भाग 1
सच्ची उदारता
संध्या का समय है, डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणें रंगीन शीशो की आड़ से, एक अंग्रेजी ढंग पर सजे हुए कमरे में झॉँक रही हैं जिससे सारा कमरा रंगीन हो रहा है। अंग्रेजी ढ़ंग की मनोहर तसवीरें, जो दीवारों से लटक रहीं है, इस समय रंगीन वस्त्र धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है। कमरे के बीचोंबीच एक गोल मेज़ है जिसके चारों तरफ नर्म मखमली गद्दोकी रंगीन कुर्सियॉ बिछी हुई है। इनमें से एक कुर्सी पर एक युवा पुरूष सर नीचा किये हुए बैठा कुछ सोच रहा है। वह अति सुंदर और रूपवान पुरूष है जिस पर अंग्रेजी काट के कपड़े बहुत भले मालूम होते है। उसके सामने मेज पर एक कागज है जिसको वह बार-बार देखता है। उसके चेहरे से ऐसा विदित होता है कि इस समय वह किसी गहरे सोच में डूबा हुआ है। थोड़ी देर तक वह इसी तरह पहलू बदलता रहा, फिर वह एकाएक उठा और कमरे से बाहर निकलकर बरांडे में टहलने लगा, जिसमे मनोहर फूलों और पत्तों के गमले सजाकर धरे हुए थे। वह बरांडे से फिर कमरे में आया और कागज का टुकड़ा उठाकर बड़ी बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। समय बहुत सुहावना था। माली फूलों की क्यारियों में पानी दे रहा था। एक तरफ साईस घोड़े को टहला रहा था। समय और स्थान दोनो ही बहुत रमणीक थे। परन्तु वह अपने विचार में ऐसा लवलीन हो रहा था कि उसे इन बातों की बिलकुल सुधि न थी। हॉँ, उसकी गर्दन आप ही आप हिलाती थी और हाथ भी आप ही आप इशारे करते थे—जैसे वह किसी से बातें कर रहा हो। इसी बीच में एक बाइसिकिल फाटक के अंदर आती हुई दिखायी दी और एक गोरा-चिटठा आदमी कोट पतलून पहने, ऐनक लगाये, सिगार पीता, जूते चरमर करता, उतर पड़ा और बोला, गुड ईवनिंग, अमृतराय।
अमृतराय ने चौंककर सर उठाया और बोले—ओ। आप है मिस्टर दाननाथ। आइए बैठिए। आप आज जलसे में न दिखायी दियें।
दाननाथ—कैसा जलसा। मुझे तो इसकी खबर भी नहीं।
अमृतराय—(आश्चर्य से) ऐं। आपको खबर ही नहीं। आज आगरा के लाला धनुषधारीलाल ने बहुत अच्छा व्याख्यान दिया और विरोधियो के दॉँत खटटे कर दिये।
दाननाथ—ईश्वर जानता है मुझे जरा भी खबर न थी, नहीं तो मैं अवश्य आता। मुझे तो लाला साहब के व्याख्यानों के सुनने का बहुत दिनों से शौंक है। मेरा अभाग्य था कि ऐसा अच्छा समय हाथ से निकल गया। किस बात पर व्याख्यान था?
अमृतराय—जाति की उन्नति के सिवा दूसरी कौन-सी बात हो सकती थी? लाला साहब ने अपना जीवन इसी काम के हेतु अर्पण कर दिया है। आज ऐसा सच्चा देशभक्त और निष्कास जाति-सेवक इस देश में नहीं है। यह दूसरी बात है कि कोई उनके सिद्वांतो को माने या न माने, मगर उनके व्याख्यानों में ऐसा जादू होता है कि लोग आप ही आप खिंचे चले आते है। मैंने लाला साहब के व्याख्यानों के सुनने का आनंद कई बार प्राप्त किया है। मगर आज की स्पीच में तो बात ही और थी। ऐसा जान पड़ता है कि उनकी ज़बान में जादू भरा है। शब्द वही होते है जो हम रोज़ काम में लाया करते है। विचार भी वही होते है जिनकी हमारे यहॉँ प्रतिदिन चर्चा रहती है। मगर उनके बोलने का ढंग कुछ ऐसा अपूर्व है कि दिलों को लुभा लेता है।
दाननाथ को ऐसी उत्तम स्पीच को न सुनने का अत्यंत शोक हुआ। बोले—यार, मैं जंम का अभागा हूँ। क्या अब फिर कोई व्याख्यान न होगा?
