अध्याय १५
दोहा--
जासु चित्त सब जन्तु पर, गलित दया रस माह ।
तासु ज्ञान मुक्ति जटा, भस्म लेप कर काह ॥१॥
जिस का चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान, मोक्ष, जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता ? ॥१॥
दोहा--
एकौ अक्षर जो गुरु, शिष्यहिं देत जनाय ।
भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥२॥
यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऎसा द्रव्य है ही नहीं कि जिसे देखकर उस गुरु से उऋण हो जाय ॥२॥
दोहा--
खल काँटा इन दुहुन को, दोई जगह उपाय ।
जूतन ते मुख तोडियो, रहिबो दूरि बचाय ॥३॥
दुष्ट मनुष्य और कण्टक, इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं । या तो उनके लिए पनही (जूते) का उपयोग किया जाय या उन्हें दूर ही से त्याग दे ॥३॥
दोहा--
वसन दसन राखै मलिन, बहु भोजन कटु बैन ।
सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥४॥
मैले कपडे पहननेवाला, मैले दाँतवाला, भुक्खड, नीरस बातें करनेवाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोने-वाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं ॥४॥
दोहा--
तजहिं तीय हित मीत औ, सेबक धन जब नाहिं ।
धन आये बहुरैं सब धन बन्धु जग माहिं ॥५॥
निर्धन मित्र को मित्र, स्त्री, सेवक और सगे सम्बन्धी छोड देते हैं और वही जब फिर धन हो जाता है तो वे लोग फिर उसके साथ हो लेते हैं । मतलब यह, संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है ॥५॥
दोहा--
करि अनिति धन जोरेऊ, दशे वर्ष ठहराय ।
ग्यारहवें के लागते, जडौ मूलते जाय ॥६॥
अन्यार से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है, ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है ॥६॥
दोहा--
खोतो मल समरथ पँह, भलौ खोट लहि नीच ।
विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥७॥
अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है । जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का श्रृङ्गार हो गया ॥७॥
दोहा--
द्विज उबरेउ भोजन सोई, पर सो मैत्री सोय ।
जेहि न पाप वह चतुरता, धर्म दम्भ विनु जोय ॥८॥
वही भोजन भोजन है, जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो, वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय । वही विज्ञता (समझदारी) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो ॥८॥
दोहा--
मणि लोटत रहु पाँव तर, काँच रह्यो शिर नाय ।
लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥९॥
वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । पर जब वे दोनों बाजार में बिकने आवेंगे और उनका क्रय-विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही ॥९॥
दोहा--
बहुत विघ्न कम काल है, विद्या शास्त्र अपार ।
जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥१०॥
शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडासा समय 'जीवन' है और उसमें बहुत से विघ्न हैं । इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको छोडकर पानी से दूध केवल लेता है, उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो, उसे ले ले बाकी सब छोड दे ॥१०॥
दोहा--
दूर देश से राह थकि, बिनु कारज घर आय ।
तेहि बिनु पूजे खाय जो, सो चाण्डाल कहाय ॥११॥
जो दूर से आ रहा हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए ॥११॥
दोहा--
पढे चारहूँ वेदहुँ, धर्म शास्त्र बहु बाद ।
आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥१२॥
कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ जाते हैं , पर वे आपको नहीं समझ पाते, जैसे कि कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती ॥१२॥
दोहा--
भवसागर में धन्य है, उलटी यह द्विज नाव ।
नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥१३॥
यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है । जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर (उध्दत) रहते, वे नीचे चले जाते हैं ॥१३॥
दोहा--
सुघा धाम औषधिपति, छवि युत अभीय शरीर ।
तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥१४॥
यद्यपि चंद्रमा अमृत का भाण्डार है, औषधियों का स्वामी है, स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है । फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड जाता है तो किरण रहित हो जाता है । पराए घर जाकर भला कौन ऎसा है कि जिसकी लघुता न सावित होती हो ॥१४॥
दो०--
वह अलि नलिनी पति मधुप, तेहि रस मद अलसान ।
परि विदेस विधिवश करै, फूल रसा बहु मान ॥१५॥
यह एक भौंरा है, जो पहले कमलदल के ही बीच में कमिलिनी का बास लेता तहता था संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है, वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है ॥१५॥
स०--
क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती बालसे वृध्दमये तक मुख में भारति वैरिणि धारे संघाती ॥ मम वासको पुष्प सदा उन तोडत शिवजीकी पूजा होत प्रभाती । ताते दुख मान सदैव हरि मैं ब्राह्मण कुलको त्याग चिलाती ॥
ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी भगवान् से कहती हैं- जिसने क्रुध्द होकर मेरे पिता को पी लिया, मेरे स्वामी को लात मारा, बाल्यकाल ही से जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती) को अपने मुख विवर में आसन दिये रहते हैं, शिवाजी को पूजने के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाडा करते हैं, इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोडे रहती हूँ-वहाँ जाती ही नहीं ॥१६॥
दोहा--
बन्धन बहु तेरे अहैं, प्रेमबन्धन कछु और ।
काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥१७॥
वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है । काठको काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है ॥१७॥
दोहा--
कटे न चन्दन महक तजु, वृध्द न खेल गजेश ।
ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥१८॥
काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोडता बूढा हाथी भी खेलवाड नहीं छोडता, कोल्हू में पेरे जानेपर भी ईख मिठास नहीं छोडती, ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोडता ॥१८॥
स०--
कोऊभूमिकेमाँहि लुघु पर्वत करधार के नाम तुम्हारो पर् यो है ।
भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो गिरिवरधारी प्रसिध्द कियो है ।
तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती है ।
ताते बहु कहना है जो वृथा यशलाभहरे निज पुण्य मिलती है ॥१९॥
रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड को दोनों हाथों से उठा लिया वह इसीलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे । लेकिन तीनों लोकों को धारण करनेवाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ, फिर उसकी कोई गिनती ही नहीं होती । हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं, यही समझ लीजिए कि बडे पुण्य से यश प्राप्त होता है ॥१९॥
इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥१५॥