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क्रांतिकारियों बनाम गांधी: भारतीय राष्ट्रवाद में मौलिक संघर्ष

एक सवाल जिसका जवाब नहीं मिला है वह ये है की क्या हिंसक घुसपैठ को शांतिपूर्वक क़ुबूल कर लेना किसी तरह से भारतीय मूल्यों में समावेश था  या क्रांतिकारियों ने इसे भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न हिस्सा बना दिया है |

क.सेद्धान्तिक राष्ट्रवाद की खोज

भारत के स्वतंत्रता संग्राम ,को   हम एक वाक्य में संक्षिप्त कर सकते है : " महात्मा गाँधी ने हमें अहिंसा के माध्यम से आजादी दिलाई" | ये ख्याल हमारी सोच में हर उस महमान ने पुख्ता किया जो राजघाट जा कर महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि दे कर आया | इसिलए ये लाज़मी सी बात लगती है की भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधान मंत्रियों में से एक नरेन्द्र मोदी अपने स्वच्छ भारत अभियान कार्यक्रम की शुरुआत इस वाक्य से करें – "गांधीजी ने हमें आज़ादी दी , पर उसके बदले में हमने उन्हें क्या दिया ?" पर एक पुरानी  सोच के मुताबिक एक देश लम्बे समय तक तब अधीन रहता है जब उसके समकालीन नेता उसको निराश करते हैं और जनता भी चरित्र की कमजोरियों का प्रदर्शन करती है | स्वतंत्रता दी नहीं , ली जाती है – अपनी असफलता के क़र्ज़ को  आने वाली पीड़ी के खून और आंसुओं के माध्यम से चुका के | तो क्या जिस साम्राज्य में कभी रात नहीं होती थी उसको स्वाधीनता मिलना एक अलग किस्सा है ?

इतिहास कुछ अलग कहानी कहता है | इस  पराधीन देश के सबसे बहादुर आदमीयों और औरतों ने मिलकर बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, उड़ीसा और महाराष्ट्र, और भारत से बाहर इंग्लैंड, अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया के गहराइयों में ज़बरदस्त विरोध कर ब्रिटिश साम्राज्य का अंत करवाया | साम्राज्य द्वारा प्रताड़ित किये  जाने के कारण वह अपनी कहानी बताने के लिए जिंदा नहीं रहे | लेकिन हमें उनकी कहानी बार बार दोहरानी है | क्यूंकि जो  देश अपने इतिहास को नहीं जानता वह आगे चलके इतिहास बना भी नहीं सकता | इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में या फिर इन क्रांतिकारियों को उनके योगदान का श्रेय नहीं देने के फलस्वरूप ही भारत में वाम आन्दोलन का जन्म हुआ | पर इससे भी ऊपर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का  इतिहास इसके नतीजे से ज्यादा  भारतीय राष्ट्रवाद के बुनियादी मूलों की समझ पर उभरी लडाई के लिए और सम्बंधित लोगों का आभार प्रकट करने के लिए ज़रूरी है |

क.१ राष्ट्रवाद पर दो विपरीत धारणाएं
एक नजदीकी विश्लेषण करने पर पता चलेगा की क्रांतिकारियों की भारतीय राष्ट्रवाद की समझ महात्मा गाँधी की समझ से बिलकुल विपरीत थी | इन दो समझों में फर्क एक ही मुख्य लक्ष्य को हासिल करने के लिए दो विपरीत रास्तों का नतीजा नहीं उसकी प्रमुख प्रेरणा  थी – एक ऐसा लक्ष्य जिसको महात्मा गाँधी ने १९३० में युवा नेताओं जैसे सुभास बोस और कांग्रेस नेताओं के दबाव में आकर माना – एक ऐसा लक्ष्य जिसके बारे मैं राष्ट्रवादी गुट और क्रांतिकारी ३० साल बाद बात करेंगे | औरोबिन्दो घोष कहते हैं :

 "राजनितिक आज़ादी एक राष्ट्र की सांस है | बिना सबसे पहले राजनितिक आज़ादी को हासिल करने की कोशिश किये सामाजिक सुधार, शिक्षा में सुधार, औद्योगिक विस्तार, जाति के  नैतिक सुधार के प्रयास करना अज्ञानता और निरर्थकता की इन्तहा है | राष्ट्रीय प्रगति, राष्ट्रीय सुधार, के लिए सबसे ज़रूरी है एक स्वस्थ राष्ट्रीय विचार और कार्रवाई जो पराधीनता में मुमकिन नहीं है"|

ये देरी परेशानीजनक है क्यूंकि  महात्मा गाँधी ये जानते थे की भारत बहुत पहले से एक राष्ट्र की तरह रहा है | उनके खुद के शब्दों में |

 " अंग्रेजों ने हमें सिखाया की हम उनसे  पहले एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने के लिए हमें कई साल लग जायेंगे | ये बेबुनियादी है | हम उनके भारत आने से पहले ही  एक राष्ट्र थे | एक ही ख्याल हम सबको प्रेरित करता था | हमारा ज़िन्दगी जीने का तरीका एक था | हम एक राष्ट्र थे इसीलिए उनके लिए अपने साम्राज्य को स्थापित करना आसान हो गया"|[१६]चैप्टर ९ पृष्ट 56 ,[१३]

