निश्छल गृहस्थ
काशी नगरी के पास के गाँव
में एक बार भयंकर बाढ़ आई और गाँव
वालों की फसल बहा ले गयी। तब गाँव
वाले सहायता के लिए गाँव के मुखिया के पास पहुँचे।
मुखिया ने उन्हें बैल ॠण में दिया और कहा कि जब
उनके मक्के आदि की फसल कटेगी तो वे अपने
फसल का कुछ भाग उसे दे अपना ॠण चुका दें।
उसी गाँव में एक सीधा-सादा गृहस्थ भी रहता था। उसकी पत्नी पतिव्रता नहीं थी।
उन दिनों उसके सम्बन्ध गाँव के मुखिया के
साथ थे। जब उस गृहस्थ के कानों में पत्नी के अवैध
संबंध की चर्चा पड़ी तो उसने सत्य जानने के
लिए एक युक्ति लगाई। एक दिन उसने अपनी पत्नी
से कहा कि वह कुछ दिनों के लिए गाँव के बाहर कुछ कार्य के
लिए जाएगा। दूसरे दिन वह यात्रा के
सामान के साथ गाँव के बाहर निकल गया। फिर कुछ ही घंटों
में वापिस लौट आया।
उस समय उसके घर पर उसकी पत्नी और गाँव का
मुखिया रंगरेलियाँ मना रहे थे। पति को
लौटा देख उसकी पत्नी ने सत्य छुपाने के
लिए मुखिया को एक युक्ति बताई और दौड़ती हुई धान्यागार के एक कोट
में खड़ी हो गई।
जब उस गृहस्थ ने घर के अंदर प्रवेश किया तो उसने उस
समय मुखिया को यह कहते सुना, " दे दे
मेरा बैल या चुका दे ॠण।" और औरत कह रही थी, " कोट
में कोई धान नहीं है। मैं ॠण नहीं चुका
सकती।" गृहस्थ ने सारी बातें समझ
लीं। उसने मुखिया की अच्छी पिटाई की। फिर वह अपनी पत्नी को एक कड़ी चेतावनी दे उसे
माफी का एक अवसर भी प्रदान किया। उसके
रौद्र रुप को देख उसकी पत्नी सुधर गयी।