास के दायरे भ्रूण स्टेम
अंजाम: एक पूरी तरह से जांचा हुआ भ्रूण हमें पहली बार एक इंसान के बनने की पूरी विस्तृत जानकारी देगा | ये जानकारी हमें सेलुलर क्षति की मरम्मत और बीमारी के इलाज के लिए स्टेम कोशिकाओं के विकास को निर्देशित करने में मदद करेगी (जैसे एक पर्किन्सोंस बीमारी वाले आदमी के दिमाग में एक नुएरोंस का स्वस्थ गुट डाल देना ) | अगर हम इंसानी भ्रूण के विकास की अन्य प्रजातियों से तुलना करें- उदाहरण के तौर पर – ऐसी शोध चूहों पर की जा चुकी है –– और इससे अनुवांशिक भाव में फर्क की वजह से भाषा इत्यादि मुश्किल गुणों में योगदान होता हैं | पर इंसानी भ्रूण की जांच के जोखिम बहुत ज्यादा हैं इतना की इसे सोचना भी कठिन है | न सिर्फ ये प्रयोग गर्भ को ख़तम कर सकता है अपितु रिपोर्टर जीन डालने के लिए इस्तेमाल किया गया वायरल वेक्टर भ्रूण के डीएनए को नुक्सान पहुंचा उसके विकास में दोष उत्पन्न कर सकता है |
# ओप्टोजेनेटिक्स
शोध: जागते हुए इंसानों के दिमाग की कोशिकाओं को नियंत्रित करने के लिए रौशनी का प्रयोग |
प्रस्ताव : क्या में आपका सर काट उसमें कुछ बिजली के उपकरण लगा सकता हूँ ? नहीं कहने से पहले ये सुनलें की विज्ञान को इससे क्या हासिल होगा | मस्तिष्क बिजली के कनेक्शन की एक अनंत गाँठ है, और किसी भी सर्किट के प्रयोजन को समझ पाना एक बड़ी चुनौती है| जो हमें पता है वो दिमाग की चोटों का विश्लेषण करके पता चला है जिससे हम घाव के असर के द्वारा दिमाग के विभिन्न हिस्सों का कार्य समझ सकते हैं | पारंपरिक अनुवांशिक नज़रिए जिसमें कुछ जींस को रासायनिक तौर पर अक्षम या उत्परिवर्तित किया जाता है ज्यादा ठीक हैं – पर ये तकनीकें घंटे और दिनों में कोशिकाओं की हरकतों पर असर कर पाती हैं जिससे दिमाग के कार्यप्रणाली पर हुए असर को समझना मुश्किल हो जाता है | दिमाग की सही जांच के लिए वैज्ञानिकों को ऐसे उपकरण की ज़रुरत है जो न सिर्फ ठीक हो पर तेज़ भी हो |
ये कैसे काम करता है: ऑप्टोजेनेटिक्स एक शोध का तरीका है जिसे चूहों में बड़ी सफलता के साथ इस्तेमाल किया जाता है | शोधकर्ताओं ने ऐसे सोम्य वायरस का गठन किया है जो जब दिमाग में डाल दिया जाता है तो इओन रास्तों का निर्माण करता है – वह उपकरण जिनसे कोशिकाओं को चालू या बंद किया जा सकता है- रौशनी से प्रभावित हो कर | दिमाग के उतकों में केन्द्रित रौशनी डाल (अक्सर बाल जितने चौड़े फाइबर –ऑप्टिक स्त्रन्ड्स से ) शोधकर्ता इन कोशिकाओं की फायरिंग दर को बढ़ा और घटा व्यक्ति पर हुए असर को समझ सकते हैं | पारंपरिक तरीकों से अलग ऑप्टोजेनिक फ्लाशेस नयूरोंस की फायरिंग को मिलिसेकेंड्स में परिवर्तित कर सकता है | और अगर हम दिमाग के निर्धारित हिस्सों में इस को केन्द्रित करें तो हम काफी परिशुधता के साथ इन सिद्धांतों को जांच सकते हैं |
अंजाम: एक इंसानी दिमाग जब ऑप्टोजेनेटिक शोध के लिए तैयार होगा तो वह दिमाग के काम काज की अद्वितीय जानकारी दे सकता है | ज़रा सोचिये अगर हम सीधे हाथ के प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स में कुछ कोशिकाओं को शांत कर अपने को पहचानने की क्षमता को गायब कर दें |कायदे से इसका असर अस्थायी होगा: एक बार रौशनी को बंद कर दिया गया तो ये असर भी गायब हो जायेंगे | ऐसे शोध हमें कोर्टेक्स में पहले घाव की विस्तृत समझ देंगे, और ये बताएँगे की कैसे 100 अरब न्यूरॉन्स साथ में मिल हमें वह गुण देते हैं जिनका महत्त्व हम नहीं समझ पाते हैं |