 "हमारे आदमी पूरे भारत में सफ़र करते थे कभी पैदल और कभी बैलगाड़ी पर , नहीं तो क्यूँ हमारे पूर्वजों ने दक्षिण में सेतुबंध , पूर्व में जगन्नाथ और उत्तर में हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थानों की स्थापना की  ? आप भी मानेंगे की वह बेवकूफ नहीं थे | उन्हें भी पता था की भगवान की पूजा घर पर भी हो सकती है | उन्होनें हमें सिखाया की जिनके दिलों में धर्म का वास होता है उनके घर में गंगा बस्ती है | पर वह ये देखते थे की भारत प्राकृतिक रूप से एक अविभाजित भूमि है | इसलिए वह बहस करते थे की भारत एक राष्ट्र होगा | ऐसी दलील पेश कर उन्होनें भारत के अलग हिस्सों में धार्मिक स्थान स्थापित किये और लोगों के मन में ऐसी राष्ट्रवाद की भावना भरी जैसी दुनिया के किसी कोने में देखी नहीं जाती है |१६]चैप्टर ९ पृष्ट 56 ,[१३]

इसीलिए भारत के एक राष्ट्र होने को ध्यान में रखते हुए , उसके स्वाभाविक  अधिकारों की घोषणा में विलंब महात्मा गाँधी की तरफ से आक्रमणकारियों की पहचान कर पाने और अपने स्वाभाविक अधिकारों के ज्ञान की कमी को दर्शाता है , इसीलए ये जानना बेहद ज़रूरी है की कैसे गाँधी भारतीय राष्ट्रवाद की धारणाओं से मेल रखते थे  |

हम ये भी देखते हैं की गाँधी जोर देते थे की भारत को अहिंसा के पथ से हट कर स्वाधीनता हासिल करने की कोशिश न तो करनी चाहिए और न ही वह इस कोशिश में सफल होगा | अपनी स्वतंत्रता की लडाई में , बल्कि नैतिक पूर्णता कहें  उन्होनें तब भी अहिंसा पर जोर दिया जब उनके लोगों को बड़े पैमाने पर क़त्ल की धमकी दी गयी – इसीलिए सभ्यता के लोकाचार के साथ दुनिया भर में और भारत में नैतिकता के बारे में उनकी धारणा की  निरंतरता का आवलोकन करना चाहिए :

 " मारते वक़्त मरने में कोई बहादुरी नहीं | ये सिर्फ बहादुरी का भ्रम है | सच्चा शहीद वो होता है जो बिना मारे अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर दे | आप पलट के ये पूछ सकते हैं की क्या सारे हिन्दुओं और सिखों को मर जाना चाहिए | में कहूँगा हाँ | ऐसी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जायेगी | आप  ऐसी बात कहने के लिए मेरी तारीफ करेंगे  या मुझे गालियाँ देंगे ; पर में वो ही कहूँगा जो मैं अपने  दिल में महसूस करता हूँ |"पृष्ट ५४-५८,[२]

 "हिन्दुओं को चाहे मुस्लमान उन्हें बर्बाद करना चाहें तो भी उन के प्रति अपने दिल में रोष नहीं रखना चाहिए | अगर मुस्लमान हम सब को मारना चाहें तो हमें मौत का बहादुरी से सामना करना चाहिए | अगर उन्होनें हिन्दुओं को मार अपने साम्राज्य की स्थापना की तो हम अपनी ज़िन्दगी की क़ुरबानी दे एक नए दुनिया की शुरुआत करेंगे |किसी को भी मौत से डरना नहीं चाहिए | जन्म और मृत्यु  हर इंसान के लिए अपरिहार्य हैं| फिर हम ख़ुशी या शोक क्यूँ मनाएं ? अगर हम हँसते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो हम एक नयी ज़िन्दगी में कदम रखेंगे और एक नवीन भारत का स्वागत करेंगे [६]|"

 "अगर बिना किसी को मारे पंजाब का हर शख्स मर जाता है , तो पंजाब अमर हो जाएगा | बहादुरी मारने से ज्यादा मरने में है | हाँ मेरी शर्त वही है की अगर हम मौत का सामना भी कर रहे हों तो भी हमें उनके विरुद्ध हथियार नहीं उठाने चाहिए | पर आप हथियार उठाते हो और हारकर  मेरे पास आते हो | ऐसी स्थिति में मैं आपकी कैसे मदद कर सकता हूँ ? अगर आप मेरी सुनते तो में यहाँ से भी पंजाब में शांति ला सकता था | एक हज़ार लोगों की जान गयी लेकिन बहादुर शहीदों  की तरह नहीं | मुझे अच्छा लगता अगर जो १६ लोग छुप गए थे वह सामने आ कर मौत को गले लगा लेते | उतना ही ज्यादा दुःख | कितना फर्क पड़ता अगर उन्होनें अपने आप को एक अहिंसक ख़ुशी से अपनाई गयी मौत के लिए समर्पित कर दिया होता ! अहिंसा से विरोध करना हे करो पर अगर तुममें बहादुर लोगों जैसी अहिंसा करने की ताकत नहीं है तो लड़ते लड़ते मर जाओ | डरपोक मत बनो |" पृष्ट २००-201 [३]"

 " आज एक रावलपिंडी के हिन्दू ने वहां पर हुई त्रासदी की खबर दी | रावलपिंडी के आसपास के गाँवों को जला दिया गया है | पंजाब के हिन्दू बहुत गुस्से में हैं | सिख कहते हैं की वह गुरु गोविन्द सिंह के शिष्य हैं जिन्होनें उन्हें तलवार चलाना सिखाया है | पर मैं हिन्दुओं और सिखों से बार बार कहूँगा की जवाब न दें | मैं हिम्मत जुटा के  ये भी कहना चाहूँगा की अगर हिन्दू और सिख बिना किसी विरोध के मुसलमानों के हाथों मारे भी जाते हैं तो वह न सिर्फ अपने धर्म के बल्कि इस्लाम और पूरे विश्व के उद्धारक बन जायेंगे |"पृष्ट २२५-२२६ ,[४]

