Get it on Google Play
Download on the App Store

असीम प्रेम का मार्ग

कर्म का मार्ग तो निषेध का रास्ता है नहीं। वह तो विधि का ही मार्ग है और गीताकर्म से ही शुरू करके अकर्म या कर्मत्याग पर - संन्यास पर - पहुँचती है। उसके संन्यास की परख, उसकी जाँच कर्म से ही होती है। गीता में कर्म शुरू करके ही संन्यास को आगे हासिल करते और उसे पक्का बनाते हैं। ऐसी हालत में निषेधपक्ष उसके किस काम का है? सो भी पहले ही? वह तो अंत में खुद-ब-खुद आ ही जाता है। यदि उसका अवसर आए। वह खामख्वाह आए ही यह हठ भी तो गीता में नहीं है। जब ब्रह्म को अपनी आत्मा का ही रूप मानते हैं तो अपना होने से कितना अलौकिक प्रेम उसमें होता है! दो रहने से तो फिर भी जुदाई रही गई यद्यपि वह उतनी दु:खद नहीं है। इसीलिए प्रेम में - उसके साक्षात प्रकट करने में, प्रकट होने में - कमी तो रही जाती है, बाधा तो रही जाती है। दो के बीच में वह बँट जाता जो है - कभी इधर तो कभी उधर। यदि एक ओर पूरा जाए तो दूसरी ओर खाली! यदि इधर आए तो वह सूना! दोनों की चिंता में कहीं जम पाता नहीं । किसी एक को छोड़ना भी असंभव है। यह बँटवारे की पहेली बड़ी बीहड़ है, पेचीदा है। मगर है जरूर।

देशकोश, गाँव, परिवार, घर, स्त्रीी, पुत्र, शरीर, इंद्रियाँ, आत्मा वगैरह को देखें तो पता चलता है कि जो चीज अपने आपसे जितनी ही दूर पड़ती है उसमें प्रेम की कमी उतनी ही होती है। दूर तक पहुँचने में समय और दिक्कत तो होती है और ताँता भी तो रहना ही चाहिए। नहीं तो स्रोत ही टूट जाए, सूख जाए और अपने आप से ही अलग हो जाएँ। इसीलिए ज्यों-ज्यों नजदीक आइए, दिक्कत कम होती जाती है और ताँता टूटने या स्रोत सूखने का डर कम होता जाता है। मगर फिर भी रहता है कुछ न कुछ जरूर। इसीलिए जब ऐसा मौका आ जाए कि देश और गाँव में एक ही को रख सकते हैं तो आमतौर से देश को छोड़ देते हैं और गाँव को ही रख लेते हैं। प्रेम की कमी-बेशी का यही सबूत है। इसी तरह हटते-हटते पुत्र, शरीर और इंद्रियों तक चले जाते हैं। मगर आत्मा की मौज या आनंद में उसके मजा में किरकिरी डालने पर, या कम से कम ऐसा मालूम होने पर कि शरीर या इंद्रियों के करते आत्मा का - अपना - मजा किरकिरा हो रहा है, आत्महत्या - शरीर का नाश - या इंद्रियों का नाश तक कर डालते हैं! क्यों? इसीलिए न, कि आत्मा तो अपने से आप ही है। अपने से अत्यंत नजदीक है? यही बात याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से बृहदारण्यक में कही है और सभी के साथ के प्रेमों को परस्पर मुकाबिला करके अंत में आत्मा में होने वाले प्रेम को सबसे बड़ा - सबसे बढ़ के - यों ठहराया है - 'नवा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' (4। 5। 6)।

गीताधर्म और मार्क्सवाद

स्वामी सहजानन्द सरस्वती
Chapters
गीताधर्म कर्म का पचड़ा श्रद्धा का स्थान धर्म व्यक्तिगत वस्तु है धर्म स्वभावसिद्ध है स्वाभाविक क्या है? मार्क्‍सवाद और धर्म द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म भौतिक द्वन्द्ववाद धर्म, सरकार और पार्टी दृष्ट और अदृष्ट अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ स्वधर्म और स्वकर्म योग और मार्क्‍सवाद गीता की शेष बातें गीता में ईश्वर ईश्वर हृदयग्राह्य हृदय की शक्ति आस्तिक-नास्तिक का भेद दैव तथा आसुर संपत्ति समाज का कल्याण कर्म और धर्म गीता का साम्यवाद नकाब और नकाबपोश रस का त्याग मस्ती और नशा ज्ञानी और पागल पुराने समाज की झाँकी तब और अब यज्ञचक्र अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ अन्य मतवाद अपना पक्ष कर्मवाद और अवतारवाद ईश्वरवाद कर्मवाद कर्मों के भेद और उनके काम अवतारवाद गुणवाद और अद्वैतवाद परमाणुवाद और आरंभवाद गुणवाद और विकासवाद गुण और प्रधान तीनों गुणों की जरूरत सृष्टि और प्रलय सृष्टि का क्रम अद्वैतवाद स्वप्न और मिथ्यात्ववाद अनिर्वचनीयतावाद प्रातिभासिक सत्ता मायावाद अनादिता का सिद्धांत निर्विकार में विकार गीता, न्याय और परमाणुवाद वेदांत, सांख्य और गीता गीता में मायावाद गीताधर्म और मार्क्सवाद असीम प्रेम का मार्ग प्रेम और अद्वैतवाद ज्ञान और अनन्य भक्ति सर्वत्र हमीं हम और लोकसंग्रह अपर्याप्तं तदस्माकम् जा य ते वर्णसंकर: ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव सर्व धर्मान्परित्यज्य शेष बातें उत्तरायण और दक्षिणायन गीता की अध्‍याय-संगति योग और योगशास्त्र सिद्धि और संसिद्धि गीता में पुनरुक्ति गीता की शैली पौराणिक गीतोपदेश ऐतिहासिक गीताधर्म का निष्कर्ष योगमाया समावृत