# गर्भ गमागमन
शोध: मोटी औरतों के भ्रूण को पतली औरतों के भ्रूण से बदल दें |
प्रस्ताव: इन विट्रो फर्टिलाइजेशन एक महंगी और जोखिमपूर्ण प्रक्रिया है | तो ऐसा सोचना मुश्किल है की इस कार्यक्रम में शामिल कोई भी माँ अपने भ्रूण को बदलने को तैयार होगी, अपने बच्चे को किसी और के कोख में डालना और अपनी कोख में किसी और के बच्चे को डालना | पर वैज्ञानिक त्याग की इस प्रक्रिया से हम विज्ञान की कुछ महत्वपूर्ण खोजों का आवरण कर सकते हैं – किस तरह हमारे जींस हमारे वातावरण से प्रभावित होती हैं – सबसे बड़ी समस्या ये है : सबसे व्यापक जेनेटिक प्रभाव तब पड़ते हैं जब हम कोख में होते हैं |
एक ख़ास उदाहरण इसका मुटापा है | शोधों के हिसाब से खाने पीने की आदतों का प्रभाव न पड़े तो भी मोटी औरतें के मोटे बच्चे होते हैं | मुश्किल ये है की किसी को ये नहीं पता की इसमें से कितना जींस का असर है - सहज, विविधताओं का -या एपिजेनेटिक्स का |
ये कैसे काम करता है: शोध आपके साधारण इन विट्रो फर्टिलाइजेशन की तरह ही होगा, बस एक मोटी माँ का भ्रूण एक पतली माँ में और विपरीत किया जाएगा |
अंजाम : हमें ये पता चलेगा की मोटापे की जड़ मुख्यतः जेनेटिक है या एपिजेनेटिक और अन्य शोधों से अन्य गुणों का आवलोकन हो सकता है | उदाहरण के तौर पर एक कैनेडियन गुट एक बड़ा शोध आयोजित कर रही है,वातावरण रसायनों का माँ बच्चे पर असर, एक बच्चे के जीन पर विषाक्त पदार्थों द्वारा गर्भाशय अनावृत्ति के असर को अलग करने के लिए | अगर वैज्ञानिकों के सामने भ्रूण बदलाव की सुविधा है तो ये प्रक्रिया ज्यादा मुश्किल नहीं होगी | जवाब दिन की तरह साफ़ होगा चाहे निति को भूल जाना पड़े |
# विषाक्त नायक
शोध: बाज़ार में आने से पहले हर रसायन को मानव स्वयंसेवकों पर जांचना
प्रस्ताव: हाल के अमेरिकन नियम के मुताबिक हम सब संभावित विषाक्त पदार्थों के लिए वास्तविक में परिक्षण वस्तुएं हैं| तो क्यूँ ना ऐसे स्वयंसेवकों को ढूँढा जाए जो हमारे लिए इन रसायनों को जांच लें ? मर्ज़ी से करने के बाद भी चिकित्सा नीतिग्य इस ख्याल से काँप उठेंगे | पर ये वक़्त के साथ ज़रूर हमारी जान बचा लेगा |
अमेरिका विषाक्त पदार्थ नियंत्रण अधिनियम के अनुसार चलने के लिए निर्माता जांच कार्यशालाओं से मदद मांगते हैं जो अक्सर जानवरों –खासकर कृन्तकों –पर इस रसायन की अधिक मात्रा की खुराक का असर नापते हैं | पर अगर कोई चूहा इस शोध में बच गया है तो ज़रूरी नहीं की इंसान भी बच जायेगा |हम लोगों पर जो शोध कर सकते हैं वह अक्सर प्रयोगात्मक होते हैं : जिन लोगों पर हम शोध करें उन पर इसके विपरीत प्रभाव के मौकों का हिसाब रखना | पर इन सब शोधों में बड़ी समस्याएं हैं | जहाँ शोधकर्ताओं को अधिक अनावरण मिलता है –जैसे जिस फैक्ट्री में रसायन बन रहा है उसको बनाने वाले कर्मचारी – भरोसेमंद परिणाम के लिए ऐसे व्यक्तिओं की गिनती बहुत कम होती है | और अगर ये शोध हम ज्यादा लोगों में करें तो एक रसायन का असर समझ पाना बहुत मुश्किल होता है क्यूंकि हम वैसे भी कई विषाक्त पदार्थों का शिकार होते हैं हर दिन |
ये कैसे काम करता है : बजाय जानवरों के इंसानों पर विषाक्त पदार्थ नियंत्रण अधिनियम द्वारा सभी आवश्यक मानक सुरक्षा परीक्षणों को पूरा करें। ऐसा करने के लिए हमें कई अलग जातियों और स्वास्थ्य स्तर के लोगों को इस में शामिल करना होगा –कायदे से हर रसायन के लिए 100 से भी ऊपर |
