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पालखेड की जंग

पालखेड की जंग २८ फेब्रुअरी १७२८ को भारत के महाराष्ट्र राज्य के नाशिक शहर के पालखेड जिले में मराठा पेशवा बाजीराव I और हैदराबाद के निज़ाम -उल-मुल्क के बीच में हुई थी | मराठाओं ने निज़ाम को हरा दिया था |


इस जंग को  सैन्य रणनीति के शानदार निष्पादन का एक उदाहरण माना जाता है.


पृष्ठभूमि

इस जंग की बुनियाद १७१३ में रखी गयी जब मराठा राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को अपने पेशवा या प्रधानमंत्री नियुक्त किया | एक दशक के भीतर ही बालाजी ने टूटते मुग़ल साम्राज्य की काफी ज़मीन और जायदाद हथिया ली थी | अक्टूबर १७२४ में मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने निज़ाम -उल-मुल्क को डेक्कन का राज्यपा नियुक्त किया |


निज़ाम ने अपनी जागीर को मज़बूत बनाने के लिए मराठों के बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिश शुरू की | उन्होनें मराठा राज्य में शाहू और कोल्हापुर के संभाजी II में राजा की उपाधि को लेकर हो रहे झगडे का फायदा उठाया | निज़ाम ने संभाजी II के गुट का साथ देने शुरू किया जिससे शाहू जिन्हें राजा घोषित किया जाचूका था काफी नाखुश हुए | निज़ाम ने ज़मीन्धारकों द्वारा मराठों को दिए जाने वाला चौथ ( जो स्येद भाइयोंन १७१९ में फैसला किया था ) कर को भी बंद करवा दिया | 

जंग 

जंग की पृष्ठभूमि बाजी राव की सेना के मराठा राज्य के दक्षिण दिशा से मई १७२७ में वापसी से शुरू हुई | इसके बाद शाहू ने निज़ाम -उल -मुल्क से चौथ की वापसी पर हो रही बातचीत बीच में ही बंद कर दी |


निज़ाम ने करीब ६ महीनों तक बाजी राव की सेना का पुणे के आसपास के इलाकों में पीछा किया ,जहाँ बाजीराव ने ज़ोर और बचाव की चालों की श्रृंखला चली और अंत में निज़ाम को पालखेड में घेर लिया | 


अभियान


१७२८ का पालखेड अभियान २ वजहों से मशहूर है | पहला क्यूंकि फील्ड मार्शल मोंतोग्मेरी ने अपनी किताब, अ हिस्ट्री ऑफ़ वारफेयर में उसे रणनीति में प्रतिभाशाली ("सामरिक गतिशीलता का एक उत्कृष्ट कृति ...") चुना है | यह एक पूरी तरह से पूर्व नियोजित रणनीति थी या परिस्थितियों के जवाब में चतुर कामचलाऊ नीति थी ये बात, ज्ञात नहीं है| दूसरा इस अभियान की सफलता के बाद मराठों का प्रभुत्व डेक्कन में भी स्थापित हो गया - और आगे के जोखिमों के लिए भी राह बन गयी | 


इससे निज़ाम-उल-मुल्क द्वारा शाहू से हथिया गया चौथ और सरदेशमुखी का दावा भी वापस शाहू के पास आ गया |


विभिन्न कारकों ने पालखेड के अभियान में योगदान दिया |


सबसे प्रमुख कारक था निज़ाम का चौथ और सरदेशमुखी की भरपाई को ये कहकर रोक देना की इन दोनों का शाहू और संभाजी मं से असली दावेदार कौन है ये साफ़ नहीं है | इसके साथ समय भी उपयुक्त था क्यूंकि पेशवा(बाजी राव ) और मराठा सेना उस समय कर्नाटका ( महाराष्ट्र के दक्षिण में राज्य) मं स्थित थी |

सतारा (शाहू) और कोल्हापुर (शम्भाजी) के दरबार क बेच मं पनप रही दुश्मनी | इस दुश्मनी का फायदा निज़ाम -उल -मुल्क ने खूब उठाया जिसने शम्भाजी के साथ शाहू (और बाजी राव) के विरुद्ध गठजोड़ कर लिया |

पेशवा (बाजी राव) और प्रतिनिधि (श्रीपत राव) के बीच की तकरार | प्रतिनिधि निज़ाम उल मुल्क से अच्छे 