" पर जिन्नाह साहब एक बड़ी संसथान के अध्यक्ष हैं | अगर वह इस गुज़ारिश पर हस्ताक्षर कर देंगे तो मुसलमानों के हाथों एक भी हिन्दू का क़त्ल नहीं हो सकता ? मैं हिन्दुओं से कहूँगा की अगर मुस्लमान उन्हें मारने आ रहे हैं तो वह मौत का सामना ख़ुशी ख़ुशी करें | मैं बड़ा पापी हूँगा अगर मारे जाने पर में आपने आखरी वक़्त में ये कामना करून की मेरे बेटे को बदला लेना चाहिए | मुझे बिना द्वेष के मरना चाहिए|"[५] क्रांतिकारियों के इसके ठीक विपरीत विचार थे | एक क्रन्तिकारी एम् एन रॉय (जो बाद में लेख लिखते हैं) ने लिखा है :

"भारत में ब्रिटिश साम्राज्य ज़बरदस्ती से स्थापित और कायम किया गया था इसीलिए उसे एक हिंसक आन्दोलन से ही  परास्त किया जा सकता है | अगर चल सकता है तो हम भी हिंसा के पक्ष में नहीं हैं ; पर स्वरक्षा के लिए भारत की जनता को हिंसक तरीकों का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा , इसके बिना हिंसा पर आधारित विदेशी साम्राज्य का अंत नहीं होगा|"पृष्ट 24 ,[७]

सुभास बोस:
 "आज़ादी दी नहीं ली जाती है |" गुलामों के लिए आज़ादी पाने की सेना के सबसे पहले सैनिक बनने से बढ़कर कोई गर्व और प्रतिष्ठा की बात नहीं है |"[८] "बातचीत के माध्यम से इतिहास में कभी कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आ पाया है|"

मदनलाल डीन्ग्रा ने ब्रिटिश आक्रमण का क्रन्तिकारी कैसे जवाब देते हैं  इसका सबसे अच्छा उदाहरण  दिया | खुदीराम बोस, कनई लाल दत्ता, सतिंदर पाल, पंडित कांशीराम की फांसी से गुस्साए मदनलाल ने ब्रिटिश से बदला 1 जुलाई १९०९ को कर्जों व्यलिए की हत्या कर लिया | अपने निरीक्षण में उन्होंने कहा:

"में इस बात पर अडिग हूँ की अगर किसी जेर्मन के उनके राष्ट्र पर कब्ज़ा करने पर एक अँगरेज़ का उससे लड़ना लाज़मी है तो मेरा  अंग्रेजों से लड़ना ज्यादा वाजिब और देशभक्ति पूर्ण है | में पिछले ५० सालों में करीबन ८० लाख लोगों के क़त्ल के लिए ब्रिटिश साम्राज्य को ज़िम्मेदार मानता हूँ , और वह मेरे देश से हर साल १० करोड़ लोगों को अपने देश ले जाने के भी ज़िम्मेदार हैं | मैं उन्हें अपने देश के वीरों ,जिन्होनें वही किया जो अँगरेज़ अपने देश वासियों से करने की सलाह दे रहे हैं ,की फांसी और निर्वासन के लिए भी इन्हें ज़िम्मेदार ठहराता  हूँ | और जो अँगरेज़ भारत आता है और मानो एक महीने में 100 रूपये कम रहा है , इसका मतलब है वह मेरे हजारों देशवासियों को मौत की सजा दे रहा है क्यूंकि ये 1000 लोग आसानी से उन 100 रुपयों पर जीवित रह सकते थे जिनका इस्तेमाल अँगरेज़ सिर्फ अपनी ऐयाशी या शौक के लिए करते | जिस तरह से जर्मनस को उनके देश पर कब्ज़ा करने का कोई हक नहीं है , उसी तरह अंग्रेजों को भारत पर कब्ज़ा करने का कोई हक नहीं है , और ये हमारी तरफ से बिलकुल लाज़मी है की हम उस अँगरेज़ को मार दें जो हमारे पवित्र देश को गन्दा कर  रहा है | में अंग्रेजों के  पाखंड, प्रहसन, और दोग्लेपन पर हैरान हूँ | वह मानवता के उद्धारक की तरह पेश आते हैं – कांगो और रूस के लोगों के लिए – जबकि भारत में भयानक उत्पीरण और गुनाहों को अंजाम दिया जा रहा है ; मसलन हर साल २ लाख लोगों का क़त्ल और हमारी औरतों के साथ दुष्कर्म | अगर उनका  देश जर्मनी के कब्ज़े में होता , और अँगरेज़ , जेर्मनस को सड़क पर शासक की उदंडता से चलते देख गुस्से में आ एक दो जर्मनस का क़त्ल कर देते हैं तो उस अँगरेज़ को उनके देश के लोग देशभक्त करार देते हैं , तो में भी इसी तरह से अपनी मात्रभूमि को बचाने के लिए काम करने को तैयार हूँ |मैं और जो कहना चाहता हूँ वह मेने कागज़ पर लिख दिया है , वह इसीलिए नहीं है क्यूंकि मैं दया की भीख मांग रहा हूँ | मैं चाहता हूँ की अँगरेज़ मुझे फांसी दें , क्यूंकि इससे मेरे देशवासियों के बदला लेने की इच्छा में तीव्रता आएगी | में इस कथन के द्वारा अपने अमेरिका और जर्मनी के समर्थकों को अपनी लड़ाई का अंजाम दिखाना चाहता हूँ"|[९]

फांसी से पहले उन्होनें कहा :

