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योगमाया समावृत

जहाँ तक गीता का ताल्लुक इस मिथ्यात्व के सिद्धांत से और तन्मूलक अद्वैतवाद से है उसे बताने के पहले यह ज्ञान लेना जरूरी है कि संसार को मिथ्या मानने के बाद अद्वैतवाद एवं अद्वैततत्व के ज्ञान का व्यवहार में कैसा रूप होता है। क्योंकि गीता तो केवल एकांत में बैठ के समाधि लगानेवालों के लिए है नहीं। वह तो व्यावहारिक संसार का पारमार्थिक दुनिया के साथ मेल स्थापित करती है। उसकी नजर में तो अद्वैतब्रह्म के ज्ञान के बाद संसार के व्यवहारों में खामख्वाह रोक होती नहीं। यह ठीक है कि कुछ लोगों की मनोवृत्ति बहुत ऊँचे चढ़ जाने से वे संसार के व्यवहार से अलग हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग होते हैं कम ही। ज्यादा तो ऐसे ही होते हैं जो लोकसंग्रह का काम करते रहते ही हैं। गीता की इसी दृष्टि का मेल अद्वैतवाद से होता है। इसीलिए पहले उस अद्वैतवाद का इस दृष्टि से जरा विचार कर लेना जरूरी है।

असल में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है और आत्मा ब्रह्मरूप ही है, उससे पृथक नहीं है, इस दृष्टि के, इस विचार के दो रूप हो सकते हैं। या यों कहिए कि इस विचार को दो प्रकार से प्रकाशित किया जा सकता है। रस्सी में साँप का भ्रम होने के बाद जब चिराग आने या नजदीक जाने पर वह दूर हो जाता तथा साँप मिथ्या मालूम पड़ता है, तो इस बात को प्रकाशित करते हुए या तो कहते हैं कि यह तो रस्सी ही है, या साँप-वाँप कुछ भी नहीं है। यदि दोनों को मिला के भी बोलें तो यही कहेंगे कि वह तो रस्सी ही है और कुछ नहीं, या रस्सी के अलावे साँप-वाँप कुछ नहीं है। इन दोनों कथनों में और कुछ बात नहीं है, सिवाय इसके कि पहले कथन में विधिपक्ष (Positive side) पर विशेष जोर है, वही मुख्य चीज है। उसमें निषेध पक्ष (Negative side) अर्थ-सिद्ध है। उस पर जोर नहीं है। यदि वह बात बोलते भी हैं तो विधिपक्ष की मजबूती के ही लिए। विपरीत इसके दूसरे कथन में निषेध पक्ष पर ही जोर है, वही प्रधान बात है। यहाँ विधिपक्ष पर जोर न दे के उसे निषेध की दृढ़ता के ही लिए कहते हैं।

ठीक इसी तरह संसार के बारे में भी अद्वैत पक्ष को ले के कह सकते हैं कि यह तो ब्रह्म ही है और कुछ नहीं, या ब्रह्म के अलावे यह जगत कुछ चीज नहीं है। यहाँ भी पहले कथन में ब्रह्म की ही प्रधानता और उसकी जगद्रूपता ही विवक्षित है - उसी पर जोर है। जगत का निषेध तो अर्थ-सिद्ध हो जाता है जो उसी ब्रह्मरूपता को दृढ़ करता है। दूसरे कथन में जगत का निषेध ही असल चीज है। विधिपक्ष उसी को पुष्ट करता है। इसी तरह आत्मा ब्रह्म रूप ही है, उससे जुदा नहीं है ऐसा कहने में भी विधि और निषेधपक्ष आ जाते हैं। ब्रह्मरूप कहना विधिपक्ष है और आत्मा से अलग ब्रह्म नहीं है यह निषेधपक्ष। बात तो वही है। मगर कहने और जोर देने में फर्क है और गीता के लिए वह बड़े ही काम की चीज है। गीता इस फर्क पर पूर्ण दृष्टि रख के चलती है। दरअसल यदि पूछा जाए तो गीता ने निषेधपक्ष को एक प्रकार से भुला दिया है। उसने उस पर जोर न दे के विधिपक्ष पर ही जोर दिया है और इसकी वजह है।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत