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अध्याय 1 पृष्ठ 3

रमानाथ--और मेरी क्या दशा होगी, जानती हो? घुल-घुलकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई, मेरे दिल पर जैसी गुजरती है, वह दिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, ज़ोर देकर कहा कि दो-चार चीज़ें तो बनवा ही दीजिए, पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें उधर कर लीं।

जालपा--जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।

रमानाथ--तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हज़ारों बड़े-बडे आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूं।

जालपा--मैं इन लोगों का रूख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी से नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमानाथ--शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा--इसमें शर्म की कौन-सी बात है - कहते शर्म आती हो, तो खत लिख दो।

रमा उछल पडा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला--हां, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई, कल जरूर लिखूंगा।

जालपा--मुझे पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमानाथ--तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका! इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंढूगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पडा-सडा करूं। हटो तो ज़रा मैं बिस्तर खोल दूं।

जालपा ने बिस्तर पर से ज़रा खिसककर कहा--मैं बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा--जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रक्खा जायगा।

जालपा ने एहसान जताते हुए कहा--आपने मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बडे टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब निर्वाह नहीं है।

रमानाथ--कल नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।

जालपा--पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे। मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरूष से क्या नहीं करा सकता।

9

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर थे बडे रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बडा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो

रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गए। कहां जायं- सिनेमा ही देख आवें- किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा।कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले--आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे?प्रेमिका की रसीली

बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ--कुछ भी नहीं।

रमेश--बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई, नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बडा दुःख हुआ होगा?

रमानाथ--कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश--बाबूजी के पास क्या काई का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चारपांच हज़ार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हज़ार रूपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या पचास रू. होता ही क्या है?

रमानाथ--मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उडाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा--आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें, इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमानाथ--मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा--आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।

रमानाथ--ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुडाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता!

रमेश--अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की गांठ तो खुले।

बाज़ी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट लिया।

रमानाथ--ओह, क्या गलती हुई!

रमेश बाबू की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले--बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूं। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी

हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए।तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो। यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा--आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।

रमेश--देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हां, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?

रमानाथ--वेतन तो तीस है।

रमेश--हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़जाय। मेरी तो राय है, कर लो।

रमानाथ--अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।

रमेश--जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में कीं। हां, ज़रा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।

रमानाथ--आमदनी की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है नहीं।ट

रमेश--बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें। तीस रूपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़सौ काफी हैं। कुछ बचा भी लेता हूं, लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर एक को तीस रूपये और दूसरे को तीन सौ रूपये क्यों देते हो? रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बडे ज़ोर से कहकहा माराब

रमा ने रोष के साथ कहा--अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उडा लिए!

रमेश--अच्छा साहब, अब बोलूं तो ज़बान पकड़ लीजिए। यह लीजिए, शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।

रमानाथ--आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

रमेश--अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मां सि' किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!

रमानाथ--जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।

रमेश--देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात!

रमानाथ--अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पांच मातें न दी हों तो कहिएगा।

रमेश--अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे! हिम्मत हो, तो अभी सही!

रमानाथ--अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पांच बाज़ियों से कम न खेलूंगा!

रमेश--पांच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चिन्त होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज यहीं सोएंगे, इंतज़ार न करें।

दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठेब पहली बाज़ी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई तो दो बज गए।

रमानाथ--अब तो मुझे नींद आ रही है।

रमेश--तो मुंह धो डालो, बरग रक्खी हुई है। मैं पांच बाज़ियां खेले बगैर सोने न दूंगा।

रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इस वक्त चाहे जितनी बाज़ियां खेलूं, जीत मेरी ही होगी मगर जब चौथी बाज़ी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले--अब तो सोना चाहिए।

रमानाथ--क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?

रमेश--कल दफ्तर भी तो जाना है।

रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।

रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गए तो उन्होंने उसे जगाया।

रमा ने बिभड़कर कहा--नाहक जगा दिया, कैसी मजे क़ी नींद आ रही थी।

रमेश--अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?

रमानाथ--आप दे दीजिएगा।

रमेश--और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?

रमानाथ--ऊंह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूं।

रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बडाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला--मैं भी चलूंगा। रमेश--अरे मुंह-हाथ तो धो ले, भले आदमी!

रमानाथ--आप तो चले जा रहे हैं।

रमेश--नहीं, अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रूक सकता हूं, तैयार हो जाओ।

रमानाथ--मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।

रमेश--कहता तो हूं, अभी आधा घंटे तक रूका हुआ हूं।

रमा ने एक मिनट में मुंह धोया, पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।

रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा--घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रक्खा

है?

रमानाथ--कह दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।

रमेश--मुझे गालियां दिलाओगे और क्या फिर कभी न आने पाओगे।

रमानाथ--ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां, यह तो बताइए, मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?

रमेश--और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पडेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?

रमानाथ--तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती है।खुशामदें कौन करेगा- पहले मुझे क्लर्कों पर बडी हंसी आती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?

रमेश--बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।

रमानाथ--तो फिर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझसे न बरदाश्त होगा।

रमेश--पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फांसी पाने जा रहा हूं;मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं है। मैं सब ठीक कर दूंगा।

रमानाथ--आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे!

रमेश--पूरे पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रूपये पर नौकर हुआ था!

रमानाथ--आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की- तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।

रमेश ने हंसकर कहा--बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी, लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुंच गए।

10

रमा दफ्तर से घर पहुंचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रूका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रूका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस ही रूपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रूपये महीने भी बच जायं, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।

जालपा उसे देखते ही बोली--यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?

रमानाथ--इसी नौकरी की फिक्र में पडा हुआ हूं। इस वक्त दफ्तर से चला आता हूं। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तरमें मुझे एक जगह मिल गई।

जालपा ने उछलकर पूछा--सच! कितने की जगह है?

रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला--अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी की है।

जालपा ने उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली--चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते!

रमानाथ--मिल तो सकती थी सौ रूपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रूपये ऊपर से मिल जाएंगे।

जालपा--तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?

रमा ने हंसकर कहा--नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बडे महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे।

मैं जिसे चाहूं दिनभर दफ्तर में खडा रक्खूं, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।

जालपा संतुष्ट हो गई, बोली--हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

रमानाथ--वह तो करूंगा ही।

जालपा--अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा?जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बडी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहां मेरा भी कोई अधिकार है।

रमानाथ--हां, जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।

जालपा ने उल्लसित होकर कहा--हां जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।

इतने में डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले--तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?

रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोलाब उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हंसकर बोला--ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुंठित स्वर में कहा--अम्मांजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

रमा ने विस्मित होकर कहा--लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा--मेरी बला से, रानी ऱूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूं। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जाएंगे। मैं अम्मांजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।

रमा ने संतोष देते हुए कहा--मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा--मैं इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।

रमानाथ--आखिर क्यों?

जालपा--मेरी इच्छा!

रमानाथ--इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का ह्रदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।

माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला--ज़रा अम्मां और बाबू जी को तो दिखा दूं। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए। जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली--वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं उनसे पूछूं - केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।

यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपडा लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कहा--ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जाएगी। इस पर जालपा ने कठोर नजरों से देखकर कहा--जब तक मैं इसे लौटान दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे ह्रदय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो। एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिये हुए चिंतित भाव से नीचे चला।