 " मेरा मानना है की विदेशी बंदूकों से दबा हुआ एक देश हमेशा लड़ाई की स्थिति में रहता है | क्यूंकि एक निहत्थी जाती के लोगों के लिए खुली लड़ाई करना संभव नहीं है , मेने चुपके से वार किया | क्यूंकि मुझे बंदूकें नहीं दी गयी , मेने अपने पिस्तौल को निकाल गोली दाग दी | धन और बुद्धि से गरीब मेरे जैसे बेटे के पास अपनी माँ को देने के लिए अपने खून के इलावा कुछ नहीं है | और इसीलिए मेने उसकी वेदी पर अपना खून चड़ा दिया | भारत में अभी जो सीख लेने की ज़रुरत है वह है की कैसे मौत को अपनाएं और ये सिखाने के लिए खुद मरना पड़ेगा | मेरी भगवान से यही प्रार्थना है की मुझे फिर इस माँ की कोख से जन्म दे ताकि में जब तक स्वतंत्रता न मिल जाए इस पवित्र आन्दोलन के लिए अपनी बार बार  जान दे सकूं | वन्दे मातरम !"[१०]

ऊपर लिखित सभी क्रन्तिकारी यही बता रहे हैं की  एक गुलाम देश को हमेशा युद्ध की स्थिति में रहना चाहिए | अगर हम विश्व इतिहास का अध्ययन करें तो पता चलेगा की उनका नजरिया सिर्फ माननीय नहीं , लेकिन यह  स्वाभाविक  और जैविक भी है |

हम उस शपथ को बताना चाहेंगे जिसको दुनिया भर में बहुत मान्यता मिली है और जो मज्ज़िनी ने अपने गुप्त लीग के सदस्यों को दिलवाई थी : " मैं कसम खाता हूँ की मैं अपने को पूर्ण रूप से और हमेशा अपनी शक्ति के निहित हर ज़रिये की मदद से एक मुक्त, स्वतंत्र और रिपब्लिकन इटली के एकमात्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगाऊँगा |"पृष्ट २३० , [१०]| ये भी बताने योग्य है की "ल्लोय्द जॉर्ज ने विंस्टन चर्चिल से  ढींगरा के रवैय्ये के प्रति अपनी सर्वोच्च प्रशंसा ज़ाहिर की | चर्चिल ने उनके विचारों से सहमती जताई और ढींगरा के आख़री शब्द बताते हुए कहा की ये शब्द देशभक्ति पर दिए गए कथनों में सबसे बेहतरीन हैं | उन्होनें ढींगरा की तुलना प्लुतार्च के अमर वीरों से की | आयरिश अख़बारों से काट कर घोषणापत्र बनाये गए : आयरलैंड मदनलाल ढींगरा जिन्होनें अपने देश के लिए अपनी जान दे दी उनकी इज्ज़त अफजाई करता है   |"पृष्ट २३० ,[१०]|जिन लोगों की सत्ता को ढींगरा ने चुनौती दी  उनसे  विपरीत , उनके समकालीन दोस्त गाँधी के पास ढींगरा के लिए निंदा के शब्द ही थे |

एक सवाल जिसका जवाब नहीं मिला है वह ये है की क्या हिंसक घुसपैठ को शांतिपूर्वक क़ुबूल कर लेना किसी तरह से भारतीय मूल्यों में समावेश था  या क्रांतिकारियों ने इसे भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न हिस्सा बना दिया है| ये जद्दोजहद मौलिक है क्यूंकि भारत अंग्रेजों के आने से बहुत पहले से एक सभी राष्ट्र की तरह रहता था | किसी  एक व्यक्ति या गुट को ये इजाज़त नहीं थी की वह भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा को बिना अपने द्वारा सोची गयी  परिभाषा और  विचारों की  स्थिरता और उसके फायदे और नुकसान  के  एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन के बदल दे | क्यूंकि एक देश अपने सांस्कृतिक मूल्यों से ही जाना जाता है | वाकई में "एक राष्ट्र का मतलब सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा  नहीं होता है | एक राष्ट्र का मतलब है एक गुट या समुदाय के लोग जो एक निर्धारित जगह पर पारंपरिक तौर पर रह रहे हैं , और जिनकी अपनी अलग संस्कृति की वजह से दुनिया के और लोगों से एक अलग पहचान है | एक राष्ट्र की सांस्कृतिक विशिष्टता उसकी  जाति या धर्म, या भाषा, या इन कारकों में से कुछ या सभी के एक संयोजन पर आधारित हो सकती है ,लेकिन उसकी एक अलग संस्कृति होनी चाहिए जो उस राष्ट्र को अन्य देशों से भिन्न प्रतीत कराये | तीसरा इस संस्कृति के लोगों के बीच कुछ अंदरूनी  मतभेद होंगे पर इनके होते हुए भी उनमें अपनी संस्कृति के मौलिक तत्वों की वजह से एक सद्भाव और गर्व का जन्म होता है जो उन्हें बाकि दुनिया से अपनी एक अलग पहचान को बनाये रखने के लिए प्रेरित करती है | अंत में इन कारको की वजह से इस गुट के लोगों का अपने देश के इतिहास के प्रति अपना नजरिया होता है , उनके अपने वीर  और दुश्मन होते हैं , और उनकी ख्याति और शर्म  ,सफलता और विफलता, जीत और हार के अपने  किस्से होते हैं |"पृष्ट ३ [११]

