अध्याय 7
गुलिस्तां
हम गुलिस्तां की कुछ कथाऍं देते हैं जिनसे पाठकों को भी सादी के लेखन कौशल का परिचय दे सकें।गुलिस्तां में आठ प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण में नीति और सदाचार के भिन्न-भिन्न सिध्दांतों का वर्णन किया गया है।
प्रथम प्रकरण में बादशाहों का आचार, व्यवहार, और राजनीति के उपदेश दिये गये हैं।
सादी ने राजाओं के लिए निम्नलिखित बातें बहुत आवश्यक और ध्यान देने योग्य बतलाई हैं
प्रजा पर कभी स्वयं अत्याचार न करे न अपने कर्मचारियों को करने दे।
किसी बात का अभिमान न करे और संसार के वैभव को नश्वर समझता रहे।
प्रजा के धन को अपने भोग-विलास में न उड़ाकर उन्हीं के आराम में खर्च करे।
गुलिस्तां की कथायें
मैं दमिशक में एक औलिया की कब्र पर बैठा हुआ था कि अरब देश का एक अत्याचारी बादशाह वहाँ पूजा करने आया। नमाज़ पढ़ने के पश्चात् वह मुझसे बोला कि मैं आजकल एक बलवान शत्रु के हाथों तंग आ गया हूं। आप मेरे लिए दुआ कीजिये। मैंने कहा कि शत्रु के पंजे से बचने के लिए सबसे अच्छा उपाय यह है कि अपनी दीन प्रजा पर दया कीजिये।
एक अत्याचारी बादशाह ने किसी साधु से पूछा कि मेरे लिए कौन-सी उपासना उत्तम है। उत्तर मिला कि तुम्हारे लिए दोपहर तक सोना सब उपासनाओं से उत्तम है। जिसमें उतनी देर तुम किसी को सता न सको।
एक दिन ख़लीफ़ा हारूं रशीद का एक शाहज़दा क्रोध से भरा हुआ अपने पिता के पास आकर बोला, मुझे अमुक सिपाही के लड़के ने गाली दी है। बादशाह ने मन्त्रिायों से पूछा क्या होना चाहिए। किसी ने कहा, उसे कैद कर दीजिये। कोई बोला, जान से मरवा डालिये। इस पर बादशाह ने शाहज़दे से कहा, बेटा, अच्छा तो यह है कि उसे क्षमा करो। यदि इतने उदार नहीं हो सकते हो तो उसे भी गाली दे लो।
एक साधु संसार से विरक्त होकर वन में रहने लगा। एक दिन राजा की सवारी उधर से निकली। साधु ने कुछ ध्यान न दिया। तब मंत्री ने जाकर उससे कहा, साधुजी, राजा तुम्हारे सामने से निकले और तुमने उनका कुछ सम्मान न किया। साधु ने कहा, भगवन, राजा से कहिए कि नमस्कार-प्रणाम की आशा उससे रक्खें जो उनसे कुछ चाहता हो। दूसरे राजा प्रजा की रक्षा के लिए है, न कि प्रजा राजा की बंदगी के लिए।
एक बार न्यायशील नौशेरवां जंगल में शिकार खेलने गया। वहाँ भोजन बनाने के लिए नमक की ज़रूरत हुई। नौकर को भेजा कि जाकर पास वाले गांव से नमक ले आ। लेकिन बिना दाम दिये मत लाना। नहीं गांव ही उजड़ जायगा। नौकर ने कहा, तनिक-सा नमक लेने से गांव कैसे उजड़ जायेगा? नौशेरवां ने उत्तर दिया अगर राजा प्रजा के बाग़ से एक सेब खा ले तो नौकर लोग उस वृक्ष की जड़ तक खोद खाते हैं।
एक बादशाह बीमार था। उसके जीवन की कोई आशा न थी। वैद्यों ने जवाब दे दिया था। इन्हीं दिनों एक सवार ने आकर उसे किसी किश्ले के जीतने का सुखसंवाद सुनाया। बादशाह ने लंबी सांस लेकर कहा, यह ख़बर मेरे लिए नहीं, मेरे उत्तराधिकारियों के लिए सुखदायक हो सकती है।