अमृतराय—आशा तो नहीं हैं क्योंकि लाला साहब लखनऊ जा रहे है, उधर से आगरा को चले जाएंगे। फिर नहीं मालूम कब दर्शन दें।
दाननाथ—अपने कर्म की हीनता की क्या कहूँ। आपने उसस्पीच कीकोई नकल की हो तो जरा दीजिए। उसी को देखकर जी को ढारस दूँ।
इस पर अमृतराय ने वही कागज का टुकड़ा जिसको वे बार-बार पढ़ रहे थे दाननाथ के हाथ में रख दिया और बोले—स्पीच के बीच-बीच में जो बाते मुझको सवार हो जाती है तो आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते, समझाने लगे—मित्र, तुम कैसी लड़कपन की बातें करते हो। तुमको शायद अभी मालूम नहीं कि तुम कैसा भारी बोझ अपने सर पर ले रहे हो। जो रास्ता अभी तुमको साफ दिखायी दे रहा है वह कॉँटो से ऐसा भरा है कि एक-एक पग धरना कठिन है।
अमृतराय—अब तो जो होना हो सो हो। जो बात दिल में जम गयी वह तम गयीं। मैं खूबजानता हूं कि मुझको बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। मगर आज मेरा हिसाब ऐसा बढ़ा हुआ हैं कि मैं बड़े से बड़ा काम कर सकता हूं और ऊँचे से ऊँचे पहाड़ पर चढ़ सकता हूँ।
दाननाथ—ईश्वर आपके उत्साह को सदा बढ़ावे। मैं जानता हूँ कि आप जिस काम के लिए उद्योग करेगें उसे अवश्य पूरा कर दिखायेगें। मैं आपके इरादों में विध्न डालना कदापि नहीं चाहता। मगर मनुष्य का धर्म हैं कि जिस काम में हाथ लगावे पहले उसका ऊँच-नीच खूब विचार ले। अब प्रच्छन बातों से हटकर प्रत्यक्ष बातों की तरफा आइए। आप जानते हैकि इस शहर के लोग, सब के सब,पुरानी लकीर के फकीर है। मुझे भय है कि सामाजिक सुधार का बीज यहॉँ कदापि फल-फुल न सकेगा। और फिर, आपका सहायक भी कोई नजर नहीं आता। अकेले आप क्या बना लेंगे। शायद आपके दोस्त भी इस जोखिम के काम में आपका हाथ न बँटा सके। चाहे आपको बुरा लगे, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि अकेले आप कुछ भी न कर सकेंगे।
अमृतराय ने अपने परम मित्र की बातों को सुनकर सा उठाया और बड़ी गंभीरता से बोले—दाननाथ। यह तुमको क्या हो गया है। क्या मै तुम्हारे मुँह से ऐसी बोदेपन की बातें सुन रहा हूं। तुम कहते हो अकेले क्या बना लोगे? अकेले आदमियों की कारगुजारियों से इतिहास भरे पड़े हैं। गौतम बुद्व कौन था? एक जंगल का बसनेवाला साधु, जिसका सारे देश में कोई मददगार न था। मगर उसके जीवन ही में आधा हिन्दोस्तान उसके पैरों पर सर धर चुका था। आपको कितने प्रमाण दूँ। अकेले आदमियों से कौमों के नाम चल रहे है। कौमें मर गयी है। आज उनका निशान भी बाकी नहीं। मगर अकेले आदमियों के नाम अभी तक जिंदा है। आप जानते हैं कि प्लेटों एक अमर नाम है। मगर आपमें कितने ऐसे हैं जो यह जानते हों कि वह किस देश का रहने वाला है।
दाननाथ समझदार आदमी थे। समझ गये कि अभी जोश नया है और समझाना बुझाना सब व्यर्थ होगा। मगर फिर भी जी न माना। एक बार और उलझना आवश्यक ‘अच्छी जान पड़ी मैने उनको तुरंत नकल कर लिया। ऐसी जल्दी में लिखा है कि मेरे सिवा कोई दूसरा पढ़ भी न सकेगा। देखिए हमारी लापरवाही को कैसा आड़े हाथों लिया है:
