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गोदान भाग 32

मिरज़ा खुर्शेद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिन्त बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या था? नगर की वेश्याओं की एक नाटक-मंडली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने ख़ूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकान्त में घावों की पीड़ाएँ सहते-सहते उनकी आत्मा निष्ठावान् हो गयी थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी मनोव्यथा होती थी। उस वक़्त अगर उन्हें समझ होती, तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थे; कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हलका कर सकते थे; मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में उड़ाया। यह कोई नया आविष्कार नहीं है कि संकटों में ही हमारी आत्मा को जागृति मिलती है। बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दुखी नहीं होता। काश, वह समय ज्ञान या शक्ति के संचय में लगाया होता, सुकृतियों का कोष भर लिया होता, तो आज चित्त को कितनी शान्ति मिलती। वही उन्हें इसका वेदनामय अनुभव हुआ कि संसार में कोई अपना नहीं, कोई उनकी मौत आँसू बहानेवाला नहीं। उन्हें रह-रहकर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के एक गाँव में जब वह कैम्प में मलेरिया से ग्रस्त पड़े थे, एक ग्रामीण बाला ने उनकी तीमारदारी कितने आत्म-समर्पण से की थी। अच्छे हो जाने पर जब उन्होंने रुपए और आभूषणों से उसके एहसानों का बदला देना चाहा था, तो उसने किस तरह आँखों में आँसू भरकर सिर नीचा कर लिया था और उन उपहारों को लेने से इनकार कर दिया था। इन नसों की सुश्रूषा में नियम है, व्यवस्था है, सच्चाई है, मगर वह प्रेम कहाँ, वह तन्मयता कहाँ जो उस बाला की अभ्यासहीन, अल्हड़ सेवाओं में थी? वह अनुराग-मूर्ति कब की उनके दिल से मिट चुकी थी। वह उससे फिर आने का वादा करके कभी उसके पास न गये। विलास के उन्माद में कभी उसकी याद ही न आयी। आयी भी तो उसमें केवल दया थी, प्रेम न था। मालूम नहीं, उस बाला पर क्या गुज़री? मगर आजकल उसकी वह आतुर, नम्र, शान्त, सरल मुद्रा बराबर उनकी आँखों के सामने फिरा करती थी। काश उससे विवाह कर लिया होता आज जीवन में कितना रह होता। और उसके प्रति अन्याय के दुःख ने उस सम्पूर्ण वर्ग को उनकी सेवा और सहानुभूति का पात्र बना दिया। जब तक नदी बाढ़ पर थी उसके गन्दले, तेज, फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखरकर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शान्त हो गया था और रश्मियाँ उसकी तह तक पहुँच रही थीं।

मिरज़ा साहब वसन्त की इस शीतल सन्ध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वाराँगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि मिस्टर मेहता पहुँचे। मिरज़ा ने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और बोले -- मैं तो आपकी ख़ातिरदारी का सामान लिये आपकी राह देख रहा हूँ।

दोनों सुन्दरियाँ मुस्करायीं। मेहता कट गये। मिरज़ा ने दोनों औरतों को वहाँ से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले -- मैं तो ख़ुद आपके पास आनेवाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूँ, वह आपकी मदद के बग़ैर पूरा न होगा। आप सिर्फ़ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइये -- हाँ मिरज़ा, बढ़े चल पट्ठे।

मेहता ने हँसकर कहा -- आप जिस काम में हाथ लगायेंगे, उसमें हम-जैसे किताबी कीड़ों की मदद की ज़रूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज़्यादा है दुनिया भी आपने ख़ूब देखी है और छोटे-से-छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में है, वह मुझमें होती, तो मैंने ख़ुदा जाने क्या किया होता। मिरज़ा साहब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नयी स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के बाज़ार में वही स्त्रियाँ आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मान-पूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मज़बूर हो जाती हैं, और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिये जायँ, तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।

मेहता ने अन्य विचारवान् सज्जनों की भाँति इस प्रश्न पर काफ़ी विचार किया था और उनका ख़याल था कि मुख्यतः मन के संस्कार और भोग-लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गयी। दोनों अपने-अपने पक्ष पर अड़ गये। मेहता ने मुट्ठी बाँधकर हवा में पटकते हुए कहा -- आपने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से ग़ौर नहीं किया। रोज़ी के लिए और बहुत से ज़रिये हैं। मगर ऐश की भूख रोटियों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे-से-अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जाय, इस तरह की मंडली से कोई फ़ायदा न होगा।

मिरज़ा ने मूँछें खड़ी कीं -- और मैं कहता हूँ कि वह महज़ रोज़ी का सवाल है। हाँ, यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक-सा नहीं है। मज़दूर के लिए वह महज़ आटे-दाल और एक फूस की झोपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बँगले और ख़िदमतगारों का सवाल है। आदमी महज़ रोटी नहीं चाहता, और भी बहुत-सी चीज़ें चाहता है। अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह-तरह की सूरतों में आता है तो उनका क्या क़ुसूर है?