एक बादशाह किसी असाधय रोग से पीड़ित था। हकीमों ने बहुत कुछ यत्न किया, पर कोई असर न हुआ। अंत में उन्होंने बादशाह को मनुष्य का गुर्दा सेवन कराने का विचार किया। वह मनुष्य किस रूप-रंग का हो इसकी विवेचना भी कर दी। बहुत खोजने पर एक ज़मीनदार के पुत्र में यह सब गुण पाये गये। उसके माता-पिता रुपया लेकर लड़के का वध कराने पर राज़ी हो गये। काज़ी साहब ने भी व्यवस्था दे दी कि बादशाह की प्राणरक्षा के लिए यह हत्या न्याय विरुध्द नहीं है। अंत में जब जल्लाद उसे मारने खड़ा हुआ तो लड़का आकाश की ओर देखकर हंस पड़ा। बादशाह ने विस्मित होकर हंसी का कारण पूछा। लड़के ने कहा, मैं अपने भाग्य की विचित्रता पर हंसता हूं। माता-पिता के प्रेम, काज़ी के न्याय, और बादशाह के प्रजापालन, सबने मेरी रक्षा से हाथ खींच लिया, अब केवल ईश्वर ही मेरा सहायक है। बादशाह के हृदय में दया उत्पन्न हुई, बालक को गोद में ले लिया और बहुत-सा धन देकर विदा किया।
किसी बादशाह के पास एक परोपकारी मंत्री था। दैवयोग से एक बार बादशाह ने किसी बात पर नाराज़ होकर उसे जेलख़ाने भेज दिया। पर जेल में भी उसके कितने ही मित्र थे जो पहले की भांति ही उसका मान-सम्मान करते रहे। उधर एक दूसरे रईस को इस घटना की खबर मिली तो उसने मंत्री के नाम गुप्त रीति से पत्र लिखा कि जब वहाँ आपका इतना अनादर हो रहा है तो क्यों यह कष्ट झेल रहे हैं? यदि आप यहाँ चले आयें तो आपका यथोचित सम्मान किया जायगा और हम लोग इसे अपना धन्य भाग समझेंगे। मंत्री ने बहुत संक्षिप्त उत्तर लिख भेजा। इतने में किसी ने बादशाह से जाकर कहा, देखिये मंत्री जी इतने पर भी अपनी कुटिलता से बाज नहीं आते, अन्य देशीय रईसों से लिखा-पढ़ी कर रहे हैं। बादशाह ने गुप्तचर के पकड़े जाने का हुक्म दिया। पत्र देखा गया तो लिखा था, मैं इस आदर के लिए आपका बहुत अनुग्रहीत हूं, लेकिन जिस रियासत का वर्षों तक नमक खा चुका हूं उससे थोड़ी-सी ताड़ना के कारण विमुख नहीं हो सकता। आप मुझे क्षमा करें। बादशाह यह पत्र देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और मंत्री को कारागार से निकालकर फिर पुराने पद पर नियुक्त कर दिया और अपनी निर्दयता पर बहुत लज्जित हुआ।
एक पहलवान अपने एक शिष्य से विशेष प्रीति रखता था। उसने उसे एक पेंच के सिवाय अपने और सब पेंचों का अभ्यास करा दिया। इससे शिष्य को अहंकार हो गया। उसने बादशाह से जाकर कहा, मेरे गुरुजी अब केवल नाम के गुरु हैं। मल्लयुध्द में वह मेरा सामना नहीं कर सकते। बादशाह ने युवक का यह घमंड तोड़ने का निश्चय किया। एक दंगल कराने का हुक्म दिया जिसमें गुरु और शिष्य अपना-अपना पराक्रम दिखायें। सहस्रों मनुष्य एकत्र हुए। कुश्ती होने लगी। शिष्य ने गुरुजी के सब पेंच काट दिये, पर अन्तिम पेंच की काट न जानता था, परास्त हो गया। बादशाह ने गुरु को इनाम दिया और युवक को बहुत धिक्कारा कि इसी बल-बूते पर तू इतनी डींग मारता था। शिष्य ने कहा, दीन बंधु, गुरुजी ने यह पेंच मुझसे छिपा रखा था। गुरुजी ने कहा, हाँ, इसी दिन के लिए छिपाया था। क्योंकि चतुर मनुष्यों की कहावत है कि मित्र को इतना सबल न बना देना चाहिये कि वह शत्रु होकर हानि पहुंचा सके।