क.२ राष्ट्रीयता पर सवाल – लेकिन अभी क्यूँ ?
अभी के समय में रहने वाले लोग सवाल करेंगे की राष्ट्रवाद के इन विपरीत मूल्यों पर इस कश्मकश पर अब गौर फरमाने की क्या ज़रुरत है , जबकि हमारा आखिरी शासक ७० साल पहले देश से जा चुका है | मैं इसके विविध जवाब देना चाहूंगी |जब तक हम ये नहीं पता कर लेते की हम कैसा देश बनना चाहते हैं हमें ये पता नहीं चलेगा की हमें कैसे आगे बढ़ना है – एक ऐसा राष्ट्र जो किसी भी आक्रमण को चुपचाप उस ,नैतिकता का बहाना बना जो हमारे विरोधी में नहीं है ,सह लेता है ,या ऐसा राष्ट्र जो उस भाषा में जवाब देना और विरोध करने का आत्मविश्वास रखता है जो उसके विरोधी को समझ में आती है |एक हाल का उदाहरण देते हुए . अपनी बहुचर्चित भारत की यात्रा के बाद राष्ट्रपति ओबामा ने कहा की भारत महात्मा गाँधी के धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांतों से भटक गया है | शायद अमेरिकी राष्ट्रपति सही कह रहे हैं क्यूंकि महात्मा गाँधी के धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत के हिसाब से किसी भी धर्म से सामना होने पर हिन्दुओ और सिखों को मौत अपना लेनी चाहिए | भारत को उस रास्ते से भटकना चाहिए और शायद जहाँ हिन्दू और सिख बहुमत में हैं ऐसा हुआ भी है |पर ओबामा को सच से जवाब नहीं दिया जा सकता क्यूंकि आज़ादी के बाद भी भारत ने अपने को गाँधी के सिद्धांतों से जोड़े रखा है बिना उनकी  योग्यता या तर्कसंगत समर्थन को समझे | ये इस हद तक व्याप्त हो चुका है की आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ,वीर सावरकर जिन्होनें अपने जीवन काल में गाँधी का विरोध किया के वैचारिक वंशज ने एक हाल के भाषण में अहिंसा के गुणों पर खूब विस्तार कर समझाया[१२] |

 " वह शक्तियां जो सिर्फ अपने समुदायों के आर्थिक लाभ को हासिल करने में जुटी है ; शांति के नाम पर अपने साम्राज्य को बढ़ाना चाहती है ;हथियारों के प्रसार के नाम पर  और देशों को कमज़ोर और असहाय रहने पर मजबूर कर रही है , वह एक खुशहाल और सुन्दर दुनिया के सपने को कभी साकार नहीं होने देंगी | पिछले १००० सालों के इतिहास में भारत एक मात्र ऐसा उदाहरण है जिसने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चल इस दिशा में बढ़ने की वास्तविक कोशिश की है | भारत के " वसुधैव कुटुम्बकम "(साडी दुनिया मेरा परिवार है ) के मन्त्र में अटल विश्वास के चलते उसके कई ऋषियोँ  , मुनियोँ  ,भिक्षुयोँ  , श्रमणयोँ  , ज्ञानीयोँ और विशेषज्ञयोँ   ने पुराने समय में मेक्सिको से लेकर साइबेरिया तक पूरी दुनिया का भ्रमण किया |बिना किसी साम्राज्य पर कब्ज़ा किये या किसी समाज के जीवन ,प्रार्थना प्रणाली या राष्ट्रिय और सांस्कृतिक पहचान को अस्तव्यस्त किये उन्होनें सब के साथ प्यार, स्नेह और सार्वभौमिक कल्याण के  भारतीय मूल्यों को बांटा |"

मोहन भागवत हथियारों को रखने की हिन्दू परम्परा के बारे में तो जानते होंगे क्यूंकि सन्यासियों (भिक्षुकों) की इसी  सशस्त्र विद्रोह ने बंकिम चन्द्र चैटरजी को अपनी  साहित्यिक कृति आनंदमठ लिखने की प्रेरणा दी जिससे भारत को अपना राष्ट्रिय गाना वन्दे मातरम मिला ( वह आर एस एस ही है जिसने इसके जन्मस्थान से इस गाने की याद को मिट जाने से रोका हुआ है | इसके इलावा ऋषि और ज्ञानियों के बजाय भारत के चोला राज्यों ने युद्ध के माध्यम से देश से बाहर मतलब पूर्व में अपना साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की थी | पर भागवत के इस कथन की ऐतिहासिक सच्चाई इस बहस में सिर्फ एक सीमित भूमिका निभाती है | भागवत और राष्ट्रपति ओबामा जिन मूल्यों पर जोर डाल रहे हैं वह ज्यादा महत्व्पूर्ण हैं | क्यूंकि ," एक देश के न सिर्फ अपने वीर और दुश्मन होते हैं, और उनकी ख्याति और शर्म  ,सफलता और विफलता, जीत और हार के अपने  किस्से होते हैं" पर इन वीरों की और दुश्मनों का चुनाव और ख्याति और शर्म  ,सफलता और विफलता, जीत और हार की उनकी समझ ही एक राष्ट्र को बनाती  है |

गाँधी एक व्यक्ति नहीं एक सोच है – 1) जो आक्रमण का जवाब घुटने टेक कर देने का समर्थन करती है और २) दूसरी जो  ज़रिये की नैतिकता को अंत की ज़रुरत से ज्यादा प्राथमिकता देती है | यही सोच भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि बनती जा रही है | अगर यही सोच भारत की पहचान बन जाती है तो किसी भी अंदरूनी या बाह्य आक्रमण होने पर सारी  दुनिया भारत से घुटने टेकने की उम्मीद करेगी | इसलिए हमें दूसरी  सोच को समझने की भी ज़रुरत है की क्या वीरता, सोद्देश्य कार्रवाई, राष्ट्रीय लक्ष्यों पर नैतिक अहं और आत्म धर्म कभी भी भारत की प्राचीन सभ्यता का हिस्सा थी और अगर हाँ तो कितनी सफल थी | अगर गांधीवाद भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है तो ये भी जानना ज़रूरी है की इसका प्रचारक खुद उन  उच्च मूल्यों का पालन करता था जो वह औरों पर थोपता है या फिर उसने सिर्फ अपने लोगों को इस पर अमल करने को कहा और अन्य आक्रमणकारियों को इससे बचने का स्थान दे दिया ( भारत का विभाजन मांगने वाले अँगरेज़ या मुसिलम जो भी हो )- मतलब ये की क्या गाँधी खुद गाँधीवादी थे या ये उनके लिए अपनी पवित्रता के प्रभामंडल के चरम को हासिल करने की दिशा में एक साधन था ?