डाक्टर मेहता अगर ज़रा गौर करते, तो उन्हें मालूम होता कि उनमें और मिरज़ा में कोई भेद नहीं, केवल शब्दों का हेर-फेर है; पर बहस की गर्मी में ग़ौर करने का धैर्य कहाँ? गर्म होकर बोले -- मुआफ़ कीजिए, मिरज़ा साहब, जब तक दुनिया में दौलतवाले रहेंगे, वेश्याएँ भी रहेंगी। मंडली अगर सफल भी हो जाय, हालाँकि मुझे उसमें बहुत सन्देह है, तो आप दस-पाँच औरतों से ज़्यादा उसमें कभी न ले सकेंगे, और वह भी थोड़े दिनों के लिए। सभी औरतों में नाट्य करने की शक्ति नहीं होती, उसी तरह जैसे सभी आदमी कवि नहीं हो सकते। और यह भी मान लें कि वेश्याएँ आपकी मंडली में स्थायी रूप से टिक जायँगी, तो भी बाज़ार में उनकी जगह ख़ाली न रहेगी। जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगे, पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीजा नहीं। दौलतवालों में कभी-कभी ऐसे लोग निकल आते हैं, जो सब कुछ त्याग कर ख़ुदा की याद में जा बैठते हैं; मगर दौलत का राज्य बदस्तूर क़ायम है। उसमें ज़रा भी कमज़ोरी नहीं आने पाई।

मिरज़ा को मेहता की हठधर्मी पर दुःख हुआ। इतना पढ़ा-लिखा विचारवान् आदमी इस तरह की बातें करे! समाज की व्यवस्था क्या आसानी से बदल जायगी? वह तो सदियों का मुआमला है। तब तक क्या यह अनर्थ होने दिया जाय? उसकी रोक-थाम न की जाय, इन अबलाओं को मदों की लिप्सा का शिकार होने दिया जाय? क्यों न शेर को पिंजरे में बन्द कर दिया जाय कि वह दाँत और नाख़ून होते हुए भी किसी को हानि न पहुँचा सके। क्यों उस वक़्त तक चुपचाप बैठा रहा जाय, जब तक शेर अहिंसा का व्रत न ले ले? दौलतवाले और जिस तरह चाहें अपनी दौलत उड़ायें, मिरज़ाजी को ग़म नहीं। शराब में डूब जायँ, कारों की माला गले में डाल लें, क़िले बनवायें धर्मशालायें और मसज़िदें खड़ी करें, उन्हें कोई परवाह नहीं। अबलाओं की ज़िन्दगी न ख़राब करें। यह मिरज़ाजी नहीं देख सकते। वह रूप के बाज़ार को ऐसा ख़ाली कर देंगे कि दौलतवालों की अशफ़िर्यों पर कोई थूकनेवाला भी न मिले। क्या जिन दिनों शराब की दूकानों की पिकेटिंग होती थी, अच्छे-अच्छे शराबी पानी पी-पीकर दिल की आग नहीं बुझाते थे?

मेहता ने मिरज़ा की बेवक़ूफ़ी पर हँसकर कहा -- आपको मालूम होना चाहिए कि दुनिया में ऐसे मुल्क भी हैं जहाँ वेश्याएँ नहीं हैं। मगर अमीरों की दौलत वहाँ भी दिलचस्पियों के सामान पैदा कर लेती है।

मिरज़ाजी भी मेहता की जड़ता पर हँसे -- जानता हूँ मेहरबान, जानता हूँ। आपकी दुआ से दुनिया देख चुका हूँ; मगर यह हिन्दुस्तान है, यूरोप नहीं है।

' इंसान का स्वभाव सारी दुनिया में एक-सा है। '

' मगर यह भी मालूम रहे कि हर-एक क़ौम में एक ऐसी चीज़ होती है, जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। असमत (सतीत्व) हिन्दुस्तानी तहज़ीब की आत्मा है। '

' अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू बन लीजिए। '

' दौलत की आप इतनी बुराई करते हैं, फिर भी खन्ना की हिमायत करते नहीं थकते। न कहिएगा। '

मेहता का तेज बिदा हो गया। नम्र भाव से बोले -- मैंने खन्ना की हिमायत उस वक़्त की है, जब वह दौलत के पंजे से छूट गये हैं, और आजकल उसकी हालत आप देखें, तो आपको दया आयेगी। और मैं क्या हिमायत करूँगा, जिसे अपनी किताबों और विद्यालय से छुट्टी नहीं; ज़्यादा-से-ज़्यादा सूखी हमदर्दी ही तो कर सकता हूँ। हिमायत की है मिस मालती ने कि खन्ना को बचा लिया। इंसान के दिल की गहराइयों में त्याग और क़ुबार्नी की कितनी ताक़त छिपी होती है, इसका मुझे अब तक तजरबा न हुआ था। आप भी एक दिन खन्ना से मिल आइए। फूला न समाइएगा। इस वक़्त उसे जिस चीज़ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह हमदर्दी है।

मिरज़ा ने जैसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कहा -- आप कहते हैं, तो जाऊँगा। आपके साथ जहन्नुम में जाने में भी मुझे उर्जा नहीं; मगर मिस मालती से तो आपकी शादी होनेवाली थी। बड़ी गर्म ख़बर थी।

मेहता ने झेंपते हुए कहा -- तपस्या कर रहा हूँ। देखिए कब वरदान मिले।

' अजी वह तो आप पर मरती थी। '

' मुझे भी यही वहम हुआ था; मगर जब मैंने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहा, तो देखा। वह आसमान में जा बैठी है। उस ऊँचाई तक तो क्या मैं पहुँचूँगा, आरज़ू-मिन्नत कर रहा हूँ कि नीचे आ जाय। आजकल तो वह मुझसे बोलती भी नहीं। '

यह कहते हुए मेहता ज़ोर से रोती हुई हँसी हँसे और उठ खड़े हुए।

मिरज़ा ने पूछा -- अब फिर कब मुलाक़ात होगी?

' अबकी आपको तकलीफ़ करनी पड़ेगी। खन्ना के पास जाइएगा ज़रूर!

' जाऊँगा। '

मिरज़ा ने खिड़की से मेहता को जाते देखा। चाल में वह तेज़ी न थी, जैसे किसी चिन्ता में डूबे हुए हों।