अंजाम : विष विज्ञान वर्तमान में एक अनुमान लगाने का खेल है।| बिस्फेनोल ऐ पर हुए हंगामे को देखिये जिसमें इंसानों पर हुए असर की शोध अनिर्णायक है | रसायनों को लोगों के समूहों में जांचने से हमें उसके असर की एक अधिक सटीक तस्वीर देखने को मिलेगी- ऐसी जानकारी जो नियामकों को सूचित कर जनता को बताई जाएगी ताकि वह अपने फैसले खुद कर सकें | एक सहायक जीत – आपके लिए क्या सही है क्या नहीं उसके बारे में कोई परस्पर विरोधी समाचार नहीं |
# बन्दर आदमी
शोध : एक चिंपांज़ी के साथ एक मानव की क्रॉस-नस्ल तैयार करना |
ये वर्जित प्रयोग एक तरह के समान जीनोम के साथ दो प्रजातियों इतनी अलग कैसे हो सकती हैं इस बात को रोशन करने में मदद करेगा ।
प्रस्ताव: महान जीवविज्ञानी स्टीफन जे गोल्ड ने इसके बार में कहा है की “ ये सबसे संभावित दिलचस्प और नैतिकता की दृष्टि से अस्वीकार्य प्रयोग है जिसकी मैं कल्पना कर सकता हूँ” |विचार है ?इंसान और बन्दर का मेल | उनकी इस विषय में दिलचस्पी उनके घोंघे पर किये गए काम के माध्यम से जागी, एक ऐसे नजदीकी प्रजाति जो खोल वास्तुकला में व्यापक बदलाव दर्शाती है | शायद उनका ऐसा मानना था की आदमी और बन्दर में जो बड़े दिखने वाले अंतर हैं वह विकास के समय पर निर्भर होते है | उन्होंने कहा, वयस्क मनुष्य शिशु चिम्पांजी जैसे लगते हैं इस तरह से की उनके भी बड़े दिमाग और आंखों जैसे शारीरिक लक्षण, है, एक पहलु जिसे नीओटेनी कहते हैं –बचपन के लक्षणों का वयस्कों में पाया जाना | गौल्ड ने कहा की विकास के समय नीओटेनी के प्रति झुकाव की वजह से इंसानों का जनम हुआ होगा | इस आधे बन्दर आधे इंसान के विकास के अध्ययन से शोधकर्ता इस सोच को प्रत्यक्ष (वाकई में डरावने तरीका) से समझना चाहते हैं |
ये कैसे काम करता है : ये शायद बेहद आसान है | इन –विट्रो फर्टिलाइजेशन में इस्तेमाल की गयी तकनीकों से शायद एक व्यवहार्य संकर मानव-चिम्प भ्रूण का जन्म होगा ( शोधकर्ताओं ने काफी लम्बा समय एक रेसस बन्दर और बबून का मेल करने में निकाल दिया है ) चिम्पेंजीस में च्रोमोसोमस के 24 जोड़े और इंसानों में २३ जोड़े होते हैं पर ये मेल होने में बाधक नहीं हैं | संतान में विषम संख्या के च्रोम्सोमेस होंगे,जिससे वह शायद खुद से और जनम देने की शमता नहीं रखते हों | हमल और जन्म का रूप, यह प्राकृतिक तरीके से किया जा सकता है | चिम्पेंजीस इंसानों से करीब ४ पौंड तक हलके होते हैं और इसीलिए उनके इंसान के पेट में बढ़ने में तुलनात्मक शरीर रचना की तरफ से मुसीबत उत्पन्न हो सकती है |
अंजाम : गौल्ड का विचार नीओटेनी के लेकर अभी भी विवादास्पद है “इस पर बहुत विश्लेषण हुआ है और कई तरीकों से उसको ख़ारिज कर दिया गया है” डैनियल लिबरमैन, मानव विकासवादी जीव विज्ञान के हार्वर्ड के प्रोफेसर का कहना है | लेकिन एलेग्जेंडर हरकोर्ट, यूसी डेविस में नृविज्ञान के प्रोफेसर एमेरिटस नीओटेनी को अभी भी एक “व्यावहारिक संकल्पना” मानते हैं | ये बाधित शोध इस बहस का समाधान ढूँढ पायेगी और इस बात पर रौशनी डाल पायेगी की कैसे २ एक जैसे जेनोमेस वाली पर्जतियाँ इतनी भिन्न हो सकती हैं | इसका नतीजा जीविकों को उस जाती के जन्म के नज़दीक ले जाएगा जिसके बारे में वह सबसे ज्यादा फिकरमंद हैं :हम | चलिए ऐसी उम्मीद करते हैं की हमें वहां पहुँचने का एक कम परेशानी वाला रास्ता मिल जाए |