Get it on Google Play
Download on the App Store

सोलहवाँ अध्याय

जिस ज्ञान के बाद कृतकृत्यता हो जाती है और मस्ती आ जाती है, जिस दृष्टि के चलते जर्रे-जर्रे और परमाणु-परमाणु में 'अहम्' नजर आता है, आत्मा ही दीखती है, वह कैसे प्राप्त हो यह बात अंतिम बार अच्छी तरह बता दी जाए तो बेड़ापार हो। यद्यपि पहले भी इसके उपाय बताए गए हैं; अभी-अभी पंदरहवें अध्‍याय में ही यही यत्न सुझाया गया है; तथापि उतना ही कहना काफी नहीं है। उसमें अभी कसर है, कुछ और भी कहना रह जाता है जिसे पूरा करना जरूरी है। वह कमी खासी है, महत्त्वपूर्ण है, न कि ऐसी ही तैसी। उसे पूरा न कर देने में खतरा है, भारी खतरा है, यह बात कृष्ण स्वयमेव समझते थे। यही कारण है कि उनने बिना कहे-सुने, बिना पूछे ही उसे पूरा कर दिया और इसमें पूरे दो 16-17 - अध्‍याय लगा दिए! यह कोई मामूली बात नहीं है, यह मानना ही होगा।

बात असल यह है कि ज्ञान की प्राप्ति के साधनों को बता देने पर भी दो चीजें रह गई हैं। एक तो यह कि इन साधनों पर चलने में खतरे क्या हैं, उन्हें अच्छी तरह से बता देना! दूसरे यह कि जो भी साधन कहे गए हैं उनमें बुनियादी और मौलिक चीज क्या है जिसके बिना बाकी बेकार हो जाते हैं। साधनों के इन दोनों पहलुओं को, या यों कहिए कि इन दो स्पष्ट पहलुओं के साथ-साथ उन साधनों को अंत में याद करा लेना जरूरी था। पहली बात निषेधात्मक (negative) है और दूसरी विधानात्मक (positive)। इस दृष्टि से भी इन्हें जान लेना जरूरी था। निषेधात्मक पहलू में सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह न सिर्फ ज्ञानप्राप्ति के ही लिए जरूरी है, किंतु उसके बाद भी आत्मज्ञानी पुरुष के व्यवहार में वह कसौटी का काम करता है और इस प्रकार समाज-हित-साधन में काम आता है। उसी प्रकार विधानात्मक पहलू भी ऐसा पारस है कि हजारों लोहे को सोना बना देता है। उसके हासिल हो जाने से मनुष्य के व्यावहारिक जीवन की हजारों विधिनिषेधवाली दिक्कतें हट जाती हैं और क्या करें, क्या न करें, इस तरह के उठने वाले रोज के पचड़ों से पिंड छूट जाता है। इस उधेड़बुन की जरूरत रही नहीं जाती है। इस दृष्टि से यह भी व्यावहारिक जीवन की कसौटी ही है। मगर दोनों की उपयोगिता का रूप दो होने से दोनों की महत्ता भी दो है। जिस प्रकार ये खुद निषेधात्मक और विधानात्मक हैं, उसी प्रकार इनकी उपयोगिता भी है। इस प्रकार इन दो अध्‍यायों का गीताधर्म की दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व है। यह बात हम पहले ही बखूबी समझा चुके हैं।

