त्रिवर्ग प्रतिपत्ति प्रकरण 1
श्लोक (1)- शतायुवैं पुरुषों विभज्य कालमन्योन्यानुबद्धं परस्परस्यानुपघातकं त्रिवर्ग सेवेत।।
अर्थ- शांत जीवन बिताने वाला मनुष्य अपने पूरे जीवन को आश्रमों में बांटकर धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का उपयोग इस प्रकार से करें कि यह तीनों एक-दूसरे से संबंधित भी रहे तथा आपस में विघ्नकारी भी न हो।
मनुष्य की उम्र 100 साल की निर्धारित की गई है। अपने इस पूरे जीवन को सुखी और सही रूप से चलाने के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास नाम के चार भागों में बांटकर धर्म, अर्थ और काम का साधन, संपादन इस प्रकार से करना चाहिए कि धर्म,अर्थ, काम में आपस में विरोध का आभास न हो तथा वे एक-दूसरे के पूरक बनकर मोक्षप्राप्ति के साधन बन सकें।
इस संसार के सभी मनुष्य लंबे जीवन, आदर, ज्ञान, काम, न्याय, और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सिर्फ वेदों की शिक्षा ही ऐसी है कि जो मनुष्यों के लंबे जीवन की सुविधा के दृष्टिगत सभी व्यक्तियों को इन इच्छाओं में विवेक पैदा कराके और बराबर अधिकार दिलाकर सबको मोक्ष की ओर अग्रसर करती है।
आचार्य वात्स्यायन नें शतायुर्वे पुरुष लिखकर इस बात को साफ किया है कि कामसूत्र का मकसद मनुष्य को काम-वासनाओं की आग में जलाकर रोगी और कम आयु का बनाना नहीं बल्कि निरोगी और विवेकी बनाकर 100 साल तक की पूरी उम्र प्राप्त करना है।
लंबी जिंदगी जीने के लिए सबसे पहला तरीका सात्विक भोजन को माना गया है। सात्विक भोजन में घी, फल, फूल, दूध, दही आदि को शामिल किया जाता है। अगर कोई मनुष्य अपने रोजाना के भोजन में इन चीजों को शामिल करता है तो वह हमेशा स्वस्थ और लंबा जीवन बिता सकता है।
सात्विक भोजन के बाद मनुष्य को लंबी जिंदगी जीने के लिए पानी, हवा और शारीरिक परिश्रम भी मह्तवपूर्ण भूमिका निभाते है। रोजाना सुबह उठकर ताजी हवा में घूमना बहुत लाभकारी रहता है। इसके साथ ही खुले और अच्छे माहौल में रहने और शारीरिक मेहनत करते रहने से भी स्वस्थ और लंबी जिंदगी को जिय़ा जा सकता है।
इसके बाद लंबी जिंदगी जीने के लिए स्थान आता है दिमाग को हरदम तनाव से मुक्त रखने का। बहुत से लोग होते हैं जो अपनी पूरी जिंदगी चिंता में ही घुलकर बिता देते हैं। चिंता और चिता में सिर्फ एक बिंदू का ही फर्क होता है लेकिन इनमें भी चिंता को ही चिता से बड़ा माना गया है। क्योंकि चिता तो सिर्फ मरे हुए इंसानों को जलाती है लेकिन चिंता तो जीते जी इंसान को रोजाना जलाती रहती है। इसलिए अपने आपको जितना हो सके चिंता मुक्त रखों तो जिंदगी को काफी लंबे समय तक जिया जा सकता है।
इसके बाद लंबी जिंदगी जीने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना भी बहुत जरूरी होता है। योगशास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करके ही वीर्य को बढ़ाया जा सकता है और वीर्ये बाहुबलम् वीर्य से शारीरिक शक्ति का विकास होता है। वेदों में कहा गया है कि बुद्धिमान और विद्वान लोग ब्रह्मचर्य का पालन करके मौत को भी जीत सकते हैं।