इस खोज में एक मौलिक सवाल ये होगा की क्या गांधीवाद और बिना नैतिकता अपनाये मज़बूत टक्कर देने की दूसरी सोच में टकराव का जन्म अंग्रेजों से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ था | या फिर ये कई सालों से चलती आई लडाई है जहाँ प्रतिद्वंदीयोँ ने अलग गुटों का चुनाव कर लिया है  | अगर ऐसा है तो हमें ये समझना होगा की ये दो पक्ष इतने सदियों से कैसे कार्य कर रहे थे ? अपने सवाल का जवाब पाने के लिए आईये वक़्त का पहिया घुमा ७१३ ऐ डी में जाएँ , जिस साल अरबों ने पहली बार भारत में कदम रखा – सिंध में जो तब भारत का हिस्सा था |

मुहम्मद बिन कासिम जिन्होनें हिन्दू राजा दहर से ७१३ ऐ डी में सिंध जीता था , वह वहां के एक स्थान सिविस्तान में कब्ज़े के मकसद से आया था | राजा और उसके कई सैनिक हिन्दू थे जबकि ७ सदी में वहां बौध धर्म का प्रचलन था , पृष्ट ९-१० [1]| समानी( मूल रूप से श्रमण या भिक्षुक ) कई और शहरों पर भी राज्य करते थे | सिंध के कब्ज़े का सबसे पहला वृतांत चाचनामा , ये कहानी बताता है पृष्ट ९१-९२[1]

कासिम के आने पर , सिविस्तान के समानी (जो लोगों का प्रमुख था ) ने बच्चेहरा (सिविस्तान के शासक और सिंध के राजा दाहिर के चचेरे भाई) को निम्नलिखित सन्देश भेजा और कहा :"हम लोग पंडित श्रेणी के हैं (नासिक), हमारा धर्म शांति और जाती सद्भाव(सबके लिए) है |हमारे  धर्म के अनुसार लड़ाई और मार काट की इजाज़त नहीं है | हम खून बहाने के पक्ष में कभी नहीं होंगे |आप सुरक्षित एक बड़े महल में रह रहे हैं ; हमें डर है की ये झुण्ड आएगा और हमें आपके प्रचारक और आश्रित समझ हमसे हमारी ज़िन्दगी और संपत्ति ले लेगा |हमें पता चला है की खालिफः के हुक्म से आमिर हजाज ने जो मांगे उसे माफ़ी देने का आदेश दिया है |तो अगर ऐसा मौका आया और हमें ठीक लगा तो हम उनसे संधि कर लेंगे | अरब अपनी बात के पक्के होते है | जो वह कहते हैं उससे पलटते नहीं है और वही करते हैं |" पृष्ट ९० [1]| बच्चेरा ने इस सलाह को मानने से इंकार कर दिया और सिविस्तान के कुछ नागरिक लड़ने को तैयार हो गए |मोहम्मद कासिम ने हमला किया | समानी दल ने बच्चेरा को समझाया  और लड़ने के लिए मना किया ये कहके " ये सेना बहुत शक्तिशाली और ताकतवर है ; तुम इनके खिलाफ नहीं खड़े हो सकते | हम नहीं चाहते की तुम्हारी जिद के चलते हमारी ज़िन्दगी और संपत्ति को खतरा हो |पृष्ट ९० [1] | बच्चेरा ने फिर भी सलाह नहीं मानी | फिर समानी प्रमुख ने कासिम को सन्देश दिया " सभी लोग चाहे वो किसान , कारीगर या आम जनता हो , बच्चेरा का साथ छोड़ चुकी है और उसकी तरफ अब कोई वफ़ा नहीं रखते है , और बच्चेरा के पास पर्याप्त आदमी और युद्ध सामग्री नहीं है और वह आपके विरोध या लड़ाई में आपके सामने खड़ा नहीं हो सकता |"पृष्ट 91 [५३]| ये जानकारी सही थी की नहीं लेकिन इससे मुस्लमान सेना का जोश बढ  गया | कासिम ने युद्ध को दिन रात जारी रखने का हुक्म दिया | किले के सदस्यों ने करीब एक हफ्ते बाद लड़ना बंद कर दिया |" जब बच्चेरा को पता चला की किले की हालत सही नहीं है और वह ज्यादा देर टिका नहीं रहेगा तो उसने किले को छोड़ने का फैसला किया | इसीलिए जब दुनिया रात के अँधेरे में छुपी थी वह उत्तरी दरवाज़े से निकला और नदी को पार कर भाग गया पृष्ट 91 [1]|

इसीलिए शांति पूर्वक समर्पण और आक्रमण का मुहतोड़ जवाब देने की और ज़रिये की नैतिकता और  अंत की ज़रुरत की लड़ाई ८ सदी से चलती आ रही है | हमारी खोज से हमें पता चलेगा की इस सदीयों पुरानी वैचारिक और वास्तविक जीवन के संघर्ष में कौन वीर और कौन दुश्मन साबित हुआ | दुश्मन तो काफी सारे होंगे पर क्या कोई सच्चा वीर उभर के सामने आया ? इस लडाई में विपरीत विकल्पों का क्या अंजाम हुआ ? कौन जीता और कौन हारा और क्यूँ ? वो जीत जो समानी ने हासिल की वह कुछ ही समय के लिए थी क्यूंकि उस क्षेत्र का प्रधान धर्म , बोद्ध धर्म मुसलमान कब्ज़े की वजह से सिंध से गायब हो जाएगा पर हिन्दू फिर भी १९४७ तक सिंध का २५ प्रतिशत हिस्सा बने रहेंगे | बच्चेरा सिविस्तान की सुरक्षा नहीं कर सका पर सिविस्तान ने इस लड़ाई में हार के बाद अपनी आज़ादी भी खो दी | यहाँ वीर और दुश्मन का चुनाव काफी स्पष्ट है , पर ये भी स्पष्ट है की दोनों वीर और दुश्मन की यहाँ हार हुई – बस ये फर्क है की वीर कोशिश कर , के हारा | फिर भी हिन्दुओं ने ७१५ ऐ डी से अपनी जगह वापिस बनानी शुरू कर दी और ९ सदी ऐ डी तक उन्होनें सिंध के काफी  हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था | अतः ये कह सकते है की बच्चेरा असफल रहा पर उसने ये अधूरा काम ख़तम करने के लिए औरों को प्रेरित कर दिया |  

