अध्याय 8
वैशाख में प्रेमा का विवाह दाननाथ के साथ हो गया। शादी बड़ी धूम-धाम से हुई। सारे शहर के रईसों को निमंत्रित किया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लुटाए। मगर दाननाथ की ओर से कोई तैयारी न थी। अमृतराय चंदा करने के लिए बिहार की ओर चले थे और ताकीद कर गए थे कि धूम-धाम मत करना। दाननाथ उनकी इच्छा की अवहेलना कैसे करते।
इधर पूर्णा के आने से सुमित्रा को मानो आँखें मिल गईं। उसके साथ बातें करने से सुमित्रा का जी ही न भरता। आधी-आधी रात तक बैठी, अपनी दुःख कथा सुनाया करती। जीवन में उसका कोई संगी न था। पति की निष्ठुरता नित्य ही उसके हृदय में चुभा करती थी। इस निष्ठुरता का कारण क्या है, यह समस्या उससे न हल होती थी। वह बहुत सुंदर न थी, फिर भी कोई उसे रूपहीन न कह सकता था। बनाव-शृंगार का तो उसे मरज-सा हो गया था। पति के हृदय को पाने के लिए वह नित नया शृंगार करती थी और इस अभीष्ट के पूरे न होने से उसके हृदय में ज्वाला-सी दहकती रहती थी। घी के छींटों से भभकना तो ज्वाला के लिए स्वाभाविक ही था, वह पानी के छींटों से भी भभकती थी। कमलाप्रसाद जब उससे अपना प्रेम जताते, तो उसके जी में आता, छाती में छुरी मार लूँ। घाव में यों ही क्या कम पीड़ा होती है कि कोई उस पर नमक छिड़के। आज से तीन साल पहले सुमित्रा ने कमलाप्रसाद को पा कर अपने को धन्य माना था। दो-तीन महीने उसके दिन सुख से कटे, लेकिन ज्यों-ज्यों दोनों की प्रकृति का विरोध प्रकट होने लगा, दोनों एक-दूसरे से खिंचने लगे। सुमित्रा उदार थी, कमलाप्रसाद पल्ले सिरे से कृपण। वह पैसे को ठीकरी समझती थी, कमलाप्रसाद कौड़ियों को दाँत से पकड़ता था। सुमित्रा साधारण भिक्षुक को भिक्षा देने उठती तो इतना दे देती कि वह चुटकी की चरम सीमा का अतिक्रमण कर जाता था। उसके मैके से एक बार एक ब्राह्मणी कोई शुभ समाचार लाई थी। उसे उसने नई रेशमी साड़ी उठा कर दे दी उधर कमलाप्रसाद का यह हाल था कि भिक्षुक की आवाज़ सुनते ही गरज उठते थे। रूल उठा कर मारने दौड़ते थे, दो-चार को तो पीट ही दिया था, यहाँ तक कि एक बार द्वार पर आ कर किसी भिक्षुक की, यदि कमलाप्रसाद से मुठभेड़ हो गई, तो उसे दूसरी बार आने का साहस न होता था। सुमित्रा में नम्रता, विनय और दया थी, कमलाप्रसाद में घमंड, उच्छृंखलता और स्वार्थ। एक वृक्ष का जीव था, दूसरा पृथ्वी पर रेंगने वाला। उसमें मेल कैसे होता धर्म का ज्ञान, जो दांपत्य जीवन का सुख मूल है, दोनों में किसी को न था।