इन दो बातों में भी निषेधात्मक पहलू, अपेक्षाकृत सरल है। किसी चीज से बचना उतना कठिन नहीं है जितना किसी बात का संपादन करना। यह बात भी है कि निषेधात्मक पहलू कूड़ा-करकट हटा के सफ़ाई कर देता है। उसके बाद विधानात्मक वस्तु के लाने या कायम रखने में गंदगियों का खतरा नहीं रहने से आसानी हो जाती है। जब तक प्याले को धो-धा के निर्मल न बनाएँ उसमें दूध रखा कैसे जाएगा? और उस रखने के मानी क्या होंगे? वह गंदा और जहरीला न बन जाएगा? यही कारण है कि सोलहवें अध्‍याय में निषेधात्मक पहलू का ही विवेचन-विश्लेषण किया गया है। इसके पूरा हो जाने पर ही सत्रहवें अध्याय में विधानात्मक पहलू की बातें विस्तार के साथ लिखी गई हैं। इस तरह गीतोपदेश की प्रगति स्वाभाविक ढंग से हो सकी है। इसकी इस अपूर्व लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस दृष्ट से यदि हम सोलहवें अध्‍याय के प्रारंभ में कही गई दैवी संपत्तियों पर गौर करें, तो देखेंगे कि जो बातें यहाँ कही गई हैं वह अधिकांश या रूपांतर में सबकी-सब वही हैं जिनका उल्लेख 'अमानित्वमदंभित्व' (13। 7-11) आदि श्लोकों में हुआ है। संख्या बढ़ जाने पर खामख्वाह कुछ नई चीजें भी नजर आएँगी ही। जहाँ पहले कुल इक्कीस ही बातें कही थीं तहाँ अब पूरी सत्ताईस आ गईं! एक तो इसी से अंतर हो गया। दूसरे, गीता का काम हू-ब-हू दुहराना या 'मक्षिका-स्थाने मक्षिका' तो करना है नहीं। इसका तो काम है प्रकारांतर से उन्हीं बातों को इस तरह कहना कि सुनने वाले को ऊब न हो सके और बातें दिल में बखूबी बैठ भी जाएँ। आखिर कठिन तो हईं। इसीलिए दिल में उनका जमना आसान नहीं है। जरूरत भी उन पर प्रकारांतर से जोर देने की इसीलिए पड़ती है।

इसे यों समझें। पतंजलि ने योगसूत्रों में जिन यमों और नियमों को गिनाया है। वह योग के लिए नींव हैं। दीवार हैं। उनके बिना योग का महल खड़ा होई नहीं सकता। इसीलिए योग के आठ अंगों में पहले दो यही यम-नियम ही हैं। हम पहले ही उस सूत्र को लिख भी चुके हैं। यह योग है भी क्या यदि गीता की वह समाधि या ध्‍यान नहीं है जो ज्ञानपूर्णता के लिए अनिवार्य माना गया है और जिसका ब्योरे के साथ गीता ने वर्णन किया है? इसीलिए यम-नियम ही ज्ञान-प्राप्ति के मूल साधन हैं। दोनों ही पाँच-पाँच प्रकार के माने जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय - चोरी न करना - ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह या पदार्थों और लवाजिम का न जमा करना यही पाँच यम हैं, 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:' (2। 30)। इसी प्रकार शौच - शुचिता या पवित्रता - संतोष, तप, स्वाध्याय - सद्ग्रंथों का अभ्यास और ईश्वर-भक्ति यही नियम हैं, 'शौच संतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियम:' (2। 32)। इनका जो कुछ विवरण भाष्य, टीकाओं में तथा स्मृतियों में दिया गया है उसे पढ़ के इन्हीं के आईने में अगर पहलेवाले 21 और यहाँ के 27 को देखें तो साफ पता चलेगा कि वे यही दस हैं, वे नामांतर से इन्हीं का स्पष्टीकरण मात्र हैं।

इस सिलसिले में एक बात और भी ध्‍यान देने की है। पुराने लोगों ने प्राय: कहा है कि इन यम-नियमों में भी यमों को तो कभी छोड़ नहीं सकते। उन्हें तो सदा करना ही होगा। हाँ, नियमों को ज्ञान के बाद छोड़ सकते हैं, छोड़ दें, 'यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परस्त्यजेत्' ( भागवत 11। 10। 5)। पतंजलि ने भी यमों के बारे में लिखा है कि इनके पालन के लिए किसी खास देश, विशेष जाति, वंश, कुल, निश्चित समय या कारण जरूरी नहीं है कि उन सबों के पूरा न होने या न रहने पर ये यम छोड़ दिए जाएँ। ये तो महाव्रत हैं और इन्हें हर हालत में सब देश-काल में सभी आदमियों को करते ही रहना होगा, 'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्' (2। 31)। असल में इन यमों का दूसरों से, समाज-से संबंध होता है। यह बात नहीं है कि इन्हें जो पालन करे, जो इन पर अमल करे उसी का ताल्लुक और हिताहित इनसे होता है। यही कारण है कि इन्हें समाज-हित-साधन के खयाल से ही, या यों कहिए कि समाज की बुनियाद समझ के ही निरंतर करना जरूरी हो जाता है। इसी दृष्टि से इनका महत्त्व ज्यादा है। महाव्रत भी इन्हें कहने का यही अभिप्राय है।