दूसरा प्रकरण : सादी ने पाखंडी साधुओं, मौलवियों और फ़कीरों को शिक्षा दी है, जिन्हें उस प्राचीन काल में भी इसकी कुछ कम आवश्यकता न थी। सादी को पंडितों, मौलवी-मुल्लाओं के साथ रहने के बहुत अवसर मिले थे। अतएव वह उनके रंग-ढंग को भली-भांति जानते थे। इन उपदेशों में बार-बार समझाया है कि मौलवियों को संतोष रखना चाहिए। उन्हें राजा रईसों की खुशामद करने की जरूरत नहीं। गेरुवे बाने की आड़ में स्वार्थ सिध्दि को वह अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखते थे। उनके कथनानुसार किसी बने हुए साधु से भोग-विलास में फंसा हुआ मनुष्य अच्छा है, क्योंकि वह किसी को धोखा तो देना नहीं चाहता।
मुझे याद है कि एक बार जब मैं बाल्यावस्था में सारी रात कुरान पढ़ता रहा तो कई आदमी मेरे पास खर्राटे ले रहे थे। मैंने अपने पूज्य पिता से कहा, इन सोने वालों को देखिये, नमाज़ पढ़ना तो दूर रहा कोई सिर भी नहीं उठाता। पिताजी ने उत्तर दिया, बेटा, तू भी सो जाता तो अच्छा था क्योंकि इस छिद्रान्वेषण से तो बच जाता।
किसी देश में एक भिक्षुक ने बहुत-सा धन जमा कर रक्खा था। वहाँ के बादशाह ने उसे बुलाकर कहा, सुना है तुम्हारे पास बड़ी सम्पत्ति है। मुझे आजकल धन की बड़ी आवश्यकता है। यदि उसमें से कुछ दे दो तो कोष में रुपये आते ही मैं तुम्हें चुका दूंगा। फ़कीर ने कहा, जहाँपनाह, मुझ जैसे भिखारी का धन आपके काम का नहीं है क्योंकि मैंने मांग-मांगकर कौड़ी-कौड़ी बटोरी है। बादशाह ने कहा, इसकी कुछ चिंता नहीं, मैं यह रुपये काफिरों, अधार्मियों को ही दूंगा। जैसा धन है वैसा ही उपयोग होगा।
एक वृध्द पुरुष ने एक युवती कन्या से विवाह किया। जिस कमरे में उसके साथ रहता उसे फूलों से खूब सजाता। उसके साथ एकांत में बैठा हुआ उसकी सुंदरता का आनंद उठाया करता। रात भर जाग-जागकर मनोहर कहानियाँ कहा करता कि कदाचित उसके हृदय में कुछ प्रेम उत्पन्न हो जाय। एक दिन उससे बोला, तेरा नसीब अच्छा था कि तेरा विवाह मेरे जैसे बूढ़े से हुआ जिसने बहुत ज़माना देखा है, सुख-दु:ख का बहुत अनुभव कर चुका है। जो मित्र धर्म का पालन करना जानता है; जो मृदुभाषी, प्रसन्नचित्त और शीलवान है। तू किसी अभिमानी युवक के पाले पड़ी होती, जो रात-दिन सैर-सपाटे किया करता, अपने ही बनाव सिंगार में भूला रहता, नित्य नये प्रेम की खोज में रहता, तो तुझसे रोते भी न बनता। युवक लोग सुन्दर और रसिक होते हैं किन्तु प्रीतिपालन करना नहीं जानते। बूढ़े ने समझा कि इस भाषण ने कामिनी को मोहित कर लिया, लेकिन अकस्मात युवती ने एक गहरी सांस ली और बोली आपने बहुत ही अच्छी बातें कहीं, लेकिन उनमें से एक भी इतनी नहीं जंचती जितना मेरे दाई का यह वाक्य कि युवती को तीर का घाव उतना दुखदायी नहीं होता जितना वृध्द मनुष्य का सहवास।