पूर्णा के आने से कमलाप्रसाद और सुमित्रा एक-दूसरे से और पृथक हो गए। सुमित्रा के हृदय पर लदा हुआ बोझा उठ-सा गया। कहाँ तो वह दिन-ब-दिन विरक्तावस्था में खाट पर पड़ी रहती थी, कहाँ अब वह हरदम हँसती-बोलती रहती थी, कमलाप्रसाद की उसने परवाह ही करना छोड़ दी। वह कब घर में आता है, कब जाता है, कब खाता है, कब सोता है, उसकी उसे जरा भी फ़िक्र न रही। कमलाप्रसाद लंपट न था। सबकी यही धारणा थी कि उसमें चाहे और कितने ही दुर्गुण हों, पर यह ऐब न था। किसी स्त्री पर ताक-झाँक करते उसे किसी ने न देखा था। फिर पूर्णा के रूप ने उसे कैसे मोहित कर लिया, यह रहस्य कौन समझ सकता है। कदाचित पूर्णा की सरलता, दीनता और आश्रय-हीनता ने उसकी कुप्रवृत्ति को जगा दिया। उसकी कृपणता और कायरता ही उसके सदाचार का आधार थी। विलासिता महँगी वस्तु है। जेब के रुपए खर्च करके भी किसी आफत में फँस जाने की जहाँ प्रतिक्षण संभावना हो, ऐसे काम में कमलाप्रसाद जैसा चतुर आदमी न पड़ सकता था। पूर्णा के विषय में कोई भय न था। वह इतनी सरल थी कि उसे काबू में लाने के लिए किसी बड़ी साधना की जरूरत न थी और फिर यहाँ तो किसी का भय नहीं, न फँसने का भय, न पिट जाने की शंका। अपने घर ला कर उसने शंकाओं को निरस्त कर दिया था। उसने समझा था, अब मार्ग में कोई बाधा नहीं रही। केवल घरवालों की आँख बचा लेना काफ़ी था और यह कुछ कठिन न था, किंतु यहाँ भी एक बाधा खड़ी हो गई और वह सुमित्रा थी।
सुमित्रा पूर्णा को एक क्षण के लिए भी न छोड़ती थी, दोनों भोजन करने साथ-साथ जातीं। छत पर देखो तो साथ, कमरे में देखो तो साथ, रात को साथ, दिन को साथ। कभी दोनों साथ ही साथ सो जातीं। कमलाप्रसाद जब शयनागार में जा कर सुमित्रा की राह देखता-देखता सो जाता, तो न जाने कब वह उसके पास आ जाती। पूर्णा से एकांत में कोई बात करने को उसे अवसर न मिलता था। वह मन में सुमित्रा पर झुँझला कर रह जाता। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। रात को जब सुमित्रा आई, तो उसने कहा - 'तुम रात-दिन पूर्णा के पास क्यों बैठी रहती हो? वह अपने मन में समझती होगी कि यह तो अच्छी बला गले पड़ी। ऐेसी तो कोई बड़ी समझदार भी नहीं हो कि तुम्हारी बातों में उसे आनंद आता हो। तुम्हारी बेवकूफी पर हँसती होगी।'
सुमित्रा ने कहा - 'अकेली पड़ी-पड़ी क्या करूँ? फिर यह भी तो अच्छा नहीं लगता कि मैं आराम से सोऊँ और वह अकेली रोया करे। उठना भी चाहती हूँ, तो चिमट जाती है, छोड़ती ही नहीं। मन में मेरी बेवकूफी पर हँसती है या नहीं यह कौन जाने; मेरा साथ उसे अच्छा न लगता हो, यह बात नहीं।'
'तुम्हें यह ख्याल भी नहीं होता कि उसकी और तुम्हारी कोई बराबरी नहीं? वह तुम्हारी सहेली बनने के योग्य नहीं हैं।'
'मैं ऐसा नहीं समझती।'
'तुम्हें उतनी समझ ही नहीं, समझोगी क्या?'