सज्जनों। हमारी इस दुर्दशा का कारण हमारी लापरवाही हैं। हमारी दशा उस रोगी की-सी हो रही है जो औषधि को हाथ में लेकर देखता है मगर मुँह तक नहीं ले जाता। हॉँ भाइयो। हम ऑंखे रचाते है मगर अंधे है, हम कान रखते है मगर बहरें है, हम जबान रखते है मगर गूँगे हैं। परंतु अब वह दिन नहीं रहे कि हमको अपनी जीत की बुराइयाँ न दिखायी देती हो। हम उनको देखते है और मन मे उनसे घृणा भी करते है। मगर जब कोई समय आ जाता है तो हम उसी पुरानी लकीर पर जाते है और नर्अ बातों को असंभव और अनहोनी समझकर छोड़ देते है। हमारे डोंगे का पार लगाना, जब कि मल्लाह ऐसे बाद और कादर है, कठिन ही नहीं प्रत्युत दुस्साध्य है।
अमृतराय ने बड़े ऊँचे स्वरों में उस कागज को पढ़ा। जब वह चुप हुए तो दाननाथ ने कहा—नि:संदेह बहुत ठीक कहा है। हमारी दशा के अनुकूल ही है।
अमृतराय—मुझकों रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आता है कि मैंने सारी स्पीच क्यों न नकल कर ली। अगर कहीं अंग्रेजी स्पीच होती तो सबेरा होते ही सारे समाचारपत्रों में छप जाती। नहीं तो शायद कहीं खुलासा रिपोर्ट छपे तो छपे। (रूककर) तब मैं जलसे से लौटकर आया हूँ तब से बराबर वही शब्द मेरे कान में गूँज रहे है। प्यारे मित्र। तुम मेरे विचारों को पहले से जानते हो, आज की स्पीच ने उनको और भी मजबूत कर दिया है। आज से मेरी प्रतिज्ञा है कि मै अपने को जाति पर न्यौछावर कर दूँगा। तन, मन, धन सब अपनी गिरी हुई जाति की उन्नति के निमित्त अर्पण कर दूँगा। अब तक मेरे विचार मुझ ही तक थे पर अब वे प्रत्यक्ष होंगे। अब तक मेरा हदय दुर्बल था, मगर आज इसमें कई दिलों का बल आ गया है। मैं खूब जानता हूँ कि मै कोई उच्च-पदवी नहीं रखता हूं। मेरी जायदाद भी कुछ अधिक नहीं है। मगर मैं अपनी सारी जमा जथा अपने देश के उद्वार के लिए लगा दूँगा। अब इस प्रतिज्ञा से कोई मुझको डिगा नहीं सकता। (जोश से)ऐ थककर बैठी हुई कौम। ले, तेरी दुर्दशा पर ऑंसू बहानेवालों में एक दुखियारा और बढ़ा। इस बात का न्याय करना कि तुझको इस दुखियारे से कोई लाभ हागा या नहीं, समय पर छोड़ता हूँ।
यह कहकर अमृतराय जमीन की ओर देखने लगे। दाननाथ, जो उनके बचपन के साथी थे और उनके बचपन के साथी थे और उनके स्वभाव से भलीभॉँति परिचित थे कि जब उनको कोई धुन मालूम हुआ। बोले—अच्छा मैंने मान लिया कि अकेले लोगों ने बड़ेबड़े काम किये हैं और आप भी अपनी जाति का कुछ न कुछ भला कर लेंगे मगर यह तो सोचिये कि आप उन लोगों को कितना दुख पहुँचायेंगे जिनका आपसे कोई नाता है। प्रेमा से बहुत जल्द आपका विवाह होनेवाला है। आप जानते है कि उसके मॉँ-बाप परले सिरे के कटटर हिन्दू है। जब उनको आपकी अंग्रेजी पोशाक और खाने-पीने पर शिकायत है तो बतलाइए जब आप सामजिक सुधार पर कमर बांधेगे तब उनका क्या हाल होगा। शायद आपको प्रेमा से हाथ धोना पड़े।
