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वेदों का महत्व

वेद प्राचीन भारत के साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में सनातन धर्म के मूल और सब से प्राचीन ग्रन्थ हैं जिन्हें ईश्वर की वाणी समझा जाता है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके मन्त्र आज भी इस्तेमाल किये जाते हैं।

'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के 'विद्' धातु से बना है, इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' हैं, इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -

    ऋग्वेद - सबसे प्राचीन वेद - ज्ञान हेतु लगभग १०हज़ार मंत्र । इसमें देवताओं के गुणों का वर्णन और प्रकाश के लिए मन्त्र हैं - सभी कविता-छन्द रूप में ।
    सामवेद - उपासना में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं - १९७५ मंत्र।
    यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया), यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये गद्यात्मक मन्त्र हैं - ३७५० मंत्र।
    अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, यज्ञ के लिये कवितामयी मन्त्र हैं - ७२६० मंत्र ।

वेदों को अपौरुषेय (जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो, यानि ईश्वर कृत) माना जाता है तथा ब्रह्मा को इनका रचयिता माना जाता है। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ'। अन्य हिन्दू ग्रंथों को स्मृति कहते हैं यानि मनुष्यों की बुद्धि या स्मृति पर आधारित। वेद के सबसे प्राचीन भाग को संहिता कहते हैं। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत उपर लिखे सभी वेदों के कई आरण्यक, उपनिषद तथा उपवेद आदि भी आते जिनका विवरण नीचे दिया गया है। इनकी भाषा संस्कृत है जो वैदिक संस्कृत कहलाती है और लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है।

वेदों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक विवाद का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः उपांगों की व्यवस्था थी । प्राचीन काल के जैमिनी, व्यास, पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य इत्यादि ऋषियों को वेदों का अच्छा ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा भाष्य बहुत मान्य है। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर विद्वानों में असहमति बनी रही है।

प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। हिन्दू धर्म अनुसार आर्षयुग में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों ने शब्दप्रमाण के रूप में इन्हीं को माने हैं और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किये हैं। पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहते हैं। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परम्परा रही है । इसी के फलस्वरूप ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, इतिहास आदि महाग्रन्थ वेदों का व्याख्यान स्वरूप रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए। वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है।

कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्" और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियमविधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् मूल संहिता रूप वेद धर्मशास्त्र का आधार है।

न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एक साधन है। मानव-जाति और विशेषतः आर्यों ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है।आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है।

यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया ।