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चतुर्थ सर्ग : भाग-1

जब दिन पूरे भए बुद्ध भगवान् हमारे
तजि अपनो घर बार घोर बन ओर सिधारे।
जासों परयो खभार राजमंदिर में भारी,
शोकविकल अति भूप, प्रजा सब भई दु:खारी।
पै निकस्यो निस्तारपंथ प्राणिन हित नूतन,
प्रगटयो शास्त्र पुनीत कटे जासों भवबंधन।

महाभिनिष्क्रमण

निखरी रैन चैत पूनो की अति निर्मल उजियारी।
चारुहासिनी खिली चाँदनी पटपर पै अति प्यारी।
अमराइन में धाँसि अमियन को दरसावति बिलगाई,
सींकन में गुछि झूलि रहीं जो मंद झकोरन पाई।

चुवत मधूक परसि भू जौ लौं 'टप टप' शब्द सुनावैं
ताके प्रथम पलक मारत भर में निज झलक दिखावैं।
महकति कतहुँ अशोकमंजरी, कतहुँ कतहुँ पुर माहीं
रामजन्म उत्सव के अब लौं साज हटे हैं नाहीं।
 
छिटकी विमल विश्रामवन पै यामिनी मृदुताभरी
वासित सुगंधा प्रसूनपरिमल सों, नछत्रान सों जरी।
ऊँचे उठे हिमवान की हिमराशि सो मनभावनी
संचरित शैल सुवायु शीतल मंद मंद सुहावनी।
 
चमकाय शृंगन चंद्र चढ़ि अब अमल अंबरपथ गह्यो
झलकाय निद्रित भूमि, रोहिनि के हिलोरन को रह्यो।
रसधाम के बाँके मुँडेरन पै रही द्युति छाय है
जहँ हिलत डोलत नाहिं कोऊ कतहुँ परत लखाय है।

बस हाँक केवल फाटकन पै पाहरुन की सुनि परै,
जहँ एक 'मुद्रा' कहि पुकारत एक 'अंगन' धुनि करै।
बजि उठत तोरणवाद्य हैं पुनि भूमि नीरवता लहै।
है कबहुँ बोलत फेरु पुनि झनकार झींगुर की रहै।
 
भवन भीतर जाति जालिन बीच सों छनि चाँदनी
भीति पै औ भूमि पै जो सीप मर्मर की बनी।
किरनमाल मयंक की तरुनीन पै है परि रही।
स्वर्ग बिच विश्रामथल अमरीन को मानो यही।
 
कुमार के रंगनिवास की हैं अलबेली नवेली तहाँ रमनी।
लसै छवि सोवत में मुख की प्रति एक की ऐसी लुनाई सनी,
परै कहुँ जाहि पै दीठि जहाँ सोई लागति सुंदरि ऐसी धानी
यहै कहि आवत है मन में 'सब में यह रत्न अमोल धानी।'
 
पै बढ़ि सुंदरि एक सों एक लखाति अनेक हैं पास परी।
मोद में माति फिरैं ऍंखियाँ तहँ रूप के राशि के बीच भरी,
रत्न की हाट में दौरति ज्यों मणि तें मणि ऊपर दीठी छरी,
लोभि रहै प्रति एक पै जौ लगि और की ओर न जाय ढरी।
 
सोवतीं सँभार बिनु सोभा सरसाय, गात
        आधो खुले गोरे सुकुमार मृदु ओपधार।
चीकने चिकुर कहूँ बँधो हैं कुसुमदाम,
        कारे सटकारे कहूँ लहरत अंक पर।
सोवैं थकि हास औ विलास सों पसारि पाँय,
        जैसे कलकंठ रसगीत गाय दिन भर।
पंख बीच नाए सिर आपनो लखाति तौ लौं
        जौ लौं न प्रभात आय खोलन कहत स्वर।
 
कंचन की दीवट पै दीपक सुगंधाभरे
        जगमग होत भौन भीतर उजास करि।
आभा रंग रंग की दिखाय रही तासों मिलि
        किरन मयंक की झरोखन सों ढरि ढरि।
 
जामें है नवेलिन की निखरी निकाई अंग
        अंगन की वसन गए हैं कहूँ नेकु टरि।
उठत उरोज हैं उसासन सों बार बार,
        सरकि परे हैं हाथ नीचे कहूँ ढीले परि।
देखि परैं साँवरे सलोने, कहूँ गोरे मुख,
        भृकुटी विशाल बंक, बरुनी बिछी हैं श्याम।
अधाखुले अधार, दिखात दंतकोर कछु
        चुनि धारे मोती मानो रचिबे के हेतु दाम।
कोमल कलाई गोल, छोटे पाँय पैजनी हैं,
        देति झनकार जहाँ हिलै कहूँ कोऊ वाम।
स्वप्न टूटि जात वाको जामें सो रही है पाय
        कुँवर रिझाय उपहार कछु अभिराम।
 
ह्नै कै परी लाँबी कोऊ बीना लै कपोल तर,
        ऑंगरी अरुझि रहीं अब ताइँ तार पर
वाही रूप जैसे जब कढ़ति सो तान रही
        झूमि रस जाके झपे लोचन विशाल वर।
लै कै परी कोऊ मृगशावक हिए तें लाय,
        सोय गयो टुँगत कुसुम पाय तासु कर।
कुतरो कुसुम लसै कामिनी के कर बीच,
        पातीं लपटानी हरी हरिन अधार तर।
सखियाँ द्वै आपस में जोरि गर गईं सोय
        गुहत गुहत गुच्छ मोगरे को महकत,
प्रेमपाश रूप रह्यो बाँधि अंग अंगन जो
        अंतस् सो अंतस् मिलावत न सरकत।
सोयबे के प्रथम पिरोवति रही है कोऊ
        कंठहार हेतु मोती मानिक औ मरकत।
सूत में पिरोए रहे अरुझि कलाई बीच
        रंग रंग को प्रकाश तिनसों है झलकत।
 
उपवन भेंटती नदी को कल नाद सुनि
        सोईं सब विमल बिछावन पै पास पास।
मूँदि दल नलिनी अनेक रहीं जोहि मनो।
        भानु को प्रकाश जाहि पाय होत है विकास।
कोठरी कुमार की लखति जाके द्वार बीच
        दमकि सुरंगपट रहे पाय कै उजास।
ताके दोऊ ओर गंगा गौतमी सलोनी सोईं
        रसधाम बीच जो प्रधन ह्नै करैं निवास।
 
लगे द्वार पै चंदन के हैं चित्रित चौखट,
कनककलित बहु परे मनोहर अरुण नील पट।
चढ़ि कै सीढ़ी तीन परत है जिनके भीतर
अति विचित्र आवास कुँवर को परम मनोहर,

रेशम की गुलगुली सेज जहँ सजी सुनिर्मल
लगति कमलदल सरिस अंग तर जो अति कोमल।
भीतिन पै हैं मोतिन की पटरी बैठाई,
सिंहल की सीपिन सों जो हैं गई मँगाई।

सित मर्मर की छत पै सुंदर पच्चीकारी,
रंग रंग के नग जड़ि कै जो गई सँवारी।
विविध वर्ण की बनी बेलबूटी मन मोहति।
कटी झरोखन बीच चित्रमय जाली सोहति,

जिनसों खिली चमेलिन को सौरभ है आवत
चंद्रकिरण, शीतल समीर को संग पुरावत।
भीतर सुषमा लसति नवल दंपति की भारी-
शाक्य कुँवर है बसत, लसत गोपा छबिवारी।
 
यशोधरा उठि परी नींद सों कछु अकुलाई,
उरसों अंचल सरकि रह्यो कटि सो लपटाई।
रहि रहि लेति उसास, हाथ भौंहन पे फेरति,
भरे विलोचन वारि चाहि निज पिय दिशि हेरति।

तीन बार कर चूमि कुँवर को बोली सिसकति
'उठौ, नाथ! मो को बचनन सों सुखी करौ अति।'
कह्यो कुँवर 'है कहा? प्रिये! मोहिं कहौ बुझाई।'
पै सिसकति सो रही, बात मुख पै नहिं आई।
 