'ऐसी समझ का न होना ही अच्छा है।'
उस दिन से सुमित्रा परछाई की भाँति पूर्णा के साथ रहने लगी।
कमलाप्रसाद के चरित्र में अब एक विचित्र परिवर्तन होता जाता था। नौकरों पर डाँट-फटकार भी कम हो गई। कुछ उदार भी हो गया। एक दिन बाज़ार से बंगाली मिठाई लाए और सुमित्रा को देते हुए कहा - 'जरा अपनी सखी को भी चखाना। सुमित्रा ने मिठाई ले ली; पर पूर्णा से उसकी चर्चा तक न की।' दूसरे दिन कमलाप्रसाद ने पूछा - 'पूर्णा ने मिठाई पसंद की होगी?' सुमित्रा ने कहा - 'बिल्कुल नहीं, वह तो कहती थी, मुझे मिठाई से कभी प्रेम न रहा।'
कई दिनों के बाद कमलाप्रसाद एक दिन दो रेशमी साड़ियाँ लाए और बेधड़क अपने कमरे में घुस गए। दोनों सहेलियाँ एक ही खाट पर लेटी बातें कर रही थीं, हकबका कर उठ खड़ी हुईं। पूर्णा का सिर खुला हुआ था, मारे लज्जा के उसकी देह में पसीना आ गया। सुमित्रा ने पति की ओर कुपित नेत्रों से देखा।
कमलाप्रसाद ने कहा - 'अरे! पूर्णा भी यहीं है। क्षमा करना पूर्णा, मुझे मालूम न था। यह देखो सुमित्रा दो साड़ियाँ लाया हूँ। सस्ते दामों में मिल गईं। एक तुम ले लो, एक पूर्णा को दे दो।'
सुमित्रा ने साड़ियों को बिना छुए कहा - 'इनकी तो आज कोई जरूरत नहीं। मेरे पास साड़ियों की कमी नहीं है और पूर्णा रेशमी साड़ियाँ पहनना चाहेंगी, तो मैं अपनी नई साड़ियों में से एक दे दूँगी।' क्यों बहन, इसमें से लोगी कोई साड़ी?'
पूर्णा ने सिर हिला कर कहा - 'नहीं, मैं रेशमी साड़ी ले कर क्या करूँगी।'
कमलाप्रसाद - 'क्यों, रेशमी साड़ी तो कोई छूत की चीज़ नहीं!'
सुमित्रा - 'छूत की चीज़ नहीं; पर शौक़ की चीज़ तो है। सबसे पहले तो तुम्हारी पूज्य माताजी ही छाती पीटने लगेंगी।'
कमलाप्रसाद - 'मगर अब तो लौटाने न जाऊँगा। बजाज समझेगा दाम सुन के डर गए।'
सुमित्रा - 'बहुत अच्छी हैं, तो प्रेमा के पास भेज दूँ। तुम्हारी बेसाही हुई साड़ी पा कर अपना भाग्य सराहेगी। मालूम होता है, आजकल कहीं कोई रकम मुफ़्त हाथ आ गई है। सच कहना, किसकी गर्दन रेती है। गाँठ के रूपए खर्च करके तुम ऐसी फिजूल की चीज़ें कभी न लाए होगे।'
कमलाप्रसाद ने आग्नेय-दृष्टि से सुमित्रा की ओर देख कर कहा - 'तुम्हारे बाप की तिजोरी तोड़ी है, और भला कहाँ डाका मारने जाता।'
सुमित्रा - 'माँगते तो वह यों ही दे देते, तिजोरी तोड़ने की नौबत न आती। मगर स्वभाव को क्या करो।'
कमलाप्रसाद ने पूर्णा की ओर मुँह करके कहा - 'सुनती हो पूर्णा इनकी बात। पति से बातें करने का यही ढंग है! तुम भी इन्हें नहीं समझातीं, और कुछ नहीं तो आदमी सीधे मुँह बात तो करे। जब से तुम आई हो, मिज़ाज और भी आसमान पर चढ़ गया है।'
पूर्णा को सुमित्रा की कठोरता बुरी मालूम हो रही थी। एकांत में कमलाप्रसाद सुमित्रा को जलाते हों, पर इस समय तो सुमित्रा ही उन्हें जला रही थी। उसे भय हुआ कि कहीं कमलाप्रसाद मुझसे नाराज हो गए, तो मुझे इस घर से निकलना पड़ेगा। कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके यहाँ एक दिन भी निबाह नहीं हो सकता, यह वह जानती थी। इसलिए वह सुमित्रा को समझाती रहती थी। बोली - 'मैं तो बराबर समझाया करती हूँ, बाबूजी पूछ लीजिए झूठ कहती हूँ?'