हमारी खोज से सामने आएगा की भारतीय इतिहास में एक आश्चर्यजनक निरंतरता है | भारतीय ख़ास तौर से हिन्दुओं  ने पिछली कई सदियों से एक जैसे गुणों का प्रदर्शन किया है , एक ही जैसे क्षेत्रों में तरक्की हासिल की है और एक ही जैसी गलतियाँ दोहराई हैं | मसलन हर आक्रमण के विद्रोह के दो विपरीत तरीके नज़र आयेंगे – एक उत्कृष्ट वीरता का और दूसरा आक्रमणकारी के साथ गुप्त या प्रकट संधि | वीर अपनी गाथा सुनाने के लिए जीवित नहीं बचेंगे लेकिन संधि करने वाले तरक्की करेंगे | इसके बाद शुरुआती २० शताब्दी तक भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दू धर्म और उसकी प्रथाओं में लिप्त रहेगा और उससे ही पहचाना जाएगा | धर्म में विश्वास और गर्व जहाँ भारतीय राष्ट्रवाद के मज़बूत स्तम्भ बनेंगे वहीँ उसकी कमजोरी भी बनेगें | हमें ये भी पता चलेगा की आक्रमण को हिन्दुओं का जवाब पालकों की निर्धारित हिन्दू विचारधारा पर आधारित  होगा – ख़ास तौर पर अगर ये मानें की बौद्ध धर्म हिंदुत्व का ही हिस्सा है ,हमे ये देखेंगे की बौद्ध शांतिवाद उस वीर प्रतिरोध के महत्त्व को कम करेंगे जिसको  सनातन धर्मं के पालक सामने लायेंगे ( समनिद और बच्चेरा का विपरीत इसका उदाहरण है ) | बौद्ध शांतिवाद शायद गाँधी विचारधारा के द्वारा प्रचारित निष्क्रिय आत्मसमर्पण के बौधिक रूप से सबसे करीब है |

इतिहास में ये निरंतरता हमें ये सोचने पर मजबूर करती है की क्या इतिहास भी अपने आप को इसीलिए दोहराता है क्यूंकि हमारे राष्ट्रवाद के मौलिक युद्ध का कोई हल नहीं निकला था | समानी और बच्चेरा का अनसुलझा युद्ध बाद में भारत की एक दूसरी शक्ति से स्वतंत्रता की लड़ाई के नाज़ुक मोड़ पर फिर से प्रकट होगी | अगर हम १२२५ साल से इतिहास को आगे बढ़ाएंगे , सिविस्तान के बच्चेरा , समानी और आक्रमणकारी ( इस बार अलग ) फिर उभरेंगे –  उसी सवाल को लेकर जो हमारी राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए फिर उभरेगा | समानी का ये नया जन्म आक्रमणकारी से अपने युद्ध के समय पर जब आक्रमणकारी सबसे कमज़ोर होगा तब दिए  सहयोग को उचित साबित करने के लिए अहिंसा की नैतिकता का उदाहरण देगा  | बच्चेरा उसकी सलाह ख़ारिज कर देगा और लडाई को अंत तक पहुँचाना की मांग रखेगा , और अपने लिए सिविस्तान में से अंदरूनी समर्थन जुटाएगा | समानी फिर भी उसके समर्थन को कम और उसे हतोत्साहित करने की कोशिश करेगा | अंत में ये जान की वह अन्दर से विद्रोह नहीं कर सकता है , बच्चेरा उसी तरह से रात के अँधेरे में सिविस्तान से चला जाएगा | १९४० में अपने कलकत्ता के पैत्रिक घर से निकल वह मध्य एशिया से पश्चिम दिशा की और बढ़ेगा , फिर पूर्व जा कर उस चोट की तैय्यारी करेगा जो वह अन्दर से नहीं दे पाया | बाकी सब इतिहास का हिस्सा है जो हम बाद में फिर पढ़ेंगे | ये इतिहास हमें बताएगा की जो बच्चेरा हमें १९४० में छोड़ गया वह खुद तो अपनी प्यारी मात्रभूमि को उस आक्रमणकारी के चंगुल से नहीं बचा पाया , पर उसकी वीरता औरों को प्रेरित करेगी की वह उसके उद्देश्य को अंजाम तक पहुंचाए |  अगर समानी ने कभी अपनी मात्रभूमि को एक राष्ट्र की तरह आज़ाद करने की कोशिश की , तो वह भी असफल रहेगा , पर उसे अपने देशवासियों के भले की कीमत पर संत का दर्जा तो मिल जाएगा | इसके बाद भी दोनों में से कोई भी अपने मकसद में पूरी तरह से सफल नहीं होगा |