विपरीत इसके नियमों को व्रत ही माना है। उनके देखने से ही साफ मालूम हो जाता है कि उनका ताल्लुक केवल उसी व्यक्ति से है जो उन पर अमल करे। इसीलिए अपनी जरूरत न रहने पर उन्हें वह छोड़ भी दे सकता है, छोड़ भी देता है। सोलहवें अध्‍याय में जो कुछ कहा गया है वह इन्हीं यमों के इसी पहलू पर पूर्ण प्रकाश डाल देता है।

बेशक, शुरू के श्लोकों में विधानात्मक बातें गिनाई गई हैं। इस तरह पूरे तीन श्लोकों को उनने ही ले लिया है। विपरीत इसके एक ही - चौथे - श्लोक में निषेधात्मक बात कही गई है। मगर जब हम गौर करें तो पता लगेगा कि दैवी संपत्ति के रूप में जो बातें कही गई हैं वह आसुरी संपत्ति के मुकाबिले के ही लिए; ताकि इनका महत्त्व झलक जाए और लोग मुस्तैदी से इन्हें संपादन करें। यही वजह है कि जहाँ तेरहवें अध्‍याय में एक भी आसुरी बात को न कह के साफ ही कह दिया था कि दैवी संपत्तियों एवं ज्ञान के साधनों से उलटी जितनी हैं वह सभी आसुरी संपत्ति तथा अज्ञान के साधन हैं और इस तरह कम से कम इक्कीस तो आ गई हैं, तहाँ यहाँ चौथे श्लोक में सिर्फ छ: का ही नाम ले के काम खत्म किया है। इससे यह मतलब तो हर्गिज नहीं निकलता कि बाकियों को छोड़ ही दिया है। यह भला कैसे होगा? फलत: इसका यही अभिप्राय है कि नमूने के रूप में छ: को गिना के इसीलिए छोड़ दिया है कि आगे के कुल पूरे 16 (7-22) श्लोकों में इन्हीं का विवरण मौजूद है, इनका नंगा चित्र खींच दिया गया है। बल्कि छठे श्लोक को भी उन्हीं में गिन सकते हैं। क्योंकि भूमिका के ही रूप में वह आया है। उसमें कहा गया है कि जरा गौर से सुनिए कि बात क्या है। इसीलिए छ: के मानी हैं कम से कम सत्ताईस दैवी संपत्तियों के विपरीत सत्ताईस आसुरी तो जरूर ही। अगर कुछ और भी आ जाएँ तो ठीक ही है। बीच में जो पाँचवाँ श्लोक है वही इस अध्‍याय के मुख्य विषय की ओर ध्‍यान दिलाता है। वह बताता है कि यही इसकी असल बात है। उसमें अर्जुन को आश्वासन देने की बात तो यों ही प्रासंगिक है; ताकि उसकी घबराहट जाती रहे।