मैं दयारे बक्र में एक वृध्द धनवान मनुष्य का अतिथि था। उसके एक रूपवान पुत्र था। एक दिन उसने कहा, इस लड़के के सिवा मेरे और कोई संतान नहीं हुई। यहाँ से पास ही एक पवित्र वृक्ष है, लोग वहाँ जाकर मन्नतें मानते हैं। कितने दिनों तक रात-रात भर मैंने उस वृक्ष के नीचे ईश्वर से विनती की, तब मुझे यह पुत्र प्राप्त हुआ। उधर लड़का धीरे-धीरे मित्रों से कह रहा था, यदि मुझे उस वृक्ष का पता होता तो जाकर ईश्वर से पिता की मृत्यु के लिए विनय करता।
मेरे मित्रों में एक युवक बड़ा प्रसन्नचित्त, हंसमुख और रसिक था। शोक उसके हृदय में घुसने भी न पाता था। बहुत दिनों के बाद जब भेंट हुई तो देखा कि उसके घर में स्त्री और बच्चे हैं। साथ ही न वह पहले की सी मनोरंजकता है न उत्साह। पूछा, क्या हाल है? बोला, जब बच्चों का बाप हो गया तो बच्चों का खिलाड़ीपन कहाँ से लाऊं? अवस्थानुकूल ही सब बातें शोभा देती हैं।
किसी बादशाह ने एक ईश्वर भक्त से पूछा कि कभी आप मुझे भी तो याद करते होंगे। भक्त ने कहा, हाँ, जब ईश्वर को भूल जाता हूं तो आप याद आ जाते हैं।
एक बादशाह ने किसी विपत्ति के अवसर पर निश्चय किया कि यदि यह विपत्ति टल जाय तो इतना धन साधु-संतों को दान कर दूंगा। जब उसकी कामना पूरी हो गयी तो उसने अपने नौकर को रुपयों की एक थैली साधुओं को बांटने के लिए दी। वह नौकर चतुर था। संध्या को वह थैली ज्यों की त्यों दर्बार में वापस लाया, बोला दीनबन्धु, मैंने बहुत खोज की किन्तु इन रुपयों का लेने वाला कोई न मिला। बादशाह ने कहा, तुम भी विचित्र आदमी हो, इसी शहर में चार सौ से अधिक साधु होंगे। नौकर ने विनय की, भगवन, जो संत हैं वह तो इस द्रव्य को छूते नहीं और जो मायासक्त हैं उन्हें मैंने दिया नहीं।
किसी महात्मा से पूछा गया कि दान ग्रहण करना आप उचित समझते हैं या अनुचित? उन्होंने उत्तर दिया, उससे किसी सुकार्य की पूर्ति हो तब तो उचित है और केवल संग्रह और व्यापार के निमित्त अत्यंत अनुचित है।
एक साधु किसी राजा का अतिथि हुआ था। जब भोजन का समय आया तो उसने बहुत अल्प भोजन किया। लेकिन जब नमाज़ का वक्श्त आया तो उसने खूब लंबी नमाज़ पढ़ी। जिसमें राजा के मन में श्रध्दा उत्पन्न हो। वहाँ से विदा होकर घर पर आये तो भूख के मारे बुरा हाल था। आते ही भोजन मांगा। पुत्र ने कहा, पिताजी क्या राजा ने भोजन नहीं दिया। बोले, भोजन तो दिया, किन्तु मैंने स्वयं जान बूझकर कुछ नहीं खाया जिसमें बादशाह को मेरे योगसाधना पर पूरा विश्वास हो जाय। बेटे ने कहा, तो भोजन करके नमाज़ भी फिर से पढ़िये। जिस तरह वहाँ का भोजन आपका पेट नहीं भर सका, वैसे ही वहाँ की नमाज़ भी सिध्द नहीं हुई।
तीसरा प्रकरण : संतोष की महिमा वर्णन की गयी है। सादी की नीति शिक्षा में संतोष का पद बहुत ऊंचा है। और यथार्थ भी यही है। संतोष सदाचार का मूलमंत्र है। संतोष रूपी नौका पर बैठकर हम इस भवसागर को निर्विघ्न पार कर सकते हैं।