क.३ आगे का रास्ता
भारत के इतिहास में आख़री निष्कर्ष  अभी तक नहीं आया है | भारत को १९४७ में आज़ादी एक विभाजन की कीमत पर मिली  जिसमें पंजाब क्षेत्र में ही  २–५ लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया | भारत ने तबसे ज्ञान में काफी बढ़त हासिल कर ली है जो की इतिहास की निरंतरता का प्रतिनिधि है ( ज्ञान की खोज विदेशी कब्ज़े के दौरान भी चल रही थी ) | पर जैसे हम कठिनाई से सबक सीखते हैं , नालंदा और विक्रमशिला के विश्व प्रचलित ज्ञान के केंद्र तुर्की आक्रमणकारी बख्त्यार खिलजी के शिकार हो गए और भारत को भी विदेशी आक्रमण से नहीं बचा पाए | इसीलिए ज्ञान काफी नहीं है | और हो सकता ये भारत पर आख़री विदेशी कब्ज़ा न हो | वाकई में १९४७ के बाद हमने ४ अधिकारिक युद्ध लढ़े  हैं | पहले में १९४७ में अपने जन्म के दो महीने बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला बोल दिया | भारतीय सेना ने हमले का जवाब दिया , और पाकिस्तान को कश्मीर से खदेड़ना वाली थी  , जब उसके प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु , गाँधी के वैचारिक वंशज और प्रधान मंत्री उम्मीदवार ने लड़ाई को रोक दिया और विवाद को संयुक्त राष्ट्र के सामने पेश किया | कश्मीर अभी भी बंटा हुआ है और उसका कब्ज़ा किया हुआ हिस्सा भारत के पास कश्मीर के  बाकी हिस्से में आतंकवाद को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है | तीसरे युद्ध में चीन ने १९६२ में भारत के उन्ही प्रधान मंत्री नेहरु की हिमालय की भूलों के चलते भारत को करारी मात दी | एक सैनिक ने बाद में शोक मनाया – " हमारी सेना हमेशा बहादुरी से लडती है ; पर ये एक निर्विवाद तथ्य है की इस अयोग्य राजनीतिक या सैन्य नेतृत्व या दोनों की वजह से कभी कभी हम इस  वीरता का इस्तेमाल युद्ध क्षेत्र में जीत हासिल कर अपने राजनितिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता  हैं | क्या हमें इस  दुखदायी रास्ते पर चलना ज़रूरी है |"पृष्ट १७[15] | अब तक आखिरी युद्ध में १९७१ में अयोग्य राजनितिक नेतृत्व के एक और उदाहरण में जो क्षेत्र हमने जीत लिया था उसे बातचीत की मेज़ पर खो दिया |

अगली बार जब भी हो , भारत के जवाब को अपने अतीत से उभरे और समय के साथ निखरे  उसके राष्ट्रिय चरित्र से मेल खाता होना चाहिए | हमें ये कोशिश करनी चाहिए की भविष्य में अगर कोई बच्चेरा अंदरूनी तौर पर भयानक पलटवार करे  , उसकी पीड़ी के समानी उसके साथ खड़े हों उसके विपरीत नहीं | भारत सिविस्तान को मृदुलता से किसी कासिम के हाथ में ना दे दे | इस अंत के तरफ बढ़ते हुए एक लेखों की श्रृंखला में अतीत में विदेशी आक्रमण के भारत के जवाब को प्रभावित करने वाले सभ्यता के मूल्यों को, और उस सन्दर्भ में गाँधी और क्रांतिकारियों की बीच की लड़ाई की अहमियत को समझेंगे |

अभिस्वीकृति :
ये श्रीन्ख्ला मेरे  स्वलिखित लेखों में से मिल कर लिखे लेखों के सबसे नज़दीक है | यहाँ पर पेश किये गए कई विचार @दिक्गाज के साथ विचार विमर्श का नतीजा हैं | जो दलीलें पेश की गयी हैं वह षन्मुख(@मैद्रोस७८) की रचनात्मक आलोचनाओं से तीव्र हुई हैं | कौसिक गंगोपाध्याय (@कौसिक्ग्य) ने मेरे द्वारा विश्लेषण की गयी दिशाओं पर सुझाव दिए | सुषुप्ति (@सुशुप्ती ) ने वह सन्दर्भ मुहैय्या करवाए जो मेने लिखे हैं |

ये बौधिक खोज कार्यकर्ता और पत्रकार अनुज धर और लेखक चंद्रचूर घोस की नेताजी सुभास चन्द्र बोस के दस्तावेज़ सार्वजानिक करने की मांग से प्रेरित हुआ है | उनके दल द्वारा की गयी क्षोध से मेरी नेताजी की जानकारी काफी बड गयी है |इससे भी ज्यादा वह हमें फिर से सिखा रहे हैं की सफलता की उम्मीद की निश्चितता के  बिना कैसे एक योग्य कारण को आगे बढाएं | आखिर में ये श्रृंखला मेरी श्रधांजलि है १९४० के बछेरा और उसके जैसे अन्य लोगों को जो हमें ये याद दिलाने में पीछे नहीं हटते की :

जब तुम घर जाओ उन्हें हमारे बारे में बताना और कहना उनके कल के लिए हमने अपना आज  दिया है  |

Source: http://www.dailyo.in/politics/subhas-chandra-bose-fundamental-conflicts-in-indian-nationhood-gandhi-vs-revolutionaries/story/1/2356.html

सास्वती सरकार के लेख

Shivam
Chapters
उत्कृष्ट संस्थानों पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय का आक्रमण मंजिल महाकारण स्मृति ईरानी विवाद और एक बौद्धिक पारिस्थितिक तंत्र का केस प्रधान मंत्री जी हमें हमारी विरासत लौटा दें : नेताजी की जानकारी को सार्वजानिक कर दें | भाजपा बंगाल पर उम्मीद न छोडें इस्लाम में सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है [भाग 1] इस्लाम में सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है [भाग 2] क्रांतिकारियों बनाम गांधी: भारतीय राष्ट्रवाद में मौलिक संघर्ष क्या भारत एक वंशवादी लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है ? दक्षिण एशिया में लापता हिंदुओं और मौन की साजिश नरेंद्र मोदी और ध्रुवीकरण का भ्रम ज़हीर जन्मोहम्मेद के लिए