तीन गुणों का पहले वर्णन आता रहा है। उनमें सत्त्वगुण के संपादन पर 'नित्यसत्त्वस्थ: (2। 45) में जोर दिया गया है। उसी गुण के फलस्वरूप कुछ विशेषताएँ शरीर में नजर आती हैं। शरीर और इंद्रियाँ हलकी होती हैं, भारी नहीं रहती हैं, आलस्य नहीं रहता है और प्रकाश प्रतीत होता है। यह बात चौदहवें (14। 11) में कही गई है। ऐसी ही दशा में जितनी भी सात्त्विक बातें मनुष्य में पाई जाती हैं उन्हीं को दैवी संपत्ति कहा है। विपरीत इसके रजोगुण एवं तमोगुण की वृद्धि की दशा में जो बातें चौदहवें (14। 12-13) में पाई जाती हैं तथा उन्हीं के फलस्वरूप उनका जितना भी परिवार हो वही आसुरी संपत्ति है। इसमें भी तामसी बातों पर ही ज्यादा जोर है। इस दल में उन्हीं की प्रधानता है। लेकिन जब राजसी बातें दैवी संपत्ति में आ सकती हैं नहीं, तो उन्हें आसुरी में ही जाना होगा।

अभिजात शब्द में जो 'अभि' आया है उसके चलते ऐसा अर्थ हो जाता है कि जो दैवी या आसुरी संपत्तियों में लिपटा और सना हुआ जो, जिसके चारों तरफ वही पाई जाएँ।

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसशुद्धि र्ज्ञा नयोगव्यवस्थिति:।

दानां दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्त्प आर्जवम्॥ 1 ॥

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शांतिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ 2 ॥

तेज: क्षमा धृ ति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भ वंति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ 3 ॥

श्रीभगवान बोले - हे भारत, निर्भयता, अंत:करण की निर्मलता, ज्ञान एवं योग में जम जाना, दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, यज्ञ, सद्ग्रंथ-पाठ, तप, नम्रता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का त्याग, पदार्थों का त्याग, शांति, दूसरे का ऐब न देखना, पदार्थों पर दया, विषयों की ओर ज्यादा झुकाव न होना, कोमलता, लज्जा, चपलता का न होना, हिम्मत, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, दूसरों को सताने का खयाल न होना, मगरूरी का न होना - (यही चीजें) दैवी संपत्तिवालों में पाई जाती हैं। 1। 2। 3।

सत्त्व की शुद्धि का अर्थ है मन और बुद्धि की निर्मलता। वह तभी होती है जब सत्त्व गुण खूब वृद्धि पर होता है और रज, तम को अच्छी तरह दबाए रहता है। इसीलिए सत्त्व शब्द का प्राय: प्रयोग अंत:करण के मानी में होता है। क्योंकि वह तो सत्त्व-प्रधान होता ही है। संशुद्धि में सत्त्व की वह प्रधानता और भी काफी बढ़ जाती और जम जाती है।

ज्ञान एवं योग दो चीजें हैं। ज्ञान का अर्थ है पढ़-लिख या सुन के जानकारी। योग का अर्थ है उसी पर अमल।

दंभो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध : पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजात्स्य पार्थ संप दमासुरीम्॥ 4 ॥

हे पार्थ, दिखावटी बात, फूल के कुप्पा हो जाना, घमंड, क्रोध, कटुवचन और अज्ञान - (यही) आसुरी संपत्तिवालों में पाए जाते हैं। 4।

दैवी संप द्विमोक्षाय निबंधायासुरी मता।

मा शुच: संप दं दैवीमभिजातोऽसि पांडव॥ 5 ॥

दैवी संपत्ति जन्म-मरण से छुटकारा दिलाती है और आसुरी बंधन में डालती है ऐसा माना जाता है। हे पांडव, चिंता मत करो, तुम दैवी संपत्ति वाले ही हो। 5।

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥ 6 ॥

हे पार्थ, पदार्थों की (और इसीलिए प्राणियों की भी) सृष्टि दोई प्रकार की है - देव और असुर। इनमें दैवी प्रकृतिवालों को तो विस्तार से कही चुके हैं। (अब) असुरों को भी मुझसे सुन लो। 6।

