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तेरी महफ़िल में यह कसरत कभी थी

तेरी महफ़िल में यह कसरत कभी थी
हमारे रंग की सोहबत कभी थी

इस आज़ादी में वहशत कभी थी
मुझे अपने से भी नफ़रत कभी थी

हमारा दिल, हमारा दिल कभी था
तेरी सूरत, तेरी सूरत कभी थी

हुआ इन्सान की आँखों से साबित
अयाँ कब नूर में जुल्मत कभी थी

दिल-ए-वीराँ में बाक़ी हैं ये आसार
यहाँ ग़म था, यहाँ हसरत कभी थी

तुम इतराए कि बस मरने लगा ‘दाग़’
बनावट थी जो वह हालत कभी थी.

दाग़ देहलवी की शायरी

दाग़ देहलवी
Chapters
मुमकिन नहीं कि तेरी मुहब्बत की बू न हो रू-ए- अनवर नहीं देखा जाता ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा आफत की शोख़ियां हैं न बदले आदमी जन्नत से भी बैतुल-हज़न अपना रंज की जब गुफ्तगू होने लगी दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता उज्र् आने में भी है और बुलाते भी नहीं दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें डरते हैं चश्म-ओ-ज़ुल्फ़, निगाह-ओ-अदा से हम फिरे राह से वो यहां आते आते काबे की है हवस कभी कू-ए-बुतां की है लुत्फ़ इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है पुकारती है ख़ामोशी मेरी फ़ुगां की तरह ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया उनके एक जां-निसार हम भी हैं ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया रस्म-ए-उल्फ़त सिखा गया कोई इस अदा से वो वफ़ा करते हैं पर्दे-पर्दे में आताब अच्छे नहीं न जाओ हाल-ए-दिल-ए-ज़ार देखते जाओ कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया मुहब्बत में करे क्या कुछ किसी से हो नहीं सकता हर बार मांगती है नया चश्म-ए-यार दिल ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएं हम सितम ही करना जफ़ा ही करना आरजू है वफ़ा करे कोई जवानी गुज़र गयी बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं फिर शब-ए-ग़म ने मुझे शक्ल दिखाई क्योंकर न रवा कहिये न सज़ा कहिये हम तुझसे किस हवस की फलक जुस्तुजू करें अच्छी सूरत पे हसरतें ले गए हुस्न-ए-अदा भी खूबी-ए-सीरत में चाहिए क्या लुत्फ़-ए-सितम यूँ उन्हें हासिल नहीं होता क्यों चुराते हो देखकर आँखें तेरी महफ़िल में यह कसरत कभी थी शौक़ है उसको ख़ुदनुमाई का ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई दर्द बन के दिल में आना , कोई तुम से सीख जाए ज़बाँ हिलाओ तो हो जाए,फ़ैसला दिल का