दाननाथ का यह इशारा कलेजे में चुभ गया। दो-तीन मिनट तक वह सन्नाटे में जमीन की तरफ ताकते रहे। जब सर उठाया तो ऑंखे लाल थीं और उनमें ऑंसू डबडबाये थे। बोले—मित्र, कौम की भलाई करना साधारण काम नहीं है। यद्यपि पहले मैने इस विषय पर ध्यान न दिया था, फिर भी मेरा दिल इस वक्त ऐसा मजबूत हो रहा है कि जाति के लिए हर एक दुख भोगने को मै कटिबद्व हूँ। इसमें संदेह नहीं कि प्रेमा से मुझको बहुत ही प्रेम था। मैं उस पर जान देता था और अगर कोई समय ऐसा आता कि मुझको उसका पति बनने का आनंद मिलता तो मैं साबित करता कि प्रेम इसको कहते है। मगर अब प्रेमा की मोहनी मूरत मुझ पर अपना जादू नहीं चला सकती। जो देश और जाति के नाम पर बिक गया उसके दिल मे कोई दूसरी चीज जगह नहीं पा सकती। देखिए यह वह फोटो है जो अब तक बराबर मेरे सीने से लगा रहता था। आज इससे भी अलग होता हूं यह कहते-कहते तसवीर जेब से निकली और उसके पुरजे-पुरजे कर डाले, ‘प्रेमा को जब मालूम होगा कि अमृतराय अब जाति पर जान देने लगा, उसके दिन में अब किसी नवयौवना की जगह नही रही तो वह मुझे क्षमा कर देगी।
दाननाथ ने अपने दोस्त के हाथों से तसवीर छीन लेना चाही। मगर न पा सके। बोले—अमृतराय बड़े शोक की बात है कि तुमने उस सुन्दरी की तसवीर की यह दशा की जिसकी तुम खूब जानते हो कि तुम पर मोहित है। तुम कैसे निठुर हो। यह वही सुंदरी है जिससे शादी करने का तुम्हारे वैकुंठवासी पिता ने आग्रह किया था और तुमने खुद भी कई बार बात हारी। क्या तुम नहीं जानते कि विवाह का समय अब बहुत निकट आ गया है। ऐसे वक्त में तुम्हारा इस तरह मुँह मोड़ लेना उस बेचारी के लिए बहुत ही शोकदायक होगा।
इन बातों को सुनकर अमृतराय का चेहरा बहुत मलिन हो गया। शायद वे इस तरह तस्वीर के फाड़ देने का कुछ पछतावा करने लगे। मगर जिस बात पर अड़ गये थे उस पर अड़े ही रहे। इन्हीं बातों में सूर्य अस्त हो गया। अँधेरा छा गया। दाननाथ उठ खड़े हुए। अपनी बाइसिकिल सँभाली और चलते-चलते यह कहा—मिस्टर राय। खूब सोच लो। अभी कुछ नहीं बिंगड़ा है। आओ आज तुमको गंगा की सैर करा लाये। मैंने एक बजरा किराये पर ले रक्खा है। उस पर चॉँदनी रात में बड़ी बहार रहेगी।
अमृतराय—इस समय आप मुझको क्षमा कीजिए। फिर मिलूँगा।
दाननाथ तो यह बातचीत करके अपने मकान को रवाना हुए और अमृतराय उसी अँधेरे में, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहे। वह नहीं मालूम क्या सोच रहे थे। जब अँधेरा अधिक हुआ तो वह जमीन पर बैठ गये। उन्होंने उस तसवीर के पुर्जे सब एक-एक करके चुन लिये। उनको बड़े प्यार से सीने में लगा लिया और कुछ सोचते हुए कमरे में चले गए।
बाबू अमृतराय शहर के प्रतिष्ठित रईसों में समझे जाते थे। वकालत का पेशा कई पुश्तों से चला आता था। खुद भी वकालत पास कर चुके थे। और यद्यपि वकालत अभी तक चमकी न थी, मगर बाप-दादे ने नाम ऐसा कमाया था कि शहर के बड़े-बड़े रईस भी उनका दाब मानते थे। अंग्रेजी कालिज मे इनकी शिक्षा हुई थी और यह अंग्रेजी सभ्यता के प्रेमी थे। जब तक बाप जीते थे तब तक कोट-पतलून पहनते तनिक डरते थे। मगर उनका देहांत होते ही खुल पड़े। ठीक नदी के समीप एक सुंदर स्थान पर कोठी बनवायी। उसको बहुत कुछ खर्च करके अंग्रेजी रीति पर सजाया। और अब उसी में रहते थे। ईश्वर की कृपा से किसी चीज कीकमी न थी। धन-द्रव्य, गाड़ी-घोड़े सभी मौजूद थे।