'द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च' (वृहदा. 1। 3। 1।) के अनुसार सृष्टि के दोई विभाग माने गए हैं। इनमें दैव या दैवी प्रकृतिवालों का तो स्थितप्रज्ञ, भक्त, गुणातीत तथा अन्य अनेक रूपों में पहले वर्णन आया ही है। सो भी बार-बार। इनके विस्तृत वर्णन के कहने का आशय यही है कि असुरों या आसुरी स्वभाववालों का यदि वर्णन कहीं पहले आया भी है तो संक्षेप में ही। दृष्टांत के लिए 'अवजानंति मां मूढ़ा' (9। 11-12) में। इसी प्रकार 'कर्मेंद्रियाणि संयम्य' (3। 6) तथा 'भुंजते ते त्वघं पापा' (3। 13) में भी जरा-सा वर्णन है। तेरहवें अध्‍याय में असुरों का तो नहीं, मगर उनकी प्रकृति का जरा-सा 'अज्ञानं वदतोऽन्यथा' (13। 11) में उल्लेख है। इसी तरह के उल्लेख जरामरा आते गए हैं सही। मगर विस्तृत वर्णन कहीं न हो सका है। इसीलिए यहाँ एक ही बार पूरे का पूरा दे दिया गया है। हमने इस पर सभी पहलुओं से विचार करके पहले ही काफी प्रकाश डाला है।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥ 7 ॥

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्पर संभू तं किमन्यत्कामहैतुकम्॥ 8 ॥

असुर लोग कर्तव्य और अकर्तव्य जानते ही नहीं! उनमें पवित्रता, आचरण - जैसा कहना वैसा करना और सत्य का तो पता ही नहीं होता। सत्पदार्थ या ब्रह्म से ही यह जगत बना है, उसी में कायम है और अंत में उसी में जा मिलता है, ऐसा न मान के वह जगत को बिना ईश्वर के ही मानते हैं (और कहते हैं कि) कामवासना के वशीभूत स्‍त्री-पुरुष या नर-मादा के संबंध से पैदा होने के अलावे इसमें और हई क्या? ।7-8।

बहुत लोगों ने इस आठवें श्लोक के अर्थ में अपने संस्कृत के व्याकरणज्ञान का अजीर्ण मिटाया है। उनने कहा है कि अपर तथा पर शब्दों का समास होने पर अपरपर होगा न कि अपरस्पर; हालाँकि 'अपरस्परा: क्रियासातत्ये' (पा. 6। 1। 144) के अनुसार ही अपरस्पर बनता है। यहाँ क्रियासातत्य या काम का जारी रहना तो हई। सारा संसार ही निरंतर पदार्थों के सम्मिश्रण से ही बनता है। इसमें जरा भी विराम नहीं है। असुर लोग यदि यह भी कहने लगें कि दो पदार्थों के संयोग से कुछ भी नहीं बना है, जब कि हमेशा संयोग से ही असंख्य पदार्थ और जीव-जंतु पैदा हो रहे हैं, तो यह कितनी नादानी होगी? 'कामहैतुकम्' का भी मेल यहाँ बिना परस्पर संयोग के होई नहीं सकता। काम का अर्थ है प्रेरणा या इच्छा, चेतन प्राणधारियों की ही तरह जड़ों में भी प्रेरणा होती ही है और पदार्थों का परस्पर सम्मिश्रण हो के नया पदार्थ तैयार हो जाता है। यहाँ तक कि परमाणुवादी दार्शनिकों ने सृष्टि के आरंभ में परमाणुओं में ही परस्पर प्रेरणा मान के उनमें संयोग माना है। यह कहना भी कि 'असत्यम्' आदि पूर्व के तीन शब्दों की ही तरह नहीं के ही अर्थ में अपरस्पर शब्द में पहले का अकार है, ठीक नहीं है। उत्तरार्द्ध में यह बात नहीं है, किंतु पूर्वार्द्ध में है। उत्तरार्द्ध में तो 'कामहैतुकम्' आदि कई शब्द हैं। मगर किसी के साथ ऐसा अकार जुटा नहीं है। तब उन्हीं के साथी अपरस्पर में ही क्यों माना जाए? और निकट के साथियों को छोड़ दूरवर्तियों से उसकी मिलान भी क्यों की जाए?