सदाचार को ब्रह्मचर्य का सहायक माना जाता है। जो लोग निष्ठावान, नियम-संयम, संपन्नशील, सत्य तथा चरित्र को अपनाए रहते हैं, वही लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लंबी जिदंगी को प्राप्त करते हैं। सदाचार को अपनाकर कोई भी मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी आराम से बिता सकता है।
कोई भी बच्चा जब ब्रह्मचर्य अपनाकर अपने गुरु के पास शिक्षा लेता है तो वह 4 महत्त्वपूर्ण बातें सीखता है। कई प्रकार की विद्याओं का अभ्यास करना, वीर्य की रक्षा करके शक्ति को संचय करना, सादगी के साथ जीवन बिताने का अभ्यास करना, रोजाना सन्ध्योपासन, स्वाध्याय तथा प्राणायाम का अभ्यास करना, भारतीय आर्य सभ्यता की इमारत इन्ही 4 खंभों पर आधारित है। ब्रह्मचर्य जीवन को सफल बनाने वाली जितने बाती है, सभी प्राप्त होती है।
ब्रह्मचर्य जो कि उम्र का पहला चरण है, जब परिपक्व हो जाए तो मनुष्य को शादी कराके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष का सम्पादन विधिवत् करना चाहिए। यहां पर वात्स्यायन इस बात का संकेत करते हैं कि अर्थ, धर्म तथा काम का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि आपस में संबद्ध रहें और एक-दूसरे के प्रति विघ्नकारी साबित न हो।
एक बात को बिल्कुल साफ है कि अगर सही तरह से ब्रह्मचर्य का पालन किया जाए तो गृहस्थ आश्रम अधूरा, क्षुब्ध और असफल ही रहता है। इसी वजह से हर प्रकार की स्थिति में हर आश्रम में पहुंचकर उसके नियमों का पालन विधि से करने से ही कामयाबी मिलती है।
ब्रह्मचर्य जीवन को गृहस्थ आश्रम से जोड़ने का अर्थ यही होता है कि वीर्यरक्षा, सदाचरण, शील, स्वाध्याय अगर ब्रह्मचर्य आश्रम में सही तरह से किया गया है तो गृहस्थआश्रम में दाम्पत्य जीवन अकलुष आनंद तथा श्रेय प्रेय संपादक बन सकता है। गृहस्थआश्रम को धर्मकर्म पूर्वक बिताने पर वानप्रस्थ का साधन शांति से और बिना किसी बाधा के हो सकता है और फिर वानप्रस्थ की साधना सन्यास आश्रम में पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करने में मदद करती है।
श्लोक (2)- वयोद्वारेण कालविभागमाह-बाल्ये विद्याग्रहणादीनर्थान्।।
अर्थ- अब क्रमशः उम्र के विभाग के बारे में बताया गया है।
बचपन की अवस्था में विद्या को ग्रहण करना चाहिए।।
श्लोक (3)- कामं च यौवने।।
अर्थ- जवानी की अवस्था में ही काम चाहिए।
श्लोक (4)- स्थाविरे धर्म मोक्षं च।।
अर्थ- बुढ़ापे की अवस्था में मोक्ष और धर्म का अनुष्ठान करना चाहिए।
श्लोक (5)- अनित्यत्वादायुषो यथोपपादं वा सेवेत्।।
अर्थ- लेकिन जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है इसलिए जितना भी इसको जी सकते हो जी लेना चाहिए।
श्लोक (6)- ब्रह्मचर्यमेव त्वा विद्याग्रहणात्।।
अर्थ- विद्या ग्रहण करने के बाद ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ के 3 भेद होते हैं। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था 3 अवस्थाएं होती है। हर इंसान की उम्र 100 साल निर्धारित की गई है। आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक 100 वर्ष की उम्र को 3 भागों में बांटकर पुरुषार्थों का उपभोग तथा उपार्जन करना चाहिए।
वात्स्यायन के मुताबिक जन्म से लेकर 16 साल तक की उम्र को बाल्यावस्था, 16 साल से लेकर 70 साल तक की उम्र युवावस्था और इसके बाद की उम्र को वृद्धावस्था कहते हैं। इसी वजह से बाल्यावस्था में विद्या ग्रहण करनी चाहिए। युवावस्था में अर्थ और काम का उपार्जन तथा उपभोग करना चाहिए।