मिश्र देश में एक धनवान मनुष्य के दो पुत्र थे। एक ने विद्या पढ़ी, दूसरे ने धन संचय किया। एक पंडित हुआ, और दूसरा मिश्र का प्रधान मंत्री कोषाध्यक्ष। इसने अपने विद्वान भ्राता से कहा, देखो मैं राजपद पर पहुंचा और तुम ज्यों के त्यों रह गये। उसने उत्तर दिया ईश्वर ने मुझ पर विशेष कृपा की है, क्योंकि मुझको विद्या दी जो देव दुर्लभ पदार्थ है और तुमको मिश्र की उस गद्दी का मंत्री बनाया जो फिरऊन (मिश्र का एक अभिमानी बादशाह जिसे मूसा नबी ने नील नदी में डुबा दिया) की थी।
ईरान के बादशाह बहमन के संबंध में कहा जाता है कि उसने अरब के एक हकीम से पूछा कि नित्य कितना भोजन करना चाहिए। हकीम ने उत्तर दिया, 29 तोले। बादशाह बोला, भला, इतने से क्या होगा। उत्तर मिला, इतने आहार से तुम जिन्दा रह सकते हो। इसके उपरान्त जो कुछ खाते हो वह बोझ है जो तुम व्यर्थ अपने ऊपर लादते हो।
एक मनुष्य पर किसी बनिये के कुछ रुपये चढ़ गये थे। वह उससे प्रतिदिन मांगा करता और कड़ी-कड़ी बातें कहता। बेचारा सुन-सुनकर दु:खी होता था, सहने के सिवा कोई दूसरा उपाय न था। एक चतुर ने यह कौतुक देखकर कहा इच्छाओं का टालना इतना कठिन नहीं है जितना बनियों का। कसाइयों के तकाजे सहने की अपेक्षा मांस की अभिलाषा में मर जाना कहीं अच्छा है।
एक फ़कीर को कोई काम आ पड़ा। लोगों ने कहा अमुक पुरुष बड़ा दयालु है। यदि उससे जाकर अपनी आवश्यकता कहो तो वह तुम्हें कदापि निराश न करेगा। फ़कीर पूछते-पूछते उस पुरुष के घर पहुंचा। देखा तो वह रोनी सूरत बनाये, क्रोध में भरा बैठा है। उल्टे पांव लौट आया। लोगों ने पूछा क्यों भाई क्या हुआ? बोले सूरत ही देखकर मन भर गया। यदि मांगना ही पड़े तो किसी प्रसन्नचित्त आदमी से मांगो, मनहूस आदमी से न मांगना ही अच्छा है।
लोगों ने हातिमताई (उदारता में अरब का हरिश्चन्द्र) से पूछा, क्या तुमने संसार में कोई अपने से अधिक योग्य मनुष्य देखा या सुना है? बोला, हाँ एक दिन मैंने लोगों की बड़ी भारी दावत की। संयोग से उस दिन किसी कार्यवश मुझे जंगल की तरफ जाना पड़ा। एक लकड़हारे को देखा बोझ लिये आ रहा है। उससे पूछा भाई हातिम के मेहमान क्यों नहीं बन जाते हैं? आज देश भर के आदमी उसके अतिथि हैं। बोला, जो अपनी मेहनत की रोटी खाता है वह हातिम के सामने हाथ क्यों फैलावें?
एक बार युवावस्था में मैंने अपनी माता से कुछ कठोर बातें कह दीं। माता दु:खी होकर एक कोने में जा बैठी और रोकर कहने लगी, बचपन भूल गया, इसीलिये अब मुंह से ऐसी बातें निकलती हैं।
एक बूढ़े से लोगों ने पूछा विवाह क्यों नहीं करते? वह बोला वृध्दा स्त्रियों से मैं विवाह नहीं करना चाहता। लोगों ने कहा, तो किसी युवती से कर लो। बोला, जब मैं बूढ़ा होकर बूढ़ी स्त्रियों से भागता हूं तो युवती होकर बूढ़े मनुष्य को कैसे चाहेंगी?