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय:।

प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतसोऽहिता:॥ 9 ॥

जिनकी आत्मा पतित हो चुकी है ऐसे नासमझ लोग इसी विचार को ले के जगत के अहित बन जाते और उसके सत्यानाश के लिए (घोर से) घोर कर्म तक कर डालते हैं। 9।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दंभमानमदान्विता:।

मोहाद्गृहोत्वाऽसद्ग्राहान् प्रव र्त्तंते ऽशुचिव्रता:॥ 10 ॥

कभी पूरी न हो सकने वाली आकांक्षाएँ लिए, दिखावटी बात, घमंड तथा नशे में चूर और नापाक कामों में ही लगे (ये लोग) भूल से गलत बातों के हठ में आ के काम करते रहते हैं। 10।

चिंतामपरिमेयां च प्रल यांता मुपाश्रिता:।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:॥ 11 ॥

आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।

ई हंते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान्॥ 12 ॥

मरण तक कायम रहने वाली बेहिसाब फिक्र में डूबे हुए, 'खाओ-पिओ, मौज करो' यही जिनका सब कुछ निश्चय है, सैकड़ों आशाओं के फंदे में फँसे हुए तथा विषयों के भोग में ही लिपटे हुए (ऐसे लोग) अन्याय से ही धन-संचय का यत्न करते रहते हैं। 11। 12।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥ 13 ॥

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी॥ 14 ॥

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता:॥ 15 ॥

अनेकचित्तवि भ्रांता मोहजालसमावृता:।

प्रसक्ता: कामभोगेषु प तंति नरकेऽशुचौ॥ 16 ॥

यह चीज तो आज मैंने हासिल कर ली, यह (दूसरी) भी पा लूँगा ही, इतना धन तो मेरे पास हई (और) यह और भी मिली जाएगा, अमुक शत्रु तो मैंने खत्म करी दिया, दूसरों को भी मार डालूँगा, मैं सबका मालिक हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, सब तरह से संपन्न, बलवान और सुखी भी मैं ही हूँ। धनी हूँ, कुलीन हूँ। मेरे समान और कौन है? यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और मौज करूँगा। इसी तरह की भूल-भुलैयाँ में (वे लोग) पड़े रहते हैं। (इस तरह) अनेक (वाहियात) खयालों में ही भूले, मोह के जाल से अच्छी तरह घिरे और विषयभोग में डूबे (ऐसे लोग) गंदे नरकों में जा डूबते हैं। 13। 14। 15। 16।

आत्मसंभाविता: स्तब्धा धानमानमदान्विता:।

य जंते नामयज्ञैस्ते दंभे नाविधिपूर्वकम्॥ 17 ॥

खुद अपनी तारीफ के पुल बाँधने वाले, उजड्ड तथा धन के अभिमान के नशे में चूर वे लोग दिखाने के लिए नाममात्र के यज्ञ भी कर डालते हैं। 17।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रो धं च संश्रिता:।

मामात्मपरदेहेषु प्र द्विषंतो ऽभ्यसूयका:॥ 18 ॥

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥ 19 ॥

अहंकार, बल, मनमानी घरजानी, काम तथा क्रोध के वशीभूत, अपने एवं दूसरे शरीरों में आत्मा के रूप में रहने वाले मुझसे बुरी तरह जलने वाले और हर चीज के निंदक (ही ये होते हैं)। इस तरह जलने या द्वेष करने वाले, उन निर्दय एवं नापाक नराधमों को मैं इस संसार की आसुरी योनियों में ही निरंतर डाला करता हूँ। 18। 19।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौंतेय ततो यांत्यधमां गतिम्॥ 20 ॥

हे कौंतेय, (ये) मूढ़ लोग लगातार (अनेक) जन्मों में आसुरी या गंदी और पतित योनियों में ही जन्म लेने के कारण मुझ (आत्मा-परमात्मा) को तो जान पाते ही नहीं। फलत: उनकी और भी अधम गति होती है। 20।