इसके बाद बुढ़ापे की अवस्था में मोक्ष और धर्म की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। इसके बावजूद आचार्य वात्स्यायन का कहना है कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है। शरीर मिट्टी है इसी कारण से किसी भी समय और जब भी संभव हो जिन-जिन पुरूषार्थों की प्राप्ति हो सके कर लेनी चाहिए।
अब एक सवाल और उठता है कि जीवन को माया (जिसका कोई भरोसा नहीं होता) समझकर बाल्यावस्था में ही काम का उपार्जन और उपभोग करने की सलाह आचार्य वात्स्यायन देते हैं। इस बारे में किसी तरह की शंका आदि न पैदा हो इस वजह से उन्होने स्पष्ट किया है-
धर्म शास्त्रकारों में इंसान की उम्र को 4 भागों में बांटा है लेकिन आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक इसकी 3 अवस्थाएं बताई है। उन्होने अपने विचारों में प्रौढ़ावस्था का जिक्र नहीं किया है। दूसरे आचार्य सन्यास लेने की सही उम्र 50 साल के बाद की मानते हैं लेकिन आचार्य वात्स्यायन ने इसकी सही उम्र 70 साल के बाद की बताई है।
विद्या ग्रहण करने की उम्र में ब्रह्मचर्य का पालन पूरी सख्ती और निष्ठापूर्वक करना चाहिए।
आचार्य कौटिल्य के मुताबिक मुंडन संस्कार हो जाने पर गिनती और वर्णमाला का अभ्यास करना चाहिए। उपनयन हो जाने के बाद अच्छे विद्वानों तथा आचार्य से त्रयी विद्या लेनी चाहिए। 16 साल तक की उम्र तक बहुत ही सख्ती से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और इसके बाद विवाह के बारे में सोचना चाहिए। विवाह के बाद अपनी शिक्षा को बढ़ाने के लिए हर समय बढ़े-बूढ़ों के साथ में रहना चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों की संगति ही विनय का असली कारण होती है।
वात्स्यायन और कौटिल्य दोनों ही ने जीवन की शुरूआती अवस्था अर्थात बाल्यवस्था में विद्या ग्रहण करने और ब्रह्मचर्य पर जोर दिया है क्योंकि विद्या और विनय के लिए इन्द्रिय जय होती है इसलिए काम, क्रोध, लोभ. मान, मद और हर्ष ज्ञान से अपनी इन्द्रियों पर विजय पानी चाहिए।
श्लोक (7)- अलौकिकत्वाद्दृष्टार्थत्वादप्रवृत्तानां यज्ञदीनां शास्त्रात्प्रवर्तनम्, लौकित्वादृष्टार्थत्वाञ्ञ प्रवृत्तेभयश्च मांसभक्षणादिभ्यः शास्त्रादेव निवारणं धर्मः।।
अर्थ- जो लोग पारंपरिक तथा अच्छा फल देने वाले यज्ञ आदि के कामों में जल्दी शामिल नहीं होते ऐसे लोगों का शास्त्र के आदेश से इस तरह के कार्यों में शामिल होना तथा इसी जन्म में अच्छा फल मिलने के काऱण जो लोग मांस आदि खाते है उनका शास्त्र के आदेश से यह सब छोड़ देना- यही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति रूप में 2 प्रकार का धर्म है।
महाभारत में भी इस बारे में बताया गया है धारण करने से लोग इसे धर्म के नाम से बुलाते हैं। धर्म प्रजा को धारण करते हैं जो धारण के साथ-साथ रहता है वही धर्म कहलाता है- यह निश्चित है।
इस बात से यह साबित हो जाता है कि धर्म बहुत ही व्यापक शब्द है। ग्रंथकोश में धर्म के अर्थ मिलते हैं।
वैदिक विधि, यज्ञादि
सुकृत या पुण्य
न्याय
यमराज
स्वभाव
आचार