चौथा प्रकरण : बहुत छोटा है और उसमें मितभाषी होने का जो उपदेश किया गया है उसकी सभी बातों से आजकल के शिक्षित सहमत न होंगे, जिनका सिध्दान्त ही है कि अपनी राई भर बुध्दि को पर्वत बनाकर दिखाया जाय। आजकल विनय अयोग्यता की द्योतक समझी जाती है और वही मनुष्य चलते-पुर्जे और कार्यकुशल समझे जाते हैं जो अपनी बुध्दि और चतुराई की महिमा गान करने में कभी नहीं चूकते। किसी यूरोपीय सज्जन ने यह लिखने में भी संकोच नहीं किया कि चुप रहने से मूर्खता प्रकट होती है। लेकिन इसमें किसी को शंका नहीं हो सकती कि मितभाषी होना भी समाज की उन्नति के लिए उपयोगी है। ऐसे अवसर भी आ जाते हैं जब हमको अपनी वाचालता पर पछताना पड़ता है। इस विषय में सादी ने कई मर्मपूर्ण उपदेश दिये हैं। जिन पर चलने से हमको विशेष लाभ हो सकता है।
एक चतुर युवक का निमय था कि बुध्दिमानों की सभा में बैठता तो मौन धारण कर लेता। लोगों ने उससे कहा, तुम भी कभी-कभी किसी विषय पर कुछ बोला करो। उसने कहा, कहीं ऐसा न हो कि लोग मुझसे ऐसी बात पूछ बैठें जो मुझे आती ही न हो और मुझे लज्जित होना पड़े।
एक विद्वान् ने कहा है कि यदि संसार में कोई ऐसा है जो अपनी मूर्खता को स्वीकार करता हो तो वही मनुष्य है जो किसी आदमी की बात समाप्त होने से पहले ही बोल उठता है।
हसन नाम के एक मंत्री पर बादशाह महमूद गज़नी का बड़ा विश्वास था। एक दिन उससे अन्य कर्मचारियों ने पूछा कि आज बादशाह ने अमुक विषय के संबंध में तुमसे क्या कहा? हसन ने कहा, जो तुमसे कहा, वही हमसे भी कहा। बोले, जो बातें तुमसे होती हैं वह हमसे नहीं करते। उत्तर दिया, जब बादशाह मुझ पर विश्वास करके कोई भेद की बातें कहते हैं तो मुझसे क्यों पूछते हो।
किसी मस्जिद में अवैतनिक मौलवी ऐसी बुरी तरह नमाज, पढ़ता कि सुनने वालों को घृणा होती। मस्जिद का स्वामी दयालु था। वह मौलवी का दिल दु:खाना नहीं चाहता था। मौलवी से कहा कि इस मस्जिद के कई पुराने मुल्ला हैं जिन्हें मैं पांच रुपये मासिक देता हूं। तुम्हें दस रुपये दूंगा, लेकिन किसी दूसरी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आया करो। मौलवी ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन थोड़े ही दिनों में वह फिर स्वामी के पास आया और बोला, आपने तो मुझे दस रुपये देकर यहाँ से निकाला, अब जहाँ हूं वहाँ के लोग मुझे मस्जिद से जाने के लिए बीस रुपये दे रहे हैं। स्वामी खूब हंसा और बोला, पचास दीनार लिये बिना पिंड मत छोड़ना।
पांचवां और छठवां प्रकरण : जीवन की ही मुख्य अवस्थाओं से संबंध रखते हैं। एक में युवावस्था, दूसरे में वृध्दावस्था का वर्णन है। युवावस्था में हमारी मनोवृत्तियॉं कैसी होती हैं, हमारे कर्तव्य क्या होते हैं, हम वासनाओं में किस प्रकार लिप्त हो जाते हैं, बुढ़ापे में हमें क्या-क्या अनुभव होते हैं, मन में क्या अभिलाषायें रहती हैं, हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिए। इन सब विषयों का सादी ने इस तरह वर्णन किया है मानो वह भी सदाचार के अंग हैं। इसमें कितनी ही कथायें ऐसी हैं जिनसे मनोरंजन के सिवा कोई नतीजा नहीं निकलता, वरन् कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिनको गुलिस्तां जैसे ग्रंथ में स्थान न मिलना चाहिए था। विशेषकर युवावस्था का वर्णन करते हुए तो ऐसा मालूम होता है मानो सादी को जवानी का नशा चढ़ गया था।