सम्बन्ध बनाये रखना चाहता था जबकि बजी राव विस्तारवादी नीति की वकालत करते थे | 


घटना 


बाजी राव और मराठा सेना को दक्षिण में कर्नाटक अभियान से वापस बुलाया गया | मई १७२७ में बाजीराव ने शाहू को निज़ाम -उल -मुल्क से बातचीत का सिलसिला बंद कर ( निज़ाम-उल-मुल्क ने चौथ और सर्द्श्मुखी के भुगतान पर मध्यस्थता बुलाई थी ) सेना को तैयार होने का आदेश देने को कहा | बारिश के ख़तम होने और ज़मीन पूरी तरह से अभियान के लिए तैयार होने से बाजी राव औरंगाबाद की और बढ़ने लगे |


जलना में इवज़ खान (निज़ाम -उल -मुल्क के सेनापति) के साथ एक छोटी सी जंग के बाद ( मराठा अपनी दुश्मन से सीधे न भिड़ने की निति के लिए अब तक काफी मशहूर हो गए थे) जैसा सोचा था बाजी राव युधक्षेत्र से बरहानपुर की तरफ बढ़ गए |


निज़ाम -उल मुल्क की सेना ने बाजी राव का पीछा किया | बाजी राव फिर उत्तर खंदेश की तरफ से पश्चिम में गुजरात की और मुड़ गए | लेकिन निज़ाम -उल -मुल्क ने पीछा करना छोड़ दक्षिण में पुणे की तरफ बढ़ना बेहतर समझा | यह दोनों सेनाओं में कार्य कैसे करते है के बीच में एक दिलचस्प वजह और तुलना है। निज़ाम ने अपने साथ काफी बड़ी सेना ली जिसमें पूरे अभियान तक चलने के लिए सामग्री थी | निज़ाम ने अपनी जनाना यानी औरतों को भी अपने अभियान में साथ ले लिया | मराठा सेना काफी कम सामान लेकर चली और रास्ते में लूट मचाते हुए अपने लिए सामग्री इकट्ठा करने लगी | 


जब निज़ाम - उल -मुल्क ने बाजी राव का पीछा छोड़ दिया और वह शाहू के राज्य के प्रधान केंद्र की और बढ़ने लगा  तो उदापुर ,अवसरी ,पबल,खेड और नारायणगढ जैसे राज्यों ने उससे हार मान ली और वह पुणे पर कब्ज़ा कर सुपा, पटस और बारामती की और बढ़ गया | 


बारामती में निज़ाम-उल-मुल्क को बाजी राव के औरंगाबाद की और बढ़ने की खबर मिली | निज़ाम-उल-मुल्क उत्तर में मराठा सेना से भिड़ने के लिए बढ़ने लगा | अब तक उसे पूरा यकीन था की वह बाजीराव और उसकी सेना को रौंद देगा | पर ऐसा नहीं होना था | कोल्हापुर के राजा शम्भाजी ( शिअवी के पुत्र शम्भाजी नहीं ) ने बाजीराव के खिलाफ अभियान में निज़ाम-उल-मुल्क  का साथ देने से मन कर दिया | निज़ाम-उल-मुल्क को पालखेड में २५ फेब्रुअरी १७२८ को एक निर्जल पथ पर घेर लिया गया | इवाज़ खान के माध्यम से निज़ाम-उल-मुल्क ने अपनी व्यथा का सन्देश भेजा और उसकी सेना को नदी के पास जाने का मौका दिया गया |


अंत


मराठों ने निज़ाम को हरा दिया और उसे ६ मार्च १७२८ को मुंगी पैठान गाँव में शांति समझौते पर हस्ताक्षर करना पढ़ा |


मुंजी शिवागांव की संधि के तहत, निजाम को कुछ रियायतें देने के लिए मजबूर किया गया|

१.छत्रपति शाहू को एक मात्र मराठा शासक की पहचान दी जाये |

२.मराठों को डेक्कन में चौथ और सरदेशमुखी की वसूली का हक मिले |

३.वापस भेजे गए उन राजस्व संग्राहकों को फिर से नियुक्त किया जाएगा|

४.बाकी राजस्व छत्रपति शाहू को दिया जाएगा |