पुनि बोली 'हे नाथ! गर्भ में शिशु जो मेरे
सोचति ताकी बात सोच मैं गई सबेरे।
लखे भयानक स्वप्न तीन मैं अति सुखघाती,
करिकै जिनको ध्यान अजहुँ लौं धारकति छाती।

एक श्वेत वृष अति विशालवपु परयो लखाई
घूमत वीथिन बीच बिपुल निज शृंग उठाई,
उज्ज्वल निर्मल रत्न एक धारे मस्तक पर
दमकत जो ज्यों परो टूटि तारो अति द्युतिधर

अथवा जैसो नागराज को मणि द्युतिवारो
जासो होत पताल बीच दिन को उजियारो
मंद मंद पग धारत गलिन में चल्यो वृषभ बढ़ि
नगर द्वार की ओर, रोकि नहिं सक्यो कोउ कढ़ि।

भई इंद्रमंदिर सों वाणी यह विषादमय-
'जो न रोकिहौ याहि नगरश्री नसिहै निश्चय।'
जब कोऊ नहिं रोकि सक्यो तब मैं बिलखाई,
ताके गर भुजपाश डारि मैं लियो दबाई।

आज्ञा दीनी द्वार बंद करिबे की मैं पुनि,
पै सो कंधा हिलाय, गर्व सो करि भीषण धुनि
तुरत छूटि मम अंक बीच सों धायो हँकरत,
तोरण अर्गल तोरि भज्यो पहरुन को कचरत।

दूजे अद्भुत स्वप्न माहिं मैं लख्यो चारि जन,
नयनन सों कढ़ि रह्यो तेज जिनके अति छन छन
मानो लोकप चलि सुमेर तें भू पै आए,
देवन को लै संग रहे या पुर में छाए।

जहाँ द्वार के निकट इंद्र की धवजा पुरानी
गिरी टूटि अरराय, कँपी सिगरी रजधानी।
दिव्य केतु पुनि उठयो एक औरहि तहँ फहरत,
रजततार में टँके अनल सम मानिक छहरत,

जासो कढ़ि बहु किरन शब्दरूपी छितरानी,
सुनि जिनको भे मुदित जगत् के सारे प्रानी।
मृदु झकोर सो चल्यो पूर्व सो प्रात समीरन,
रत्नजटित सो केतु पसारयो, पढै सकल जन।
झरे अलौकिक कुसुम न जाने कित सो आई।
रूप रंग में वैसे ह्याँ नहिं परैं लखाई।'
 
 
कह्यो कुँवर 'हे कमलनयनि! सपनो यह सुंदर।'
बोली सो 'हे आर्य्यपुत्र! आगे है दु:खकर।
गगनगिरा सुनि परी 'समय आयो नियराई।'
याके आगे स्वप्न तीसरो परयो लखाई।

हेरयो मैं, 'हे नाथ! हाय, निज पार्श्व ओर जब
पायो सूनी सेज, तिहारे वसन परे सब।
चिह्न मात्र तव रहे, छाँड़ि तुम मोहिं सिधारे,
जो मेरे सर्वस्व, प्राणधन, जीवन, प्यारे।

देखति हौं पुनि मोतिन को कटिबंधा तिहारो
लपटयो मेरे अंग, भयो अहि दंशनवारो।
सरके कर के कंगन और केयूर गए नसि,
वेणी सो मुरझाय मल्लिकादाम परे खसि।

यह सोहाग की सेज रही भू माहिं समाई,
द्वारन के पट चीथि उठे आपहि उधिराई।
सुन्यो दूर पै फेरि श्वेत वृभभहि मैं हँकरत,
और लख्यो सोइ केतु दूर पै दमकत फहरत।

पुनि बानी सुनि परी 'समय आयो नियराई।'
उठयो करेजो काँपि, परी जगि मैं अकुलाई।
इन स्वप्नन को अर्थ याहि या तो मैं मरिहौं।
अथवा तजिहौ मोहिं, मृत्यु ते बढ़ि दु:ख भरिहौं।'