सुमित्रा ने तीव्र स्वर में कहा - 'इनके आने से मेरे मिज़ाज क्यों आसमान पर चढ़ गया, जरा यह भी बता दो। मुझे तो इन्होंने राजसिंहासन पर नहीं बैठा दिया। हाँ, तब अकेली पड़ी रहती थी, अब घड़ी-दो घड़ी इनके साथ बैठ लेती हूँ क्या तुमसे इतना भी नहीं देखा जाता।'
कमलाप्रसाद - 'तुम व्यर्थ बात बढ़ाती हो, सुमित्रा! मैं यह कब कहता हूँ कि तुम इनके साथ उठना-बैठना छोड़ दो, मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही।'
सुमित्रा - 'और यह कहने का आशय ही क्या है कि जब से यह आई है, तुम्हारा मिज़ाज आसमान पर चढ़ गया है।'
कमलाप्रसाद - 'कुछ झूठ कह रहा हूँ? पूर्णा खुद देख रही हैं। तुम्हें उनके सत्संग से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए थी। इन्हें यहाँ लाने का मेरा एक उद्येश्य यह भी था। मगर तुम्हारे ऊपर इनकी सोहब्बत का उल्टा ही असर हुआ। यह बेचारी समझाती होगीं, मगर तुम क्यों मानने लगीं। जब तुम मुझी को नहीं गिनतीं, तो वह बेचारी किस गिनती की हैं। भगवान सब दुःख दे, पर बुरे का संग न दे। तुम इनमें से एक साड़ी रख लो पूर्णा, दूसरी मैं प्रेमा के पास भेजे देता हूँ।'
सुमित्रा ने दोनों साड़ियों को उठा कर द्वार की ओर फेंक दिया। दोनों काग़ज़ में तह की हुई रखी थीं। आँगन में जा गिरीं। महरी उसी समय आँगन धो रही थी। जब तक वह दौड़ कर साड़ियाँ उठावे, काग़ज़ भीग गया और साड़ियों में धब्बे लग गए। पूर्णा ने तिरस्कार के स्वर में कहा - 'यह तुमने क्या किया, बहन देखो तो साड़ियाँ ख़राब हो गईं।'
कमलाप्रसाद - 'इनकी करतूतें देखती जाओ! इस पर मैं ही बुरा हूँ, मुझी में जमाने-भर के दोष हैं।'
सुमित्रा - 'तो ले क्यों नहीं जाते अपनी साड़ियाँ।'
कमलाप्रसाद - 'मैं तुम्हें तो नहीं देता।'
सुमित्रा - 'पूर्णा भी न लेंगी।'
कमलाप्रसाद - 'तुम उनकी ओर से बोलने वाली कौन होती हो? तुमने अपना ठीका लिया है या जमाने भर का ठीका लिया है। बोलो पूर्णा, एक रख दूँ न? यह समझ लो कि तुमने इनकार कर दिया, तो मुझे बड़ा दुःख होगा।'
पूर्णा बड़े संकट में पड़ गई। अगर साड़ी लेती है, तो सुमित्रा को बुरा लगता है, नहीं लेती, तो कमलाप्रसाद बुरा मानते हैं। सुमित्रा क्यों इतना दुराग्रह कर रही है, क्यों इतना जामे से बाहर हो रही है, यह भी अब उससे छिपा न रहा। दोनों पहलुओं पर विचार कर उसने सुमित्रा को प्रसन्न रखने ही का निश्चय किया। कमलाप्रसाद रूठ कर उसको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। अधिक-से-अधिक उसे यहाँ से चला जाना पड़ेगा। सुमित्रा अप्रसन्न हो गई, तो न जाने क्या गजब ढाए, न जाने उसके मन में कैसे-कैसे कुत्सित भाव उठें। बोली - 'बाबूजी, रेशमी साड़ियाँ पहनने का मुझे निषेध है, ले कर क्या करूँगी, ऐसा ही है तो कोई मोटी-झोटी धोती ला दीजिएगा।'
यह कह कर उसने कमलाप्रसाद की ओर विवश नेत्रों से देखा। उनमें कितनी दीनता, कितनी क्षमा-प्रार्थना भरी हुई थी। मानो वे कह रही थीं - 'लेना तो चाहती हूँ पर लूँ कैसे! इन्हें आप देख ही रहे हैं, क्या घर से निकालने की इच्छा है?'
कमलाप्रसाद ने कोई उत्तर नहीं दिया। साड़ियाँ चुपके से उठा लीं और पैर पटकते हुए बाहर चले गए।