त्रिवि धं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥ 21 ॥

एतैर्विमुक्त: कौंतेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर:।

आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥ 22 ॥

आत्मा को चौपट करने वाले नरक के यही तीन द्वार हैं - काम, क्रोध, लोभ। इसलिए इन तीनों से पिंड (जरूर) छुड़ा लें। हे कौंतेय, नरक रूपी अंधकार के इन तीन द्वारों से जिसका पल्ला छूटा है वही अपने कल्याण का काम कर सकता है और फलस्वरूप परमगति प्राप्त करता है। 21। 22।

पहले भी 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' (2। 62) 'कामएष' (3। 37-43) में काम और क्रोध का इसी सिलसिले में पूरा वर्णन आ चुका है। वहाँ दोनों को एक ही कहा है। यहाँ भी वही बात है। केवल दोनों के साथ तीसरा - लोभ - जुट गया है। मगर यह भी दोनों से जुदा नहीं है। सच पूछिए तो काम के क्रोध रूप में परिणत हो जाने के लिए बीच में ही यह लोभ आता है और दोनों को जोड़ने वाली सीढ़ी का काम करता है। काम या इच्छा की तीव्रता ही तो लोभ है, जिसके चलते पदार्थ को अपने आप से जुदा न होने देने और न मिले हुए को चाहे जैसे हो प्राप्त कर लेने का खयाल भी आ जुटता है। फिर तो जरा भी बाधा या देर होने से वही काम जलते क्रोध का रूप खामख्वाह बन जाता है। हमने इन बातों का बहुत कुछ विवेचन पहले किया है।

अब तक जो कुछ निरूपण किया गया है उससे पूरा पता चल गया है कि ज्ञानमार्ग में और समाज के संचालन में असली खतरे कौन-कौन से हैं। उनका नग्न रूप पिछले सोलह श्लोकों में आ गया है, जिससे किसी भी सहृदय पुरुष का हृदय एकाएक सिहर जा सकता है। फलत: वह इनसे पूरी तौर से सजग हो सकता है। मगर यह निरूपण एक प्रकार का जंगल-सा हो गया है। इसलिए जनसाधारण उसमें आसानी से भटक जा सकते हैं। इसीलिए और आसानी तथा सरलता के भी लिहाज से, जैसे सृष्टि के पँवारे और विस्तार को अंत में तीन गुणों के रूप में ही बता दिया गया है वैसे ही, इन सारी जंगल जैसी विस्तृत बातों का भी काम, क्रोध, लोभ इन तीन के ही रूप में यहाँ निचोड़ दे दिया है। अब इन्हें आसानी से समझा और पकड़ा जा सकता है। ये सबों की समझ में आते भी हैं। इसीलिए सबों से बचने की अपेक्षा इन्हीं तीन से बचने की बात आसानी से कह के काम भी पूरा कर दिया है। इससे साफ है कि जब सबों की जड़ में यही हैं, जैसा कि 'ध्यायतो विषयान्' (2। 62) में साफ बता दिया है, तो फिर सबों से ही क्यों न बचेंगे?

अब प्रश्न होता है कि इनसे बचें कैसे? पिंड कैसे छुड़ाएँ? आखिर कोई प्रणाली या तरीका तो चाहिए ही। यों ही तो कुछ होगा नहीं। इसी का उत्तर यों है -

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य व र्त्त ते कामकारत:।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ 23 ॥

तस्माच्छास्त्रां प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म क र्त्तु मिहार्हसि॥ 24 ॥

जो शास्‍त्रीय प्रणाली को छोड़ के अपने मन से चलेगा उसका न तो कार्य ही सिद्ध होगा, न उसे आराम ही मिलेगा और न परमगति ही। इसीलिए तुम्हें उचित है कि कर्त्तव्याकर्तव्य की पक्की व्यवस्था करने में शास्त्र को ही प्रमाण मानो। शास्त्रविधान को जानकर ही तुम्हें इस दुनिया में सब कुछ करना होगा। 23। 24।

इस पर पूरा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।

इति. देवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:॥ 16 ॥

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका दैवासुर - संपत्ति - विभागयोग नामक सोलहवाँ अध्‍याय यही है।