बुद्ध और नालागिरी हाथी
बुद्ध का
ममेरा भाई देवदत्त सदा ही बुद्ध को नीचा दिखाने की चेष्टा
में लगा रहता था, मगर उसे हमेशा मुँह की ही खानी पड़ती थी।
एक बार बुद्ध जब कपिलवस्तु पहुँचे तो
अनेक कुलीन शाक्यवंसी राजकुमार
उनके अनुयायी बने। देवदत्त भी उनमें
से एक था।
कुछ समय पश्चात् देवदत्त ने भी कुछ जादुई
शक्तियाँ प्राप्त कीं और एक बार उनका प्रदर्शन
मगध के भावी सम्राट अजातशत्रु के समक्ष किया। वहाँ वह एक
शिशु के रुप में प्रकट हुआ जिसने साँप की
मेखला बाँधी हुई थी। तभी से अजातशत्रु उसे परम आदर की दृष्टि
से देखा करता था।
कुछ दिनों के बाद देवदत्त मगध से लौट कर जब
संघ में वापिस आया तो उसने स्वयं को
बुद्ध से श्रेष्ठ घोषित किया और संघ का नेतृत्व करना चाहा। भिक्षुओं को
बुद्ध से विमुख करने के लिए उसने यह कहा हैं कि
बुद्ध तो बूढ़े हो चुके थे और सठिया गये हैं। किन्तु भिक्षुओं ने जब उसकी कोई
बात नहीं सुनी तो वह बुद्ध और संघ दोनों
से द्वेष रखने लगा।
खिन्न होकर वह फिर वापिस मगध पहुँचा और
अजात शत्रु को महाराज बिम्बिसार का
वध करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि
बिम्बिसार बुद्ध और बौद्धों को प्रचुर प्रश्रय प्रदान करते थे। प्रारंभिक दौर
में बिम्बिसार को मरवाने की उसकी
योजना सफल नहीं हुई। अत: उसने
सोलह धुनर्धारियों को बुद्ध को
मारने के लिए भोजा। किन्तु बुद्ध के
व्यक्तित्व से प्रभावित हो सारे उनके ही
अनुयायी बन गये।
क्रोध में देवदत्त ने तब बुद्ध पर ग्रीघकूट पर्वत की चोटी
से एक चट्टान लुढ़काया जिसे पहाड़
से ही उत्पन्न हो दो बड़े पत्थरों ने रास्ते
में ही रोक दिया।
देवदत्त के क्रोध की सीमा न रही। उसने एक दिन
मगध राज के अस्तबल में जाकर एक विशाल हाथी नालगिरी को ताड़ी पिलाकर
बुद्ध के आगमन के मार्ग में भेज दिया। नालगिरी के आगमन
से सड़कों पर खलबली मच गई और
लोग जहाँ-तहाँ भाग खड़े हुए। तभी
बुद्ध भी वहाँ से गुजरे। ठीक उसी समय एक घबराई
महिला अपने बच्चे को हाथी के सामने ही छोड़
भाग खड़ी हुई। जैसे ही नालगिरि ने
बच्चे को कुचलने के लिए अपने पैर बढ़ाये
बुद्ध उसके ठीक सामने जा खड़े हुए। उन्होंने हाथी के सिर को थपथपाया।
बुद्ध के स्पर्श से नालगिरि उनके सामने घुटने टेक कर
बैठ गया।
नालगिरि हाथी की इस घटना से देवदत्त
मगध में बहुत अप्रिय हुआ और उसे तत्काल ही नगर छोड़ कर
भागना पड़ा।