सातवां प्रकरण : शिक्षा से संबंध रखता है। सादी ने शिक्षकों के दोष और गुण, शिष्य और गुरु के पारस्परिक व्यवहार और शिक्षा के फल और विफल का वर्णन किया है। उनका सिध्दान्त था कि शिक्षा चाहे कितनी भी उत्तम हो मानव स्वभाव को नहीं बदल सकती और शिक्षक चाहे कितना ही विद्वान और सच्चरित्र क्यों न हो कठोरता के बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। यद्यपि आजकल यह सिध्दांत निर्भ्रांत नहीं माने जा सकते तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कुछ भी तत्व नहीं है। कोई शिक्षा पध्दति अब तक ऐसी नहीं निकलती है जो दंड का निषेध करती हो, हाँ कोई शारीरिक दंड के पक्ष में है, कोई मानसिक।
एक विद्वान किसी बादशाह के लड़के को पढ़ाता था। वह उसे बहुत मारता और डांटता था। राजपुत्र ने एक दिन अपने पिता से जाकर अध्यापक की शिकायत की। बादशाह को भी क्रोध आया। अध्यापक को बुलाकर पूछा, आप मेरे लड़के को इतना क्यों मारते हैं? इतनी निर्दयता आप अन्य लड़कों के साथ नहीं करते? अध्यापक ने उत्तर दिया, महाराज, राजपुत्र में नम्रता और सदाचार की विशेष आवश्यकता है क्योंकि बादशाह लोग जो कुछ कहते या करते हैं वह प्रत्येक मनुष्य की जिह्ना पर रहता है पर जिसे बचपन में सचरित्रता की शिक्षा कठोरतापूर्वक नहीं मिलती उसमें बड़े होने पर कोई अच्छा गुण नहीं आ सकता। हरी लकड़ी को चाहे जितनी झुका लो लेकिन सूख जाने पर वह नहीं मुड़ सकती। मैंने अफ्रीका देश में एक मौलवी को देखा। वह अत्यंत कुरूप, कठोर और कटुभाषी था। लड़कों को पढ़ाता कम और मारता जि़यादा। लोगों ने उसे निकालकर एक धार्मिक, नम्र और सहनशील मौलवी रक्खा। यह हज़रत लड़कों से बहुत प्रेम से बोलते और कभी उनकी तरफ कड़ी आंख से भी न देखते। लड़के उनका यह स्वभाव देखकर ढीठ हो गये। आपस में लड़ाई दंगा मचाते और लिखने की तख्तियॉं लड़ाया करते। जब मैं दूसरी बार फिर वहाँ गया तो मैंने देखा कि वही पहले वाला मौलवी बालकों को पढ़ा रहा है। पूछने पर विदित हुआ कि दूसरे मौलवी की नम्रता से उकता जाने पर लोग पहले मौलवी को मनाकर लाये थे।
एक बार मैं बलख़ से कुछ यात्रियों के साथ आ रहा था। हमारे साथ एक बहुत बलवान नवयुवक था जो डींग मारता चला आता था कि मैंने यह किया और वह किया। निदान हमको कई डाकुओं ने घेर लिया। मैंने पहलवान से कहा, अब क्यों खड़े हो, कुछ अपना पराक्रम दिखाओ। लेकिन लुटेरों को देखते ही उस मनुष्य के होश उड़ गये। मुख फीका पड़ गया। तीर-कमान हाथ से छूटकर गिर पड़ा और वह थरथर कांपने लगा। जब उसकी यह दशा देखी तो अपना असबाब वहीं छोड़कर हम लोग भाग खड़े हुए। यों किसी तरह प्राण बचे। जिसे युध्द का अनुभव हो वही समर में अड़ सकता है। इसके लिए बल से अधिक साहस की ज़रूरत है।
आठवां प्रकरण : सादी ने सदाचार और सद्व्यवहार के नियम लिखे हैं। कथाओं का आश्रय न लेकर खुले-खुले उपदेश किये हैं। इसलिए सामान्य रीति से यह प्रकरण विशेष रोचक न हो सकता था, किन्तु इस कमी को सादी ने रचना सौंदर्य से पूरा किया है। छोटे-वाक्यों में सूत्रों की भांति अर्थ भरा हुआ है। मानो यह प्रकरण सादी के उपदेशों का निचोड़ है। यह वह उपवन है जिसमें राजनीति, सदाचार, मनोविज्ञान, समाजनीति, सभाचातुरी आदि रंग-बिरंगे पुरुष लहलहा रहे हैं। इन फूलों में छिपे हुए कांटे भी हैं, जिनमें वह अद्भुत गुण है कि वह वहीं चुभते हैं जहाँ चुभने चाहिये।
यदि कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे तो तुमको उससे अधिक सचेत रहना चाहिए। जब मित्र की सच्चाई का ही भरोसा नहीं तो शत्रुओं की खुशामद का क्या विश्वास!