अमृतराय को किताबों से बहुत प्रेम था। मुमकिन न था कि नयी किताब प्रकाशित हो और उनके पास न आवे। उत्तम कलाओं से भी उनकी तबीयत को बहुत लगाव था। गान-विद्या पर तो वे जान देते थे। गो कि वकालत पास कर चुके थे मगर अभी वह विवाह नहीं हुआ था। उन्होने ठान लिया था कि जब वह वकालत खूब न चलने लगेगी तब तक विवाह न करूँगा। उस शहर के रईस लाला बदरीप्रसाद साहब उनको कईसाल से अपनी इकलौती लड़की प्रेमा के वास्ते, चुन बैठे थे। प्रेमा अति सुंदर लड़की थी और पढ़ने लिखने , सीने पिरोने में निपुण थी। अमृतराय के इशारे से उसको थोड़ी सही अंग्रेजी भी पढ़ा दी गयी थी जिसने उसके स्वभाव में थोड़ी-सी स्वतंत्रता पैदा कर दी थी। मुंशी जी ने बहुत कहने-सुनने से दोनो प्रेमियों को चिटठी पत्री लिखने की आज्ञा दे दी थी। और शायद आपस में तसवीरों की भी अदला-बदली हो गये थी।
बाबू दाननाथ अमृतराय के बचपन के साथियों में से थे। कालिज मे भी दोनों का साथ रहा। वकालत भी साथ पास की और दो मित्रों मे जैसी सच्ची प्रीति हो सकती है वह उनमे थी। कोई बात ऐसी न थी जो एक दूसरे के लिए उठा रखे। दाननाथ ने एक बार प्रेमा को महताबी पर खड़े देख लिया था। उसी वक्त से वह दिल में प्रेमा की पूजा किया करता था। मगर यह बात कभी उसकी जबान पर नहीं आयी। वह दिल ही दिल में घुटकर रह जाता। सैकड़ों बार उसकी स्वार्थ दृष्टि ने उसे उभारा था कि तू कोई चाल चलकर बदरीप्रसाद का मन अमृतराय से फेर दे, परंतु उसने हर बार इस कमीनेपन के ख्याल को दबाया था। वह स्वभाव का बहुत निर्मल और आचरण का बहुत शुद्व था। वह मर जाना पसंद करता मगर किसी को हानि पहुँचाकर अपना मनोरथ कदापि पूरा नहीं कर सकता था। यह भी न था कि वह केवल दिखाने के लिए अमृतराय से मेल रखता हो और दिल में उनसे जलता हो। वह उनके साथ सच्चे मित्र भाव का बर्ताव करता था।
आज भी, जब अमृतराय ने उससे अपने इरादे जाहिर किये तब उसेन सच्चे दिल से उनको समझाकर ऊँच नीच सुझाया। मगर इसका जो कुछ असर हुआ हम पहले दिखा चुके है। उसने साफ साफ कह दिया कि अगर तुम रिर्फामरों कीमंडली में मिलोगे तो प्रेमा से हाथ धोना पडेगा। मगर अमृतराय ने एक न सुनी। मित्र का जो धर्म है वह दाननाथ ने पूरा कर दिया। मगर जब उसने देखा कि यह अपने अनुष्ठान पर अड़े ही रहेगें तो उसको कोई वजह न मालूम हुई कि मैं यह सब बातें बदरी प्रसाद से बयान करके क्यों न प्रेमा का पति बनने का उद्योग करूँ। यहां से वह यही सब बातें सोचते विचारते घर पर आये। कोट-पतलून उतार दिया और सीधे सादे कपड़े पहिन मुंशी बदरीप्रसाद के मकान को रवाना हुए। इस वक्त उसके दिन की जो हालत हो रही थी, बयान नही की जा सकती। कभी यह विचार आता कि मेरा इस तरह जाना, लोगों को मुझसे नाराज न कर दे। मुझे लोग स्वार्थी न समझने लगें। फिर सोचता कि कहीं अमृतराय अपना इरादा पलट दें और आश्चर्य नहीं कि ऐसा ही हो, तो मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा। मगर यह सोचते सोचते जब प्रेमा की मोहनी मूरत ऑंख के सामने आ गयी। तब यह सब शंकाए दूर हो गयी। और वह बदरीप्रसाद के मकान पर बातें करते दिखायी दिये।