सोमरस का पीने वाला
और
शास्त्र विधि के अनुसार कर्म के अनुष्ठान में पैदा होने वाले फल का साधन एवं रूप शुभ अदृष्ट अथवा पुण्यापुण्य रूप भाग्य।
श्रौत और स्मति धर्म।
विहित क्रिया से सिद्ध होने वाले गुण अथवा कर्मजन्य अदृष्ट।
आत्मा।
आचार या सदाचार।
गुण।
स्वभाव।
उपमा।
यज्ञ।
अहिंसा।
उपनिषद्।
यमराज या धर्मराज।
सोमाध्यायी।
सत्संग।
धनुष।
ज्योतिष में लग्न से नौंवे स्थान या भाग्यभवन।
दान।
न्याय।
धर्म शब्द का अर्थ निरुक्तकार नियम को बताया गया है और धर्म शब्द का धातुगत अर्थ धारण करना होता है। इन दोनों अर्थों का तालमेल करने से यही अर्थ निकलता है कि जिस नियम ने इस संसार को धारण कर रखा है वह धर्म ही है।
शास्त्रों के अनुसार धर्म से ही सुख की प्राप्ति होती है और लोकमत भी इस बारे में शास्त्रों का समर्थन करता है। धन से धर्म होता है और धर्म से ही सुख मिलता है।
श्लोक (8)- तं श्रुतेर्धर्मज्ञसमवायाच्च प्रतिपद्येत।।
अर्थ- उपयुक्त सातवें सूत्र में बताए गए धर्म को ज्ञानी मनुष्य वेद से और साधारण पुरुष धर्मज्ञ पुरुषों से सीखें।
कामसूत्र के रचियता ने शास्त्रों के मत पर सहमति जताते हुए कहा है कि ज्ञानी मनुष्य को वेदों के द्वारा धर्म की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। मनु के अनुसार सारे वेद धर्म के मूल है।
श्री मद्धगवतपुराण में तो यहां तक कहा गया है कि जो वेद में कहा गया है वही धर्म है और जो उसमे नहीं कहा गया है वह अधर्म है।
आचार्य वात्स्यायन नें ज्ञानी व्यक्तियों को वेदों से धर्म आचरण सीखने की सलाह इसलिए दी है क्योंकि धर्म का तत्व गुहा में मौजूद होता है। इसी तत्व को प्राप्त करने के लिए मनुष्य़ को आत्म-निरीक्षण, श्रवण, मनन और निद्ध्यासन करना जरूरी है। ज्ञानी वही होता है जो निहित प्रच्छन्न तत्वों को पहचानता है। कामसूत्र का मुख्य धर्म काम का असली विवेचन और विश्लेषण करना ही है। काम के तत्व को वहीं मनुष्य़ पहचानता है जो धर्म के तत्व को पहचानता है।
यहां पर साधारण पुरुषों से अर्थ उन लोगों से है जो स्वयं वे वेदाध्ययन, श्रवण मनन में असमर्थ है, मगर स्मृतियों द्वारा बताए गए धर्मज्ञों द्वारा निर्दिष्ट पथ पर सवार रहते हैं। यहां पर कामसूत्र के रचियता स्मृति और श्रुति दोनों का समन्वय करते हैं। मतलब यह है कि श्रुति के द्वारा जो बताया गया है वही धर्म स्मृति में भी बताया गया है।
ऐसा वह कौन सा धर्म है जो स्मृति में बताया गया है तथा श्रुतिरागव है। इसका समाधान मनुस्मृति के अंतर्गत है।
श्रुति और स्मृति के अंतर्गत बताया गया सदाचार ही परम धर्म कहलाता है। इसलिए अपने आपको पहचानने वाले व्यक्ति को हमेशा सदाचार से युक्त ही रहना चाहिए।
आचार्य वात्स्यायन नें बहुत ही कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कही है कि विद्वान और सामान्य दोनों तरह के लोगों के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह सदाचारी बन जाए क्योंकि सदाचार ही काम की पृष्ठभूमि है।
श्लोक (9)- विद्याभूमिहिरण्यपशुधान्य भाण्डोपस्करमित्रादीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमर्थः।।
अर्थ- आचार्य वात्स्यायन ने धर्म के लक्षण बताने के बाद अर्थ की परिभाषा को पेश किया है-