यदि किन्हीं दो दुश्मनों के बीच में कोई बात कहनी हो तो इस भांति कहो कि अगर वे फिर मित्र हो जायं तो तुम्हें लज्जित न होना पड़े।
जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है। वह अपने मित्र का शत्रु है।
जब तक धन से काम निकले तब तक जान को जोखिम में न डालो। जब कोई उपाय न रहे तो म्यान से तलवार खींचो।
शत्रु की सलाह के विरुध्द काम करना ही बुध्दिमानी है अगर वह तुम्हें तीर के समान सीधी राह दिखावे तो भी उसे छोड़ दो और उलटी (उसके विरुध्द) राह जाओ।
न तो इतने कठोर बनो कि लोग तुमसे डरने लगें और न इतने कोमल कि लोग सिर चढ़ें।
दो मनुष्य राज्य और धर्म के शत्रु हैं, निर्दयी राजा और मूर्ख साधु।
राजा को उचित है कि अपने शत्रुओं पर इतना क्रोध न करे कि जिससे मित्रों के मन में भी खटका हो जाय।
जब शत्रु की कोई चाल काम नहीं करती तब वह मित्रता पैदा करता है; मित्रता की आड़ में वह उन सब कामों को कर सकता है जो दुश्मन रहकर न कर सकता।
साँप के सिर को अपने बैरी के हाथ से कुचलवाओ या तो साँप ही मरेगा या दुश्मन ही से गला छूटेगा।
जब तक तुम्हें पूर्ण विश्वास न हो कि तुम्हारी बात पसंद आवेगी तब तक बादशाह के सामने किसी की निंदा मत करो; अन्यथा तुम्हें स्वयं हानि उठानी पड़ेगी।
जो व्यक्ति किसी घमंडी आदमी को उपदेश करता है, वह खुद नसीहत का मुहताज है।
जो मनुष्य सामर्थ्यवान होकर भी भलाई नहीं करता उसे सामर्थ्यहीन होने पर दु:ख भोगना पड़ेगा। अत्याचारी का विपद में कोई साथी नहीं होता।
किसी के छिपे हुए ऐब मत खोलो, इससे तुम्हारा भी विश्वास उठ जायगा।
विद्या पढ़कर उसका अनुशीलन न करना ज़मीन जोतकर बीज न डालने के समान है।
जिसकी भुजाओं में बल नहीं है, यदि वह लोहे की कलाई वाले से पंजा ले तो यह उसकी मूर्खता है।
दुर्जन लोग सज्जनों को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह बाज़ारी कुत्ते शिकारी कुत्तों को देखकर दूर से गुर्राते हैं; लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं करते।
गुणहीन-गुणवानों से द्वेष करते हैं।
बुध्दिमान लोग पहला भोजन पच जाने पर फिर खाते हैं, योगी लोग उतना खाते हैं जितने से जीवित रहे हैं, जवान लोग पेटभर खाते हैं, बूढ़े जब तक पसीना न आ जाय खाते ही रहते हैं, किन्तु कलन्दर इतना खा जाते हैं कि सांस की भी जगह नहीं रहती।
अगर पत्थर हाथ में हो और साँप नीचे तो उस समय सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
अगर कोई बुध्दिमान मूर्खों के साथ वाद-विवाद करे तो उसे प्रतिष्ठा की आशा न रखनी चाहिये।
जिस मित्र को तुमने बहुत दिनों में पाया है उससे मित्रता निभाने का यत्न करो।
विवेक इन्द्रियों के अधीन है जैसे कोई सीधा मनुष्य किसी चंचल स्त्री के अधीन हो।
बुध्दि, बिना बल के छल और कपट है, बल बिना बुध्दि के मूर्खता और क्रूरता है।
जो व्यक्ति लोगों का प्रशंसापात्र बनने की इच्छा से वासनाओं का त्याग करता है, वह हलाल को छोड़कर हराम की ओर झुकता है।
दो बात असंभव हैं, एक तो अपने अंश से अधिक खाना, दूसरे मृत्यु से पहले मरना।