विद्या, भूमि, सोना, जानवर, बर्तन, धन आदि घर की चीजें और मित्रों तथा कपड़ों, गहनों, घर आदि चीजों को धर्मपूर्वक प्राप्त करना तथा प्राप्त किए हुए को और बढ़ाना अर्थ है।
आचार्य चाणक्य नें कौटलीय अर्थशास्त्र के अंतर्गत अर्थ की परिभाषा बताते हुए बताया है कि लोगों की जीविका ही अर्थ है।
इस विषय में कौटिल्य और वात्स्यायन का एक ही मत है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र लिखने का अर्थ तत्व दर्शन को बताया है तथा यही अर्थ कामसूत्रकार का भी है।
जिस प्रकार से बुद्धि का संबंध धर्म से है उसी तरह से शरीर का संबंध अर्थ से, काम का संबंध मन से और आत्मा का संबंध मोक्ष से है। इन्ही अर्थ, धर्मं, मोक्ष और काम में मनुष्य की सभी लौकिक और परलौकिक कामनाओं का समावेश हो जाता है।
कामसूत्रकार का मन्तव्य यही मालूम पड़ता है कि जिस तरह अर्थ, वस्त्र, भोजन आदि के बिना शरीर बिल्कुल सही नहीं रह सकता, संभोगकला के बिना शरीर पैदा नहीं हो सकता और शरीर के बिना मोक्ष को पाना संभव नहीं हो सकता। उसी तरह से बिना मोक्ष का रास्ता निर्धारित किए बिना काम और अर्थ को भी सहायता नहीं मिल सकती है। जब तक मोक्ष की सच्ची कामना नहीं की जा सकती तब तक अर्थ और काम का सही उपयोग नहीं हो सकता।
श्लोक (10)- तमध्यक्षप्रचाराद्वार्तासमयविद्धयो वणिग्भयश्चेति।।
अर्थ- अर्थ को सीखने के बारे में जो बताया जा रहा है उसे जानने में अक्सर बहुत से टीकाकारों को वहम होता है। कामसूत्र के रचियता का अध्यक्षप्रचार से अर्थ कौटिल्य अर्थशास्त्र के अध्यक्षप्रचार अधिकरण से है। इस अधिकरण के अंदर कौटल्य ने भूमि-सरंक्षण, राज्य-सरंक्षण, नागरिकों के सरंक्षण के नियम और दुर्गों के निर्माण का विधान, राजकर की वसूली, आय-व्यय विभाग के नियम तथा उसकी व्यवस्था, शासन प्रबंध रत्न की पारखी, धातुओं के पारखी, सुनारों के कर्त्तव्य और नियम, कठोर तथा उसके अध्यक्ष के कार्य विक्रय विभाग के नियम, युवतियों की सुरक्षा, तोलमाप का निरूपण, शस्त्रागार की व्यवस्था, चुंगी के विभिन्न प्रकार के नियम आदि 36 विषयों के बारे में बताया गया है।
श्लोक (11)- श्रोत्रत्वक्चक्षुजिह्वाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठतानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः।।
अर्थ- आचार्य वात्स्यायन नें काम के लक्षण बताते हुए कहा है कि आंख, जीभ, कान, त्वचा और नाक पांचों की इंद्रियों की इच्छानुसार शब्द स्पर्श, रूप और सुगंध अपने इन विषयों में प्रवृत्ति ही काम है या फिर इन्द्रियों की प्रवृत्ति है।
भारतीय दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार विद्या और अविद्या यही दो प्रमुख बीज है। यह दोनों जब बराबर मात्रा में एकसाथ मिलते हैं तब तीसरा बीज भी पैदा हो जाता है। वाक, मन और प्राण तीनो अव्यव तथा जगत के साक्षी माने जाते हैं। इनमें से मन को ज्यादा मात्रा में प्राण ग्रहण करता है तब वह विद्या का रूप ले लेता है और जब वह वाक को ज्यादा मात्रा में लेता है तब अविद्या कहलाता है। यही अविद्या विद्यारूप आत्मा का ऐसा स्वाभाविक विकार है जो कि बाहर के पदार्थों को अपने में मिला लिया करता है जिसके कारण से ज्ञान निविर्षयक तथा सविषयक इन रूपों में बंट जाता है।